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प्रज्ञा पांडे की कहानी ‘सती का चौरा’

प्रज्ञा पांडे की कहानी ‘सती का चौरा’ की आज फ़ेसबुक पर चर्चा देखी तो सोचा पढ़ाया जाए। काफ़ी बहस की माँग करती कहानी है- मॉडरेटर

सती  का चौरा

               नई नई आगता के वे हाथ अपनी कुशल गति में कुछ गढ़ रहे थे.नीले आसमान पर उड़ते परिंदे की उड़ान सा कुछ, शब्दहीन, बिलकुल अनाम सा या फिर जैसे कुम्हार गढ़ता है कोई आकार नया। सुबहसुबह हथौडियों की कोमल चोट ने पूरे गाँव को पीपल के उस दरख्त के नीचे इकठ्ठा कर लिया था. थोड़ी देर के लिए तो एक बेआवाज़ सा सन्नाटा चारों  ओर पसरा था।

      आगता की माँ दामिनी ने अपनी सात वर्ष की मासूम आँखों से, दरवाजे की दरार से झाँककर अपनी जिज्जी कमलिनी को जिस दीपशिखा में बदलते देखा था वह दीपशिखा प्रलयानल बनकर उस दिन उसकी नाभि में ही समा गई थी और जाने कब वक़्त की किसी गोधूलि में, धीरे से, गर्भनाल से लिपट उसकी बेटी आगता की नाभि के भीतर पैठ गई थी। आज छेनी पर पड़ती हथौड़ी की चोट से निकलती चिंगारियों में वही आग बार-बार ज़िंदा हो रही थी. उस दिन सुबह-सुबह पीपल के उस पेड़ के नीचे पुरुषों से कहीं अधिक औरतें इकठ्ठा हो रहीं  थीं.

      उनमें कुछ बहुत उम्रदार,कमज़ोर आँखों वाली, अनुभवी स्त्रियाँ थीं जिन्हें वह छेनी हथौड़ी वाली लड़की, कमलिनी लग रही थी। कमिलिनी जिसको जलकर मरे  हुए तो चार दशक बीत चुके थे फिर भी उसकी मृत्यु का वह कालखंड उस पूरे गाँव पर हावी था.वहां एक ऊर्जा मिश्रित सा उत्तेजित भय तारी था। वहां खड़े लोगों की फुसफुसाहट बढ़ती ही जा रही थीं ।

 आगता के एक जोड़ा अनुभवहीन और अगढ़ हाथ नई कोंपलों जैसे थे, जिनमें छेनी और हथौड़ी का होना उस गांव के लिए एक अचम्भा था .वे वर्षों पुराने सती-चौरे की एक-एक ईंट पर छेनी लगाकर, बिना किसी भय के बहुत सधेपन से प्रहार कर रहे थे. तिलिस्म का कतरा-कतरा बिखर रहा था और वर्षों से पूजित सिंदूर,बुझे हुए दिया-दीप, जली हुई रुई की बत्तियों,अगरबत्तियों और धुएं के काले निशानों से धुआंई वह जगह ज़मीन पर बिखर रही थी. अँधेरे और धुएं के जाने कितने शापग्रस्त प्रारूप ध्वस्त होते जा रहे थे. वह चौरा जैसे किसी मनुष्यता से हीन बस्ती में बना, पथराया हुआ काला पहाड़ था जो पिघलकर बीत रहा था. सती चौरे का टूटना और औरतों का चुप रह जाना भी एक अचरज था। वहां खड़ी वे स्त्रियाँ भयों के चौरों में कब-कब,और कितनी-कितनी बार बंधीं थीं,कौन जानता था लेकिन  अचानक कुछ आवाजें एक साथ उठीं थीं और उठकर फिर दब गयीं थीं .

