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राजकुमारी की कहानी ‘सरनेम’

आज पढ़िए युवा लेखिका राजकुमारी की कहानी कहानी ‘सरनेम’। राजकुमारी दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में पढ़ाती हैं। उनका एक उपन्यास भी प्रकाशित हो चुका है। आप यह कहानी पढ़िए-

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कमरे में सामने की दीवार पर एक बड़े फ़्रेम में ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर टंगी थी, जिसमें एक औरत फूल प्रिंट के बॉर्डर वाली साड़ी पहने अपने एक पाँव को दूसरे पाँव पर चढ़ाकर, एक घुटने पर दोनों हाथ एक-दूसरे पर रखे कुर्सी पर बैठी थी,जैसे कोई गर्विता स्त्री सिंहासन पर विराजमान हो। उसके माथे पर छोटी सी बिंदी थी, मांग में सिंदूर की काली रेखा थी, उसके नैन-नक्श देखने में तिरछे भाले से प्रतीत हो रहे थे। उसने दो गूथ की चोटियों को आगे सीने पर झूलने के लिए छोड़ रखा था। कानों में राउंड इयररिंगस; एक कलाई में चूड़ियां और दूसरी कलाई में सुइयों वाली साधारण घड़ी बँधी थी। उसके गेटअप से लग रहा था,जैसे पुराने ज़माने की किसी फ़िल्म की कोई हीरोइन।

ये क्लासिक तस्वीर कमरे में पलँग के पीछे की दीवार पर टंगी थी जो, वॉल इंटीरियर डेकोरेशन से सुसज्जित थी। बैड के ठीक पास चकोर टेबल पर एक लैंप रखा था और एक फाइल पड़ी थी। उस फ़ाइल के ऊपर रंग-बिरंगे पेपरवेट के नीचे दबे पड़े थे कुछ कागज़ात। साइड की दीवार पर चटक रंगों से बनी मधुबनी पेंटिंगस मुस्कुरा रही थी। मल्टी कलर से पुती दिवार पर टँगा सतरंगी ड्रीम कैचर सामने वाली खिड़की से आ रही मस्तानी हवाओं के झोंको से यूँ उड़ रहा था, जैसे नील गगन में रंग-बिरंगे पंछी। वहीं कुछ फ्रेम में जड़े कर्सिव राइटिंग में लिखे स्लोगन भी दीवार पर शोभायमान थे, जो बेहद खूबसूरत और आकर्षक लग रहे थे।

इस बेहद आकर्षक एवं आलीशान कमरे में झूलती कुर्सी पर एक स्त्री पसरी पड़ी थी, जो अत्यंत गंभीर मुद्रा में हताश निगाहों से निर्निमेष होकर छत को ताक रही थी। वह देखने में पतली गौरी-चिट्टी थी। उसकी आँखें आम की फांक सी थीं। उसके होंठ चॉकलेटी कलर की लिपस्टिक से रंगे हुए थे; जो देखने में डेरी मिल्क सिल्क से कमतर नहीं आंके जा सकते थे। उसने ऑरेंज कलर की चुस्त कमीज़ और सफ़ेद लैगिंग पहनी थी। उसके वक्षस्थल पर सफ़ेद नेट का दुप्पटा ऐसे फैला था, जैसे धरती पर सफ़ेद बर्फ़ की दूर तलक फैली हुई धवल परत। वह नाज़ुक बदन लड़की देखने में बार्बी डॉल-सी लग रही थी। वह अपने विचारों में पूर्णतः मग्न थी कि तभी हवा के एक शरारती झोंके ने ढीठ बच्चें सम कमरे में प्रवेश कर खिड़की को जबरन घक्का मारकर दीवार से भिड़ा दिया। खिड़की की आवाज़ ने उस आकर्षक दिखने वाली लड़की की गहन एकाग्रचित्तता को भंग कर दिया। उसने कुर्सी से पीठ और गर्दन उठाकर देखा। खिड़की से दिखाई देने वाला सम्पूर्ण आकाश छोटे-बड़े सफ़ेद बादलों से पूरित था। धूप-छांव बालकों की भांति लुक्का-छिपी खेल रही थी। वह कुर्सी से उठी और बाहर के सुहावने मौसम की ओर खिंची चली गई। वह कमरे की खिड़की पर जाकर खड़ी हो गई और कमरे से बाहर झांकने लगी। वह देखने लगी कि धूप की किरणें स्वर्ण चुनर ओढ़े गार्डन में आ चुकी थीं और धीरे-धीरे खिले गुलाबों से सरककर हरी दूब की गोद में जा बैठी थी। छांव भी अपने करतब दिखाती हुई उछलकर पेड़ पर चंचल शिशु-सी खेल रही थी।

