Home / Featured / ईशान त्रिवेदी के उपन्यास ‘पीपलटोले के लौंडे’ का एक अंश

ईशान त्रिवेदी के उपन्यास ‘पीपलटोले के लौंडे’ का एक अंश

ईशान त्रिवेदी फ़िल्मी दुनिया के चंद इल्मी लोगों में हैं जो बहुत अच्छा लिखते हैं और जिनका लेखन अपने साथ बहा ले जाता है। जानकी पुल पर उनकी कई कहानियाँ हम पढ़ चुके हैं। अभी उनका उपन्यास राजकमल प्रकाशन समूह से आया है ‘पीपलटोले के लौंडे’। प्रेम और अपराध कथा की इस रोमांचक कथा का फ़िलहाल एक अंश पढ़िए। उपन्यास पर विस्तार से आगे लिखूँगा- मॉडरेटर

============

कल चार बँगले से सब्ज़ियाँ खरीदते समय एक चूड़ी वाले की दुकान पे टंगे छुन्नन उस्ताद के मांजे वाली चरखियाँ देख कर मज़ा आ गया।  मुंबई में मेरे कसबे का ये पहला असर देखा मैंने।  बसंत पंचमी के आस पास जब हम पतंगों के जुनूनी हो जाते थे तो छुन्नन उस्ताद का मांजा उँगलियों पे थमी सद्दी को भी हथियार बना देता था।  पिसे हुए कांच के किरचों से सना ये मांजा अनाड़ियों को भी खिलाड़ी बना देता था।  दो आने का सिर्फ १० बालिश्त – हर कोई इसे खरीद भी नहीं सकता था।  पर इसकी मार इतनी सटीक थी कि जब महीप चौबे ने अपनी वासना-चिट्ठी को अन्नो की छत पे उतारने का प्लान बनाया तो छुन्नन उस्ताद के मांजे का ही इस्तेमाल किया गया।  ये किस्सा उस समय बहुत मशहूर था कि कैसे महीप ने सांप भी मारा और लाठी भी नहीं टूटने दी। हिन्दी के छमासी में जब ‘सांप भी मरा और लाठी भी नहीं टूटी’ वाली कहावत पे निबंध लिखने के लिए मिला तो मैंने इसी किस्से को लिख मारा था। ये अलग बात है कि हमारे हिन्दी के ‘चिंकोंटी’ मास्साब को सिर्फ मर चुके या कब्र में पैर लटकाये लेखकों से ही मतलब था।  सातवीं में पढ़ने वाला एक बच्चा अगर कल्पनाशील हो रहा है तो ये उन्हें बर्दाश्त नहीं था। भरी क्लास में मुझे खड़ा कर के उन्होंने मुझे धमकी दी – “आपने जो लिखा है क्या मैं वो सब को पढ़ के सुनाऊँ?” मुझे अपने लिखे पे कोई शर्म नहीं थी लेकिन महीप का छोटा भाई मेरी ही क्लास  में था और बाम्मनों के उस मोहल्ले में चौबे-पुत्तर बेवजह की मार पीट के लिए जाने जाते थे।  साइकिल की चेन से मेरी खाल लहूलुहान हो रही है – भविष्य में छिपी इस सम्भावना ने मेरी आँखों को सर्द कर दिया जिसे मेरी आँखों की शर्म जानकार मास्साब ने मुझे माफ़ कर दिया।  फिर मुझे अपने पास बुलाकर पेट में चिंकोंटी काटी।  सातवीं के बच्चे दबी ज़ुबान में खिल-खिल किये और इस तरह से मामला रफा दफा हो गया।  महीप चौबे ने उस चिट्ठी में क्या लिखा था इसके बारे में बस कयास ही लगाये जाते रहे।  किसी ने कहा कि उस चिठ्ठी में महीप ने माधुरी में छपी लक्स का विज्ञापन करने वाली हीरोइनों के फोटो काट कर लेई से चिपकाए थे और लाल पेन से उनके चुनिंदा अंगों को लाल घेरों से उकार दिया था।  किसी ने कहा था कि महीप ने चिठी की शुरुआत करते हुए लिखा था – “सीसी भरी गुलाब की पथ्थर से तोड़ दूँ/तेरी गली न छोड़ूँ दुनिया को छोड़ दूँ”। लेकिन सबसे सनसनीखेज दावा था गिरधर पांडे का जो महीप चौबे का चेला था और जिसने अभी अभी रमपुरिया चाकू खरीदा था। उसका कहना था की चौबे दद्दा ने ये चिठ्ठी अपने वीर्य और खून से लिखी थी। मुझे आज तक ये कॉम्बिनेशन समझ नहीं आया लेकिन कड़कड़ाती ठण्ड के उस मौसम में पूरा क़स्बा इस दावे की आंच में हाथ सेंक रहा था।