    बरसों बरस पहले वह माह फागुन ही था जब उसी जगह एक युवती रहती थी, नाम था कमलिनी थी। वह हंसती तो बसंत हँसता था.वह धान के खेतों की तरह थी, भीगी-भीगी नरम मिटटी जैसी लेकिन उसके चारों ओर परकोटे सा थाला रोप कर उसे  बड़ा किया जा रहा था ताकि वह उनकी गढ़ी प्रजाति की स्त्रियों जैसी ही खिले, फले और फूले।

      कमलिनी ने अपने चारों और बने थाले के विध्वंसक उठान को अजीब निगाहों से देखा था और विद्रोह कर ज़मीन की उमस के भीतर जा पहुंची थी. ऐसा उसने कब किया इसका अनुमान कर पाना किसी के लिए भी उतना ही कठिन था जितना हरहराते समुद्र के अथाह गर्भ में बैठे सुनामी के सुराख को जन्मता देख पाना। कोई जान भी न पाया था और कमलिनी भीतर ही भीतर,नीचे ही नीचे  फैलने लगी थी जहाँ घुटन,धुंआ और अन्धेरा था, जहाँ सपनों का सिर्फ मर जाना था, और तरह तरह की चुप्पियाँ थीं लेकिन जिसके गर्म लावे को फूटने से रोकने के लिए लोहे की चट्टान भी असमर्थ थी .

         सुमेधा ने अखबार उठाकर खबर देखी।गाँव वही था,सुरपुर। वह चौंकी। वह न्यू जागरण टाइम्स में एक कालम के लिए काम करती थी.गांवों की अंधविश्वास से भरी खबरों की पड़ताल कर स्टोरी बनाती थी और उनका सच उजागर कर उसका खंडन करती थी.आज उसी गाँव के बाहर बने सती चौरे को एक अट्ठारह-उन्नीस साल की लड़की  तोड़ रही थी ।खबर ने उसे बेचैन कर दिया था।

     आज से दो साल पहले ही तो सुमेधा उसी सती चौरे की कहानी पर काम करने गई थी लेकिन सुरपुर एकमात्र ऐसी जगह थी जहाँ जाकर वह उस पहेली में खुद ही उलझ गई थी, जो उसने अपनी आँखों से देखा सुना था, उसको अन्धविश्वास कैसे कहे. उसे तो सुमेधा पलटवार कह सकती थी लेकिन क्या दुनिया से रुखसत होने के बाद कोई स्त्री पलटवार कर सकती है ? ऐसा  पहली बार हुआ था कि वह स्टोरी पूरी नहीं कर पाई थी और उसे सम्पादक को अफ़सोस के साथ ‘न’ कहना पड़ा था.

     आज का समाचार पढ़ते हुए उसने बुदबुदाते हुए कहा-लगता है कि आज कहानी पूरी हो जायेगी.सुरपुर से लौटकर उसने उस सुरपुर की चर्चा कई लोगों से की भी थी- ‘लड़की की पहली विदाई से पहले ही उसका पति उससे मिलने चला आया था और  लड़की के भाई ने उसे देख लिया था।  भाई भानु ने बहुत अनाप शनाप कहने के साथ ही लड़की को चरित्रहीन कह दिया था, लड़की ने आग लगा ली थी और  जल कर मर गई थी.गाँव के वे परिवार जिनके घर का कोई सदस्य उस घटना में शामिल हुआ था, भानु की जिंदगी के तबाह हो जाने के अलावा, वर्षों बीत जाने के बाद भी कुछ ख़ास लोगों की तबाही और उन घरों का वीरान हो जाना, आदि कई घटनाएं थीं जो अब भी घट रहीं थीं और विज्ञान की समझ से बाहर थीं। विश्वास नहीं होता।

 लड़की का श्राप  कमोबेश पूरे गांव को लगा. ऐसा कैसे  हुआ। यह भी कोई बात  हुई ?

 यह तो आये दिन की बात है.जाने कितनी लड़कियाँ रोज़ ही तो जलती-मरती हैं. कहाँ किसी को किसी स्त्री का श्राप लगा। सीता अहिल्या द्रौपदी कुंती सभी की कहानियां उसके दिमाग में घूम गयीं, श्राप तो उन्हें लगा जिन्होंने दुःख उठायेऔर वे सब स्त्रियाँ थीं ।

       उसके चारों ओर पढ़ी लिखी स्त्रियों का मजबूत तबका है। वे स्त्रियां भी खूब हैं जिनकी बड़ी बड़ी गाड़ियों के दरवाजे खुलते ही महंगे परफ्यूम का जबरदस्त भभका आता है। उनका कहना था – उसने कायदा तोड़ा था।  यह तो गलत किया था उसने। लेकिन हाँ, तब के लोगों में एक आब होती थी .अब ये सब कहाँ .

