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उन्नीसवीं शताब्दी का आख़िरी दशक, स्त्री शिक्षा और देसी विदेशी का सवाल

युवा शोधकर्ता सुरेश कुमार ने 19 वीं शताब्दी के आख़िरी दशकों तथा बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों के स्त्री साहित्य पर गहरा शोध किया है। हम उनके लेख पढ़ते सराहते रहे हैं। आज उनका लेख 19 वीं शताब्दी के आख़िरी दशकों में स्त्री शिक्षा को लेकर चल रही बहसों को लेकर है। महत्वपूर्ण और रोचक लेख-

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19वीं के अंतिम दशक में स्त्री शिक्षा का मुद्दा व्यापक तौर पर उभर चुका था। इस सदी के विद्वानों के बीच यह चर्चा आम हो गई थी कि स्त्रियों के लिए शिक्षा का इंतजाम प्रत्येक स्तर पर किया जाना चहिए। इन विद्वानों का यह भी कहना था कि जब तक स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं होती तब तक हमारे समाज की उन्नति नहीं हो सकती है। कुछ विद्वानों ने स्त्री शिक्षा के वास्ते अंग्रेजों के द्वारा कायम किए गए जनाना स्कूलों को बड़ी शंका की दृष्टि से देखा था। ऐसे विद्वानों की दृष्टि में ये जनाना स्कूल शिक्षा के कम धर्म परिवर्तन के अड्डे ज्यादा थे। और, स्वाधीनवादी चेतना से लैस लेखकों का कहना था कि स्त्री शिक्षा के लिए अंगे्रजों पर निर्भर रहना अब उचित नहीं है। इसलिए स्त्री शिक्षा के लिए कोई देशी नुस्खा इज़ाद करना होगा। इन्ही सब सवालों की छानबीन करते हुए 19वीं सदी के अंतिम दशक में बाबू बैजनाथ साहिब बी.ए. जज स्माल काज़ कोर्ट आगरा द्वारा लिखित पुस्तक ‘हिन्दूसोशेलरिफ़ार्म’ प्रकाशित हुई। सन् 1895 में ‘हिन्दूसोशलरिफ़ार्म’ किताब लखनऊ के मुंशी नवलकिशोर प्रेस से प्रकाशित हुई थी। बाबू बैजनाथ साहिब ने इस किताब में हिन्दुओं की वर्तमान दशा और उसके सुधार के उपाय पर चर्चा प्रस्तुत की थी। इस किताब में बाबू बैजनाथ ने स्त्री शिक्षा, बाल्य विवाह, विधवा विवाह और देश दशा का मुद्दा बड़ी तार्किकता और गंभीरता से उठाया था। बाबू बैजनाथ का कहना था कि इस समय में भारत में जो स्त्रियों को लेकर परम्पराएं और रीतियाँ बरती जा रही हैं उन में सुधार की बड़ी आवश्यकता है। ‘यह सुधार हमारे कानून और धर्म के विरुद्ध है’, इस कच्चे ख्याल से सुधार का कार्य नहीं रोका जाना चाहिए। इस लेखक का यह भी कहना था कि सबसे पहले हमें परम्पराओं के संबन्ध में यह देखना उचित है कि हमारे धर्मशास्त्र और कानून में इनको लेखकर क्या लिखा और कहा गया है।

 स्त्री शिक्षा को लेकर बैजनाथ बड़ी गम्भीरता से विचार करते हैं। इस लेखक का कहना था कि किसी देश की उन्नति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस देश की स्त्रियों की वर्तमान दशा कैसी है? नवजागरण कालीन यह लेखक समाज की उन्नति का पैमाना स्त्रियों की उन्नति में देखता था। इस लेखक का यह भी कहना था कि हिन्दू समाज में पहले स्त्रियों की दशा वर्तमान काल की स्त्रियों से बेहतर थी। यह लेखक शास्त्रों और स्मृतियों से प्रमाण जुटाकर बताता है कि पहले हिन्दू धर्म में स्त्रियों को पढ़ने और लिखने का अधिकार था। बैजनाथ साहिब ने बताया कि ऋग्वेद के अनुसार स्त्रियां यज्ञ और मंत्रों का उच्चारण करती थी। यहां तक की वह धर्म के वाद-विवाद में भाग ले सकती थीं। लेखक ने मैत्रयी, गार्गी, नल दमयन्ती और विद्योत्तमा का प्रमाण देकर कहा कि पुराने समय में स्त्रियां शिक्षा ग्रहण कर विदुषी बन सकती थी। लेकिन वर्तमान में पुरोहितों और नियंताओं ने स्त्रियों की शिक्षा का उचित बंदोबस्त नहीं किया है।

बाबू बैजनाथ साहिब का मानना था कि स्त्रियों को शिक्षा से वंचित करने में ब्राह्मणों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। स्त्रियों की अधोगति का दूसरा कारण क्षत्रियों और वैश्यों की अज्ञानता को बताया था। इस लेखक का कहना था कि क्षत्रिय और वैश्य ब्राह्मणों के झांसे में आकर अपनी कन्याओं को पढ़ना उचित नहीं समझते हैं। इनका यह भी आरोप था कि ब्राह्मणों ने क्षत्रियों और वैश्यों को शास्त्र का अधिकारी मानने से इन्कार दिया है। और, ब्राह्मणों ने शास्त्रों में अपने अनुसार घटा-बढ़ाकर स्त्रियों के सम्बन्ध में अनेक परम्पराएं और भ्रांतियाँ प्रचारित कर दी है। इसलिए देश की स्त्रियां अनपढ़ रह गई हैं। बाबू बैजनाथ लिखते हैं:

‘‘अब यह देखना चहिए कि स्त्रियों के ऊपर यह वर्तमान अंधकार कैसे छाया और उस आदर और सत्कार के बदल कि जो शास्त्रों में उनका लिखा है ऐसे नीच और बुरे विचार स्त्रियों के विषय में क्योंकर पैदा हुए। स्त्रियां विद्याहीन क्यों रह गईं? और उनका बाल्यावस्था में विवाह होने का क्या कारण है इस सबका उत्तर हो सकता है कि क्षत्रियों और वैश्यों की इस दशा का बिगड़ना उन लोगों का अपने शास्त्र का पढ़ना छोड़ देना और ब्राह्मणों का दबाव बढ़ना और ब्राह्मणों का औरों को शास्त्र का अधिकारी न समझना और शास्त्र में जो चाहा सो बढ़ा देना यह सब इस आपत्ति का कारण हुआ जब लोगों को अपने धर्म का ज्ञान न रहा तो पंड़ितों ने भी जो चाहा सो धर्म के नाम से उनके सामने कह दिया और अपनी बातों पर ऐसा परदा डाला कि जिससे किसी के समझ में न आ सके।’’

यह लेखक तुलना करके बताता है कि हमारे देश की अपेक्षा अन्य देशों ने आजकल स्त्री शिक्षा में काफी उन्नति कर ली है जिसके कारण यह वर्तमान समय स्त्रियों का समय कहा जाता है। परन्तु हिन्दुस्तान में स्त्री शिक्षा की दशा बड़ी दयनीय और सोचनीय है। इस स्त्री हितैषी लेखक का मानना था कि जब तक इस देश के नागरिक स्त्रियों को शिक्षा दिलाने का यत्न नहीं करेगें तब तक गर्वमेन्ट का परिश्रम भी व्यर्थ जायगा। इसलिए प्रत्येक हिन्दुस्तानी का कर्तव्य बनता है कि वह स्त्री शिक्षा पर गंभीरता से विचार-विमर्श कर स्त्रियों की शिक्षा का बंदोबस्त करे। जिससे हिन्दुस्तान की स्त्रियां अंधकार की गुफा से बाहर आ सकें। बैजनाथ ने स्वाधीनतावादी दृष्टि से यह सवाल उठाया कि हिन्दुओं को इस बात पर लज्जा होनी चाहिए कि आजकल उनकी बहन-बेटियां इसाइयों के द्वारा कायम किए गए जनान स्कूलों में शिक्षा ग्रहण करने के लिए जाती हैं। इस लेखक की नज़र में ईसाइयों के जनाना स्कूल शिक्षा के कम धर्म परिवर्तन के अड्डे ज्यादा थे। बैजनाथ ने अपनी किताब में लिखा हैं, ‘‘वर्तमान समय में ईसाइयों की ओर से बहुत सी पाठशाला लड़कियों की शिक्षा के लिए नियत की गई हैं और बहुत सी स्त्रियां जनानों में पढ़ने के लिए जाती हैं परन्तु हिन्दुओं के लिए इससे अधिक क्या लज्जा की बात हो सकती हैं कि वे अपनी पुत्री और स्त्री जनों की शिक्षा ऐसे लोगों के हाथों में दें कि जिनका प्रगट अभिप्राय उनके धर्म को बदल देने का है।।’’ अखिर, हिन्दुओं के मन में यह भय क्यों बैठ गया था कि यदि स्त्रियां ईसाइयों के जनाना स्कूलों में पढ़ेंगी तो पक्का विधर्मी बन जायेगी।  बैजनाथ साहिब की कहना था कि स्त्रियों की शिक्षा ऐसे हम ईसाइयों के हाथों में नहीं दे सकते है जिनका उद्देश्य धर्म बदल देने का होता है।

