अशोक कुमार पांडेय की किताब ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ जब से प्रकाशित हुई है ऐसा लगता है जैसे सोशल मीडिया पर भूचाल आ गया हो। बहुत दिनों बाद किसी किताब का ऐसा स्वागत होते देखा है। यह पुस्तक बताती है कि हिंदी का नया पाठक अपने इतिहास के प्रसंगों पर अपनी भाषा में प्रामाणिक पढ़ना चाहता है। अशोक की यह किताब उनकी उम्मीदों पर खरी उतर रही है। मुझे इस किताब को लेकर अभी विस्तार से लिखना है। फ़िलहाल आप राजकमल से प्रकाशित इस किताब की यह समीक्षा पढ़िए जो अंकित द्विवेदी की लिखी है- प्रभात रंजन
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सच और झूठ की लड़ाई सदियों से चली आ रही है। ईश्वर के सामने या पूजा/प्रार्थना में सच कबूलने से बेहतर है कि हम यही पर उस सच को कबूल करके अपने जीवन को आसान बना लें। इसी सच झूठ की लड़ाई में सच के साथ तनकर खड़े होने की हिम्मत ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ नामक किताब दे रही है।
सवाल ये हैं कि उसने गांधी को क्यों मारा? इसी सवालों का जवाब देती यह किताब प्रमाणिक ऐतिहासिक तथ्यों से भरी हुई है। सोशल मीडिया की बहस में जब भी कोई किसी हत्या को जस्टिफाई करने की कोशिश करता है। वो वही दलीलें देता है, जो उस कुख़्यात हत्यारे ने महात्मा की हत्या करके दिया था।
लेखक अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, “सच बोलने के लिए आपको तैयारी करनी पड़ती है। सन्दर्भ देखने होते हैं। झूठ के लिए बस एक पतित उद्देश्य काफ़ी है। फिर आप घण्टों बोल सकते हैं।” उसी पतित उद्देश्यों को पाने की लिए आज भी उस हत्यारे के पक्ष में दलील दी जाती है।
पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष और बाद में मुस्लिम लीग के नेता बने मियाँ इफ़्तिख़ारुद्दीन ने गांधी की हत्या पर कहा था, ” हममें से हरेक जिसने पिछले महीनों में बुगुनाह मर्दों, औरतों और बच्चों पर हाथ उठाया है, जिन्होंने सार्वजनिक या निजी तौर पर ऐसे कृत्यों का समर्थन किया है महात्मा गांधी की हत्या का भागीदार है।”
गांधी की हत्या के बाद फरवरी 1948 में नेहरू ने पटेल को लिखे अपने पत्र में कहा था कि आरएसएस के बहुत सारे लोग हमारे दफ़्तरों और पुलिस में हैं। नेहरू की इस बात का प्रमाणिकता इससे भी होती है कि 20 जनवरी को हमला करने वाले मदनलाल पहवा का बयान दिल्ली पुलिस ने दर्ज कर लिया था। उसके बाद भी गांधी पर अगला हमला नहीं रोका गया। लेखक कहते हैं कि शायद दिल्ली पुलिस के अंदर कुछ ऐसे लोग थे जिनकी रुचि गांधी को बचाने में नहीं थी।
पेशवा राज्य की पुनर्स्थापना, पुरातन जातिय व्यवस्था को लागू रखने की चाहता भी उन हत्यारों की थी। जिनके निशाने पर गांधी थे। उन्हें अपने इस पतित मिशन में सबसे बड़े बाधक हिन्दू धर्म के आध्यात्मिक पक्ष पर अडिग गांधी दिखते थे। एक तरफ सत्य और अहिंसा के सहारे गांधी हिन्दू धर्म में सबके लिए समान अवसर की वकालत कर रहे थे। दूसरी तरफ उनके हत्यारे के गुरु सावरकर तब तक विचारों की लड़ाई में कुढ़ते हुए अंग्रेजों के सहयोगी बन गए थे। उनकी अध्यक्षता में ही में हिन्दू महासभा मंदिरों में दलितों के प्रवेश का विरोध कर रही थी। जबकि गांधी हरिजन बस्तियों में अपना समय बिता रहे थे। लेखक कहते हैं कि सावरकर कपड़ों की तरह विचार बदलते नज़र आते हैं तो गांधी के लिए विचार आत्मा का हिस्सा थे। जिनके साथ समझौता करने से बेहतर वह जान देना समझते हैं।” ये वैचारिक कुढ़ता भी गांधी की हत्या की एक वजह थी।
गांधी जी के उपवास और अहिंसा पर तमाम बनी हुई गलत धारणों का जवाब देते हुए किताब के लेखक एक जगह कहते हैं, ” जिन्हें अहिंसा की भाषा नहीं आती, जो धर्म के नाम पर कर्मकांड से आगे नहीं बढ़ पाते, उनके लिए यह समझ पाना मुश्किल है कि गांधी के लिए उपवास भी अहिंसा का एक परिष्कृत उपकरण था, अपने मन की बात मनवाने का हथियार नहीं।” वो आगे कहते हैं कि गांधी को पढ़ते हुए कोई भी अंदाज़ा लगा सकता है कि उन्हें अपने हिन्दू होने पर गर्व था। लेकिन उनका हिन्दू होना उन्हें दूसरों से नफ़रत करना नहीं सिखाता था।
गांधी की हत्या की जांच के लिए कपूर कमीशन का गठन हुआ था। इस हत्याकांड की जांच करने वाले एक पुलिस अधिकारी के जुटाए हुए तथ्यों पर कमीशन का मत था, “सावरकरवादियों द्वारा महात्मा गांधी की हत्या के अलावा अन्य सभी थियरीज़ को ख़ारिज करते हैं। लेखक इसमें तत्कालीन बम्बई के गृहमंत्री रहे मोरारजी देसाई की भूमिका पर भी सवाल उठाते हुए कहते हैं, “क्या गांधी हत्या का षड्यंत्र खुलने से कुछ और लोगों पर आँच आने की सम्भावना थी? ये वो सवाल है जिनका जवाब अब मिल पाना सम्भव नहीं लेकिन गांधी हत्या के दस्तावेज पढ़ते बार-बार कौंधते हैं।”
वो हत्यारा कौन था? क्यों उसने एक 80 साल बुजुर्ग के सीने में गोलियां उतार दी। इसे बताने लिए लेखक ने कृष्ण कुमार को उद्धृत किया है। कृष्ण कुमार कहते हैं, “गोडसे ना पागल था और न ही कट्टरपंथी, लेकिन विचारधारा दिमाग़ के साथ क्या कर सकती है। इस अन्तदृष्टि का उदाहरण उस स्थल पर जाकर हर बार सहज ही ज़ाहिर हो जाता है, जहां गांधी गिरे थे।”
किताब में करीब 30 पेज सन्दर्भों को बताने के लिए खर्च किये गए हैं। जो इसके तथ्यों और तर्कों को अकाट्य साबित करते हैं। हिन्दी के पाठकों के लिए ऐसी किताब कम ही लिखी गई है। आधुनिक इतिहास का छात्र होने के नाते मैं व्यक्तिगत रूप से ये कहना चाहूंगा कि ये किताब करीब 10 साल पहले हमारे अकेडमिक दिनों में आ जानी चाहिए थी। जिससे मुझे किताबों की तलाश में भटकना नहीं पड़ता। झूठ की दुनिया में सत्य को आत्मसात करने के लिए ये किताब पढ़ना जरूरी है। किताब अमेज़न सहित तमाम प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध है। जिसे राजकमल प्रकाशन ने छापा है।
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अंकित द्विवेदी
ankit54017@gmail.com
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