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कविता शुक्रवार 13: यतीश कुमार की कविताएँ संजू जैन के चित्र

कविता शुक्रवार के इस अंक में यतीश कुमार की कविताएं और संजू जैन के चित्र शामिल हैं।यतीश कुमार (चार्टर्ड इंजीनियर और फेलो) भारतीय रेल सेवा के प्रशासनिक अधिकारी हैं। 22 वर्षों की रेल सेवा के बाद उन्हें भारत वर्ष के “सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम” का सबसे युवा अध्यक्ष एवं प्रबन्ध निदेशक बनाया गया। वे वर्तमान में “ब्रेथवेट एण्ड कंपनी लिमिटेड” का कार्यभार देख रहे हैं। इसके साथ ही वे कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (पूर्व) और इंस्टिट्यूट ऑफ इंजीनियर (IEI), कोलकाता के मैन्युफैक्चरिंग कमेटी के चेयरमैन भी हैं।
यतीश कुमार कोलकाता की साहित्यिक संस्था “नीलांबर कोलकाता” के अध्यक्ष का कार्यभार भी संभाले हैं। बाल श्रम के विरुद्ध विगत 12 वर्षों से लगातार कार्यरत हैं और इस सेवा के लिए कई गैर सरकारी संगठनों से भी जुड़े हुए हैं।
बिहार के मुंगेर जिले में जन्मे यतीश कुमार की अनेकों कविताएँ, लेख स्तम्भ, लघु कथा, समीक्षा एवं संस्मरण – हंस, नया ज्ञानोदय, अहा ज़िंदगी, वागर्थ, पूर्वग्रह, माटी, प्रभात ख़बर, नया पथ, कवि कुंभ, बहुमत एवं अन्य कई पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।
समालोचन, जानकी पुल, पहली बार, कविता कोश आदि चर्चित साहित्यिक वेब पत्रिकाओं पर भी उनकी रचनात्मकता देखी जा सकती है। चर्चित उपन्यासों, कहानियों, यात्रा वृतान्तों पर अपनी विशिष्ट शैली में कविताई और काव्यात्मक समीक्षा के लिए इन्होंनें अपनी एक अलग पहचान बनाई है।
आइए, कविता शुक्रवार के इस अंक में आपका स्वागत है- राकेश श्रीमाल

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भूल
——–
 
दानवों ने बजायी दुंदुभी
तारे नदारद और चाँद गुम
चारों ओर शैतानी आवाज़ें
मेरे अवतरित होने का सारा प्रपंच
 
धड़कन एक, देह एक
पर जब काटा
तो ओलनाल ही नहीं
धड़कन भी अलग कर दिया
 
पैर खुलने से पहले ही कट गए
पंख उगने से पहले ही झर गए
 
दो के बाद मेरा आना
छाया का परछाईं बन जाना
लड़के की चाह में, प्रेम की डाह में
समय से पहले आने की आहट में
न जाने और कितने बहाने
 
होटल के बिस्तर से फिसलती हुई
पतली सी स्ट्रिप पर पॉजिटिव बनकर उतर आई
और अब एक कचरे के डब्बे में
ठहर-ठहर कर साँस ले रही हूँ
 
अंतिम साँस में भी आलोड़ित है
प्रश्नों में बिंधे बद्दुआओं का लच्छा
जो गले को और कसता जा रहा है
 
रूह में टांके लगे हैं
ज़ख्म के सिवन हरे हैं
मौत पर जलसा सही
छूने को कोई तरसा नहीं
 
अस्पताल की सारी नालियाँ
जिस अंधे कुएं में मिल रही हैं
वहाँ हमारा पूरा कुनबा रहता है
बस एक ही सवाल को रिवाइंड करता रहता
 
कि आख़िर क्यों?
माँ, माँ नहीं थी
पिता, पिता नहीं थे
 
सबसे आसान नुस्खा उन सब ने अपनाया
और हमें सबसे सुविधाजनक नाम दिया ‘भूल’
 
 
 
कायांतरण में कविता
—————
 
समय की प्रतीति टुकड़ों में बंटी है
होंठ और ग्लास के बीच
वितृष्णा और तिश्नगी का पानी
एक सी थिरकन लिए हिल रहे हैं
 
