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निकोलाय गोगोल की कहानी ‘नाक’

19 वीं शताब्दी के प्रसिद्ध लेखक निकोलाय गोगोल की कहानी ‘नाक’ पढ़िए। मूल रूसी भाषा से अनुवाद किया है आ. चारुमति रामदास जी ने- मॉडरेटर

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25 मार्च को पीटर्सबुर्ग मे एक बड़ी अद्भुत घटना घटी. नाई इवान याकव्लेविच, जो वज़्नेसेन्स्की मोहल्ले में रहता था, उस दिन बड़ी सुबह जाग गया और ताज़ी डबलरोटी की ख़ुशबू उसे गुदगुदा गई. पलंग पर कुछ उठकर उसने देखा कि कॉफ़ी पीने की शौकीन उसकी धर्मपत्नी भट्टी से गरम-गरम डबल रोटियाँ निकाल रही है.

“प्रास्कोव्या ओसिपव्ना,” इवान याकव्लेविच ने कहा, “ मैं आज कॉफी नहीं पिऊँगा, उसके बदले प्याज़ के साथ गरम-गरम डबल रोटी खाने को दिल चाह रहा है.”

(मतलब यह, कि इवान याकव्लेविच को दोनों ही चीज़ें चाहिए थीं, मगर दोनों की एकदम माँग करना संभव नहीं था, क्योंकि प्रास्कोव्या ओसिपव्ना को ऐसे नख़रों से नफ़रत थी).

‘खाए बेवकूफ़, डबल रोटी ही खाए, मेरे लिए अच्छा ही है,’ बीबी ने सोचा, ‘उसके हिस्से की कॉफ़ी मुझे मिल जाएगी.’ उसने दन् से डबल रोटी मेज़ पर पटक दी.

इवान याकव्लेविच ने शराफ़त के तकाज़े से कमीज़ के ऊपर गाऊन पहना, खाने की मेज़ पर बैठकर डबल रोटी पर नमक छिड़का, प्याज़ के छिलके निकाले, हाथ में चाकू लिया और बड़ी अदा से डबल रोटी काटने लगा डबल रोटी को बीचों बीच दो टुकड़ों में काटकर उसने उसे ध्यान से देखा और हैरान रह गया – डबल रोटी के बीच में कोई सफ़ेद चीज़ चमक रही थी. इवान याकव्लेविच ने उँगली से छूकर देखा : “ठोस है,” वह बुदबुदाया, “ये कौन-सी चीज़ हो सकती है?”

उसने उँगलियों के चिमटे से उसे खींचकर बाहर निकाला – नाक!…इवान याकव्लेविच के हाथ ढीले पड़ गए, वह आँखें फाड़-फाड़कर टटोलता रहा : नाक, बिल्कुल नाक! और तो और, जानी-पहचानी है. इवान याकव्लेविच के चेहरे पर भय की लहर दौड़ गई. मगर यह भय उस हिकारत के मुकाबले में कुछ भी नहीं था जिससे उसकी बीबी उसे देख रही थी.

“अरे जानवर! किसकी नाक काट लाए?” वह गुस्से से चीख़ी, “…गुण्डे! शराबी! मैं ख़ुद पुलिस में तुम्हारी रिपोर्ट करूँगी, डाकू कहीं के! मैं तीन आदमियों से सुन चुकी हूँ कि तुम दाढ़ी बनाते समय इतनी लापरवाही से नाक के पास चाकू घुमाते हो कि उसे बचाना मुश्किल हो जाता है.”

मगर इवान याकव्लेविच तो जैसे पथरा गया था. वह समझ गया था कि यह नाक सुपरिंटेंडेंट कवाल्योव की है जिसकी वह हर बुधवार और इतवार को दाढ़ी बनाया करता था.

“रुको, प्रास्कोव्या ओसिपव्ना! मैं इसे रूमाल में बाँधकर कोने में रख देता हूँ, थोड़ी देर बाद ले जाऊँगा.”

“मुझे कुछ नहीं सुनना है. क्या मैं कटी हुई नाक अपने कमरे में रहने दूँगी?…जले हुए टोस्ट! पुलिस को मैं क्या जवाब दूँगी?…ओह, छिछोरे, बेवकूफ़ ठूँठ! ले जाओ इसे! फ़ौरन! जहाँ जी चाहे ले जाओ. मुझे दुबारा नज़र न आए!”

इवान याकव्लेविच को काटो तो खून नहीं. वह सोचता रहा, सोचता रहा, – समझ नहीं पाया कि क्या सोचे.

“शैतान जाने यह कैसे हो गया,” उसने आख़िरकार कान खुजाते हुए कहा, “क्या मुझे कल चढ़ गई थी या नहीं, कह नहीं सकता. मगर यह बात है बड़ी अजीब, क्योंकि डबलरोटी – भट्टी में पकने वाली चीज़ है, और नाक – बिल्कुल नहीं. कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है….”

इवान याकव्लेविच चुप हो गया. इस ख़याल से कि पुलिस वाले उसके पास निकली नाक को ढूँढ़कर उस पर इलज़ाम लगाएँगे, वह पगला गया. उसके सामने चाँदी के तारों से जड़ी लाल कॉलर और तलवार घूम गई…और वह थर-थर काँपने लगा, आख़िरकार उसने अपनी बाहर जाने वाली पोषाक और जूते पहन लिए और प्रास्कोव्या ओसिपव्ना की गालियों के बीच नाक को एक गंदे कपड़े में लपेट लिया और बाहर निकल आया.

वह उसे कहीं घुसेड़ देना चाहता था : या तो पास ही पड़े कूड़ेदान में, या फिर अनजाने में रास्ते पर गिराकर गली में मुड़ जाना चाहता था. मगर दुर्भाग्य से हर बार वह किसी परिचित से टकरा जाता, जो उससे पूछ बैठता : “कहाँ जा रहे हो?” या “इतनी सुबह किसकी हजामत बना रहे हो?”- मतलब यह, कि इवान याकव्लेविच को मौका ही नहीं मिला. एक बार तो उसने उसे गिरा ही दिया, मगर दूर से चौकीदार छड़ी से इशारा करते हुए चिल्लाया “ उठाओ! तुमने कुछ गिरा दिया है.” और इवान याकव्लेविच को नाक उठाकर जेब में छिपानी पड़ी. उसकी परेशानी इसलिए भी बढ़ती जा रही थी, क्योंकि सड़क पर लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी. दुकानें भी खुलने लगी थीं.

उसने इसाकियेव्स्की पुल पर जाकर नाक को नेवा नदी में फेंक देने की सोची…क्या ऐसा हो पाएगा?…मगर माफ़ कीजिए, मैंने आपको इवान याकव्लेविच के बारे में कुछ भी नहीं बताया, जो एक सम्मानित नागरिक था.

इवान याकव्लेविच अन्य रूसी कारीगरों की ही भाँति पियक्कड़ था. और, हालाँकि वह रोज़ दूसरों की दाढ़ियाँ बनाया करता, उसकी अपनी दाढ़ी बढ़ी हुई ही थी. इवान याकव्लेविच का कोट चितकबरा था; मतलब वह काले रंग का था और उस पर कत्थई-पीले सेब बने हुए थे, कॉलर उधड़ गई थी, तीन बटनों के स्थान पर सिर्फ धागे लटक रहे थे. इवान याकव्लेविच बड़ा सनकी था, जब कभी सुपरिंटेंडेंट कवाल्योव दाढ़ी बनवाते समय उससे कहता : इवान याकव्लेविच, तुम्हारे हाथ हमेशा गंधाते रहते हैं,” तो इवान याकव्लेविच उल्टे पूछ बैठता : “गंधाने क्यों लगे?” – “मालूम नहीं, मगर गंधाते ज़रूर हैं,” सुपरिंटेंडेंट जवाब देता और इवान याकव्लेविच नसवार सूंघकर, इस अपमान के लिए उसके गाल तक, नाक के नीचे, कान के पीछे, दाढ़ी के नीचे – याने जहाँ जी चाहता, वहीं साबुन पोत देता.

तो, यह सम्मानित नागरिक अब इसाकियेव्स्की पुल पर पहुँच गया था. पहले उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई, फिर मुँडेर पर झुका, मानो पुल के नीचे देख रहा हो, मछलियाँ काफ़ी हैं या नहीं, और उसने चुपके से नाक वाला चीथड़ा नीचे छोड़ दिया. उसे लगा मानो उसके सिर से दस मन का बोझ उतर गया हो, इवान याकव्लेविच के मुख पर मुस्कुराहट भी तैर गई. वह क्लर्कों की हजामत बनाने के लिए जाने के बदले उस इमारत की ओर बढ़ गया, जिस पर लिखा था – “स्वल्पाहार और चाय”, जिससे वह बियर का एक गिलास पी सके, मगर तभी उसने पुल के दूसरे छोर पर खड़े एक सुदर्शन, चौड़े कल्लों वाले, तिकोनी टोपी पहने, तलवार टाँगे पुलिस अफ़सर को देखा. वह मानो जम गया, तब तक पुलिस वाला उसके पास पहुँच गया और उसके बदन में उँगली चुभोते हुए बोला :

“यहाँ आओ, प्यारे!”

इवान याकव्लेविच उसके ओहदे को पहचानकर, दूर से ही टोपी उतार कर, निकट जाते हुए अदब से बोला, “ख़ुदा आपको सलामत रखे!”

“नहीं, नहीं, भाई, मुझे नहीं, बोलो, तुम वहाँ क्या कर रहे थे, पुल पर खड़े-खड़े?”

“ऐ ख़ुदा, मालिक, दाढ़ी बनाने जा रहा था, बस यह देखने के लिए रुक गया, कि मछलियाँ कितनी हैं.”

“झूठ, सफ़ेद झूठ. ऐसे नहीं चलेगा, सीधे-सीधे जवाब दो.”

“मैं आपकी हजामत हफ़्ते में दो बार, या तीन भी बार मुफ़्त में बना दूँगा,” इवान याकव्लेविच बोला.