वह अपने अपार्टमेंट में लगे वृक्षों पर नज़र दौड़ाने लगी; जिनमें से प्रकृति की कुछ मद्धम मधुर आवाज़ें पत्तों से छनती हुई उसके कानों तक पहुंचकर उसे मुग्ध करने लगी।

सोसायटी के आंगन में लगे बगीचे के फूलों पर उड़ती रंग-बिरंगी तितलियों को देखकर हल्की मुस्कान उसके होंठों पर बिखर गई। जामुन और आम के विशाल वृक्ष पर कोयलों के कूकने, चिड़ियों के चहकने की मोहक ध्वनियों ने उसके पैरों को वहीं जमा दिया। अचानक ही उसकी आंखों ने उस नन्हीं गिलहरी को देखा, जो करतब दिखा रही थी। वह कभी अपनी सरकंडे के फूल-सी पूंछ को उठाकर सिर पर ताज बनाकर नाचती, तो कभी उसे तेज़ हवा में फ़हरती पताका-सी लहराने लगती। कभी मनमौजी बन फर्श पर दौड़ती, तो कभी इत्मीनान से किसी टुकड़े को दोनों हाथों में उठाकर कुतरने लगती। उसकी चंचलता, चपलता उसे दिनभर दौड़ाती। वह बार-बार पूंछ नचाकर इधर-उधर भागती रहती। देखते ही देखते वह पल भर में  नज़रों से ओझल हो गई और पलक झपकते ही पेड़ की घनी छांव में पगडंडी पर अपनी जोड़ीदार के साथ फ़िर  प्रकट हो गई। वे दोनों पगडंडी को खेल का मैदान समझ एक-दूसरे के आगे-पीछे दौड़ने लगी। उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होने लगता जैसे दो प्रेमी प्रकृति की वादियों में उन्मुक्त विचरण कर रहे हों। प्रेमी? ये शब्द मन में आते ही जैसे उसके मस्तिष्क में बिजली-सी कौंध गई हो। “क्या ये दोनों प्रेमी है?” उसके मन में एक प्रश्न अकस्मात ही उठ गया।

“अगर ये प्रेमी है तो? इनमें से नर कौन है और मादा कौन?” उसने फ़िर मन ही मन प्रश्न किया।

“हां! इन दो गिलहरियों में कौन नर है? कौन मादा? क्या किसी ने सोचा कभी? शायद! नहीं। कोई जानता नहीं या जानने का प्रयास किया नहीं गया?” उसके अवचेतन मन में एक के बाद एक कई ऐसे प्रश्न उठते गए जिनका उत्तर भी वह स्वयं से ही पाना चाहती थी।

“तितली, चिड़िया, गिलहरी को सब जानते हैं, लेकिन कोई क्यों नहीं जानता किसी गिलहरा, तितला, कोयला या चिड़ा को? कोई ऐसे क्यों नहीं कहता; जबकि नर भी होते हैं? हम केवल जानते हैं तितली, कोयल, चिड़िया और गिलहरी को। इनकी पहचान मादा से है न कि नर से। इन सभी की अपनी पुख़्ता और मुक्कमल पहचान है; स्वतंत्र अस्तित्व है, फ़िर एक स्त्री की पहचान और अस्तित्व क्यों नहीं?

