युवा लेखिका प्रदीपिका सारस्वत की कहानियों, कविताओं का अपना अलग ही मिज़ाज है। वह कुछ हासिल करने के लिए नहीं लिखती हैं बल्कि लिखना ही उनका हासिल है। यह उनकी नई कहानी है- मॉडरेटर
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मैं घर लौटा हूँ. एक अरसे बाद. लेकिन इस शहर की तरफ निकलने से पहले ही मैं जानता था कि मैं घर नहीं लौटूँगा. ट्रेन में चढ़ते ही मैंने खुद को कहा था कि जा रहे हो, बस चले जाओ. सवाल मत करो. मेरी बर्थ पर सीधी धूप आती रही थी. बरसाती दिनों की धूप. कोंचती हुई सी. एक पल के लिए बादलों में इस अदा से छुपती कि जैसे कभी थी ही नहीं. और दूसरे ही पल मेरे बदन में भीतर तक उतर जाती, बेशर्म. मैं भी पूरी बेशर्मी से बर्थ पर पसरा हुआ था, कि आओ जो चाहो कर लो मेरे साथ, मैं उफ़ नहीं करुँगा.
उफ़ न करने वाला मिज़ाज नहीं है मेरा. भीतर ही भीतर उबलता रहता हूँ मैं, ज़रूरी-ग़ैरज़रूरी पता नहीं क्या कुछ सीने में लिए. कुछ देर पहले बेमतलब फ़ोन सर्फ़ करते हुए किसी फ़ोटोग्राफ़र की तस्वीर देखी. सिलवेट. कैमरा लिए एक छाया है, पीछे सूरज डूब चुका है. लगा कि बस भीतर का सब उबलकर बह ही जाएगा. पेट के भीतर बेचैनी सी महसूस हुई. मैं रोना चाहता हूँ पर आँखें हमेशा की तरह सूखी रह जाती हैं. मुझे बिलकुल नहीं पता कि उस तस्वीर में ऐसा क्या है जो मुझे इसतरह बेचैन कर रहा है. कुछ भी जाना पहचाना नहीं है जिसे में अपनी भाषा में पढ़ सकूँ. ऐसी कोई अलामत नहीं है तस्वीर में जिसे मैं अपनी बीती ज़िंदगी के किसी लमहे या फिर किसी बासी पड़ चुकी ख़्वाहिश से जोड़ कर देख सकूँ. शायद हमारे भीतर कुछ तस्वीरें होती हैं जिन्हें हम नहीं देख पाते. ये तस्वीरें अपनी ही ज़ुबान में बाहर की तस्वीरों से बात करती हैं. वैसे ही जैसे अनजान भाषाओं का संगीत हमारे भीतर के संगीत से बात करता है. और इस बातचीत का असर हमें झेलना पड़ जाता है.
घर में सब लोग मौजूद हैं. मेरे पिता, जिनका रिटायरमेंट नज़दीक है. छोटा भाई, उसकी पत्नी. दादी माँ. सब बातें कर रहे हैं. पिता नया मकान ख़रीदना चाहते हैं. शहर से बाहर मकान लेना ठीक रहेगा. कम से कम किचेन गार्डन की तो जगह होनी ही चाहिए. सड़क किनारे ज़मीन देख लेते हैं. सबके पास उन्हें देने के लिए कोई न कोई सलाह है. मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं है. मुझे लग रहा है कि मैं हवा का बना हूँ. लोगों की आवाज़ें, उनकी नज़रें जैसे मेरे पार निकल जा रही हैं. मेरा यहाँ होना मायने नहीं रखता. न होना भी. बहुत वक्त हुआ मुझे ये जानने की कोशश करते हुए कि मैं कहीं भी अगर हूँ तो क्यों हूँ. इस सवाल को पूछने की ज़रूरत नहीं है, शैली के पिता ने कहा था. मैंने उस दिन उनकी बात को ज़हन के किसी खाँचे में बाहिफाज़त रख दिया था. मैं समझ तो नहीं पाया था कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा था. पर मुझे लगा था कि इस बात को कह सकने तक पहुँचने में उनकी ज़िंदगी की पाँच दिहाइयाँ लगी हैं. मुझे इस जवाब तक एक बार फिर वापस जाने की ज़रूरत पड़ेगी.
इस घर में घुटन है. सब कुछ बहुत सिमटा हुआ है. यहाँ की दीवारें, छतें, परदे, क़िस्से, बातें, प्यार, नफ़रत, ग़ुस्सा, अरमान सबकुछ बहुत सँकरा, दम घोंटने की हद तक क़ैद कर देने वाला है. यहाँ आकर मुझे लगता है कि इस पूरे शहर में बस यही एक मकान है. इस मकान की दीवारों के बाहर जैसे कुछ है ही नहीं. छुटपन में जितने दिन मैं इस घर में रहा, बाहर जाने की मनाही रही. बच्चों के लिए बस एक ही काम मुक़र्रर था, पढ़ना. दोस्ती-यारी, दुनिया देखना-समझना, ये सब बड़ों के काम थे. उन्होंने मुझे घर के भीतर रहने के लिए कहा; मैंने खुद को सिर्फ एक कमरे के भीतर क़ैद कर दिया. अब जब यहाँ लौटता हूँ तो लगता है मैं फिर उसी क़ैद में लौट आया हूँ, जिसके मायने तो अब पहले जैसे नहीं हैं पर तासीर अब भी वही है.