बैजनाथ साहिब ने सन् 1881 की जनगणना के हवाले देते हुए बताया कि दस करोड स्त्रियों में से तीन लाख स्त्रियां शिक्षा पाती थी। और, आठ सौ इक्यावन में से केवल एक लड़की शिक्षा पाती थी। सन् 1881 की रिपोर्ट के आधार पर बैजनाथ साहिब ने बताया कि हिन्दुओं की सौ लड़कियों में केवल एक लड़की ही पढ़ती थी। और, मुसलमान स्त्रियों में पच्चीस लाख में पैंतीस सौ स्त्रियाँ लिख-पढ़ सकती थी जिनमें पच्चीस सौ स्त्रियों सुशिक्षित थी। इसी जनगणना के अनुसार ईसाई स्त्रियों की शिक्षा सबसे संतोषजनक थी। सन् 1881 की जनगणना के आधार पर बैजनाथ साहिब ने बातया कि ईसाइयों में सौ लड़कियों में पचास लड़किया लिख पढ़ सकती थीं। और सौ में से अड़तालीस लड़कियों सुशिक्षित और पढ़ी लिखी थी। बैजनाथ साहिब ने हिन्दु स्त्रियों की शिक्षा पर चिंता प्रकट की। इन्होंने गर्वमेन्ट पर आरोप लगाते हुए कहा कि सरकार ने स्त्रियों की शिक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना लड़कों की शिक्षा पर दिया है। यदि गर्वमेन्ट यह कहती है कि वह हिन्दुओं के धर्म और कानून में हस्तक्षेप नहीं करेगी तो उसने लड़कों की शिक्षा को लेकर हिन्दुओं के धर्म में क्यों हस्तक्षेप किया है? बैजनाथ साहिब का आग्रह था कि जैसे विक्टोरिया शासन ने हिन्दु लड़कों की शिक्षा का बंदोबस्त किया है, उसी प्रकार उसे लड़कियों की शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए। बैजनाथ का कहना था कि लड़कियों की शिक्षा के लिए अलग स्कूल नियत किए जाए। इन्होंने बताया कि सन् 1885 में बंगाल मद्रास और मुंबई प्रांत में कुछ पाठशालाएं स्थापति हुई थीं। लेकिन पश्चिमोतर प्रांत में इस तरह की पाठशालाएं स्थपति नहीं हुई जिससे इस प्रांत में स्त्री शिक्षा का अभाव है। इनका हिन्दुओं से कहना था कि वे सुसाइटियां बनाकर नगर-नगर में पाठशालाओं को खोलने में सरकार की सहायता करें। इस लेखक का स्त्री शिक्षा को लेकर यह भी सुझाव था कि स्त्रियों के लिए अलग से पाठशालाएं स्थापित की जाए क्योंकि अधिकतर हिन्दु अपनी बेटियों को लड़कों की पाठशालाओं में भेजना पसन्द नहीं करते हैं। इसलिए इन्होंने गर्वमेंट से अपील की कि लड़कियों के लिए गांव और नगर में विशेष स्कूल खोले जाएं और उनमें पढ़ने के लिए केवल स्त्री शिक्षकों को ही नियुक्त किया जाए। हिन्दू पुरुष अध्यापकों के स्कूलों में अपनी लड़कियों को पढ़ना पंसन्द नहीं करते थे। इसलिए इन्होंने शिक्षिकाओं की नियुक्त पर जोर दिया था ताकि हिन्दु अपनी कन्याओं को पाठशाला में भेजने के लिए राजी हो जाएँगे।