“नहीं, प्यारे, यह बकवास है! मेरी हजामत तीन-तीन नाई बनाते हैं, और इससे उन्हें बड़ा फ़ख्र होता है. तुम तो मुझे यह बताओ, कि तुम वहाँ क्या कर रहे थे?”

इवान याकव्लेविच का मुख पीला पड़ गया…मगर इसके बाद की घटना घने कोहरे में छिप गई थी, और आगे क्या हुआ हमें बिल्कुल पता नहीं.

….

सुपरिंटेडेंट कवाल्योव उस दिन कुछ जल्दी ही उठ गया,  उठते ही उसने होठों से आवाज़ निकाली : “बर्र..” जो वह हमेशा ही नींद खुलने पर करता था, हालाँकि उसे इसका कारण ज्ञात नहीं था. कवाल्योव ने एक अँगडाई ली और उसने मेज़ पर रखा हुआ छोटा आईना उसके हाथों में देने का हुक्म दिया, वह उस मस्से को देखना चाहता था जो कल शाम को अचानक उसकी नाक पर उग आया था. मगर उसके होश फ़ाख़्ता हो गए, यह देखते ही कि नाक के स्थान पर एक चिकनी सफ़ाचट जगह है. घबरा कर उसने फ़ौरन तौलिया और गरम पानी लाने की आज्ञा दी, तौलिये से आँखें भली-भाँति पोंछकर दुबारा देखा : बिल्कुल ठीक, नाक थी ही नहीं. उसने हाथ से ख़ुद को चिकोटी काट कर देखा, कहीं नींद में तो नहीं है? पता चला कि पूरी तरह जागा हुआ ही है. सुपरिंटेंडेंट कवाल्योव उछल कर पलंग से नीचे आ गया, उसने भली प्रकार अपने आप को झटका, नाक ग़ायब… उसने तत्काल कपड़े पहने और पुलिस के बड़े अफ़सर के पास लपका.

मगर कवाल्योव के बारे में कुछ कहना आवश्यक है, जिससे पाठकों को कुछ अंदाज़ हो जाए कि यह सुपरिंटेंडेंट था किस किस्म का. जिन सुपरिंटेंडेंटों को अपनी शैक्षणिक योग्यता के बलबूते पर यह पदवी मिलती है, उनका उन सुपरिंटेंडेंटों से कोई मुकाबला नहीं किया जा सकता जो कॉकेशस में बनाए जाते हैं. यह दोनों किस्में एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं. विद्वान सुपरिंटेंडेंट…मगर रूस इतना अद्भुत देश है कि यदि किसी एक सुपरिंटेंडेंट के बारे में कुछ कहा जाए, तो सभी सुपरिंटेंडेंट, रीगा से लेकर कमचात्का तक, उसे अपने ही बारे में समझेंगे. यही हाल अन्य पदवियों और उपाधियों का भी है. कवाल्योव कॉकेशस वाला सुपरिंटेंडेंट था. वह दो साल पहले इस उपाधि से विभूषित हुआ था और इसीलिए एक मिनट भी उसके बारे में भूलता नहीं था, और तो और, स्वयम् को सम्मान एवम् वज़न देने के उद्देश्य से वह अपने आपको कभी भी सुपरिंटेंडेंट नहीं कहता, बल्कि मेजर कहता है. “सुनो, प्यारी,” वह अक्सर कमीज़ का अग्रभाग बेचने वाली बुढ़िया से सड़क पर टकराने पर कहता, “तुम मेरे घर आ जाना, मेरा फ्लैट सादोवाया रास्ते पर है, किसी से भी पूछ लेना कि मेजर कवाल्योव कहाँ रहता है? कोई भी बता देगा” ; किसी चिकनी परी से टकराने पर फुसफुसाता, “मेरी जान, मेजर कवाल्योव का फ्लैट पूछ लेना!”, इसीलिए अब हम भी इस सुपरिंटेंडेंट को मेजर ही कहेंगे.

मेजर कवाल्योव को हर रोज़ नेव्स्की एवेन्यू पर टहलने की आदत थी. उसकी कमीज़ की कॉलर हमेशा साफ़ और इस्त्री की हुई होती थी. उसके गलमुच्छे ऐसे थे जैसे पुराने ज़मींदारों के, वास्तुशिल्पियों के, सेना के डॉक्टरों के, कई पुलिस अफ़सरों के, और आमतौर से उन सभी आदमियों के होते हैं जिनके गाल भरे-भरे, गुलाबी-गुलाबी होते हैं, और जो ताश के खेल में माहिर होते हैं. ये गलमुच्छे गालों के बीचों-बीच से होकर सीधे नाक तक पहुँचते हैं. मेजर कवाल्योव कई तमग़े लटकाए रहता था, राजचिह्न वाले और ऐसे भी जिन पर खुदा रहता था बुधवार, बृहस्पतिवार, सोमवार आदि. मेजर कवाल्योव अपनी गरज़ से पीटर्सबुर्ग आया था, मौका लगे तो वह अपने पद के अनुरूप स्थान लपकना चाहता है – उपराज्यपाल का, या किसी महत्वपूर्ण विभाग में कमिश्नर का. मेजर कवाल्योव शादी के ख़िलाफ़ तो नहीं था, मगर वह शादी तभी करना चाहता था, जब दुल्हन दो हज़ार का दहेज लाए. तो अब पाठक समझ गए होंगे कि इस मेजर की क्या हालत हुई होगी जब उसने देखा कि उसकी सुंदर और पतली नाक के स्थान पर है एक फूहड़, सफ़ाचट, समतल मैदान.

दुर्भाग्य देखिए कि सड़क पर एक भी गाड़ीवान नज़र नहीं आया और उसे रूमाल में अपना चेहरा छिपाकर पैदल ही चलना पड़ा, यह दिखाते हुए कि जैसे उसकी नाक से खून बह रहा हो. ‘शायद यह मेरा भ्रम हो, वर्ना ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि नाक ही गायब हो जाए’, ऐसा सोचते हुए वह चॉकलेट, गोलियों की दुकान में इस इरादे से घुसा कि आईने में अपना चेहरा देख सके. सौभाग्य से दुकान में कोई नहीं था, नौकर छोकरे कमरे धोकर कुर्सियाँ सजा रहे थे; कुछ नौकर उनींदी आँखों से ट्रे में केक-पेस्ट्रियाँ सजाकर ला रहे थे, मेज़ों और कुर्सियों पर कॉफ़ी के धब्बे पड़े पुराने अख़बार पड़े थे. “शुक्र है ख़ुदा का, कि यहाँ कोई नहीं है”, वह बुदबुदाया, “अब आराम से देख सकूँगा.” वह दबे पैर आईने के पास पहुँचा और अपना चेहरा देखने लगा. “शैतान जाने क्या मुसीबत है,” वह थूकते हुए बड़बड़ाया – नाक की जगह पर कुछ और ही होता, यहाँ तो एकदम सफ़ाचट है…”

निराशा से होंठ काटते हुए वह दुकान से बाहर निकला और अपनी आदत के विपरीत उसने निश्चय किया कि वह न तो किसी की ओर देखेगा और न ही मुस्कुराएगा. अचानक एक घर के दरवाज़े पर वह मानो बुत बन गया, उसकी आँखों के सामने एक ऐसी घटना घटी जो समझाई नहीं जा सकती : दरवाज़े के सामने एक बन्द गाड़ी रुकी, गाड़ी के दरवाज़े खुले, चेहरा नीचा किए, वर्दी पहने एक भद्र पुरुष बाहर की ओर उछला और सीढ़ियों पर लपक लिया. कवाल्योव के भय और आश्चर्य का पारावार न रहा जब उसने देखा कि यह तो उसकी अपनी नाक थी. इस अभूतपूर्व दृश्य से उसके सामने सब कुछ घूमने लगा, अपनी काँपती हुई टाँगों पर काबू पाते हुए उसने निश्चय किया चाहे जो भी हो, वह उसके गाड़ी में वापस आने का इंतज़ार करेगा. वह यूँ थरथरा रहा था मानो तेज़ बुखार में हो. दो मिनट बाद सचमुच ही नाक वापस आई. वह सुनहरे धागों से सुशोभित विशाल, सीधी कॉलर वाली वर्दी में थी, उसने पतलून पहन रखी थी, कमर में थी तलवार. टोपी पर जड़े फुन्दे से प्रतीत होता था कि वह उच्च श्रेणी का अफ़सर है. ऐसा जान पड़ता था कि वह किसी से मिलने आया है. उसने दोनों ओर देखा और गाड़ीवान से कहा : “चलो!” और बैठकर चला गया.

बेचारा कवाल्योव पगला गया. वह नहीं जानता था कि इस विचित्र घटना के बारे में सोचे तो क्या सोचे. ऐसा कैसे हो सकता है, कि वह नाक जो कल तक उसके चेहरे पर बैठी थी, हिल-डुल नहीं सकती थी, अचानक वर्दी पहन ले! वह गाड़ी के पीछे भागा, जो सौभाग्यवश कुछ ही दूर जाकर कज़ान्स्की चर्च के सामने रुक गई थी.

वह चर्च की ओर लपका, उन निर्धन बूढ़ियों की कतार के बीच से होकर जिनके चेहरों पर पट्टियाँ बँधी थीं और आँखों के लिए सिर्फ दो झिरियाँ थीं और जिन पर वह पहले हँसा करता था. वह चर्च में घुसा. भक्तजनों की संख्या काफ़ी कम थी, वे सब प्रवेशद्वार के निकट ही खड़े थे. कवाल्योव इतना परेशान था कि उसमें प्रार्थना करने की शक्ति ही नहीं रह गई थी. वह सभी कोनों में आँखों से इस भद्रपुरुष को तलाशता रहा. आख़िरकार उसने उसे एक ओर खड़े हुए देख ही लिया. नाक ने लम्बी, ऊँची कॉलर में अपना चेहरा छुपा लिया था और बड़े श्रद्धा भाव से प्रार्थना में लीन था.

‘उसके पास कैसे जाऊँ?’ कवाल्योव सोचने लगा, ‘सभी लक्षणों से, वर्दी से, टोपी से दिखाई दे रहा है, कि वह उच्च श्रेणी का अफ़सर है. शैतान जाने, पहुँचू कैसे वहाँ!’

उसने उसके निकट जाकर खाँसना शुरू कर दिया, मगर नाक ने एक मिनट के लिए भी अपनी श्रद्धालु मुद्रा छोड़कर उसके अभिवादन पर ध्यान नहीं दिया.

“आदरणीय महोदय,” कवाल्योव ने भीतर ही भीतर साहस बटोरते हुए कहा, “आदरणीय महोदय…”

“क्या चाहिए?” नाक ने मुड़कर पूछा.

“मुझे ताज्जुब है, आदरणीय महोदय…मेरा ख़याल है, आपको अपनी जगह मालूम होनी चाहिए. अचानक मैं आपको पाता हूँ – कहाँ? – चर्च में. आप भी मानेंगे…”

“माफ़ कीजिए, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ, कि आप आख़िर कहना क्या चाहते हैं…ठीक से समझाइए.”

‘कैसे समझाऊँ?’ कवाल्योव ने सोचा और साहस बटोरकर बोला :

“बेशक, मैं…ख़ैर, मैं मेजर हूँ. मुझे नाक के बगैर चलना, आप भी मानेंगे, यह अशिष्टता है. किसी दुकानदारिन के लिए, जो वस्क्रेसेन्स्की पुल पर बैठकर संतरे बेचती है, बगैर नाक के बैठना संभव है, मगर, ग़ौर कीजिए – मेरी तरक्की…कई महिलाओं से मेरे घनिष्ठ संबंध हैं : चेख़्तारेवा उच्च अधिकारी की पत्नी और – और भी कई. आप ही इन्साफ़ कीजिए…मैं तो कुछ समझ ही नहीं पा रहा हूँ, आदरणीय महोदय. [ऐसा कहते हुए कवाल्योव ने अपने कंधे उचका दिए.] माफ़ कीजिए…अगर इस बात पर कर्तव्य और सम्मान के नियमों की तहत गौर किया जाए…तो आप ख़ुद ही समझ सकते हैं.”

“कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूँ,” नाक ने जवाब दिया, “ठीक से समझाइए. आदरणीय महोदय, मेरा स्वतंत्र अस्तित्व है. और फिर हमारे बीच कोई निकट संबंध हो भी नहीं सकता. आपके कोट की बटनों को देखने पर ही पता चलता है, कि आपका ओहदा मुझसे अलग है.”

इतना कहकर श्रीमान नाक ने मुँह फेर लिया और प्रार्थना में लीन हो गया .

कवाल्योव उलझन में पड़ गया, वह समझ नहीं पाया कि क्या करे और क्या सोचे. इसी समय किसी महिला के वस्त्रों की मीठी-सी सरसराहट सुनाई दी : एक अधेड़ उम्र की महिला निकट आई, झालर वाली पोशाक पहने और उसके साथ थी कमर पर तंग होती पोशाक और ढीली-ढाली टोपी पहने एक कमसिन सुन्दरी. उनके पीछे-पीछे आया बड़े-बड़े कल्लों वाला और दस बारह कॉलर चिपकाए एक सेवक.

कवाल्योव उनके निकट खिसका, उसने अपनी कमीज़ की कॉलर बाहर निकाली, अपने कोट पर सुनहरी जंज़ीर में लटक रहे तमगों को ठीक किया और मुस्कुराते हुए नवयुवती पर नज़र डाली जो बसन्ती फूल की तरह हौले से झुककर सफ़ेद दस्ताने वाला अपना हाथ माथे तक ला रही थी. कवाल्योव के मुख पर मुस्कुराहट और भी गहरी हो गई जब उसने टोपी के नीचे से उसकी गोरी हड्डी और बसन्त के पहले गुलाबों की छटा वाले उसके गाल का एक भाग देखा, मगर तभी वह उछल पड़ा, मानो जल गया हो. उसे याद आ गया कि उसके चेहरे पर नाक के स्थान पर कुछ भी नहीं है, और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे. उसने मुड़कर वर्दी वाले महानुभाव से साफ़-साफ़ कहना चाहा कि वह सिर्फ उच्च अफ़सर होने का ढोंग कर रहा है, मगर है वह झूठा और धोखेबाज़ और वह सिवाय उसकी नाक के कुछ भी नहीं है…मगर नाक वहाँ थी ही नहीं, शायद वह किसी और से मिलने चली गई थी.

अब तो कवाल्योव बुरी तरह तैश में आ गया. वह पीछे सरका और एक मिनट के लिए स्तम्भों के पास रुककर उसने ध्यान से देखा कि कहीं नाक तो दिखाई नहीं दे रही. उसे अच्छी तरह याद था कि उसके सिर पर फुँदने वाली टोपी थी और उसके कोट पर सुनहरी कढ़ाई थी, मगर उसके ओवरकोट को देख नहीं पाया था और न ही देख पाया था उसकी गाड़ी का रंग, न घोड़ों का रंग. यह भी नहीं देखा था उसने कि गाड़ी के पीछे कोई सेवक था या नहीं, फिर रास्ते पर इधर-उधर इतनी सारी गाड़ियाँ इतनी तेज़ी से जा रही थीं कि उन्हें पहचानना मुश्किल था, मगर यदि पहचान भी जाता उन्हें रोकना असंभव था. दिन बड़ा ख़ुशगवार था. धूप खिली हुई थी. नेव्स्की एवेन्यू पर लोगों की भीड़ थी, महिलाओं का रंगबिरंगा झरना-सा पूरे फुटपाथ पर बिखरा था, पलित्सेइस्की से लेकर अनीच्किन पुल तक. यह आ रहा है उसका परिचित अफ़सर, जिसे वह डिप्टी जनरल कहकर पुकारता था, ख़ासकर भीड़ में. यह है यारीगिन, बड़ा बाबू सिनेट का, गहरा दोस्त है, ताश बड़ी ख़ूबसूरती से खेलता है. यह है एक और मेजर, कॉकेशस से बनकर आया है, वह हाथ के इशारे से उसे अपने निकट बुलाता है.

“ओह, शैतान ले जाए,” कवाल्योव ने कहा और वह एक गाड़ी में बैठ गया.

“ऐ, गाड़ीवान, सीधे डिप्टी पुलिस कमिश्नर के पास ले चलो. पूरी रफ़्तार से चलो!”

…..

“क्या डिप्टी साहब हैं?” वह आँगन में प्रवेश करते हुए चीखा.

“नहीं,” संतरी ने जवाब दिया, “अभी-अभी गए हैं,”

“शाबास!”

“हाँ,” संतरी आगे बोला, “ज़्यादा देर नहीं हुई, अभी-अभी गए हैं. एक मिनट पहले आते तो आप उन्हें घर में पाते.”

चेहरे से रूमाल हटाए बिना कवाल्योव गाड़ी में बैठ गया और उड़ी-उड़ी आवाज़ में बोला, “चलो!”

“कहाँ,” गाड़ीवान ने पूछ लिया.

“सीधे चलो.”

“सीधे कैसे? यहाँ मोड़ है, दाँए या बाँए?”

इस प्रश्न ने कवाल्योव को सोचने पर मजबूर कर दिता. उसकी स्थिति को देखते हुए तो यही उचित था कि सबसे पहले पुलिस मुख्यालय में जाया जाए, इसलिए नहीं कि उसका पुलिस से संबंध था, बल्कि इसलिए कि अन्य विभागों की अपेक्षा उनकी कार्र्वाई शीघ्रता से होती थी, उस मुहल्ले के अफ़सर की सहायता से नाक के सेवास्थल की जाँच करना बेवकूफ़ी होती, क्योंकि नाक द्वारा दिए गए जवाबों से यह तो पता चल ही चुका था कि इस व्यक्ति के लिए निष्ठा, पवित्रता नामक चीज़ों का कोई अस्तित्व ही नहीं था, वह इस बारे में झूठ भी बोल सकता था, जैसे कि उसने यह झूठ बोला था कि वह उससे कभी मिला ही नहीं है. इसीलिए कवाल्योव पुलिस मुख्यालय चलने की आज्ञा देने ही वाला था कि उसके दिमाग में यह ख़याल आया कि यह धोखेबाज़, डाकू, जो पहली ही मुलाकात में इतनी बेशर्मी से पेश आया था, समय का फ़ायदा उठाकर शहर से खिसक भी सकता था, और तब उसकी तलाश जारी रहती – ख़ुदा न करे – महीनों तक. अंत में, शायद भगवान ने ही उसे प्रेरणा दी. उसने निश्चय किया कि वह अख़बार के दफ़्तर में जाएगा और सभी विशेषताओं सहित उसके बारे में इश्तेहार देगा, जिससे कि देखते ही उसे कोई भी पकड़र कवाल्योव के पास ले आए या फिर उसका ठौर-ठिकाना बता सके. तो, उसने गाड़ीवान को अख़बार के दफ़्तर में चलने की आज्ञा दी और पूरे रास्ते उसे यह कहते हुए धमकाता रहा, “जल्दी, कमीने! जल्दी, बदमाश!” – “ओह, मालिक!” गाड़ीवान अपने सिर को झटका देते-देते घोड़े की लगाम खींचते हुए जवाब देता. आख़िरकार गाड़ी रुक गई और कवाल्योव गहरी-गहरी साँस लेते हुए नन्हे-से स्वागत-कक्ष में घुसा, जहाँ सफ़ेद बालों वाला एक कर्मचारी, पुराना कोट और चश्मा पहने मेज़ के पीछे बैठा था और दाँतों में कलम दबाए हाथों से ताँबे के सिक्के गिन रहा था.

“इश्तेहार कौन लेता है?” कवाल्योव चीखा. “आह, नमस्ते!”

“मेरा नमस्कार,” बूढ़े क्लर्क ने कहा, और एक मिनट के लिए आँखें उठाकर दुबारा सामने पड़े पैसों के ढेर पर टिका दीं.

“मैं छपवाना चाहता हूँ,”

“कृपया थोड़ा ठहरिए,” क्लर्क बोला, “एक हाथ से कागज़ पर एक अंक लिखकर दूसरे हाथ की उँगलियों से उसने सामने पड़े गणक के दो दाने खिसका दिए.

झालरदार कमीज़ वाला चपरासी, जो अपने अंदाज़ से यह दिखा रहा था कि वह किसी सामन्त के घर में काम करता है, मेज़ के पास एक चिट हाथों में लिए खड़ा था. उसने अपनी मिलनसारिता दिखाना उचित समझा :

“यकीन कीजिए, साहब, कुत्ता आठ कोपेक का भी नहीं है, याने मैं उसके लिए आठ कोपेक भी नहीं देता, मगर सरदारिन साहेबा उसे बहुत चाहती हैं, प्यार करती हैं – और उसे ढूँढ़ने वाले को सौ रूबल. शिष्टाचारवश कहूँ तो, जैसे कि हम हैं और आप हैं, सब की पसन्द एक-सी तो नहीं होती, मगर इतना ही शौक है, तो अच्छी किस्म के कुत्तों के लिए पाँच सौ, हज़ार भी दे दो…मगर, अच्छा ही था कुत्ता…

क्लर्क बड़े ध्यान से इस बात को सुनते हुए अपना हिसाब भी करता जा रहा था, देखता जा रहा था कि चिट में कितने अक्षर हैं. अगल-बगल कई बूढ़ियाँ खड़ी थीं, सामन्तों और व्यापारियों के सेवक भी थे पुर्जों के साथ. एक में लिखा था, कि एक बहादुर गाड़ीवान नौकरी चाहता है, दूसरे में कम इस्तेमाल की गई, 1814 में पैरिस में खरीदी गई गाड़ी बेचना है, कोई उन्नीस साल की छोकरी नौकरी चाहती है, जो धोबन के अलावा अन्य काम भी कर सकती है, मज़बूत गाड़ी बिना किसी मरम्मत के, जवान फुर्तीला घोड़ा – भूरे धब्बों वाला, सत्रह साल का, लंदन से मँगवाया गया; गाजर और चुकन्दर के बीज, समर-कॉटेज सभी सुविधाओं सहित, घोड़ों के लिए दो अस्तबल और एक खुले मैदान सहित जिसमें बर्च के वृक्षों का वन लगाया जा सकता है, जूतों के पुराने सोल बेचने की बात थी, जिसके लिए खरीदारों को सुबह आठ बजे से तीन बजे तक आने के लिए कहा गया था. वह कमरा, जहाँ यह पूरा हुजूम था, छोटा-सा था और उसमें दम घुट रहा था, मगर मेजर कवाल्योव को कोई दुर्गन्ध महसूस नहीं हो रही थी, क्योंकि उसने रूमाल से चेहरा ढाँक रखा था, और इसलिए भी कि उसकी ‘नाक’ न जाने कहाँ घूम रही थी.

“आदरणीय महोदय, क्या मैं प्रार्थना कर सकता हूँ…यह बहुत ज़रूरी है…” आख़िर उसने बेचैनी से कह ही डाला.

 “रुको, रुको! दो रूबल तैंतालीस कोपेक. एक मिनट में. एक रूबल चौंसठ कोपेक.” सफ़ेद बालों वाला बूढ़ियों और चपरासियों की ओर पुर्जे फेंकता हुआ बोला.

“आप को क्या चाहिए?” आख़िरकार उसने कवाल्योव से पूछा.

“मैं निवेदन करता हूँ…” कवाल्योव बोला, “डाका पड़ा है या बदमाशी हुई है, मैं अभी तक समझ नहीं पाया. मैं सिर्फ इतनी विनती करता हूँ, कि यह छापिए कि उस कमीने को मेरे पास लाने वाले को भरपूर इनाम दिया जाएगा.”

“माफ़ कीजिए, आपका नाम?”

“नहीं, नाम की क्या ज़रूरत है? मैं बता नहीं सकता. मेरे कई जान-पहचान वाले हैं : चेख्तारेवा, बड़े अफ़सर की पत्नी, पेलागेया ग्रिगोरेव्ना पदतोचिना, कर्नल की पत्नी…अचानक सब को पता चल जाएगा, ख़ुदा बचाए! इतना लिखिए : सुपरिंटेंडेंट …मेजर.”

“भागने वाला आपका सेवक था?”

“कैसा सेवक? यह तो कोई बात नहीं है! गुंडागर्दीवाली बात है. भागी है…नाक…!”

“हूँ, कैसा अजीब नाम है! क्या महाशय नाक बड़ी रकम लेकर भागे हैं?”

“नाक…मतलब…आप गलत समझ रहे हैं. नाक…मेरी अपनी नाक न जाने कहाँ खो गई है. शैतान को मेरा मज़ाक करने की ख़ूब सूझी!”

“ऐसे कैसे गुम हो गई? मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा.”

“मैं बता नहीं सकता कि कैसे : मगर ख़ास बात यह है कि इस समय वह पूरे शहर का चक्कर लगा रही है और स्वयम् को उच्च श्रेणी का अफ़सर कहती है. इसीलिए मैं आपसे ऐसा इश्तेहार छापने की दरख़्वास्त करता हूँ, कि उसे पकड़ने वाला उसे फ़ौरन मेरे पास ले आए. आप ख़ुद ही फ़ैसला कीजिए कि शरीर के इतने महत्वपूर्ण अंग के बिना मैं कैसे रह सकता हूँ? यह कोई पैर की छोटी उँगली तो नहीं है जिसे मैं जूते में छिपा लेता, और कोई जान भी न पाता कि वह नहीं है. मैं हर गुरूवार को उच्च श्रेणी के अफ़सर की पत्नी चेख्तारेवा के यहाँ जाता हूँ, पोद्तोचिना पेलागेया ग्रिगोरेव्ना, कर्नल की पत्नी भी, जिसकी बेटी बड़ी सुन्दर है, मेरी अच्छी परिचित है और अब आप ही बताइए मैं कैसे…अब तो मैं उनके पास जा ही नहीं सकता.”

क्लर्क गहरी सोच में डूब गया, उसके होंठ भिंच गए.

“नहीं, मैं अख़बारों में ऐसा इश्तेहार नहीं दे सकता,” बड़ी देर की ख़ामोशी के बाद उसने कहा.

“क्या? क्यों?”

“हाँ, हमारे अख़बार की प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी. अगर हर कोई यह लिखने लगे कि उसकी नाक भाग गई है, तो…वैसे भी लोग कहते हैं कि कई अनाप-शनाप बातें और झूठी अफ़वाहें छपती हैं.”

“यह बात अनाप-शनाप कैसे हुई? यहाँ तो ऐसी कोई बात ही नहीं है.”

“ऐसा आप सोचते हैं, कि कोई बात नहीं है. मगर पिछले ही हफ़्ते ऐसा किस्सा हुआ था. ऐसे ही एक कर्मचारी आया, जैसे अभी आप आए हैं, और एक कागज़ का पुर्जा लाया, मेरे हिसाब से दो रूबल तिहत्तर कोपेक बनते हैं, और इश्तेहार यह था कि काले रंग का कुत्ता भाग गया है…आप पूछेंगे कि इसमें क्या बात थी? तो, सम्मन आ गया : कुत्ता तो सरकारी था, याद नहीं किस विभाग का था.”

“पर मैं तो कुत्ते के बारे में इश्तेहार नहीं दे रहा हूँ, बल्कि अपनी…मेरी अपनी नाक के बारे में, याने कि अपने ही बारे में कह रहा हूँ.”

“नहीं, इस तरह का इश्तेहार मैं अख़बार में नहीं डाल सकता…”

“मेरी नाक सचमुच गुम हो जाए तब भी?”

“अगर गुम हो गई है तो यह डॉक्टर का काम है. कहते हैं कि ऐसे लोग हैं, जो किसी भी तरह की नाक लगा सकते हैं. मेरा ख़याल है कि आप मज़ाकिया किस्म के आदमी हैं और मज़ाक करना आपको अच्छा लगता है.”

“ख़ुदा की कसम खाकर कहता हूँ! अगर बात यहाँ तक पहुँची है, तो मैं आपको दिखा देता हूँ…”

“मैं क्यों बेकार में परेशानी मोल लूँ,” बाबू ने नसवार सूँघते हुए कहा. “मगर यदि परेशानी वाली बात न हो तो,” उसने उत्सुकता से आगे कहा, “ तो, मैं देख सकता हूँ.”

सुपरिंटेंडेंट ने चेहरे से रूमाल हटाया.

“सचमुच बड़ी अजीब बात है,” बाबू ने कहा, “जगह बिल्कुल चिकनी है जैसे अभी-अभी पकाया हुआ पैनकेक! अविश्वसनीय रूप से समतल!”

“तो, आप अब भी बहस करेंगे? आप ख़ुद ही देख रहे हैं कि बिना छपवाए काम नहीं चलेगा, मैं आपका बहुत शुक्रगुज़ार रहूँगा, मैं बहुत ख़ुश हूँ कि इसी बहाने आपसे मुलाकात हुई…”

मेजर ने इस बार शायद कुछ चापलूसी करने की ठानी थी.

“छापना तो, बेशक, कोई बड़ी बात नहीं है,” बाबू ने जवाब दिया, “मगर मैं नहीं समझता कि इससे आपका काम बनेगा. अगर आप चाहें तो किसी ऐसे आदमी से लिखवाइए, जो बड़ी ख़ूबसूरती से लिखता हो. उसे कुदरत के इस अद्भुत करिश्मे को एक लेख के रूप में लिखकर “उत्तरी मधुमक्खी” में (उसने फिर नसवार सूँघी) नौजवानों के फ़ायदे के लिए (अब उसने नाक पोंछी) या फिर जनता के मनोरंजन के लिए छापना चाहिए.”

सुपरिंटेंडेंट बिल्कुल निराश हो गया. उसने नीचे रखे अख़बार पर नज़रें झुकाईं, जहाँ थियेटरों के कार्यक्रमों के बारे में जानकारी थी. हीरोइन का नाम पढ़कर, जो बड़ी ख़ूबसूरत थी उसका चेहरा मुस्कुराने को तैयार ही था. उसका हाथ अपनी जेब की ओर गया यह देखने के लिए कि उसमें नीला नोट है या नहीं, क्योंकि मेजरों को, कवाल्योव की राय में, कुर्सियों पर बैठना होता है…मगर, नाक के ख़याल ने सब गुड़गोबर कर दिया.

बाबू भी कवाल्योव की हालत देखकर द्रवित हो चला था, उसे कुछ सांत्वना देने के उद्देश्य से उसने सोचा कि अपनी सहानुभूति को संक्षेप में कह दिया जाए:

“मुझे, सचमुच, बेहद अफ़सोस है कि आपके साथ यह मज़ाक हुआ है. क्या आप थोड़ी नसवार सूँघना चाहेंगे? इससे सिर का दर्द दूर हो जाता है और निराशा के ख़याल छँट जाते हैं, अर्धशीशी के दर्द में भी फ़ायदा करती है.”

ऐसा कहते हुए बाबू नसवार की डिबिया, टोप पहनी हुई महिला के चित्र वाले ढक्कन को खोलकर, कवाल्योव की नाक के बिल्कुल पास ले गया.

इस बेसोची-समझी हरकत ने कवाल्योव को आपे से बाहर कर दिया.

“समझ में नहीं आ रहा है कि आप हर जगह मज़ाक कैसे कर लेते हैं,” उसने अत्यंत दुखी होते हुए कहा, “क्या आप देख नहीं सकते कि मेरे पास वह नहीं है, मैं सूंघ कैसे सकता हूँ? शैतान आपकी नसवार छीन ले. मैं तो अब उसकी ओर देख भी नहीं सकता, न सिर्फ आपकी सस्ती, सड़ी तम्बाकू की ओर, बल्कि महँगी से महँगी तम्बाकू की ओर भी नहीं.”

इतना कहकर बहुत अपमानित करते हुए वह अख़बार के दफ़्तर से निकला और थानेदार की ओर चल पड़ा जिसे शक्कर बहुत पसन्द थी. उसके घर के नन्हे-से हॉल को, जो डाइनिंग रूम भी था, शक्कर के खिलौनों से सजाया गया था, जिन्हें दोस्ती की ख़ातिर व्यापारी ले आया करते थे. इस वक्त महाराजिन थानेदार के पैरों से भारी-भरकम जूते उतार रही थी, तलवार और दूसरे शस्त्र शांतिपूर्वक कोनों में लटक रहे थे, और उसकी भारी-भरकम तिकोनी टोपी से उसका तीन साल का बेटा खेल रहा था, और वह झंझटों, टंटों भरी, गाली-गलौज वाली ज़िंदगी के पश्चात् अब जीवन की ख़ुशियों का आस्वाद लेना चाहता था.

कवाल्योव उस वक्त कमरे में घुसा जब थानेदार आलस लेते हुए उबासी के साथ कह रहा था : “अब दो घण्टों के लिए लम्बी तान दूँगा!” और इसीलिए अनुमान लगाया जा सकता है, कि सुपरिंटेंडेंट का प्रवेश सही समय पर नहीं हुआ था, और मैं कह नहीं सकता कि भेंट स्वरूप कुछ पौण्ड चाय और कुछ कपड़े लाने के बावजूद भी इस समय उसका स्वागत गर्मजोशी से हुआ या नहीं. थानेदार यूँ तो सभी कलात्मक वस्तुओं एवम् कारखानों की बनी वस्तुओं का प्रशंसक था, मगर सरकारी नोटों को प्राथमिकता देता था. “यह चीज़,” वह अक्सर कहता, “इससे अच्छी कोई और चीज़ नहीं है : खाने को माँगती नहीं, जगह भी बहुत कम घेरती है, जेब में हमेशा समा जाती है, गिरा दो तो टूटती भी नहीं है.”

थानेदार ने कवाल्योव का बड़ा रूखा स्वागत किया और फ़ब्ती कसी कि कहीं भोजन के बाद भी खोज-बीन की जा सकती है, प्रकृति ने ही यह नियम बनाया है, कि भरपेट खाने के बाद थोड़ा आराम करना चाहिए. [इससे सुपरिंटेंडेंट को पता चला कि थानेदार को प्राचीन विद्वानों की उक्तियों का ज्ञान था], और किसी भलेमानस की नाक कभी कोई नहीं काटता, और दुनिया में ढेरों मेजर ऐसे हैं जिनका कच्छा भी ढंग का नहीं होता और जो हर गन्दी जगह पर मंडराते रहते हैं.

मतलब, भँवों पर नहीं- सीधे आँखों पर! ग़ौर करना होगा कि कवाल्योव बड़ा ही संवेदनशील व्यक्ति था. वह अपने व्यक्तित्व के बारे में कही गई किसी भी भद्दी से भद्दी बात को माफ़ कर सकता था, मगर यदि कोई उसके पद या ओहदे का अपमान करे, तो वह बर्दाश्त नहीं कर सकता था. वह ऐसा भी मानता था कि थियेटर के नाटकों में हर उस चीज़ को कहने की इजाज़त होनी चाहिए, जो कैप्टेन से नीचे वाले अफ़सरों से संबंधित हो, मगर उससे ऊपर के अफ़सरों को कभी भी निशाना नहीं बनाना चाहिए. थानेदार के स्वागत से वह इतना बौखला गया कि उसने अपना सिर झटक कर, हाथ फैला कर स्वाभिमान की भावना से कहा, “ मैं मानता हूँ, कि आपके द्वारा की गई इन अपमानास्पद टिप्पणियों के पश्चात् मैं आगे कुछ भी नहीं कह सकता…” और बाहर निकल गया.

…..

वह बेसुध-सा घर आया, शाम हो चुकी थी. इन सब असफ़ल कोशिशों के बाद उसे अपना घर बड़ा दयनीय और मनहूस प्रतीत हुआ. हॉल में घुसते ही उसे सरकारी, धब्बेदार सोफ़े पर पड़ा नज़र आया सेवक इवान, जो पीठ के बल लेटा हुआ एकटक छत को घूरे जा रहा था. वह बड़ी देर तक इसी अवस्था में पड़ा रहा. सेवक की इस उदासीनता से वह तैश में आ गया, उसने अपनी टोपी से उसके माथे पर चोट करते हुए कहा : “सूअर कहीं के, हमेशा बेवकूफ़ियाँ करते रहते हो!”

इवान अपनी जगह से उछल पड़ा और फ़ौरन लपककर उसका कोट उतारने लगा.

अपने कमरे में आकर थका हुआ, दयनीय मेजर कुर्सी पर ढेर हो गया और कई बार गहरी आहें भरने के बाद बोला :

“ऐ ख़ुदा! ऐ मेरे ख़ुदा! यह दुर्भाग्य क्यों? अगर मैं बे-पैर या बे-हाथ का होता – तो वो बेहतर होता, अगर मैं बे-कान का होता! होती तो अजीब बात, मगर बर्दाश्त की जा सकती थी : मगर बे-नाक का आदमी शैतान जाने क्या होता है : पंछी- पंछी नहीं, और नागरिक – नागरिक नहीं! – बस, उठाओ और खिड़की से बाहर फेंक दो! लड़ाई में या द्वंद्व युद्ध में ही कट जाती, मेरी ही गलती से कट जाती, मगर ये तो बे-बात के ग़ायब हो गई, मुफ़्त में, एक दमड़ी भी नहीं मिली. मगर नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता,” वह कुछ सोचकर आगे बोला, “विश्वास नहीं होता, कि नाक खो जाए, किसी भी तरह नहीं! यह बात बिल्कुल सच है, या कहीं मुझे सपना तो नहीं आ रहा? हो सकता है, मैं गलती से पानी के बदले वोद्का पी गया, जिससे हजामत बनवाने के बाद मैं अपनी ठुड्डी साफ़ करता हूँ. इवान, बेवकूफ़ ने, शायद ली नहीं और, अवश्य ही मैंने उसे पी लिया…”

यह देखने के लिए कि वह नशे में है या नहीं मेजर ने स्वयम् को इतनी ज़ोर से चुटकी काटी कि वह ख़ुद ही चीख़ पड़ा. मगर इस दर्द ने उसे विश्वास दिला दिया कि वह वास्तविकता में ही जी रहा है और हरकत कर रहा है. वह दबे पाँव आईने के करीब आया और आँखे सिकोड़कर इस ख़याल से देखने लगा कि उसे नाक अपनी जगह पर ही मिलेगी, मगर वह फ़ौरन उछलकर पीछे हट गया और चीख़ा :

“ओssह, एकदम जोकर!”

यह बिल्कुल समझ में न आने वाली बात थी. अगर बटन खो जाता, चाँदी की चम्मच खो जाती या फिर घड़ी या ऐसी ही कोई और चीज़ खो जाती, मगर खोया भी तो क्या खोया? और अपने ही घर में!…सारे हालात पर भली भाँति नज़र डालने के बाद मेजर कवाल्योव इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इस घटना के पीछे उच्च श्रेणी के अफ़सर की पत्नी पोद्तोचिना का हाथ है, जो चाहती थी कि कवाल्योव उसकी बेटी से शादी कर ले. वह स्वयम् भी उसकी ख़ुशामद करना पसन्द करता था, मगर अंतिम निर्णय को हमेशा टालता रहा. जब पोद्तोचिना ने उससे खुल्लम खुल्ला कह दिया कि वह अपनी बेटी का ब्याह उससे करना चाहती है तो उसने धीमे से उसकी लल्लो-चप्पो करते हुए यह कहकर टाल दिया कि अभी तो वह बहुत छोटा है, उसे कम से कम और पाँच साल नौकरी करनी है, जिससे वह ठीक बयालीस साल का हो जाए. और इसीलिए, अफ़सर की बीबी ने बदले की भावना से, उसका रूप बिगाड़ने की ठान ली, और किसी जादूगरनी को इस काम के लिए पैसे दिए, क्योंकि इस बात की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती थी कोई उसकी नाक काटकर ले गया हो : उसके कमरे में कोई आया ही नहीं था, नाई इवान याकव्लेविच ने बुधवार को हजामत बनाई थी, और पूरे बुधवार और बृहस्पतिवार को भी उसकी नाक सही-सलामत थी, यह बात उसे अच्छी तरह याद थी; अगर कोई दर्द ही महसूस होता, क्योंकि कोई ज़ख़म इतनी जल्दी तो भर नहीं सकती थी और पैनकेक की तरह चिकनी नहीं बन सकती थी. उसने अपने मस्तिष्क में योजना बनाई : क्या अफ़सर की पत्नी को अदालत में घसीटा जाए या उसके पास स्वयम् जाकर जवाब तलब किया जाए? उसके विचारों को दरवाज़ों से छनकर आती रोशनी ने भंग कर दिया, जिससे पता चल रहा था कि इवान ने हॉल में मोमबत्ती जला दी है. शीघ्र ही स्वयम् इवान भी दिखाई दिया जो मोमबत्ती को हाथ में पकड़े हुए पूरे कमरे को आलोकित कर रहा था. कवाल्योव ने झपट कर रूमाल उठा लिया और उस जगह को ढाँक दिया, जहाँ कल तक नाक थी, जिससे कि यह बेवकूफ़ आदमी अपने मालिक को ऐसी विचित्र अवस्था में देखकर चीख़ न मारे.

इवान अपने दड़बे में घुस भी न पाया था कि बाहर हॉल में एक अपरिचित आवाज़ सुनाई दी:

“क्या सुपरिंटेंडेंट कवाल्योव यहाँ रहते हैं?”

“आइए, मेजर कवाल्योव यहीं रहते हैं,” कवाल्योव ने उछलकर फ़ौरन दरवाज़ा खोल दिया.

एक सुदर्शन पुलिस वाला, कुछ काले, कुछ भूरे कल्लोंवाला, भरे-भरे गालों वाला, वही, जो इस कथा के आरंभ में इसाकियेव्स्की पुल के अंत में खड़ा था, प्रविष्ट हुआ.

“क्या आपके दुश्मनों की नाक खो गई है?”

“बिल्कुल ठीक.”

“वह मिल गई है.”

“क्या कह रहे हैं?” मेजर कवाल्योव चीख़ा. ख़ुशी के मारे उसकी ज़ुबान बन्द हो गई. उसने बड़े ध्यान से अपने सामने खड़े संतरी की ओर देखा जिसके भरे-भरे होठों और गालों पर फड़फड़ाती मोमबत्ती का प्रकाश तैर रहा था. “कैसे?”

“बड़ी अजीब बात है : उसे रास्ते पर पकड़ा गया. वह बग्घी में बैठ चुका था और रीगा जाना चाहता था. मगर पासपोर्ट पर किसी एक कर्मचारी का नाम लिखा था. आश्चर्य की बात तो यह थी कि मैं भी उसे वही व्यक्ति समझ बैठा. मगर सौभाग्य से मेरे पास चश्मा था, और उसे पहनते ही मैंने देखा कि वह तो नाक थी. खैर, मैं तो निकट की वस्तुओं को ठीक से देख नहीं पाता, याने अगर आप मेरे सामने खड़े हो जाएँ, तो मैं सिर्फ आपका चेहरा ही देख सकूँगा, आपकी नाक, दाढ़ी…कुछ भी मुझे नज़र नहीं आएगा. मेरी सास, याने मेरी बीबी की माँ भी कुछ नहीं देख सकती.”

कवाल्योव को अपने आप पर काबू नहीं रहा.

“कहाँ है वह? कहाँ है? मैं अभी चलता हूँ.”

“घबराइए नहीं! मैं जानता था कि आपको उसकी ज़रूरत है, उसे अपने साथ ही ले आया हूँ. अजीब बात यह है कि इस घटना का मुख्य अभियुक्त, दुष्ट नाई, वज़्नेसेन्स्की सडक पर रहने वाला, इस समय हवालात में है. मुझे पहले से ही उसके पियक्कड़ और चोर होने का शक था, अभी तीन दिन पहले उसने एक दुकान से बटनों का डिब्बा चुराया था. आपकी नाक ठीक वैसी है, जैसी थी.

इतना कहकर संतरी ने जेब में हाथ डाला और कागज़ में लिपटी हुई नाक बाहर निकाली.

“हाँ, वही है!” कवाल्योव चीख़ पड़ा, “बिल्कुल वही! आज आप मेरे साथ चाय पीजिए.”

“मैं इसे अपना बहुत बड़ा सम्मान समझता, मगर आज किसी भी हालत में संभव नहीं है : यहाँ से मुझे सीधे पागलखाने जाना है…सभी चीज़ों की कीमतें बहुत बढ़ गई हैं…मेरे घर में मेरी सास भी रहती है, याने मेरी बीबी की माँ, और बच्चे भी हैं, बड़े बेटे से मुझे काफ़ी उम्मीदें हैं : बड़ा होशियार बच्चा है, मगर उनके उचित भरण-पोषण के लिए मेरे पास पर्याप्त पैसे नहीं हैं…”

कवाल्योव समझ गया और मेज़ पर से लाल नोट उठाकर उसने संतरी के हाथ में थमा दिया, जो फ़ौरन गोल घूमकर दरवाज़े से बाहर निकल गया, और लगभग उसी समय कवाल्योव को सड़क पर उसकी आवाज़ सुनाई दी, जो एक भोले-भाले ग्रामीण को फ़टकार रही थी, जो अपनी ठेला गाड़ी फुटपाथ पर चढ़ा रहा था.

संतरी के जाने के बाद कवाल्योव कुछ देर गुमसुम बैठा रहा, तब कहीं जाकर वह कुछ देखने-समझने की स्थिति में आया : इस विस्मृति का कारण थी आकस्मिक प्रसन्नता. उसने ढूँढ़ी गई नाक को बड़ी सावधानी से उठाया और उसे दुबारा बड़े गौर से देखा.

“वही है, बिल्कुल वही!” मेजर कवाल्योव बड़बड़ाया.

“दाईं ओर मस्सा भी है, जो कल ही उग आया था.”

मेजर ख़ुशी से हँस पड़ा.

….

 मगर इस दुनिया में कोई भी चीज़ शाश्वत नहीं है, और इसीलिए ख़ुशी भी अगले क्षण उतनी जोशीली नहीं रहती, तीसरे क्षण वह और कमज़ोर पड़ जाती है और अन्त में मन की अवस्था में अनजाने ही घुलमिल जाती है, जैसे पानी में पत्थर गिरने से बना वृत्त, जो बाद में समतल सतह में खो जाता है. कवाल्योव सोचने लगा और इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि काम अभी ख़त्म नहीं हुआ है : नाक मिल तो गई है, मगर उसे अपनी जगह पर वापस तो बिठाना है.

‘’’और यदि न बैठे तो?

अपने आपसे किए गए इस सवाल से कवाल्योव का चेहरा पीला पड़ गया.

एक अनजान भय से वह मेज़ की ओर लपका, आईना नज़दीक लाया, जिससे नाक को टेढ़ी न बिठा दे. उसके हाथ थरथरा रहे थे. बड़ी सावधानी से उसने नाक को अपनी पहली वाली जगह पर रखा. ओह, भयानक! नाक चिपक ही नहीं रही थी. वह उसे अपने मुँह के पास लाया, अपनी साँस से उसे कुछ गर्म किया और दुबारा दोनों गालों के बीच वाली समतल जगह पर लाया, मगर नाक थी कि वहाँ रुक ही नहीं रही थी.

“ओह! मान भी जा! चढ़ जा, बेवकूफ़!” उसने नाक से कहा, मगर नाक तो मानो काठ की बन गई थी और बार-बार मेज़ पर इतनी अजीब आवाज़ के साथ गिर-गिर पड़ती थी मानो बोतल का ढक्कन हो. मेजर का चेहरा बिसूर गया. ‘क्या सचमुच वह चिपकेगी नहीं?’ उसने ख़ौफ़ से सोचा. कितनी ही बार वह उसे अपनी पहले वाली जगह पर ले गया, मगर उसकी हर कोशिश बेकार गई.

उसने इवान को डॉक्टर के पास भेजा, जो उसी बिल्डिंग की निचली मंज़िल पर रहता था. डॉक्टर बड़ा ख़ूबसूरत आदमी था – काले कल्लों वाला, तंदुरुस्त बीबी वाला; सुबह-सुबह ताज़े सेब खाता था और अपना मुँह बहुत साफ़ रखता था, हर सुबह करीब पैंतालीस मिनट तक उसे साफ़ करता था और दाँतों को भी विभिन्न प्रकार के टूथ ब्रशों से साफ़ किया करता था. डॉक्टर फ़ौरन आ गया. यह पूछने के बाद कि दुर्घटना कितनी देर पहले हुई है, उसने मेजर की ठुड्डी पकड़ कर उसका चेहरा ऊपर उठाया और अपनी बड़ी उँगली से उस स्थान पर टक-टक किया जहाँ पहले नाक हुआ करती थी. मेजर ने अपना चेहरा इतनी ज़ोर से पीछे हटाया कि उसका सिर दीवार से टकरा गया. डॉक्टर ने कहा कि कोई चिंता की बात नहीं है और उसे दीवार से कुछ दूर हटने की सलाह देकर चेहरा बाईं ओर मोड़ने को कहा. उस जगह को छूकर, जहाँ पहले नाक थी, बोला, “हूँ!” फिर सिर को दाईं ओर मोड़ने की आज्ञा दी और बोला, “हूँ!” – और अन्त में फिर से बड़ी उँगली से उस जगह चोट की जिससे मेजर ने अपना सिर इस तरह हिलाया, जैसे वह घोड़ा हिलाता है जिसके दाँत देखे जा रहे हों. इतने सारे परीक्षणों के बाद डॉक्टर बोला :

“नहीं, असंभव है! बेहतर है कि आप इसी तरह रहें, क्योंकि बात बिगड़ भी सकती है. उसे बिठाना संभव तो है, मैं ख़ुद ही उसे अभी चिपका देता, मगर मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि यह आपके लिए बुरा होगा.”

“ये अच्छी कही! नाक के बगैर मैं रहूँ कैसे?” कवाल्योव ने कहा. अभी है, उससे बदतर हालत तो नहीं हो सकती. शैतान ही जाने ये मुसीबत क्या है! ऐसी जोकरों जैसी शक्ल में मैं किसी को मुँह कैसे दिखा सकता हूँ? मेरी कई लोगों से अच्छी पहचान है. आज ही शाम को मुझे दो घरों में मिलने जाना है, कई बड़े-बड़े लोगों को मैं जानता हूँ : उच्च श्रेणी की महिला चेख्तारेवा, पोद्तोचिना – बड़े अफ़सर की बीबी…हालाँकि उसकी आज की हरकत के बाद मैं उससे कोई ताल्लुक नहीं रखना चाहता, सिर्फ पुलिस के ज़रिए ही उससे बात करूँगा. मुझ पर मेहेरबानी कीजिए,” कवाल्योव ने बड़े विनय से कहा, “क्या कोई भी उपाय नहीं है? किसी तरह लगा दीजिए, अच्छी तरह नहीं तो सिर्फ लटकती रहने दीजिए, मैं उसे हाथ से सँभाले रहूँगा. मैं नृत्य भी नहीं करूँगा, जिससे किसी भी असावधानी के क्षण में उसे नुकसान न पहुँचे. जहाँ तक आपकी मेहेरबानी का सवाल है, आपकी ‘विज़िटों’ का सवाल है, तो विश्वास रखिए कि जहाँ तक संभव होगा…”

“विश्वास कीजिए,” डॉक्टर ने हौले से, मगर दृढ़ और मीठी आवाज़ में कहा, “मैं पैसों के लालच में इलाज नहीं करता. यह मेरे पेशे और मेरे नियमों के ख़िलाफ़ है. यह सच है कि मैं ‘विज़िट’ के लिए पैसे लेता हूँ, मगर सिर्फ इसलिए कि मेरे इनकार से कोई अपमानित न हो जाए. मैं आपकी नाक ज़रूर बिठा देता, मगर यदि आप मेरे शब्दों पर विश्वास नहीं करते तो मैं आपको अपनी प्रतिष्ठा का वास्ता देता हूँ, कि यह बहुत बुरा रहेगा. प्रकृति को ही अपना काम करने दीजिए. उस जगह को ठण्डे पानी से धोते रहिए, मैं आपको यकीन दिलाता हूँ, कि बगैर नाक के भी आप उतने ही स्वस्थ्य रहेंगे जितने नाक के साथ होते. मैं आपको सलाह दूँगा कि नाक को स्प्रिट के घोल में रखकर बैंक में रख दीजिए, दो चम्मच वोद्का में गर्म सिरके का घोल ज़्यादा अच्छा रहेगा, – और तब आपको उसके पैसे भी अच्छे मिलेंगे. यदि आप उसकी हिफ़ाज़त न करना चाहें तो मैं ही उसे ख़रीद लूँगा.”

“नहीं,बिल्कुल नहीं! बेचूँगा किसी हालत में नहीं!” मेजर कवाल्योव आहत भाव से चीख़ा, “इससे त्तो अच्छा है कि वह फिर से खो जाए!”

“क्षमा कीजिए,” डॉक्टर ने झुककर कहा, “मैं तो आपकी मदद करना चाहता था…क्या किया जाए! आपने कम-से-कम यह तो देखा कि मैं कोशिश कर रहा हूँ.”

इतना कहकर डॉक्टर एहसान जताते हुए कमरे से बाहर निकल गया. कवाल्योव ने चेहरे को भी ध्यान से नहीं देखा, वह बड़े बेमन से उसके काले कोट की बाँहों से झाँकती कमीज़ की बर्फ के समान साफ़ और सफ़ेद आस्तीनों को देखता रहा.

उसने तय किया कि शिकायत करने से पहले वह अगले दिन उच्च श्रेणी के अफ़सर की पत्नी को ख़त लिखेगा, पूछेगा कि वह बिना लड़ाई-झगड़ा किए उसके नाक वापस लौटाएगी या नहीं. ख़त कुछ इस तरह का था :

“प्रिय महोदया अलेक्सान्द्रा ग्रिगोरेव्ना,

आपके अजीब व्यवहार को मैं समझ नहीं पा रहा हूँ. याद रखिए कि इस तरह की हरकत से आपको कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है और न ही आप अपनी बेटी से शादी करने के लिए मुझ पर ज़बर्दस्ती कर सकती हैं. मेरी नाक के साथ हुए नाटक को मैं भली-भाँति समझ गया हूँ, और मुझे पूरा विश्वास है, कि इस घटना के लिए सिवाय आपके कोई और ज़िम्मेदार नहीं है. उसका अपनी जगह से अचानक हट जाना, वेश बदलकर भाग जाना, कभी एक अफ़सर के रूप में और कभी अपने वास्तविक रूप में, यह सब जादू-टोने का ही नतीजा है, जिन्हें आपने या आपके आदेश पर किसी और ने किया है. मैं, अपनी ओर से, आपको आगाह करता हूँ, यदि उपरोक्त वर्णन की गई नाक आज ही अपने स्थान पर वापस नहीं आई तो मैं सुरक्षा के लिए कानून का सहारा लूँगा.

ख़ैर, सम्पूर्ण आदरभाव के साथ मैं हूँ,       

आपका विनम्र सेवक,

प्लातोन कवाल्योव.

 

प्रिय महोदय,प्लातोन कवाल्योव,

आपके पत्र ने मुझे बुरी तरह चौंका दिया. मैं कहना चाहूँगी कि मुझे आपसे ऐसी उम्मीद बिल्कुल नहीं थी, ख़ास तौर से उन इलज़ामों की जो आपने मुझ पर लगाए हैं. मैं विश्वास दिलाती हूँ, कि उस अफ़सर को, जिसका ज़िक्र आपने किया है, मैंने कभी भी अपने घर में नहीं बुलाया, न तो उसके वास्तविक रूप में और न ही बदले हुए रूप में. हाँ, मेरे घर फ़िलिप इवानविच पताच्निकोव ज़रूर तशरीफ़ लाए थे, और हालाँकि उन्होंने मेरी बेटी का हाथ माँगने की कोशिश भी की, परन्तु मैंने उसके विद्वान, आकर्षक और अच्छे चालचलन वाला होने के बावजूद उसे कोई भी आश्वासन नहीं दिया है. आप नाक के बारे में कहते हैं. अगर ऐसा कहने का आपका मतलब यह है कि मैं आपकी नाक ले रही हूँ, याने आपको इनकार कर रही हूँ, तो मुझे आश्चर्य हो रहा है, कि आप ही ऐसी बात कर रहे हैं, जबकि मेरा इरादा इससे बिल्कुल उल्टा है, और अगर आप अभी भी मेरी बेटी से विवाह का प्रस्ताव रखते हैं तो मैं फ़ौरन राज़ी हो जाऊँगी, क्योंकि मेरी तो यही इच्छा रही है, और इसी उम्मीद में मैं हमेशा आपकी सेवा में तत्पर रहूँगी.

अलेक्सान्द्रा पोद्तोचिना

“नहीं,” ख़त पढ़ने के बाद कवाल्योव बोला, “वह दोषी नहीं है. कोई अपराधी इस तरह का ख़त लिख ही नहीं सकता.” सुपरिंटेंडेंट को इस बात का पूरा अनुभव था क्योंकि कॉकेशस में उसे कई बार खोज-बीन के लिए भेजा जाता था. “तो फिर यह हुआ कैसे? सिर्फ शैतान ही समझ सकता है!” उसने आख़िरकार हाथ लटकाते हुए कहा.

इसी बीच इस अजूबे की ख़बर पूरी राजधानी में फैल चुकी थी, ज़ाहिर है, काफ़ी मिर्च-मसाले के साथ. तब सभी बुद्धिमान व्यक्ति पराकाष्ठा की सीमा तक पहुँच गए : कुछ ही दिन पहले जनता को सम्मोहन के प्रभाव ने आकर्षित किया था. फिर कन्यूशेना मार्ग पर घटित नाचती कुर्सियों की कहानी की स्मृति भी अभी ताज़ी थी, और इसीलिए हमें ज़रा भी आश्चर्य नहीं हुआ जब लोग कहने लगे कि सुपरिंटेंडेंट की नाक दिन के ठीक तीन बजे नेव्स्की एवेन्यू पर टहल रही है. हर रोज़ अनेक अजीबोग़रीब बातें सुनने को मिलतीं. कोई कहता कि नाक ‘यून्केर’ की फैशनेबुल दुकान में बैठी है – तो ‘यून्केर’ के निकट इतनी भीड़ और रेलपेल मच जाती कि पुलिस को आना पड़ता. एक सुदर्शन, कल्ले वाले व्यापारी ने, जो थियेटर के बाहर बिस्किट बेचा करता था, ख़ास तौर से ख़ूबसूरत लकड़ी की बेंचें बनवाईं, जिस पर वह हर आगन्तुक को अस्सी-अस्सी कोपेक लेकर बैठने देता था. एक कर्नल तो ख़ास तौर से घर से जल्दी निकला था और बड़ी मुश्किल से भीड़ को चीरता हुआ वहाँ पहुँचा था, मगर उसे “शो-केस” में नाक के बदले दिखाई दी साधारण ऊन की टोपी-मोज़े संभालती लड़की की तस्वीर जिसे पेड़ के पीछे छिपा, खुला जैकेट पहने, छोटी-सी दाढ़ीवाला मनचला देख रहा था. यह तस्वीर पिछले दस सालों से इसी जगह थी. वहाँ से हटते हुए उसने बड़े दुख से कहा : “इन बेवकूफ़ियों भरी झूठी अफ़वाहों से लोगों को कैसे फ़ुसलाया जा सकता है?”

तभी दूसरी अफ़वाह फ़ैलती कि मेजर कवाल्योव की नाक नेव्स्की एवेन्यू पर नहीं अपितु तव्रीचेस्की उद्यान में घूम रही है और वह वहाँ बड़ी देर से है, तब से जब से वहाँ खोज़्रेव मिर्ज़ा रहा करते थे, जिसे कुदरत के करिश्मे से बड़ा आश्चर्य हुआ था. शल्य क्रिया अकादमी के कुछ विद्यार्थी वहाँ पहुँचे. एक प्रसिद्ध, आदरणीय महिला ने पत्र लिखकर उद्यान के दरबान से विनती की कि उसके बच्चों को यह बिरला कारनामा दिखाए और समझाए.

इन सभी घटनाओं से वे मनचले बहुत ख़ुश थे जो औरतों को छेड़ा करते थे. मगर सभ्य और आदरणीय नागरिक इस सबसे बड़े नाराज़ थे. एक नागरिक ने दुखी होकर कहा कि इस जागृति और शिक्षा के युग में ऐसी बेसिरपैर की अफ़वाहें कैसे फ़ैलती हैं और उसे आश्चर्य है कि सरकार इस ओर ध्यान क्यों नहीं देती. यह महाशय बेशक उन लोगों में से थे जो हर बात की ज़िम्मेदारी सरकार पर डाल देते थे, पत्नी से हुई रोज़मर्रा की चख़चख़ की भी. इसके बाद …मगर यहाँ भी सारी घटना कोहरे में छिप गई है, और उसके बाद क्या हुआ, हमें सचमुच नहीं मालूम.

……

संसार में बड़ी अजीब घटनाएँ घटती हैं. कभी-कभी तो उनका सिर-पैर भी समझ में नहीं आता : अचानक वही नाक, जो अफ़सर बनकर घूम रही थी, और जिसने शहर में इतना हड़कम्प मचा रखा था, अपनी जगह पर याने मेजर कवाल्योव के दोनों गालों के बीच ऐसे बैठ गई जैसे कुछ हुआ ही न हो. यह हुआ सात अप्रैल को. सुबह उठते ही कवाल्योव ने यूँ ही आईने में देखा तो देखता ही रह गया : नाक! हाथ से पकड़ा – बिल्कुल नाक! “ऐ हे!” कवाल्योव बोला और ख़ुशी के मारे नंगे पैर ही पूरे कमरे में नाचने लगा, मगर अन्दर आते हुए इवान ने रंग में भंग कर दिया. उसने मुँह धोने के लिए फ़ौरन पानी लाने की आज्ञा दी और मुँह धोते-धोते दुबारा आईने में देखा : नाक! अपने चेहरे को वल्कल से मलते हुए उसने फिर से शीशे में देखा : नाक!

“देखो तो, इवान, शायद मेरी नाक पर मस्सा उग आया,” उसने कहा और सोचा : ‘अगर इवान कहे : नहीं, मालिक मस्सा तो क्या, नाक ही नहीं है!’ तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी!’

मगर इवान ने कहा :

“नहीं तो, कोई मस्सा-वस्सा नहीं है, नाक एकदम साफ़ है.”

“ठीक है, भाड़ में जाए!” मेजर ने अपने आप से कहा और उँगलियों से उसे पकड़कर खींचा. इसी समय नाई इवान याकव्लेविच ने दरवाज़े से भीतर झाँका, मगर डरते-डरते, उस बिल्ली के अंदाज़ में जिसे अभी मछली चुराने पर पीटा गया हो.

“सामने आकर कहो : हाथ साफ़ हैं?” दूर से ही कवाल्योव चिल्लाया.

“साफ़ हैं!”

“झूठ बोलते हो!”

“ऐ ख़ुदा, साफ़ हैं, मालिक!”

“अच्छा देखो तो.”

कवाल्योव बैठ गया. इवान याकव्लेविच ने उसे कपड़े से ढाँक दिया और एक ही क्षण में ब्रश से उसकी ठोढ़ी और गाल को झाग से भर दिया.

‘ओह-हो!’ नाक की ओर देखते हुए इवान याकव्लेविच ने अपने आप से कहा, और फिर सिर को दूसरी ओर घुमाकर किनारे से उसकी ओर देखा – कमाल है! ‘…क्या कहने…’ वह बड़बड़ाता रहा और बड़ी देर तक उसे देखता रहा. आख़िर में, बड़ी सावधानी से, उसने दो उँगलियाँ उठाईं, ताकि उसे पकड़ सके. ऐसा तरीका ही था इवान याकव्लेविच का.

“देखो, देखो, देखो!” कवाल्योव चीख़ा.इवान याकव्लेविच ने हाथ नीचे गिरा लिया और ऐसे शरमाया जैसे अपनी ज़िंदगी में कभी न शरमाया था. अंत में उसने बड़ी सावधानी से दाढ़ी पर उस्तरा चलाना शुरू किया, हालाँकि बिना सूँघनेवाले अंग का सहारा लिए उसे बड़ी कठिनाई हो रही थी, मगर फिर भी अपनी बड़ी उँगली को उसके गाल और निचली ठुड्डी पर टिकाकर उसने सहजता से हजामत बना दी.

जब तैयारी पूरी हो गई तो कवाल्योव ने जल्दी से कपड़े पहने, गाड़ी ली और सीधे गोलियों वाली दुकान में पहुँचा. भीतर घुसते-घुसते वह चिल्लाया : “छोकरे, एक प्याला चॉकलेट लाओ!” और उसी समय ख़ुद आईने की ओर लपका : नाक है! वह ख़ुशी से घूमा और बड़े व्यंग्य से आँखें सिकोड़कर उन दो फ़ौजियों को देखने लगा जिनमें से एक की नाक बटन जितनी छोटी थी. उसके बाद वह उस विभाग में गया जहाँ वह उपराज्यपाल के पद के लिए कोशिश कर रहा था, और जिसके न मिलने पर कमिश्नर के पद के लिए उम्मीद लगाए था. बड़े हॉल से गुज़रते हुए उसने आईने में झाँका : नाक है. फिर वह दूसरे सुपरिंटेंडेंट मेजर के पास गया, जो बड़ा मज़ाकिया था, जिसे वह तीखे व्यंग्यबाणों के जवाब में कहता, “जाओ, मैं तुम्हें जानता हूँ, तुम गुरू हो!” रास्ते में वह सोचता रहा, ‘अगर मुझे देखते ही मेजर हँसी से लोट-पोट न हो जाए तो यह प्रमाण होगा इस बात का, कि सब कुछ अपनी जगह पर ठीक-ठाक है.” मगर सुपरिंटेंडेंट कुछ भी नहीं बोला. “अच्छा ठीक है, भाड़ में जाओ!” कवाल्योव ने अपने आप से कहा. रास्ते में वह उच्च श्रेणी के अफ़सर की पत्नी पोद्तोचिना से मिला जो अपनी बेटी के साथ थी. उसने झुककर अभिवादन किया और उन्होंने ख़ुशी की किलकारियों से उसका स्वागत किया : शायद सब ठीक है, उसमें कोई खोट नहीं है. वह बड़ी देर तक उनसे बातें करता रहा, जानबूझकर नसवार की डिबिया निकालकर उनके सामने बड़ी देर तक उसे सूँघता रहा, अपने आपसे बड़बड़ाता रहा : “तो लो, फँसाओ मुर्गी! मगर फिर भी तुम्हारी बेटी से तो शादी करूँगा ही नहीं. बस यूँही दिल बहलाने के लिए – ठीक है.” और तब से मेजर कवाल्योव यूँ घूमने लगा जैसे कि कुछ हुआ ही न था. वह हर जगह जाता, नेव्स्की एवेन्यू पर, थियेटर में, जहाँ जी चाहे. नाक भी उसके चेहरे पर यूँ बैठी रही जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो. और इसके बाद मेजर कवाल्योव को लोगों ने हमेशा हँसते हुए, मुस्कुराते हुए, सुंदर महिलाओं का पीछा करते हुए ही देखा. एक बार तो वह गोस्तिनी महल की एक दुकान से तमगोंवाला रिबन ख़रीदते हुए देखा गया, न जाने क्यों, क्योंकि वह ख़ुद तो तमगेधारी घुड़सवार था नहीं.

तो ऐसी घटना घटी हमारे विशाल राज्य की उत्तरी राजधानी में. अब, सारी बातों की ओर गौर करने से प्रतीत होता है, कि उसमें काफ़ी मात्रा में झूठ मिला हुआ था. अगर यह न भी कहें कि नाक का गायब होना और उसका अलग-अलग स्थानों पर अफ़सर के रूप में दिखाई देना एक दैवी चमत्कार था, तो कवाल्योव के अख़बार की सहायता से नाक ढूँढ़ने की कोशिश को क्या कहेंगे? मैं यह नहीं कहता कि मुझे इश्तेहार पर खर्च करना काफ़ी महँगा लगा : यह बेवकूफ़ी है, और मैं कंजूस भी नहीं हूँ. मगर वह अशिष्टता है, अच्छी बात नहीं है, उलझनवाली बात है. और फिर नाक ब्रेड में कैसे आई और इवान याकव्लेविच?…नहीं यह तो मैं समझ ही नहीं सकता, ज़रा भी नहीं समझ सकता. मगर जो बात सबसे अजीब और समझ में नहीं आने वाली है – वह ये है कि लेखक ऐसे विषयों पर लिख कैसे सकते हैं. मानता हूँ, कि यह अनबूझ पहेली है, यह तो…नहीं, नहीं, बिल्कुल नहीं समझ पा रहा. पहली बात यह कि समाज को इससे ज़रा भी फ़ायदा नहीं है, दूसरी…दूसरी बात में भी कोई फ़ायदा नहीं है. बस मैं नहीं जानता कि यह…

मगर फिर भी, इस सबके बावजूद, पहली, दूसरी, तीसरी…बात भी मानी जा सकती है…और हाँ, गोलमाल कहाँ नहीं होती?…मगर, फिर भी, जब सोचो तो लगता है कि सचमुच कुछ बात तो है. कुछ भी कहो, ऐसी घटनाएँ दुनिया में होती हैं – कम ही सही, मगर होती ज़रूर हैं.

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