क्यों और किसलिए वह अपनी पहचान अपने अस्तित्व को सभी के मुताबिक़ बदल डाले? क्यों… यों…..?” वह शरीर से स्थिर थी किन्तु विचलित मन में लगातार सवालों के उठे तूफ़ान से जूझ रही थी।

उसी दौरान तीव्र गति से चल रहे हवा के झोंको ने कमरे के भीतर हुड़दंग मचा दिया। रंगीन पेपरवेट के नीचे दबे कागज़ों में से निकलकर एक कागज़ उड़कर दीवार की छाती से जा लिपटा।

टेबल पर पड़ी रेड कलर की फाइल का भी एक पट खुल गया, जिससे उस फ़ाइल में दबे पेपर्स भी फाइल से बाहर ऐसे झाँकने लगे, जैसे किवाड़ की ओट से झांकते बच्चे। उस लड़की ने अपनी गर्दन घुमाते हुए कंधे के ऊपर से पीछे की ओर देखा। वह कागज़ जो दीवार से चिपक गया था उसे, उसने उड़ता हुआ तो देखा किन्तु, देखने के बावजूद भी वह अपनी जगह से टस से मस नहीं हुई। वह उस कागज़ को सरसरी नज़र से देखकर फिर से खिड़की के बाहर की दिशा में मुंह घुमाकर खड़ी हो गई। उसने उस फ़ाइल और पेपरवेट के नीचे दबे दस्तावेजों को यूँ नज़रअंदाज कर दिया, जैसे उन दस्तावेजों का उसके जीवन में कोई महत्व ही नहीं था। उसने उन दस्तावेजों को उनके हाल पर ही छोड़ दिया और एक लंबी गहरी सांस छोड़कर पुन: सोसाइटी के गार्डन में अपनी मस्ती में खेल रहे उस गिलहरियों के जोड़े पर अपनी दृष्टि जमा ली।

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कुछ देर बाद एक भद्र पुरुष ने उस कमरे में प्रवेश किया। उसका नाम अभिनव था और वह उस स्त्री का, जो खिड़की के बाहर नज़र जमाये हुए थी, का पति था। उसकी उम्र लगभग चालीस के आस-पास थी। उसने ब्लू जींस और सफ़ेद टी-शर्ट पहनी हुई थी। उसके सिर और हल्की दाढ़ी में कुछ अधपके सफ़ेद बाल चांदी के तार-से चमक रहे थे। वह दिखने में शालीन स्वभाव का नज़र आ रहा था। वह खिड़की के पास खड़ी उस महिला को देखने लगा, जो अब भी अपनी धुन में शांत खड़ी उस गिलहरी के जोड़े को देख रही थी। अभिनव ने हल्की-सी बनावटी खाँसी से उसका ध्यान भंग करने की चेष्टा की और फ़िर धीरे से उसे पुकारा, – “अवंतिका।”

“हूं।” वह जैसे नींद से जाग गई। उसने पीछे की ओर मुड़कर देखा।

“मैं ऑफिस जा रहा हूं।” अभिनव ने अपनी कलाई पर घड़ी बांधते हुए कहा।

“ह्म्म्म!” अवंतिका ने फ़िर हुंकारा और धीमे क़दमों से चलते हुए अपने बैड के निकट अभिनव के सामने आकर खड़ी हो गई।

अभिनव अपनी घड़ी को बाँधने के बाद बातों के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए फिर अवंतिका से मुखातिब हो गया,-“सुनो! तुम भी थोड़ी देर में निकल ही जाना; ताकि ये काम भी जल्द से जल्द फिनिश हो जाए।”

“हाँ! कोशिश करूँगी।”

“कोशिश नहीं! काम ही करना है। कब तक लेकर बैठी रहोगी इसे?”

“मेरे हाथ में है क्या ये काम? कोशिश कर रही हूँ न?”

“तुम्हें जो करना है जल्दी करो। मैं अपनी पूरी लाइफ़ को इस नाम के साथ अब और नहीं ढो सकता।” उसके माथे की त्यौरियां चढ़ गई। “जल्दी निकल लेना। मैं भी निकल रहा हूँ।” उसने  रूष्ट भाव जताते हुए उसे देखा फ़िर अपने लैदर हैंड बैग को उठाया और दरवाज़े की ओर रुख  करने लगा। वह आगे बढ़ने ही वाला था कि अचानक उसकी नज़र दीवार के सीने से सटे उस कागज़ पर जा पड़ी, जो हवा के झोंके से उड़कर वहाँ जा चिपका था।

“यार….आर..र… मेरी समझ में नहीं आता कि तुम कहां खोई रहती हो? इतने इंपोर्टेंट पेपर्स उड़ रहे हैं और तुम हो कि बे-परवाह खड़ी हो। तुम इतनी लापरवाह कैसे हो सकती हो? जानती हो न कितनी चप्पलें घिसने के बाद ये काम यहां तक पहुंचा है? जानती हो न? फ़िर भी…?”  अभिनव ने गर्दन को क्रोध में दाएं-बाएं हिलाकर  बड़बड़ाते हुए कहा।