” आप भी क्या कहतीं हैं। ये सब पुरानी बाते हैं. आजकल यह सब कहाँ होता है जलता-बुझता कौन है।

“पुरानी बातें ?”

“अरे ,यह भी कोई बात हुई। हाँ ये बात माननी पड़ेगी कि पहले वे खुद ही जलतीं थीं और अब जलाई जाती हैं”

समय किस तरह अपने भीतर के किसी अँधेरे में समा रहा है और लोग हैं कि  हर बात को जुमला बना देते हैं .स्त्रियों के मामले में कुछ बदलता क्यों नही.सुमेधा सोचती है।

     अब वह कितनी बहस करे।जितने मुंह उतनी बातें . शहर में आये दिन तो नाबालिग़ से सामूहिक बलात्कार  की घटनाओं के लिए सभाएं और जुलूस होते रहते हैं। बड़े शहरों में लोग मोमबत्तियाँ भी जलाते हैं। जुलूस निकालते हैं। अपनी जलाई मोमबत्तियों से अपने ही हाथ जला लेते हैं लेकिन बात जहाँ की तहाँ ही रह जाती है। कुछ भी तो नहीं बदलता है .उसको लगता है फर्क बस इतना ही हुआ है कि अब गावों की खबरें शहर की खबरों से मिल गयीं हैं।अब यहाँ सी खुली दुश्वारियां वहां भी हैं।

      सुमेधा ने अपने लैपटॉप में सर्च किया-सुरपुर- दो साल पहले लिखी अपनी स्टोरी निकाली-जब एक दिन वह  महानगर से एक निर्जन से गाँव की ओर चल पडी थी. उसे सब कुछ ज्यों का त्यों याद आने लगा। बस, गनेशपुर बीतते-बीतते एक किलोमीटर बाद ही उसे उतर जाना  था, पहचानस्वरूप उस पुराने पीपल के पेड़ को देखते ही वह बस रुकवाकर सड़क के बगल ही उतर पडी थी. वह पीपल का पेड़ तो उस गांव के बसने के पहले से वहां है। उसने देखा  उसकी मोटी-मोटी  सोरें जमीन में बहुत गहरे धंसी हैं। उसे देखते ही वह समझ  गई थी कि यही वह दरख़्त   है जो  कमलिनी  की मौत का आखिरी गवाह  है.लोग कहते थे कि उस पीपल को उस रात की एक-एक बात मालूम है, उसके पास आवाज़ नहीं तो क्या .

                       उसने गांव की ओर जाता रास्ता पकड़ा  और कमलिनी के उस फूल तक पहुंच गई। सबसे पहले तो वह उस सफ़ेद फूल की चर्चा सुनकर ही उस गाँव की ओर आयी थी जो हर वर्ष बसंत को मुंह चिढ़ाता, गाँव के बीचोबीच खड़े वीराने में खिलता था और जिसकी चिरायंध गाँव भर के लोगों को परेशान तो करती ही थी, बाहर निकलकर दिगंत तक जाती थी.वह फूल पूर्णिमा के पूरे चाँद सा खिलता था. फर्क बस  इतना था कि फूल का केंद्र लाल लपटों से लिपटा हुआ  था। उस फूल को लोग ‘कमलिनी का फूल’ कहते थे.

       चुभती धूप से चमकता, भरे पूरे गाँव के बीचोबीच एक विशाल कच्चे घर की गिरी हुईँ दीवारें और ढही हुई छत के बीच एक आंगन था जिसे देख पता चलता था कि वर्षों पहले यह एक अन्न-धन से संपन्न घर रहा होगा. उसे देख कर ही उसे लगा कि जाने कब से किसी ने इस जगह की खोज-खबर नहीं ली है। उसने अगल-बगल खड़े लोगों से पूछा। पकी उम्र के लोगों ने मिचमिचाती आँखों से उसे देखते हुए यही कहा -अरे उस ओर कोई नहीं जाता। वह जगह तब से वीरान है जब हम लोग जवान थे।

    पूरे गाँव में चारों ओर हरियाली की लतरें आपस में अँगुलियों सी उलझी हुईं दिखाई दे रहीं थीं। झरी हुई ईंटों के बीच से  फूटते विशाल पेड़ों के रूप थे तो कहीं चमकते  फूलों वाले मदार के रंग। कहीं झरबेरी, कहीं मेंहन्दी कहीं सदाबहार. कटी फसलों से भरे खलिहान, खाते -पीते किसान-परिवार, गोधन से भरी दुआरों और छलकती सुन्दर स्त्रियों वाला गाँव था वह. खँडहर पडा था तो बस वह एक गिरा हुआ विशाल पुराना घर .

       सती कमलिनी की कहानियां वह गाँव में घुसते ही सुनने लगी थी उसका लंबा कद, उसकी मन-मोहिनी हंसी, उसके लहराते लम्बे बाल, जिसके मुंह से उसने सुना उसी सती की चर्चा सुनाई दे रही थी. एक ही कमलिनी के कितने रूप थे .गाँव के  लोगों  ने उस सती स्त्री का अप्सरा रूप उसके जेहन में बसा दिया था .

     गाँव के लोगों ने ही बताया कि उस वीरान घर के मालिक उस घटना के वर्ष ही गांव-जवार छोड़ कर चले थे । उनलोगों ने अपने  सारे खेत खलिहान  बेच दिए थे । एक समय जिन खेत खलिहानों को वारिस की ज़रुरत पडी थी और  मंदिरों-दरगाहों,पीरों और फकीरों के दर पर माथा रगडते जिनके माथे के घाव भरे  नहीं थे, जिनके लिए मन्नतें मानते रहे थे वे, वे ही शहरों की ओर भाग गए थे . वह मन ही मन हंसी। गीदड़ की मौत आती है तब वह शहर की ओर  भागता है लेकिन वह इसे किसी लड़की का श्राप कैसे मान सकती थी .

     उसे उस वीराने से आती कमलिनी की आवाज़ सुनाई दे रही थी जैसे वह कहती जा रही हो- जब वह वंश का अर्थ भी न जानती थी तब से उसने वंश के बारे में सोचना शुरू कर दिया था. उसे लगता था कि वंश कोई बहुत बड़ी चीज होगी जो जमीन से आकाश तक जाती होगी। उसे मालूम नहीं था कि उसका भाई भानु ही वंश है. कमलिनी उससे बातें करने लगी थी। कुछ अजीब सी मिटटी थी उस गांव की। कमलिनी विदेह होकर भी रूप धरे खड़ी थी .

     अपनी  कहानी उसने  खुद ही सुना दी थी-“बालपन की जो बातें मुझे याद नहीं थीं  उन उदासियों के बारे में मैं  माँ की रोती आँखें देख जान गई थी. बाद का सब  कुछ तो  मुझे  याद है. उस बार सभी बहुत खुश थे। माँ के दिन पूरे हो रहे थे और मुझे  भी बेसब्री से भाई के आने का इंतज़ार था।मैं भी बारह-पंद्रह बरस की तो थी ही . एक अर्धरात्रि में अचानक  मैं  अचकचाकर जाग गई थी.थाली बजने की जगह सिसकियों की आवाजें थीं , पिता के गरजने की आवाज़ थी और सौर-घर के एक कोने से  लिपटकर  मां के थरथर काँपने  की आवाज़ थी .उन बहुत तरह की आवाज़ों में एक आवाज़ मेरी  भी थी ।मैं  माँ का हाल देख आर्तनाद करती थी, बिना बोले ही यातना के गीत गुनगुनाती थी -किसलिए ब्याह करू -कहीं मैने भी बेटी जनी, तब क्या होगा। कैसा घुटता हुआ संवाद था. मां ने  एक दो नहीं पांच बार आधी बनीं बेटियों का अपना गर्भ वंश के लिए वार दिया था। मैं  माँ के दुखों की चश्मदीद गवाह बनती जा रही थी. माँ रात भर सोती नहीं थी,रात के अँधेरे में पूरे घर में अर्धविक्षिप्त सी रेंगती रहती थी । छोटी बहन दामिनी की उपेक्षा मेरे  रहते कैसे हो सकती थी।  माँ को दामिनी को दूध पिलाने-जिलाने-खिलाने के लिए इतने ताने सुनने पड़ते कि माँ दामिनी को छूती नहीं थी वह  मर-मर कर जी रही थी । मैं  ही दामिनी की माँ हो गई थी। अपनी छोटी बहन  दामिनी के जन्मने के  बाद से ही शायद मैंने ज़मीन के भीतर फैलना शुरू कर दिया था. मैं कभी भी ज्वालामुखी की तरह फूट सकती थी . इस बात को घर के लोग नहीं जानते थे . अपने ही घर की  स्त्री के बारे में घर के लोग कुछ भी तो नहीं जानते.”

  उसके ताऊ के बेटे  भानु ने  सपने में भी न सोचा था- डरी-डरी, बड़ी बड़ी आँखों वाली बित्ती भर की लड़की इतनी सी बात पर सर्वनाश करेगी.दीवारों में चुनी हुई ईंटें जब एक साथ गिरतीं हैं तब अपने साथ बहुत सी गर्द और आवाज़ लेकर गिरती हैं. वे अपने आसपास ही नहीं बहुत दूर तक  बहुत कुछ ध्वस्त करतीं हैं। उस दिन  कमलिनी  ने यह साबित का दिया था । वह बात भानु को छोटी लगी थी लेकिन कमलिनी को बहुत बड़ी लगी थी.कमलिनी गौने के लिए रोकी गई थी. वह सारे नियम कायदों को सिर माथे पर उठाये थी .उसे चौखट का मान घुट्टी में पिला दिया गया था लेकिन उसका पढ़ा लिखा पति खुद को नहीं रोक पाया था और भानु की अनुमति लिए बिना ही उससे मिलने चला आया था . भानु उसी समय घर वापस आ गया था और उसने कमलिनी को पति के साथ बैठे देख लिया था . गौने के पहले पति के सामने बेशर्मी से बैठना भानु को कुल परम्परा का असह्य अपमान लगा था  . वह  कमलिनी के पति को कुछ कहने का साहस तो नहीं जुटा पाया मगर उसे कमलिनी को कुछ भी कह जाने की आदत थी तो उसी झोंके में वह कह गया था –‘तुम्हें मालूम नहीं कि हमारे घर में गौने से पहले पति से मिलना वर्जित है.तुम्हारे पास चरित्र नहीं है. तुम बेशर्म हो.” कमलिनी को काटो तो खून नहीं..पहली बार  बैठे पति के सामने हुए इस अपमान से नहा लाल हो उठी वह.जब उसकी लाज का घूंघट उसको चारों ओर उसका आवरण बना पडा था तभी जैसे किसी ने उसकी चीर खींच दी थी. उसका मान-अभिमान चोटिल हो गया.तारों की छांव की जगह घना अन्धकार छा गया .  उसकी बहुत सी बहनों के अर्ध-बने भ्रूण उसके भीतर बेआवाज़ चीख पड़े थे . उसकी पृथ्वी के भीतर इकट्ठा गर्म लावा अब भीतर रुकने को तैयार नहीं था. उसने उसी पल तय कर लिया –‘आज सर्वनाश करके ही छोडूंगी ’

दहकती आँखों से उसने भानु को देखा और अपने पति से उसी समय चले जाने के लिए कह गई .कुछ देर पहले की लजाती स्त्री असली रूप में रूपांतरित हो गई थी. उसका पति  कुछ भी समझता उसके पहले ही उसने अपनी कोठरी का दरवाज़ा भीतर से बंद कर लिया. अपमानित पतिचुपचाप चला गया. भानु गुस्से में बहुत देर तक बडबडाता रहा. उस घर पर किसी तूफ़ान के आने के पहले का सन्नाटा छा गया ..थोड़ी ही देर में कमलिनी की कोठरी से आग की लपटें उठने लगीं. सात-आठ साल की दामिनी कमलिनी की कोठरी की और भागी और दरवाजे की फांक से उसने अपनी प्यारी जिज्जी को धू धू कर जलते देखा .कमलिनी की आत्मा को जलाती वह आग उसी दिन सात साल की उस नन्हीं बच्ची के सीने में समा गई .दरवाज़ा तोड़कर कमलिनी को  निकाला गया और गांव  के बाहर बने पीपल के पेड़ के चारों ओर बने जगत पर  लिटा दिया गया.

         गाँव के बड़े बूढ़े कुछ सोच विचार कर ही रहे थे कि तभी कमलिनी के भीतर कोई शक्ति आ गई.जिस भानु के सामने उसकी घिघ्घी बंधी रहती थी उसी भानु को उस ने सबके बीच फटकारा–“मैं तुम्हारे खिलाफ पुलिस में बयान  दूँगी कि मैं  तुम्हारे कारण जली हूँ, तुमने मुझे चरित्रहीन कहा है?” भानु भौचक इधर -उधर देखने के बाद जली हुई असहाय कमलिनी को देखता रह गया. उसके बोल नहीं फूटे। उसको बचाने का जतन करने के लिए उसको चारों और से घेरे हुए गांव के वर्चस्वशाली पुरुष एक-एक कर उससे दूर होने लगे. रह गए प्रधान,सरपंच और पुजारी और गाँव के कुछ इज्जत्त के लिए मरने वाले लोग. उनलोगों ने सर्व-सम्मति से भानु को बचाने का फैसला किया और तय हुआ कि कमलिनी को इलाज सुलभ कराना उनके लिए बहुत खतनाक होगा .उसे उसकी मृत्यु आने तक वहीँ छोड़ दिया जाए. उन्होंने अनेक स्त्रियों को मरते देखा था. एक स्त्री के मर जाने से क्या बिगड़ जाता है लेकिन एक पुरुष यदि जेल चला गया तो पूर्वजों का  पुन्य-प्रताप  मान-सम्मान सब बिला जाएगा . कुल कलंकित हो जाएगा सो अलग . वे तो सर्वशक्तिमान थे.उनकी आँखों ने तो भय-भरी हिरनियों की आँखों के भय को मधुरस की तरह अनिर्वचनीय सुख में बैठकर पिया था . वे तो उसे बचा सकते थे। क्या उन्  डरी हुई  स्त्रियों की आँखों में भी उन्हें आग मिली थी?और वे क्या सचमुच उसी से डरे हुए थे .यह उस समय अनंत नींद में समाती कमलिनी समझ पाई थी । थोड़ी ही देर में कमलिनी की देह मर गई थी .दामिनी फटी-फटी आँखों से जिज्जी को देखती सहमती काँपती रही . उसका रुदन उसके सीने में जम गया और वह एक लम्बे अंतराल के लिए खामोश हो गई थी बहुत इलाज के बाद जब वह बोली थी तब जिज्जी के लिए चिघाड़ उठी थी । कमलिनी कुछ वर्ष बीतते न बीतते सती का चौरा बन गई थी ।लोग उसका  नाम भूल उसे सती कहने लगे थे.लेकिन दामिनी अपनी  जिज्जी का नाम नहीं भूली थी .