बाम्मनों के मोहल्ले  में एक दूसरे को काटती ५ गलियाँ थीं और हर गली एक बड़े अहाते वाले घर तक पहुँचती थी। अहाता इतना बड़ा था कि मोहल्ले के लोग शादी-ब्याह जैसे बड़े कामों के लिए कनातें वहीं बंधवाते। कुछ साल पहले तक उस अहाते में दो हाथी भी रहते थे। अहाते से जुड़ा हुआ एक मंदिर था जो डेढ़ सौ साल पुराना था। कहते हैं की कोई ४० साल पहले एक अंग्रेजन इस मंदिर के फोटो खींच के ले गयी थी और किसी ‘टैम’ नाम की किताब में वो फोटो छपे भी थे।  मंदिर की छोटी ईंटों पे काई जमी रहती और दीवारों से पीपल के पेड़ उगा करते जिनके बड़े होने से पहले ही असीदुल्ला खां की बकरियाँ चट कर जातीं। मजहबी दोस्ताने का इस से बड़ा उदाहरण ढूंढें नहीं मिलेगा। ये अहाता, ये मंदिर और उसके पीछे ध्वस्त होता एक विशाल घर बैंगन महाराज का था। ये वो ज़माना था जब लोगों को बड़ी आसानी से चिढ़ा लिया जाता था। आजकल तो किसी को चिढ़ाना भी शतरंज खेलने जैसा हो गया है। बैंगन महाराज को ऐसा इसलिए कहा जाता था क्योंकि वो बैंगन से चिढ़ते थे। ऐसे ही पूरब वाली गली में सूखे कुँए से सटे घर में रहने वाले चंचींड़ा चौबे चंचीड़े से चिढ़ते थे लेकिन वो इतना चिढ़ते थे कि इसी चक्कर में अपनी जान दे बैठे।  ये किस्सा फिर कभी। अन्नो बैंगन महाराज की अकेली बेटी थी। लेकिन महीप को उसके बाप की इस ध्वस्त हो रही जायदाद में नहीं बल्कि उसकी तेज़ी से आबाद हो रही जवानी में दिलचस्पी थी। महीप ने होश सँभालने के बाद मोहल्ले में बहुत सी लड़कियों को जवान होते देखा था लेकिन अन्नो का जवान होना उसे एक क्रांतिकारी घटना लगता था।  अब उसके मन की बात वोई जाने लेकिन वो अन्नो पे ऐसा फ़िदा हो गया कि उसे कुछ और सूझता ही नहीं था। बैंगन महाराज को भी पता था कि मोहल्ले के छिछोरों की निगाहें अन्नो पे हैं।  महीप को पता था कि बैंगन महाराज के पास उनके पुरखों वाली दुनाली है ज्सिके बचे हुए कारतूस वो गाहे बगाहे गिनते रहते हैं। और दिक्कत इस बात की नहीं थी कि किसको क्या पता था।  सबसे बड़ी दिक्कत तो ये थी कि महीप को नहीं पता था कि अन्नो का ऊँट किस करवट बैठेगा। अन्नो और महीप का जब भी कसबे की गलियों में या हाट-बाजार में सामना होता तो वो महीप को देख कर मुस्कुराती।  सुमन चाची की लड़की के ब्याह में तो कमाल ही हो गया जब परम्परा अनुसार महीप संतरे का अद्धा उड़ेल कर मंदिर के पिछवाड़े वाली कनात में सिगरेट के छल्ले बगेल रहा था। मोहल्ले के बच्चे (मैं भी) उसके इस हुनर को ऐसे ताक रहे थे जैसे दो सूंड वाला हाथी देख लिया हो। झमाझम गहने पहनी अन्नो आयी और महीप से बोली – ‘आद लद दाएगी… आद!’  महीप को कुछ समझ ना आया – ‘क्या?’ ‘आद! आद!! थूथी पुआल बिथि ए… तिगरेट गिल गयी तो आद लद दाएगी।’ महीप को उस समय ये तो समझ नहीं आया की उसकी चाहत तुतलाती है लेकिन जब उसने दो कदम भर के अन्नो के सुर्ख लिपिस्टकी चेहरे पे छल्ले उड़ाए तो अन्नो आँखें तरेर के ऐसे मुस्कुराई जैसे कह रही हो – कतम ते मदीप दल्दी तरो  … तिति और ते ना हो दायें अम। और फिर डेढ़ महीने भी नहीं बीते थे कि ऊँट ने करवट बदल ली। चैती के मेले में अन्नो जसपुर के गुड्डू बाजपेई के साथ आलू के परांठे उड़ाती पकड़ी गयी थी। खैर गुड्डू को तो मार पीट के समझा दिया गया कि बेटा जिस खेत के आलू हों परांठे भी उसी को खाने दो लेकिन अन्नो ने फिर छै महीने तक महीप की तरफ देखा भी नहीं। और एक दिन आया जब अन्नो की उदासीनता महीप के बर्दाश्त से बाहर हो गयी।