उसने एक बार पुनः अवंतिका की तरफ़ देखा, वह अब भी स्थिर व शांत खड़ी उसे देख रही थी।

अभिनव ने अपने दांत भींच लिए और तेज़ी से गहरी सांस छोड़ते हुए दरवाज़े की ओर बढ़ गया। बाहर निकलने से पहले उसने फ़िर वही बात दोहरायी,- “देर मत करना। तुम्हारे लिए समय की कीमत हो या न हो, लेकिन मेरे लिए है। चलता हूँ। बाय! हैव अ गुड डे!”

वह फुर्ती से दरवाज़े से बाहर निकल गया। अवंतिका अपनी जगह पर मूर्तवत ख़ामोश खड़ी उसे जाते हुए देखती रही।

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अभिनव तो कमरे से बाहर चला गया, लेकिन जैसे वह गया, वैसे ही अचानक एक और पुरुष उसकी स्मृतियों में आकर उसकी एकान्तता में दख़लअंदाज़ी करने लगा। कौन था ये दूसरा पुुरुष, जो बिना किसी रोक-टोक के उसके स्मृतिपटल पर उभरता ही जा रहा था? वह अपनी जगह पर स्तब्ध खड़ी अपने अतीत की कश्ती में सवार होने लगी, जहां उसकी जीवन रूपी नाव बीच मझधार में बार-बार हिचकौले खा डगमगाने लगी थी। जहां नाविक ने विस्तृत समुंद्र के बीचो-बीच लाकर उसे डुबो देने का भरसक प्रयास किया था।  वह आज फ़िर से ख़ुद को उस डूबते व्यक्ति की भांति महसूस कर रही थी, जो तीव्र लहरों के प्रवाह के मध्य अपनी जान बचाने के उद्देश्य से हाथ पैर मारकर जीने के लिए छटपटा रहा होता है। सात साल पूर्व उसकी शादी देहरादून मैं रहने वाले वैभव सक्सेना से हुई थी। देहरादून, जो इंडिया के सबसे पुराने शहरों में से एक शहर माना जाता है। हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में बसे इस खूबसूरत शहर में हमेशा से बारकोट मंदिर, क्लेमेंट टाउन प्रसिद्ध रहे और अब यह स्मार्ट सिटी के रूप में स्थापित है। ये शहर अपने प्राकृतिक सौंदर्य की वज़ह से पर्यटकों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र भी रहा है। अवन्तिका और वैभव एक-दूसरे के साथ कॉलेज के समय से जुड़े थे। वैभव उसके कॉमन फ्रेंड्स सर्कल का सबसे नॉटी बॉय था। उसमें बातों ही बातों में सबको अपना बना लेने की अद्भुत क्षमता थी। उसका मज़ाकिया स्वभाव और बात-बात में दोस्तों के सामने अवन्तिका की तारीफ़ करना उसकी आदतों में शुमार था। वे दोनों एक ही कोचिंग सेंटर में रिटर्न एग्जाम की तैयारी भी कर रहे थे। उन दोनों के मध्य वर्ग, पैसे और रुतबे में भी कोई ख़ास अंतर नहीं था। यह अंतर न होने की वज़ह से परिवार वालों ने उनके प्रेम प्रसंग को एक सामान्य शादी में कैंवर्ट कर दिया गया था।

ग्रेजुएट होने के चार साल बाद उनकी शादी हुई थी। तब तक वे दोनों जॉब भी करने लगे थे। जब उनकी शादी हुई तो अवन्तिका के पापा इस बात को लेकर बेहद खुश थे कि उसकी शादी बड़े घराने में हो रही है। हमरुतबा लोगों में शादी-ब्याह के संबंध अच्छे निभते हैं ऐसी धारणा उसके घर और रिश्तेदारों में बनी हुई थी। दोनों की जॉब होने के कारण भी इस युगल को परफेक्ट कपल के रूप में देखा जा रहा था। वैभव सरकारी और अवन्तिका मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब करती थी। सभी बहुत प्रसन्न थे। शादी में पानी की तरह खूब पैसा बहाया गया; क्योंकि उनके घराने में रुपए पैसे की कोई कमी नहीं थी। समाज में लडके की गवर्मेंट जॉब और घराने की हैसियत देखकर भी लेने-देन किया जाता है वैसा ही उसके विवाह में भी किया गया। घर वालों ने धन देने में कोई कमी नहीं छोड़ी। जैसा नौकरी वाला वर, वैसा ही दहेज़ का वज़न। सभी परिवरजनों के गहने, कीमती फर्नीचर, फॉरच्यूनर गाड़ी आदि सामान से वैभव का घर भर दिया और बैंक बैलेंस बढ़ गया और उस सारे समान के साथ अगर कोई मुफ़्त स्कीम थी तो उसमें में थी अवन्तिका।

देहरादून जाने के बाद नौकरी, घर और पति की इच्छापूर्ति के सामने स्वेच्छाओं को बेमोल समझना अवन्तिका की आदतों में शामिल हो गया। वैभव को ठीक वैसा ही मैनेजमेंट चाहिए था, जैसा एक घरेलू महिला का होता है। उनके घर लौटने के समय में केवल एक घंटे का ही अंतर था। कुछ महीनों तक उसे बहुत स्पेशल और घर की लक्ष्मी जैसा फील कराया गया। वैभव का उसके लिए प्यार इतना अधिक था कि लगता था जैसे वह दुनिया की सबसे सौभाग्यशाली लड़की थी।

वैभव कहते,- “ईश्वर ने मुझे सुंदरता में अप्सरा और धन के मामले में लक्ष्मी-सी पत्नी दी है। तुम कितनी सुंदर हो। कभी-कभी जी में आता है कि सब काम छोड़कर तुम्हें अपनी बाहों में लेकर बस प्यार ही करता रहूं। तुम्हारी आंखें आम की फांक-सी, नाक तलवार-सी नुकीली और तुम्हारे होंठ… ठ… उफ्फ इनमें तो अमृतधार बहती है अवंतिका। तुम्हारे वक्ष पर सिर रखकर लगता है, जैसे मैं किन्हीं ऊंचे पहाड़ों का यात्री हूं और…..।” ये कहते हुए उसकी आंखों में एक अजीब-सा नशा छाने लगता था।

“अब बस भी कीजिए वैभव..।” वह शरमाकर आँखें झुकाकर अपने हाथ की हथेली को उसके होंठों पर रखते हुए उसे टोकती।

“अच्छा, क्या आप हमेशा मुझसे इतना ही प्यार करेंगे?” वह अपनी आंखें बड़ी करते हुए वैभव से अक्सर ये सवाल करती और हर बार वैभव का एक ही ज़वाब होता,- “हां, मिसिज सक्सेना।”

वह वैभव के प्यार में इतनी गुम थी कि जब वह उसे स्पर्श करता तो वह छुई-मुई-सी सिकुड़ जाती। उसके लब जब उसे चूमते तो वह आँखें बंदकर उसके भीतर समाने लगती थी और कमल की पंखुड़ियों-सी विकसित होने लगती थी। जितना वह उसे छूता वह उतना ही उसके वशीभूत होती चली जाती जैसे कोई नागिन बीन की घुन के नशे में गुम होकर झूमने और वशीभूत होने लगती है। उसका रोम-रोम पुलकित हो जाता। उनका दाम्पत्य जीवन बेहद सुखद था। वैभव जो कहता वह उस बात को बिना किसी संदेह के आँखें बंदकर स्वीकारती रहती। उसके मुखमंडल पर प्रेम का शांत जल था, जिसमें वह अपने रूप सौंदर्य के प्रतिबिंब को देखती थी। कुछ महीने व्यतीत हो जाने के बाद परिस्थितियां बदलने लगी। व्यवहार के साथ-साथ इंसान भी बदल गए। रात का समय होते ही वैभव की केवल दो ही डिमांड होती यही। एक पैसे की और दूसरी सेक्स की। वह उसकी दोनों ही माँग को उसकी ख़ुशी के लिए स्वीकार कर लेती। एक रात वैभव ने अवन्तिका को धीरे से कहा,-“सुनो! मुझे दो लाख रुपए की ज़रूरत है, क्या तुम ट्रांसफर कर दोगी?”

“हाँ…वैभव! क्यों नहीं! इसमें पूछने वाली क्या बात है। तुम्हारी मेरी कमाई कोई अलग तो नहीं न?” उसने मोबाईल उठाया और, बीस हज़ार का ट्रांजेक्शन कर दिया।

“देखो पैसे आ गए?” उसने दाईं ओर गर्दन घूमकर वैभव को देखते हुए पूछा।

“हाँ! लेकिन मैंने दो लाख कहे हैं मिसिज सक्सेना।” वह ये कहकर हंस पड़ा और अवन्तिका के गालों पर हाथ फेरने लगा।

“ओह्ह! सॉरी वैभव! इतनी बड़ी रकम फोन से ट्रांसफर नहीं होगी। कल सुबह चेक ले लेना।” उसने होठों पर मुस्कान बिखेरते हुए कहा।

“ठीक है। शुक्रिया!”

“इसकी ज़रूरत नहीं है वैभव!”

“अरे हां! याद आया। मैंने अख़बार में विज्ञापन निकलवाया था।” वैभव ने बात को नए सिरे से शुरू किया।

“विज्ञापन? कैसा विज्ञापन वैभव?” उसने हैरत भरी निगाहों से देखते हुए पूछा।

“तुम अब अवंतिका से अवन्तिका सक्सेना हो जाओगी।” उसने अवन्तिका के हाथ को अपने दोनों हाथों की हथेलियों में थामते हुए कहा।

“लेकिन……।” इससे पहले वह कुछ बोलती वैभव ने उसकी बात को बीच में काटते हुए कहा,- “कुछ शपथ-पत्र मेरे बैग में रखें हैं। सुबह ऑफिस जाने से पहले उन पर साइन कर देना।”

“लेकिन…..?” उसका वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि वैभव बीच में ही बोल पड़ा,- “अरे-वरे, लेकिन-वेकिन कुछ नहीं मिसिज सक्सेना। इस सब्जेक्ट पर हम सुबह बात करेंगे। चलो! अब आराम करते हैं। मैं बहुत थक गया हूं थोड़ी थकान उतारो यार।”

उसने अवन्तिका को अपनी ओर खींचते हुए लाइट का स्विच ऑफ कर दिया। पूरे कमरे में गहरा अंधेरा पसर गया। उस रात के अंधेरे ने यह तय कर दिया कि उसकी जिंदगी में खुशियों की रोशनी का भविष्य बहुत अंधकारमय होने वाला है।

वैभव ने अवन्तिका के सारे दस्तावेजों में अवन्तिका सिंह की जगह अवन्तिका सक्सेना करवा दिया। अवन्तिका ने इसके लिए कोई विरोध भी नहीं किया। उसे अच्छा महसूस हो रहा था और वह इस बात से खुश थी कि वैभव के साथ उसका नाम जुड़ा था, जबकि वैभव के लिए वह केवल अधिकार था जिसका वह उपयोग कर रहा था। वह केवल अवन्तिका पर अपना पूर्ण अधिकार जमाना चाहता था। समय अपनी रफ़्तार से चलता गया। उनकी शादी को ढ़ाई साल से ऊपर हो चुका था। ज्यों-ज्यों दिन गुज़रते गए त्यों-त्यों वैभव का व्यवहार बदलता गया। उस बदलते हुए व्यवहार के पीछे सबसे बड़ा कारण पैसा था। अवन्तिका का बैंक बैलेंस लौ होता जा रहा था। उसने लगभग अपना सारा पैसा वैभव की रोजमर्रा की माँग पर उसे दे दिया था। उसे नहीं पता था कि वह बैंक से पैसा ही नहीं निकाल रही थीं, बल्कि अपना सम्मान और प्रेम को भी खोती जा रही थी। अब केवल पैसे के नाम पर अवन्तिका के पास उसकी सैलरी ही बची थी और उसको भी ख़र्च करने के लिए उसे वैभव की मंजूरी की ज़रूरत पड़ने लगी थी। वैभव का रवैया अप्रत्याशित रूप से बदल रहा था। वह बहुत चिड़चिड़ा और गुस्से में रहने लगा था। वह अवन्तिका की किसी भी अचीवमेंट पर ख़ुश नहीं होता और न ही उसके साथ अपनी योजनाओं को शेयर करता। उसके भीतर एक अजीब-सी कुंठा ने जन्म ले लिया था। वह अवन्तिका को लेकर पोसेसिव तो पहले से ही था किन्तु अब तो वह अवन्तिका पर शक भी करने लगा था। वह चिड़चिड़ाहट में कई बार उसके चरित्र पर वार कर चुका था लेकिन अवन्तिका हर बार बात को अनदेखा कर देती।