      कमलिनी के मरने के बाद उस गांव में कई मौतें हो गईं थीं।लोग कहते कि जाते-जाते वह  अपने साथ पांच और लोगों को ले गई। पुजारी, पंच,प्रधान, गोसाईं बाबू और भानु तो बच  गए लेकिन  रात-रात भर बौउआने के लिए बचे । भानु अचानक पागलों की तरह  कमलिनी- कमलिनी चिल्लाने लगता था.वह  रातों में जागता था . थोड़ी देर को सोता तो जाने सपने में क्या देख लेता कि जागने के बाद डरा सहमा बैठा रहता . उसने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया . उस घर में इतनी अप्रत्याशित घटनाएँ घटने लगीं कि खासकर पुरुषों का जीवन तबाह होने लगा . वे लोग घर द्वार,गाँव छोड़कर वहां से जाने के लिए विवश हो गए . वह घर वीरान होकर उजाड़ हो गया . वहां सिर्फ कमलिनी की यादें रह गयीं और रह गई कमलिनी की रूह . कभी कभी वहां से गुजरने वाले लोग उस उजाड़-वीराने से कमलिनी की हंसी की आवाजें सुनते थे. कुछ ही दिनों बाद गाँव की शान्ति के लिए गाँव के बाहर पीपल के उस पुराने पेड़ के नीचे एक सती का चौरा बन गया था , जहाँ गाँव की औरतें पूजा पाठ करने लगीं.वे  अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए,अपने अचल सुहाग के लिए अपनी बेटी के ब्याह के लिए पीपल के चारों ओर धागा लपेट मन्नतें मानने लगीं. सती-चौरे पर अक्षत फूल चढाने लगीं .

सात साल की दामिनी के भीतर उस दिन की समाई लपटें जलतीं थीं . उसी के कारण अब घर के किसी पुरुष की हिम्मत नहीं थी जो दामिनी को किसी भी काम को करने से रोके . दामिनी पढ़ लिख कर डॉक्टर बनी. उसने बहुत सी स्त्रियों को बेटी जनने का हौसला दिया और उनके पास खडी होकर उनका जन्म कराया. उसने भी बेटी जनी और नाम रखा आगता .दामिनी की नाभि में समाई आग आगता  की नाभि में खुद-ब-खुद जलने लगी थी ..

         आगता ने सती चौरों की सच्चाई पर काम करना शुरू किया.उसने शिव की सती से लेकरसीता तक ही नहीं जौहर व्रत करने वाली राजपूत स्त्रियों की विवशता को  भी जाना, रनिवासों की हकीकत, स्त्री का महिमा-मंडन, कन्या-भ्रूण हत्याओं के अंतहीन सिलसिले और उनके बीच बनते सती चौरे, उनपर पूजा करतीं स्त्रियाँ जो अपनी ही कब्र को पूजतीं थीं शायद और अधिक मरने के लिए. चालीस साल पहले से सती बनकर पूजी जाती उसकी मासी कमलिनी की कहानी का एक एक पल उसकी आँखों  में अंगारों सा जलता  .वह मिटा कर रहेगी  सती चौरे. .उसने तय किया . सबसे पहले वह उसी को तोड़ेगी जिसकी एक एक ईंट में कमलिनी की दाहक सिसकियाँ कैद थीं .वह जो पूजी जाती हुई भी  बेचैन है ।

   उसकी छेनी ऐसे चौरों  की ईंटे गिरा कर उन्हें ध्वस्त कर देगी. विशाल दरख़्तों के नीचे पूजित ईंटों के बीच के अंधेरों की क़ैद ख़त्म कर देगी। लेकिन यह इतना भी आसान नहीं था.

उस पीपल के पेड़ के नीचे इकट्ठा होते स्त्री पुरुषों का मौन पहले फुसफुसाहट में बदला उसके बाद तेज़ फुसफुसाहट में जैसे ढेरों मधुमक्खियाँ भिनभिना रहीं हो .उसके बाद भीड़ के  विरोध का स्वर सुनाई देने लगा ..हाँ… हाँ  ना ..ना ये क्या.. रुको रुको…लेकिन आगता को रुकना नहीं था . तभी एक बहुत कर्कश स्वर आया-“अरे सुनो , तुम हो कौन ?कहाँ से आयी हो ? आगता के हाथ रुक गए . उसने पीछे मुड़कर देखा.अस्सी साल का वृद्ध ,माथे के सारे बाल सफ़ेद  और हाथ में एक डंडा लिए .छोटी छोटी आँखों के बीच कटे का गहरा निशान लाल टीके सा. आगता उस गाँव के  पुजारी को पहचान गई .दामिनी ने भी उस काली रात में उसी को पहचाना था .आगता ने विकराल रूप धारण किया और पुजारी के सामने आ खड़ी हुई-उसकी आवाज़ असामान्य हो गई .”मैं आपको पहचानती हूँ, केशव पंडित” .