अदाकार और प्रोम्पटर के बीच
चुप्पी में गुथा है समन्यवक
दोनों को नहीं पता
कि अगले पल कौन हँसेगा
 
कलदार सिक्का बिना खनखन के
काल के झरोखे से गिर पड़ा
पुरानी खनक को सुनने के लिए
उसे बार-बार पटका जा रहा है
 
पर्यावरणविद अचंभित है
एक चींटा को देखकर
दीवार पर रेंगते- रेंगते वो ठिठक गया
और वातावरण में नमी बढ़ गयी
 
कायांतरण में लोगों की बढ़ती दिलचस्पी
और रंगमंच से विरक्ति
यह सब देखते-देखते
नाटक मंच से खुद बाहर निकल गया
 
वृथा हैं कमज़र्फ के सारे प्रपंच
शब्दों का पाखंड अब मेरे पास नहीं
 
अब मैं कविता में भी ढूंढ रहा हूँ
कर्ता, क्रिया, कर्म ……
 
 
 
 
 
दर्पणी आँखें
———
 
आखेट के तीर की तरह
लटें छूती निकल गयी
मेरी आँखें बिजूका सी
खुली की खुली है तब से
 
ज्यादा चमकदार चींजें
आँखों में समा नहीं पाती
लकदक चेहरे की बत्ती
थोड़ी धीमी कर लो
 
पैरों के पोरों को देखा
और चूम बैठा
भीतर का शोर धीरे-धीरे अस्त होने लगा
और बादलों ने आसमां का दरवाज़ा खोल दिया है
 
सूरजमुखी को देख धूप से मोह जोड़ता हूँ
नजदीक जाकर देखता हूँ
पेड़ की छाल उतार कर
वहाँ कोई नाम लिख रहा है
 
अब हम वर्तमान से छिटककर
फ़िकरे और मुहावरे के बाहर
रहस्य में घुलते जा रहे हैं
 
भीतर एक धार है
जिसे झील में बदलना है
पानी के कीट-पोत की तरह
दिशाहीन बस बढ़े जा रहा हूँ
 
एक झिर्री से ताकती है
दो नज़रें आर-पार
एक की आँखें पारदर्शी
और दूसरी दर्पणी
 
मनाता हूँ
कि आँखों से गुजरते हुए
जिस्म पारदर्शी हो जाये
और मैं सारे लबादे एक-एक कर उतार दूं
 
 
 
 
 
वही पुराना सच
——–
 
खिड़की की धूप सीधे मेरे टेबल तक आती है
जिसकी बौछारों में
किताब की अख़बारी जिल्द
मटमैली हो रही है
 
उस पर अभी भी जो मुद्दा छपा दबा है
ग़ौर करने से दिख सकता है
समय के परे
जो बस बहे जा रहा है
 
आँखें वृत से चौकोर हो गईं
शब्दों की भीड़ से निकल
एक भीड़
सब कुछ लूटती निकल गयी
 
तभी ज़िल्द से उछलकर
समाज पर कसी एक फब्ती
मेरे हाथ आ गयी
 
यह वही पुरानी ख़बर है
कि कल फिर कोई बस में
अकेले सफ़र पर थी
 
निर्गुण लोक में ज्यादातर लोग
उपवास में रहते हैं
या नहीं तो अज्ञातवास में
 
शाश्वत यही है
कि जो संख्या में सबसे कम हैं
वही सबसे ताक़तवर हैं
 
 
 
 
 
चुनौती
——–
 
रह गया हूँ वहीं उसी के पास
जैसे शीशे की खिड़की पर
हाथ की छाप रह जाती है
 
घोड़े के नाल सा रोज़ घिस रहा हूँ
बस मुझे
बदला नहीं जा सकता
 
बिचरे सा नीलाम हो रहा हूँ
बस मेरी रोपनी नहीं हो सकती
 
प्रश्नों की तोप हर बार
मेरी ओर दागी गयी
और फिर हर दफा कंधे से उड़ गई
इस बार भी मैं निरुत्तर विक्रमादित्य-सा रह गया
 
बिना पानी में डाले
वह मुझे घुन की तरह गेहूं में ढूंढती रही
और मैं उसकी सोयी हुई स्मृतियों की लटों में
जूं की तरह टहलता रहा
 
गौरैये सा धीरज लिए
अब बौराना चाहता हूँ
निसिदिन टाँकना है
चुन-चुन कर एक-एक तिनका
 
और देनी है चुनौती तूफ़ान को
आशियाना बनाते हुए …….
 