बेहद बेज़ारी में दूसरे तल्ले की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए में एक-एक सीढ़ी गिनता हूँ. हर बार की तरह. गिनी हुई सीढ़ियों को बार-बार गिनना बहुत थका देने वाला काम है. अचानक महसूस होता है कि कितना बेज़ार रहा हूँ मैं इस घर से, इस घर मैं रहने वाली हर चीज़ से. यहाँ आते ही मैं एक मशीन की तरह चलने लगता हूँ. बिना किसी इच्छा, बिना कारण, बिना उम्मीद. सीढ़ियों के ऊपर बरामदे की सीली हुई दीवार पर एक आईना है. यहाँ से गुज़रते हुए मैंने इस आईने में हज़ार बार खुद को देखा है. पर मुझे कभी याद नहीं रहा कि मैं पहले कैसा दीखता था. आज मैं शीशे के सामने रुकता हूँ तो देखता हूँ कि मेरी दाढ़ी बढ़ी हुई है. पिता को बढ़ी हुई दाढ़ी सख़्त नापसंद है. मैं अपनी शेविंग किट साथ नहीं लाया. चंद पलों के लिए मैं उन दिनों में लौट जाता हूँ जब मैंने पिता की शेविंग किट इस्तेमाल करनी शुरू की थी. एक ब्लेड से चार शेव बनाने वाले पिता मुझे अपने जैसा नहीं बना सके.
बाहर बारिश होने लगी है. मुझे शैली के घर में बिताए पिछले मानसून के दिन बेतरह याद आ रहे हैं. सफ़ेद फूलों और केले के पत्तों के ऊपर तेज़ पड़ती हुई बारिश के पार दूर समंदर को देखते रहना. मैं मानता रहा हूँ कि मुझे पहाड़ अपनी तरफ खींचते हैं. पर इन दिनों लगता है जैसे उफनते समुद्र से कोई ऐफ्रोडाइट उठकर मुझे बुला रही हो. और मैं, कोई एडोनिस, उर्वरता और वंध्यत्व दोनों को सीने में संभाले बिना पानी के डूबता जा रहा हूँ. शैली के साथ बिताया वक्त मैं अक्सर याद करता हूँ, पर वो मुझे याद नहीं आती है. मैं उन शहरों की सड़कें, दुकानें, चौराहे, धूप और छाँव याद करता हूँ जहाँ हम दोनों साथ-साथ गए थे. उन घरों और होटलों की खाने की मेज़ों को भी जहाँ हमने साथ बैठ कर हरी चाय या फिर मछली या सूअर का गोश्त खाया. उन गुसलखानों को भी जहाँ हमने गलती से कमरे में छूट गए तौलिए एक दूसरे को बढ़ाए. मैं अधबनी सीमांत सड़कों पर चलता जाता हूँ जहाँ उसका साथ वैसा ही होता है जैसा आस-पास की हवा का, मौजूदगी में भी ग़ैर-मौजूद. पता नहीं क्यों.
हम दोनों अब बात नहीं करते. शैली आस-पास की हवा नहीं है. यह बात हम दोनों ने मान ली है. अब मैं शून्य में जीता हूँ. हवा के घेरे में और शून्य के बीच जीने में दृश्य से ज़्यादा भाव का अंतर है. वायुमंडल खत्म हो जाने से मेरी सतह पर अब जीवन के निशान नहीं दिखते. जीवन बाकी है लेकिन बहुत भीतर. कहीं जमा हुआ तो कहीं उबलता हुआ. पिता इन दिनों हर बातचीत में सिर्फ मेरी शादी का ज़िक्र करते हैं. रिटायर हो रहे पिता चाहते हैं कि वे ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो जाएं. छोटे भाई के शादी कर लेने के बाद भी मेरा अकेले रह जाना उन्हें अपने कंधों पर बोझ की तरह महसूस होता है. वे मुझसे ज़्यादा बात नहीं करते. बस पूछते हैं कि अब मैं साल भर में कितना कमा लेता हूँ. या फिर मैं अपने मकान में किराएदारों क्यों नहीं रख लेता, कम से कम लोन की किश्त ही निकल आएगी.