19वीं सदी के उतर्राध में स्त्री शिक्षा को बड़ी शंका की दृष्टि से देखा जा रहा था। धर्मध्वजा वाहकों का कहना था कि स्त्री शिक्षा से पतिव्रता धर्म स्थिर नहीं रहेगा, यदि स्त्रियां पढ़ेगी तो वे गृह कार्य करने से इन्कार कर देगीं। शिक्षा के प्रबन्ध से स्त्रियों का स्वभाव और चरित्र बिगड़ जायगा। इस तरह की भ्रांतियाँ पुरोहितों और पोथाधारियों की ओर से हिन्दू जनमानस में बैठा दी गई थी। इनकी दृष्टि में स्त्री शिक्ष का अर्थ था कि हिंदू धर्म और संस्कृति को चौपट करना। नवजागरणकालीन इस लेखक ने स्त्री शिक्षा को लेकर जो भ्रम और भ्रांतियाँ फैली थी उनका खंडन किया है। इस लेखक का कहना था कि शिक्षा का अर्थ यह नहीं है कि जीवन चरित्र बिगड़ जाए बल्कि शिक्षा का अर्थ अपने जीवन शैली में सुधार और समझ विकसित करना होता है। इन्होंने कहा कि यह केवल भ्रम है कि स्त्रियां पढ़ने से गृह कार्य का प्रबन्ध छोड़ देगी, सच तो यह है कि शिक्षित स्त्रियां ही गृहकार्य का बंदोबस्त ठीक से करती हैं। इस लेखक का यह भी कहना था कि स्त्रियां पढ़ी लिखी होंगी तो उन्हें पुरोहित पंडे और साधु लोग ठग नहीं सकेंगे। इनका यह भी तर्क था कि शिक्षित स्त्री अपने बच्चों का पालन पोषण ठीक से करती है। यदि स्त्री पढ़ी होगी तो उसकी संतान अपने आप पढ़ जायगी। इन्होनों मिस्टर पाॅल पैरिस के पाठशिक्षाध्यक्ष के कथन से हिन्दुओं को स्त्री शिक्षा का महत्व समझाया कि लड़के को पढ़ाने से तो केवल उसे ही शिक्षा मिलती परन्तु एक लड़की को शिक्षा देने का अर्थ है कि समस्त कुटुम्ब को शिक्षा देना। इस लेखक का कहना था कि स्त्रियां बुद्धिबल से कमजोर नहीं हैं। शास्त्रों में तो पुरुषों से आठ गुना उनकी बुद्धि  को बताया गया है। अब स्त्रियों को केवल गृह प्रबन्ध की शिक्षा देने से काम नहीं चलेगा, उन्हें भूगोल,इतिहास और गणित आदि विषयों की भी शिक्षा दी जाएं। इस लेखक ने ऐसी स्त्री शिक्षा की वकालत जिसमें स्त्रियों का सब प्रकार से विकास हो। इस लेखक की दृष्टि में यदि स्त्रियां विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के लिए उद्योग करें तो इसमें किसी प्रकार की हनि नहीं हैं। और, स्त्रियों की शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो प्रत्येक स्तर पर उन्हें योग्य और दृढ़ बनाने में उनकी सहायता करे। इसके लिए इन्होंने हिन्दुओं को सलाह दी कि प्रत्येक नगर में सरकार और व्यक्तिगत सहयोग से स्त्रियों के लिए पाठशालाएं खोली जाएं। परदादार स्त्रियों की शिक्षा के विषय में इस लेखक का विचार था कि उनको शिक्षित करने के लिए घरों में ही स्त्री शिक्षिकाओं का प्रबन्ध किया जाए। यह लेखक मानता था कि ईसाई मिशनरियों की परदादार स्त्रियों को शिक्षित करने में बड़ी अहम भूमिका रही है। यदि उन्होंने जनाना स्कूल नहीं खोले होते तो स्त्री शिक्षा की प्रगति जो दिखाई दे रही वह भी नहीं होती। लेकिन अब वह समय आ गया है कि हिन्दुओं की तरफ से अपनी स्त्रियों को शिक्षित करने का उद्योग किया जाए। इसके लिए उन्हें स्त्री शिक्षा के वास्ते बंगाल प्रांत के लोगों की तरह सुसायइटी बनाकर स्त्रियों के लिए नगर और गांव में पाठशालाएं कायम की जाए। इस लेखक ने इस बात पर जोर दिया की अब हिन्दुओं को स्त्री शिक्षा के लिए ईसाइयों पर अधिक दिन तक निर्भर नहीं रहा जा सकता है।

   हम देखते है कि इस नवजागरणकालीन लेखक ने अपने चिंतन में स्त्री शिक्षा की जबरदस्त वकालत की थी।  स्त्री शिक्षा को लेकर जो भ्रम और शंकाए थी उनका अपनी ओर से खंडन भी किया था। समाज की उन्नति का पैमाना स्त्रियों की उन्नति को माना था। इस लेखक ने स्त्रियों की बेहतरी के लिए गृह प्रबन्ध शिक्षा के अलावा इतिहास, भूगोल और गणित आदि विषयों की वकालत भी की। यह वही दौर तो जब स्त्री शिक्षा को लेकर तमाम तरह की शंकाए प्रकट की जा रही थी, ऐसे माहौल में बैजनाथ साहिब ने स्त्रियों की शिक्षा का पक्ष लिया था। इससे उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में पढ़ने की इच्छा रखने वाले स्त्रियों का मनोबल जरुर बढ़ा होगा।

(सुरेश कुमार नवजागरणकालीन साहित्य के गहन अध्येता हैं।)

मो.8009824098

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