 
 
 
 
संवादहीन मनुष्य
———
 
सारे सबब आलमारी में तहदार पड़े हैं
फिर भी बेचैनी है
कि ढूंढे जा रही है
 
बुझी हुई मोमबत्ती में
आलोक का आभास अब भी बाकी है
 
अलौकिक चेहरे का प्रतिबिम्ब
टूटे आईने में देखते-देखते
वह आदमी
सिमटा हुआ इंद्रधनुष बन गया
 
होठ के सामान्य सिकुड़न में
छुपी हुई है तिक्त बद्दुआएं
जिसकी कानाफूसी में
कानों के आकार बड़े होते दिख रहे हैं
 
दोपहर के अकेलेपन को खंगालते-खंगालते
शाम की तन्हाई से मिल आया
अब रात के मिलन की आस बाकी है
ज़िंदा रहने के बस यही बहाने हैं
 
पुरानी एलबम से बातें करता हूँ
चेहरे तरतीब से मुस्करा उठते हैं
और उस भीड़ में भी मैं
इंतज़ार की पीपें भरे जा रहा हूँ
 
दरख़्त की छांव में
बैठे हैं कई कवि
जो सबसे ऊंची फुनगी देखने की बात लिख रहे हैं
 
और कहीं घुप्प अंधेरे में
संवाद की जगह
बीड़ी जलाई उसने
 
संवादहीन मनुष्य
सबसे ज्यादा चुप्पी ओढ़े बैठा है
उसका न बोलना ही
लेखनी की सबसे बड़ी उपलब्धि है
 
 
 
 
 
 
टिमटिमाना
———
 
टिमटिमाहट
रगों में उतर आयी
ख्यालों के पंख उगे
और लम्हों का दायरा टूट गया
 
तारीक को चीरकर
क्षितिज से बाहर एक डेग
आसमान पर रखकर देखता हूँ
तितलियाँ परियों से जा मिलती हैं
 
वे रात में तारे बन जाती हैं
उनकी उम्र बस
ख्वाहिशों-सी छोटी होती है
 
आसमान से बेदखल
परियों के पंख झरते हैं
कुछ सपनों के भीतर
कुछ बाहर गिरते हैं
 
चिरन्तर टिमटिमाती हैं संभावनाएँ
इच्छाओं और सितारों की तरह
भस्म नहीं होतीं
 
सपनों को भी नहीं पता
कि मिनटों में मीलों पहुँचना
भस्म होने की यात्रा है
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संजू जैन : स्मृति की प्रकृति में पकते रंग