मैं पिता के कमरे में उनकी किताबें देख रहा हूँ. बड़े ध्यान से रखी जाने के बावजूद सब किताबें मैली चादरों सी दिखती हैं. इस्तेमाल किए जाने के निशान हैं उन पर. किताबें उनकी हैं, लेकिन कमरा उनका नहीं है. वे कहते हैं कि इस घर में कोई कमरा उनका नहीं. उन्होंने ये घर खुद बनाया है. दूसरे तल्ले के इस सबसे बड़े कमरे में एख शेल्फ में पड़ी फ़ाइलों और किताबों के अलावा पिता का कोई सामान नहीं है. उनका सामान थोड़ा-थोड़ा सब जगह है. या उनका सामान ही बहुत थोड़ा है. काग़ज़ों, किताबों के अलावा, कुछ कपड़े, एक-दो बैग और एक अदद शेविंग किट. पिछले साठ सालों में उन्होंने तमाम मेहनत कर बस इतना ही सामान जुटाया है अपने लिए. एक बार फिर रोने को जी हो आता है. मुझे कोई अंदाज़ा नहीं कि पिता मुझे देखकर कैसा महसूस करते होंगे या फिर छोटा भाई और उसका परिवार उन्हें कितनी तसल्ली दे पाता होगा. वे छोटे के साथ नहीं रहना चाहते. वे अकेले रहना चाहते हैं, सुकून से. परिवार की खींचतान में उनको सुकून नहीं.
मैं पिता की शेविंग किट तलाश रहा हूँ. पहले तल्ले के पिछले कमरे में सिलाई मशीन के ऊपर की अलमारी में हुआ करती थी. अब भी वहीं है. पिता को चीज़ों का नियत जगह रखना पसंद है. उन्हें पता है किसके लिए क्या सही है, किसकी क्या जगह है. मुझे लगता है वो हम बच्चों को भी वैसे ही देखते हैं जैसे अपनी शेविंग किट को. उन्हें ग़ुस्सा आता है जब उनकी शेविंग किट उन्हें उसकी तय जगह पर नहीं मिलती. हमारे फ़ैसलों पर भी उन्हें बहुत ग़ुस्सा आता है. उन्होंने अब मुझसे ज़्यादा सवाल करना बंद कर दिया है. मेरी जगह तय करने की उनकी कोशिश कामयाब नहीं हो सकी है. मैं घुटन नहीं चाहता. उनके लिए भी नहीं. पर घुटन से आज़ादी अपने लिए वो खुद ही चुन सकते हैं. मैं बस खुद को आज़ाद कर इस तरफ उनका ध्यान खींचने की कोशिश कर सकता हूँ.
तो मुझे अब चलना चाहिए. गिन कर मिले हुए दिनों में से अगर चंद दिन और मैंने यहाँ खपा भी दिए तो मेरी इस क़ुर्बानी से किसी को कुछ हासिल न होगा. पिता के लिए शायद मुझे देख भर लेना मेरे साथ वक्त बिता लेने के बराबर है. फिर में चार घंटे रहूँ या फिर चार दिन, कोई फ़र्क़ नहीं. फ़र्क़ होगा शायद. वो मुझे एक बुत की तरह सर झुकाए यहाँ से वहाँ भटकते देख चिढ़ने लगेंगे. पूरे घर में एक कोना ऐसा नहीं मिलता जहाँ किसी किताब के पीछे छुपकर मैं कुछ घंटों के लिए भी आस-पास की दीवारों को भूल जाऊँ. जहाँ जाकर बैठता हूँ, हवा विरल होती सी लगती है. इतने लोगों में होकर भी अकेले होना सज़ा की तरह है. क़ैद को सज़ा क़रार देने का ख़याल किसी ऐसे ही अकेले आदमी को आया होगा.
शाम को सात बजे एक ट्रेन है. अभी छह बजने में कुछ देर बाकी है. अगर मैं अभी निकल पड़ूँ तो मुझे यह ट्रेन मिल जानी चाहिए. भाई की पत्नी सबको चाय के लिए आवाज़ दे रही है. मैं चाय नहीं पीता. पिता भी अब चाय नहीं पीते. वे बाहर बरामदे में बैठे हैं. मुझे बैग थामे बरामदे की तरफ आते देख वे कुछ परेशान हो जाते हैं. पूछते हैं कि मैं कौन सी ट्रेन से जा रहा हूँ. कहते हैं कि वो मुझे स्टेशन छोड़ देंगे. वो गाड़ी की चाभी लाने के लिए खड़े होते हैं. मैं बैग छोड़ कर उन्हें गले लगा लेता हूँ. वो सबकुछ अपनी किताबों से पूछ कर करते रहे हैं. गले लगाना उनकी किसी किताब में कहीं नहीं लिखा. मैं अब अकेले बाहर जा रहा हूँ. पिता दरवाज़े पर खड़े हैं. पहली बार वो मुझे माँ जैसे लग रहे हैं. मैं आख़िरकार रो रहा हूँ. रोता जा रहा हूँ. पिता का घर पीछे छूट रहा है. भीतर की घुटन भी शायद पीछे छूटती जा रही है.
बिल्कुल सही तस्वीर!
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