उधर छुन्नन सिद्दीक़ी पतंगबाज़ी के उस्ताद का दर्ज़ा हासिल करने लगे थे। उनकी हिम्मत इतनी कि कायस्थों, सुनारों और भड़भूजियों का मोहल्ला पार कर के वो धतूरे वाले मैदान में आ जमते और बाम्मनों के लौंडों से पेंच लड़ाते। पिछली बसंत पंचमी का रिकॉर्ड तो ऐसा कि पूरा महीना सबकी काटी और उनकी वो हरे चाँद वाली काली पतंग आसमान छोड़कर तभी उतरी जब छोटे भाई ने आके बताया कि अब्बा का इंतकाल हो गया। बाप का धंधा था चूड़ियों का।  फैज़ाबाद से चूड़ियों का छक्का लाते और घूम घूम के औरतों को चूड़ियाँ पहनाते। छुन्नन की उस्तादी पे लगाम लग गयी। फेरियां लगाती आवाज़ में सिर्फ चिल्लाहट होती। औरतें कहतीं – मियाँ, थोड़ी मिसरी घोलो गले में … चूड़ियाँ बेच रहे हो कोई बम का गोला नहीं। छुन्नन का हाथ भी ऐसा सख्त कि औरतों की कलाइयां सुर्ख हो जातीं। ज़मीन पे बैठ के चूड़ियाँ पहनाते और आँखें ऊपर आसमान में टंगी रहती। ये वोई आसमान था जहाँ कभी उनका हरा चाँद राज किया करता था। जिनके मर्द पेंच का ‘पें’ भी नहीं जानते थे आज वो ‘तू-तड़ाक’ के बगैर बात भी नहीं करती थीं। बिना बाप के घर में अब उसकी पीठ पे दो छोटे भाई और एक बहन थे और जोड़ जोड़ से थकी एक माँ। तो मन मसोस के रह जाता। एक दिन अल्ल सुबह नींद खुल गयी। लगा जैसे सीने पे कोई चढ़ा बैठा है। टिन के संदूक पे रखी बुझती हुई ढिबरी की रौशनी में हिलती हुई अपनी ही परछाई दिखी। फिर परछाई से हाथ बाहर आये जैसे कोई परिंदा उड़ने से पहले अपने पंख हिलकोरता है। वो डोर ही थी ना जो उँगलियों से फिसल रही थी। कई सालों तक लोग कहते रहे कि ये सपना नहीं था। कमरे की छत पे छुन्नन की परछाई वाकई में पतंग उड़ा रही थी। अगर महज सपना होता तो क्यों उसी दिन रामपुर के नवाब मिक्की मियाँ के लोग उसे ढूंढते हुए आते। इधर छुन्नन की परछाई पतंग उड़ा रही थी उधर लिहाफ में पड़े महीप चौबे का धारीदार कच्छा गीला हो रहा था।

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

पुतिन की नफ़रत, एलेना का देशप्रेम

इस साल डाक्यूमेंट्री ‘20 डेज़ इन मारियुपोल’ को ऑस्कर दिया गया है। इसी बहाने रूसी …

11 comments

  1. Hi to every one, as I am genuinely keen of reading this website’s post to be updated daily.

    It contains nice material.

  2. Hi there, after reading this remarkable post i am
    as well glad to share my knowledge here with friends.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *