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रेणु के साहित्य से परिचित हुआ तो लगा खजाना मिल गया!

यह फणीश्वरनाथ रेणु की जन्मशताब्दी के साल की शुरुआत है। वरिष्ठ लेखक और रेणु की परम्परा के समर्थ हस्ताक्षर शिवमूर्ति जी का लेख पढ़िए रेणु की लेखन कला पर- मॉडरेटर

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रेणु: संभवामि युगे युगे…

            रेणु के साहित्य से परिचित हुआ तो लगा खजाना मिल गया।

लिखने का कीड़ा बारह-तेरह वर्ष की उम्र में कुलबुलाने लगा था। वह दौर ‘कहानी’ ‘नई कहानियां’ ‘कहानीकार’ ‘सारिका’ ‘धर्मयुग’ जैसी पत्रिकाओं का था जिसमें छपने वाली लगभग सभी कहानियां शहरी मध्यवर्गीय जीवन की होती थीं। उस जीवन से मैं सर्वथा अपरिचित था। जिस गंवई जीवन से मैं परिचित था, उसकी कहानियां नहीं मिलती थीं। यह तो जब प्रेमचंद के साहित्य से परिचित हुआ तब जाना कि हमारी दुख और अभाव की दुनिया, खेती किसानी, गाय गोरू भी कहानी के विषय हो सकते हैं। फिर जल्दी ही रेणु से परिचित हुआ तो इस जीवन को प्रस्तुत करने की अधुनातन शैली और सलीके से भी परिचित हुआ।

            आप जितने लोगों को पढ़ते हैं उतनी तरह के लेखन कौशल से परिचित होते हैं। ‘जैक लण्डन’ को पढ़ा तो जाना कि ‘सूक्ष्म निरीक्षण’ लेखन में कैसा कमाल करता है। वे एक नवजात पिल्ले का अपने आस-पास की सर्वथा अपरिचित दुनिया को जानने समझने और उससे तादात्म्य बिठाने का ऐसा वर्णन करते हैं कि उस पिल्ले को वाणी मिल जाय तो वह खुद भी ऐसा चाक्षुष वर्णन न कर सके।

            शेक्सपियर को पढ़ा तो जाना कि संक्षिप्तता का गुण कैसे एक विस्तृत घटनाक्रम को पूरी नाटकीयता के साथ सत्तर-पचहत्तर पेज में समाहित कर सकता है। शेक्सपियर का एक संवाद बीसों साल से मन को आहलादित करता आ रहा है। ‘आथेलो’ नाटक में डेसडेमोना आथेलो के साथ गायब हो जाती है। डेसडेमोना के पिता का एक परिचित उसे यह सूचना देते हुए कहता है कि जितनी जल्दी हो सके अपनी बेटी को उस मूर के चंगुल से छुड़ा लाओ वर्ना वह बदमाश तुम्हें नाना बना कर छोड़ेगा।

            गोर्की को पढ़ा तो पता चला कि भावनाएं कैसे समर्थ शब्दों में बंधकर पारदर्शी और चमकदार हो उठती हैं। ‘वे तीन’ उपन्यास में किशोर इल्या अपनी किशोरी मित्र वेरा के साथ एकान्त में खड़ा है। गोर्की लिखते हैं- वेरा की सुन्दरता को एक-टक हक्का-बक्का खड़ा इल्या ऐसे देख रहा था जैसे शहद से भरी नाद को कोई भालू देखता है।

            ये उन लेखकों के उदाहरण हैं जिन्होंने अपने शब्द सामर्थ्य से अपने भाव संसार को ‘व्यक्त’ करके उसे उत्कर्ष तक पहुंचाया लेकिन रेणु ऐसे लेखक हैं जिनके द्वारा ‘अव्यक्त’ छोड़ा गया भाव संसार ‘व्यक्त’ से भी ज्यादा मुखर होकर पाठक को चमत्कृत करता है। रेणु के पास वह कौशल है कि वे बिन्दु मात्र प्रेम के एहसास को विस्तारित करके पाठक को समुद्र संतरण का सुख दे दें। बिन्दु को समुद्र बना दें और समुद्र की तरह पूरी जिंदगी को आप्लावित किए प्रेम को एक बिन्दु में अॅंटा दें।

            पहली कोटि का उदाहरण ‘मैला आंचल’ से- कालीचरन और मंगला के बीच आकर्षण की जो डोर है उसे कायदे से प्रेम भी कैसे कहें। वे दोनों भी दावा नहीं कर सकते कि उन्हें प्रेम हो गया है। जबान से कभी कहा भी नहीं। न एक दूसरे से न अकेले में अपने आप से। उंगली भी नहीं छुयी एक दूसरे की। कालीचरन अपने पहलवान गुरु के आदेश का पालन करते हुए सदैव औरत से पांच हाथ दूर ही रहा, एक अपवाद के अलावा, जब मंगला बीमार पड़ी। लेखक भी इस ‘राग’ को शब्द नहीं देता। ‘अव्यक्त’ छोड़ देता है। लेकिन राग अनुराग की यह कथा लम्बी यात्रा करती है और सारे पाठक जान जाते हैं कि दोनों के बीच अगाध प्रेम पैदा हो चुका है। वे पृष्ठ दर पृष्ठ इस प्रेम सागर में संतरण करते हैं और चाहते हैं कि यह यात्रा कभी खत्म न हो।

            रेणु की इस सिद्धि का दूसरा उदाहरण उनकी कहानी ‘रसप्रिया‘ है। मिरदंगिया और रमपतिया की दुखांतिकी। जब रमपतिया बारहवें वर्ष में प्रवेश कर रही थी तो दोनों के बीच आकर्षण का जादू पैदा हुआ जो आठ वर्ष तक परवान चढ़ता रहा। फिर जो बिछुड़े तो पन्द्रह वर्ष के लम्बे अन्तराल के बाद मिले। मिले भी कहाँ? मिलते-मिलते रह गये। मिलना ही नहीं चाहा। कतरा कर निकल गये। ऐसा नहीं कि उनके बीच का प्रेम समाप्त हो गया। यह तो उनकी सांसों में बसा था। पर उन्हें बोलना नहीं आता था। रेणु ने तेइस साल लम्बी इस प्रेमकथा को चन्द पंक्तियों में समाहित कर दिया।

            उक्त दोनों प्रसंग गूंगे प्रेम के आख्यान हैं। इनके पात्रों को बोलना नहीं आता। रेणु ही हैं जो इस ‘अव्यक्त’ को ‘व्यक्त’ करने की सामर्थ्य रखते हैं। संक्षिप्तता के साथ सुस्पष्टता का जो क्राफ्ट रेणु ने विकसित किया वह न रेणु के पहले किसी हिन्दी रचनाकार में मिलता है न उनके बाद के। अन्य भाषाओं के बारे में मैं नहीं जानता। इसलिए मैं कहता हूं कि रेणु जैसे रचनाकार कभी-कभी पैदा होते हैं- संभवामि युगे युगे…

            मुझे कभी-कभी दुख होता है कि रेणु यहां क्यों पैदा हुए? किसी पश्चिमी देश में पैदा होते तो उन्हें उनका पूरा प्राप्य मिलता। पूरे विश्व साहित्य में सूर्य की तरह चमकते।

शिवमूर्ति

9450178673

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8 comments

  1. सुंदर.

  2. सुजीत कुमार सिंह

    “मुझे कभी-कभी दुख होता है कि रेणु यहां क्यों पैदा हुए? किसी पश्चिमी देश में पैदा होते तो उन्हें उनका पूरा प्राप्य मिलता। पूरे विश्व साहित्य में सूर्य की तरह चमकते।”
    😶

  3. सुंदर विश्लेषण

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