केशव पंडित उस अनजान लड़की के मुंह से अपना नाम सुन एकदम  हड़बड़ा गए-“आपने ही न, आज से चालीस साल पहले उस अंधेरी  रात में सरपंच,प्रधान,और भानु को कुएं की और ले जाकर समझाया था- कि इसको आज यहीं मर जाने दो.इसका मरना विपत्ति  का जाना है .” केशव पंडित की आवाज़ उनके गले में अटक गई उनका मुंह लाल मिर्च सा हो, सूख  गया. उनके सामने ये कौन खड़ी है?कमलिनी ?

तभी आगता ने उसी असामान्य रूप से मोटी  होती गई अपनी आवाज़ में फिर कहा- “ डरिये नहीं, मैं आगता हूँ, कमिलिनी नहीं हूँ .कमलिनी यहाँ है इस सती चौरे में .आईये मैं आपको उससे  मिलवाती हूँ . आपने उसको मारने के बाद  यहाँ कैद किया है ?सती बनाकर ?” केशव पंडित जाने कब भीड़ में छुप गए थे .आगता ने भीड़ को ललकारा था-“कमलिनी के हत्यारे हैं आपलोग . यहाँ क्या कोई और भी है जो उस रात  इस पीपल के पेड़ नीचे मौजूद था ?उस रात के कितने हत्यारे अभी और बाकी हैं ?” भीड़ में सन्नाटा पसर गया था . भीड़  अनगिनत मूर्तियों में बदल गई थी .उस रात  का दृश्य भी ऐसा ही रहा होगा .आगता ने सोचा –आज दिन का उजाला है और वह रात थी . इतना ही फर्क है .

आगता के हाथ की छेनी और हथौड़ी समय को अपने ढंग से गढ़ने में लगी थीं। उसने उस पीपल के पेड़ के नीचे निर्मित सती के चौरे को तोड़ दिया था.तब यह सच खुला था कि वह सती का चौरा नहीं कमलिनी का चौरा है जिसकी आँखों में नींदे थी जो ताउम्र  जागती रह गई थी. जगह-जगह बने सती चौरों के सच खुलने लगे थे।

            सुमेधा उस लड़की के सामने खड़ी थी जिसके हाथ में छेनी हथौड़ी थी.सुमेधा के साथ अखबार का फोटोग्राफर भी था.कुछ मीडिया वाले भी अपने अपने कैमरों के साथ वहां पहुँच गए थे .खबर आग की तरह फैल गई थी .आगता ने केशव पंडित को दुबारा आवाज़ दी .लेकिन केशव पंडित कहीं खो गए थे.सती का चौरा कैमरे की रोशनी में टूट रहा था .तस्वीरें सोशल मीडिया से लेकर टी वी चैनलों तक सुर्खियों की तरह कौंध रहीं थीं .इस हेड लाइन के साथ-उसका अगला कदम था अगला चौरा।

सुमेधा ने आगता से पूछा- क्या स्त्री में इतना क्रोध होता है? क्या उसमेंधैर्य नहीं होता है!वह तो माँ होती है न! आगता  मुस्करायी ” बर्फ क्या सिर्फ जमती है. क्या  उसे पिघलने का अधिकार  नहीं ?

     सुमेधा को लगा कि कमलिनी अब सती चौरे से निकल बाहर खड़ी हो गई है.अब वह सती नहीं है, स्त्री है . उसे जमी हुई बर्फ का पिघलना और सारी पृथ्वी का समुद्र में बदल जाना परिघटित होता हुआ लगा। आगता की छेनी पर पड़ती हथौड़ी की आवाज़ स्त्रियों की मुक्त हंसी सी सुनाई देने लगी थी .

प्रज्ञा पाण्डेय

 
      

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8 comments

  1. प्रज्ञा जी नमस्कार : सुन्दर रचना के बधाई.

  2. हार्दिक धन्यवाद

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