                                – राकेश श्रीमाल
               बचपन सबका होता है। भिन्न और अपने अलग परिवेश के साथ। इक्कीसवीं सदी में इस महामारी के कारण एकाएक समक्ष आ खड़ा हुआ खाली समय, भले ही कुछ लोगो को बचपन के स्मृति-जल में कागज की कश्ती को तैराने का हो गया हो, लेकिन वे बहुत थोड़े से मन होते हैं, जिनके लिए उनका बचपन उनकी अविरल रचनात्मकता का आधार-स्थल रहा हो। संजू जैन उन्हीं थोड़े से मन से एक हैं, जिनकी कला अपने ही उस बचपन के समय पर लगभग ठिठकी हुई अपने को पल्लवित करती है, जिस बचपन-समय से उनका जीवन फिलहाल बहुत दूर अवस्थित है।
           होशंगाबाद के पास नर्मदा नदी के तट पर बसे एक छोटे कस्बे ग्राम आरी में जन्मी तब की इस लड़की ने गाँव के मिट्टी के बने घरों में दीवारों पर उकेरी गई सुंदर आकृतियों को ही बचपन में नहीं देखा, उसके अबोध मन में, उस समय के आसपास के वातावरण ने भी उसके मन में अमिट जगह बना ली। गर्मियों की तपिश में, मिट्टी पर गिरे सूखे-धूसर पीपल के पत्तों को उड़ाते धूल के बवंडर में मटमैला सफेद और कथई रंग, मिट्टी के कणों में दुबका अपना अदृश्य पीलासपन, दरकती जमीन, उगते भुट्टे, हाथ-गाड़ी में लदे कलिंदे (तरबूज), अपने हरेपन को छोड़ चुकी घास, इत्यादि ने बाहरी दुनिया से पहले ही प्रकृति की इस जादुई दुनिया से तिलिस्मी परिचय मिलना शुरू हो गया था। इस परिचय से लगाव बढ़ता गया। यहाँ तक कि जब पाँच वर्ष की इस लड़की के पिता एक एक्सीडेंट में नहीं रहे, तब अपनी माँ के रुदन में भी उन्हें शायद प्रकृति का ही यह कोई रहस्यमयी काम लगा हो।
          बहरहाल उस लड़की को गाँव के मिट्टी से बने घर बहुत लुभाते थे। वह उन्हें बड़ी उम्र के लोगो के खेल की तरह ही देखती। कैसे वे गोबर से उसे लीपते-पोतते हैं। चूने और गेरू से उन पर तरह-तरह की आकृतियाँ बनाते हैं। जब कोई महिला अपने घर के आँगन को और विस्तार देती या घर के किसी हिस्से को और अधिक बढ़ाती, तब वह बनने की प्रक्रिया इस लड़की के लिए किसी कुतूहल से कम नहीं होती। उस समय घरों में बैठने की व्यवस्था भी हाथ से ही बनाई जाती। ये पत्थर के समतल टुकड़ों और मिट्टी से बनाए जाते, जिन्हें ओटला कहा जाता। मिट्टी, गोबर, लकड़ी के छोटे टुकड़ों और फूलों से खिलोने भी बनाए जाते। प्रायः घरों को घेरने के लिए बाड़ लगाई जाती, जिनमें कुछ जंगली शब्जियाँ अपने आप उग आती। वे खाने में कड़वी होती थी, तो बच्चों को खेलने के लिए दे दी जातीं। बारिश में ये बहुतायत से होती। वे तुरई या लौकी के आकार की होती। उन्हें पाकर वह लड़की और उसके हमउम्र दोस्त इसलिए खुश हो जाते कि वे उनसे जानवरों की कल्पनाशील आकृतियाँ बनाते। बाकायदा उन वनस्पति में मुँह भी बनाया जाता और पूँछ भी। उनमें सींग भी लगाए जाते और लकड़ी या अन्य किसी ठोस टुकड़े से चार पैर भी होते, ताकि उसे खड़ा किया जा सके। जिस बच्चें के पास अधिक जानवरों का काफिला होता, उसे गर्व होता। समझा जा सकता है कि उस मासूम उम्र में खेल-खेल में की गई यह रचनाशीलता कितनी मौलिक और उर्वरक होती होगी।
           इस लड़की के घर के पास ही एक कुम्हार का घर था। जहाँ वर्ष भर कुछ ना कुछ बनता रहता। प्लास्टिक का विकराल दैत्य उस कस्बे में नहीं आ पाया था, इसलिए मिट्टी से कई तरह की उपयोगी वस्तुएं बनाई जाती। उस कुम्हार के घर की एक उम्रदराज महिला अक्सर मिट्टी से बच्चों के खिलौने बनाती और उसमें रंग लगाती थी। उस आँगन में भी बच्चों की टोली खेलती रहती। उस लड़की के लिए उसके बचपन में पूरा मोहल्ला ही बच्चों के खेलने का आँगन था। सब बच्चों के लिए स्कूल से आने के बाद खेलना ही दिनचर्या थी। वह लड़की उन खिलौनों को बनते और उनके सूख जाने के बाद उनमें रंग लगाते हुए देखा करती। इस देखने में सीखना भी अदृश्य था।यह उसे बहुत बाद में पता चला।
               क्लास छह तक यानी ग्यारह-बारह की उम्र तक वह लड़की उसी कस्बे में पढ़ी-रही। लेकिन सातवीं कक्षा से पढाई के लिए उसे इंदौर जाना पड़ा। यह उसके लिए अभी तक के जीवन से बाहर के किसी दूसरे संसार में जाना जैसा ही था। इंदौर में उसे अजूबा भी लगा, लेकिन उसकी जिज्ञासा भी आसमान पाती रही। इंदौर में उसने पहली बार किसी लड़की को स्कूटर चलाते देखा। उस छोटे कस्बे से आई उस लड़की के लिए यह किसी अकल्पनीय दृश्य से कम नहीं था। धीरे-धीरे वह इस नए परिवेश से घुलने-मिलने लगी। उस बड़े आसमान में उसके सपने भी अपने पँख फैलाने लगे।
                संजू जैन नामक इस लड़की ने कॉलेज के एडमिशन फॉर्म में अतिरिक्त विषय के लिए आर्ट्स भरा। लेकिन वहाँ विशेष कुछ सीखने को नहीं मिला। अलबत्ता इतना जरूर हुआ कि कला को जानने-समझने की जिद मन में पलती रही। परिजन और परिचित तब आश्चर्य से भर गए, जब संजू ने ड्राइंग और पेंटिंग में एम ए करने का निर्णय लिया। सभी की अपेक्षा भी उससे बढ़ गई। अब संजू को उनकी इन अपेक्षाओं पर खरा उतरना था। तभी एम ए के अंतिम वर्ष के दौरान मकबूल फिदा हुसैन का कॉलेज में एक आयोजन में आना हुआ, जहाँ उन्होंने गणपति को चित्रित किया। संजू को पहली बार लगा कि चित्र इस तरह भी बनाए जाते हैं।
                 इसी दौरान उनकी शादी हो गई। उनके पति बैंक में थे। शादी के एक महीने बाद ही उनका ट्रांसफर भोपाल हो गया और अपनी गृहस्थी बसाने संजू भी भोपाल आ गईं। पति ने उन्हें भी नॉकरी के लिए प्रोत्साहित किया। वे मान गईं और उन्हें काम भी मिल गया। लेकिन मन कला की तलाश और उसमें रमने का बना रहा। तब भोपाल के एक वरिष्ठ चित्रकार लक्ष्मण भांड के यहाँ वे सप्ताह में एक दिन जाती और उनसे कला की बारहखड़ी सीखने लगी। वे उन्हें अन्ना कहती। एक अरसे बाद अन्ना ने उनसे कहा कि अब आगे का रास्ता भारत भवन से मिलेगा। वे भारत भवन जाने लगी। एक वर्ष तक वे भारत भवन की आर्ट गैलरी में वहाँ प्रदर्शित चित्र देखती रही। उनके देखने में कला का संसार विस्तृत हो रहा था। तब उन्हें नहीं पता था कि यहाँ कोई स्टूडियो भी है, जहाँ वर्कशॉप होती रहती हैं और वहाँ सीखा और अभ्यास किया जा सकता है। मालूम होने पर उन्होंने सिरेमिक स्टूडियो में काम सीखना शुरू किया। यहाँ काम करने का तरीका और तकनीक उस कुम्हार से बहुत भिन्न थी, जिसे उन्होंने अपने बचपन में चाक पर काम करते देखा था। यहाँ उन्होंने व्हील पर काम करने का प्रयास किया, लेकिन वह इतनी तेज गति से घूमता था कि उन्हें देखकर ही चक्कर आने लगते। तब वे ग्राफिक स्टूडियो में काम सीखने लगी। उन्होंने वहाँ चित्रकार अनवर को काम करते देखा और अमूर्त चित्र की सरंचना समझने लगी।
               संजू जैन के पास सपने और संघर्ष, दोनों ही बढ़ने लगे थे। वे गृहस्थी को सहेजती, अपने बच्चे को देखती, नॉकरी पर जाती और इन सबसे समय निकालकर ग्राफिक स्टूडियो में काम भी सीखती। शुरू में वे हँसी की पात्र भी रही, लेकिन स्थितियां सामान्य होने लगी और उन्हें चित्र-रचना करने में सुकून मिलने लगा। टीचर के रूप में उन्हें चित्रकार यूसुफ मिले, जिनसे उन्होंने बहुत डाँट भी खाई लेकिन सीखने को बहुत कुछ मिला और प्रेणना भी। उसी दौरान मध्यप्रदेश के नए विधानसभा भवन के लिए चित्र बनाने के उद्देश्य से एक राष्ट्रीय स्तर का केम्प हुआ, जिसमें उन्हें भी सहभागिता करने का अवसर मिला। उस केम्प में उन्होंने कई बड़े और नामचीन कलाकारों को चित्र बनाते देखा, जिसमें मनजीत बावा भी थे।
            वर्ष 1994 में ललित कला अकादमी, दिल्ली में एक ग्रुप शो में उनके चित्र प्रदर्शित हुए। उस शो को देखने इब्राहीम अल्काजी आए। उन्होंने कुछ कलाकारों को अपनी गैलरी ‘आर्ट हेरिटेज’ में बुलाया, जिसमें संजू जैन भी शामिल थीं। वहाँ उन्होंने कला पर बहुत बातें की। संजू जैन उनकी बातों से बहुत प्रभावित हुई। उस शो के बाद वे जब भी दिल्ली जाती, उन्हें अपने काम दिखाती। तब अल्काजी संजू जैन को कहते कि वे वे किसी कच्चे कलाकार को खड़ा नहीं करते। वे भोपाल आती तब अल्काजी उन्हें सवाल पूछते कि आप चित्र क्यों बनाना चाहती हो या उनके चित्रों में रंग कहाँ से आते हैं। वे यथासंभव जवाब देती रहती। इससे चित्रों के प्रति उनकी निष्ठा बढ़ी और उन्हें देखने-समझने की निज-दृष्टि में इजाफा हुआ।
             इसी दौरान फ्रांस से वरिष्ठ चित्रकार रजा का भारत आना भी होता रहता था। वे भोपाल जरूर जाते और सब लोगो का काम भी देखते। इसी तारतम्य में रजा ने संजू जैन के चित्र भी देखे और उनकी तारीफ की। रजा संजू जैन के चित्र भी खरीदते थे। तब संजू को लगा कि चित्रकला में पैसा भी आता है। यह उनके लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था। भारत भवन के सभी कलाकार साल भर रजा के आने की प्रतीक्षा करते। संजू जैन रजा की उनको लेकर कही बात याद करती हैं– “तुम्हारे भीतर जो बीज है, वह एक दिन हरा-भरा पेड़ बनेगा। तुम अपने आप पर विश्वास करना, भले ही तुम्हारे चित्रों को कोई बिलकुल भी पसन्द नहीं करे। तुम्हें चित्र बनाने की तुम्हारी राह पर ही चलना है।”
              संजू जैन का पहला सोलो शो इब्राहीम अल्काजी ने वर्ष 2007 में ‘आर्ट हैरिटेज’ में किया, जिसका उद्घघाटन रजा ने किया था। उन दोनों ने उस शो के चित्रों को काफी सराहा और अपने-अपने निजी संग्रह के लिए दोनों ने संजू जैन के काम भी खरीदें। बाद में संजू जैन को रजा अवार्ड से सम्मानित भी किया गया।
            संजू जैन कहती हैं कि– “चित्र बनाना सरल है, लेकिन चित्र तक पहुंचना कठिन है।” जाहिर है कि अपने इस एक वाक्य में वे अपनी रचना-प्रक्रिया और अपने चित्रों के बारे में एक संकेत तो देती ही हैं। उस संकेत को समझने के लिए उनके चित्र देखना ही पर्याप्त नहीं हैं। उनके चित्रों में उपस्थित उस स्वप्न-लोक को भी देखना होगा, जो उन्होंने अपने बचपन में साक्षात जिया है। इस मायने में वे उस अतीत की चित्रकार हैं, जिसकी रंग-सुंदरता और दृश्य-स्मृति उनके चित्रों में साधिकार रहती हैं।
               यतीश कुमार की इन कविताओं के साथ जो चित्र यहाँ हैं, वे उन्होंने पिगमेंट से बनाए हैं और इस तरह का काम भी उन्होंने पहली बार किया है। इन चित्रों की यह सार्वजनिक प्रस्तुति ‘जानकी पुल’ के कविता शुक्रवार में ही पहली बार हो रही है। पाठक संजू जैन के चित्र और चित्र-संसार पर बनी एक लघु फ़िल्म निम्न लिंक पर देख सकते हैं—
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राकेश श्रीमाल (सम्पादक, कविता शुक्रवार)
कवि और कला समीक्षक। कई कला-पत्रिकाओं का सम्पादन, जिनमें ‘कलावार्ता’, ‘क’ और ‘ताना-बाना’ प्रमुख हैं। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ के संस्थापक सम्पादक।
 
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21 comments

  1. विनोद मिश्र

    यतीश कुमार की रचनात्मक प्रक्रिया ही थोड़ा अलग किस्म की है।इस कविता का विन्यास तो और भी अलग है।ये कविता अपने अंदर अनेक तरह की संवेदनाओं को समेटे हुए है।इसीलिये प्रभावित करती है और मन को छूती है।सन्जू जैन को खूबसूरत चित्रों के लिए बधाई/शुभकामनायें।

  2. ऋतेश कुमार

    बहुत अच्छा काम कर रहे हैं राकेश जी. Corona के दौरान भी उन्होंने कलाकार के एकांत का बढ़िया सीरीज चलाया. और अब कविताओं और चित्रों, कवियों और चित्रकारों का ये सहमेल अद्भुत है.

  3. अनिला राखेचा

    सबसे पहले तो यतीश जी को अनेकानेक धन्यवाद। आपके माध्यम से संजू जी की कला यात्रा से हमारा परिचय हुआ। इस परिचय यात्रा में सुगमता से आगे बढ़ते रहें इसके लिए राकेश श्रीमाल जी एवं प्रभात रंजन जी का भी सहयोग शामिल रहा। यतीश जी की काव्य यात्रा से तो वक्त वक्त पर रूबरू होते रहे हैं मगर आज जितनी भी कविताएं पढ़ी, सबमें नवीनता के साथ साथ संवेदनाओं का सागर लहरा रहा था। इसी कड़ी में संजू जी पर बनी लघु फिल्म “प्रकृति स्मृति” भी देखी और जाना एक अनोखी अनुभूतियों से लबरेज कला मर्मज्ञ को। एक खूबसूरत सामंजस्य शब्दों और रंगों का। कविताएं जहां मन को उद्वेलित कर रही थी शब्द हलचल मचा रहे थे अंतस में गहरे वही पिगमेंट से बनाए संजू जी के चित्रों ने उन्हें सुकून प्रदान किया। काफी दिनों से इंतजार भी था और आज बेहद खुशी हो रही है कला के अलग अलग क्षेत्र के दो महारथियों का इतना खूबसूरत समन्वय देख कर। यतीश जी आपकी “भूल” कविता ने जहां निशब्द किया वहीं “चुनौती” मन में बस गई। पुरानी खनक को सुनने के लिए उसे बार-बार पटका जा रहा है/ सपनों को भी नहीं पता कि मिनटों में मिलों पहुंचना भस्म होने की यात्रा ही है / शाश्वत यही है कि जो संख्या में सबसे कम है वही सबसे ताकतवर है।
    राकेश श्रीमाल जी व प्रभात रंजन जी को साधुवाद और यतीश जी एवं संजू जी को हार्दिक बधाई, अनेकानेक शुभकामनाएं।

  4. शानदार कविताएँ और बेहद ख़ूबसूरत चित्र

  5. संजू जैन के चित्रों के साथ यतीश कुमार की कविताओं का यह सम्मिलन अद्भुत है। आप दोनों को बधाई 💐💐💐

  6. आशुतोष

    यतीश कुमार की कविता और संजू जैन के चित्रों की युगलबंदी की लयकारी ने मुग्ध कर दिया।

  7. Dr Braj Mohan Singh

    लाजवाब कविता…जीवंत स्मृतियाँ, चित्र,भाव…रंग संयोजन…प्रिय यतीश जी एवं संजू जी को हार्दिक साधुवाद और श्रीमाल जी को भी बधाई

  8. यतीश जी की शानदार संवेदनशील कवितायें जो मन को छूती हैं !!

  9. Bhut hi behatrin kavitayein !

  10. मार्मिक! काश की ये सब कुछ यथार्थ से परे सिर्फ कविता कहानियों में रह जाये ! सुन्दर रचनाएँ, यतीश !

  11. यतीश जी की कविताएँ दुर्दिन समय को परिभाषित करती है, ये कविताएँ मन को आंदोलित करती हैं और बहुत गहरा प्रभाव भी डालती हैं.
    यतीश जी की कविता शैली कमाल की है.
    संजू जी के चित्र अद्भुत हैं
    दोनों को बधाई

  12. कमाल की कविताएं
    सुंदर चित्र
    दोनों को बधाई

  13. यतीश कुमार बहुत अच्छा काम करते जा रहे हैं। एक तरफ यदि वे काव्य समीक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट काम कर सकते हैं वहीं रोजाना के जीवनानुवों को भी आधार बनाकर बेहतरीन रच सकते हैं। यतीश लगातार विकास कर रहे हैं। वह दीवार में खिड़की रहती थी, पर यदि कविताएं लिख सकते हैं, तो वहीं उनमें यह कहने का साहस है कि जो संख्या में कम है वही ताकतवर है। और यही शास्वत है। इन पंक्तियों के जरिए दरअसल उन्होंने पूरे सिस्टम पर व्यंग्य किया है। यथास्थिति को कटघरे में खड़ा किया है। बहुजन की उपेक्षा की ओर उन्होंने इशारा किया है। स्त्री विषयक कविता लिखने में तो यतीश माहिर हैं ही। बहरहाल, यतीश भाई को इतनी सुंदर कविताएं लिखने के लिए बहुत-बहुत बधाई।

  14. रचना सरन

    इस कमेंट बॉक्स तक आते आते एक बेहद ख़ूबसूरत , दिलचस्प और इंसानी ज़ज़्बातों से लबरेज़ सफर के एहसासों की ख़ुश्बू दिलोज़ेह्न में समा गयी । Reverse gear में चलें तो सबसे पहले संजु जैन जी के व्यक्तित्व को दर्शाती ” प्रकृति स्मृति ” ने दिल जीत लिया । जितनी ख़ूबरू उनकी पेंटिंग्स , वैसी ही ख़ूबरुई उनके चेहरे ,उनकी बातों और मुस्कान पर ! पूरी फिल्म के दौरान एक सुकूँ भरी मुस्कान हमने ख़ुद के चेहरे पर भी पायी – अच्छा लगा । संजु जी के चित्रों ने यतीश जी की कविताओं को और भी मुखर कर दिया ।
    यतीश जी की लेखनी हमेशा ही अचंभित कर देती है । असरदार कहन और शानदार बिम्बों का संप्रेषण एक एक शब्द को ऐसे जीवंत कर उठता है कि जैसे कोई छायाचित्र चल रहा हो । कुछ पंक्तियों ने ख़ासतौर पर हमें अपनी ओर आकर्षित किया —

    ★”चिरन्तर टिमटिमाती हैं संभावनाएँ
    इच्छाओं और सितारों की तरह
    भस्म नहीं होतीं..”
    ★”वह मुझे घुन की तरह गेहूं में ढूंढती रही
    और मैं उसकी सोयी हुई स्मृतियों की लटों में
    जूं की तरह टहलता रहा..”
    ★”शाश्वत यही है
    कि जो संख्या में सबसे कम हैं
    वही सबसे ताक़तवर हैं”
    ★”रूह में टांके लगे हैं”….झकझोर दिया *भूल* ने !

    इस आलातरीन पेशकश के लिए यतीश कुमार जी, संजु जैन जी, राकेश श्रीमाल जी , प्रभात रंजन जी और Jankipul.com की पूरी टीम को बहुत बहुत मुबारकबाद !💐

  15. विविध सामयिक विषयों और भावनाओं को समेटती हुयी संवेदनाओं से परिपूर्ण कविताएँ मन में एक छाप छोड़ जाती है । ‘न बोलना ही लेखनी की सबसे बड़ी उपलब्धि है ‘ कितना क्रूर सच है ।संजू जैन के पिगमेंट से बने चित्र प्रभावित करते है ।जैसे कविता के हरे भरे दरख़्तों में उगे फूल ।

  16. जिंदगी के सच को छूती रचनाएँ और कम रंगों या कम लकीरों में भी उन कविताओं को मुखरित करते संजू जैन जी के चित्र ।अद्भुत प्रयोग

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