एक दिन ऑफिस सभी दोस्तों ने एक पार्टी प्लान की, जिसमें वे सभी बाहर जाने वाले थे। वे अवन्तिका को भी साथ चलने के लिए फ़ोर्स करने लगे। हालांकि उसने दोस्तों को टालने की बहुत कोशिश की किन्तु, वे अपनी ज़िद पर अड़ गए। अवन्तिका वैभव की इजाज़त के बिना ये निर्णय नहीं ले सकती थी। इसलिए ऑफिस से आने के बाद चाय के समय वह वैभव के पास बैठ गई। उसने वैभव को चाय थमाते हुए उसके समक्ष अपने दोस्तों के साथ बाहर जाने की बात रखी,- “वैभव।”

“हां। बोलो।” उसने चाय के कप में नज़र गड़ाए हुए बिना ऊपर देखे ही ज़वाब दिया।

“कल रविवार है और ऑफ़िस के सभी दोस्तों ने पार्टी करने का प्लान किया है। हम बाहर घूमने-फिरने और एंजॉय करने जा रहे हैं। पूरे दिन का प्लान है किन्तु शाम को जल्दी ही घर लौट आएंगे। सुनो न! सभी फ्रेंड्स फ़ोर्स कर रहे हैं, मैं उनके साथ जाऊं क्या?”

अवन्तिका की बात सुनते ही वैभव ने  अपने हाथ में थमे चाय के कप के पेंदे को टेबल पर रखी ट्रे पर ज़ोर से टिका दिया। उसके चेहरे पर क्रोध झलकने लगा।

“लोग तुम्हें फ़ोर्स करते हैं और तुम मुंह उठाकर हामी भर लेती हो, हैं न? लोग तुम्हें कल को अपने साथ सोने के लिए फ़ोर्स करेंगे और फ़िर तुम उनके बिस्तर पर बिछ जाना।”  वह बिफ़र पड़ा। वह अवन्तिका को गुस्से में भरकर खा जाने वाली नज़रों से घूरने लगा। वैभव की बातें अवन्तिका को ज़हर बुझे तीर-सी चुभ रही थी। उसकी बातें सुनकर उसके तन बदन में आग लगी गई, परंतु वैभव बहुत गुस्से में था इसलिए उसने स्वयं पर नियंत्रण बनाये रखा। वह नहीं चाहती थी कि बात और बढ़े। फ़िर भी उसने धीमे स्वर में अपनी बात रखने की चेष्टा अवश्य की।

“तुम अपनी वाइफ के लिए ऐसी घटिया बात कैसे कह सकते हो वैभव?” मैं हर बार अपनी बेइज्ज़ती बर्दाश्त करते हुए इसलिए बात को दबा लेती हूँ ताकि मामला ज़्यादा न बढ़े।  इसका ये मतलब तो नहीं न कि तुम जब चाहो मरे चरित्र प्रहार करने लगो।

“बस! एकदम चुप! पूरा सप्ताह हम लोग घर के बाहर रहते हैं। एक दिन मुझे मम्मी पापा से मिलने का मौक़ा मिलता है उसमें भी तुम अपनी मस्ती, अय्याशी की सोच रही हो। घर में ध्यान हो न हो, बाहर मुंह मारना ज़रूरी होता है। तुम जैसी औरते ही चार पैसे कमाकर मनमानियां करती हैं, घूमने, घुमाने के लिए दोस्त चाहिए, दोस्ती के नाम पर अय्याशी करने को दोस्ती का नाम दे देती हैं।” वह बेवज़ह अवन्तिका पर लाँछन लगाए जा रहा था। उसकी आँखें गुस्से से लाल हो गई नथुन फूल गए। उसकी सांसें तूफ़ान की गति से तेज़ चल रही थीं। उसका गुस्सा सातवें आसमान पर था।

“लेकिन वैभव तुम भी तो….।” उसने टूटी हुई आवाज़ में कहना चाहा।

“क्या…. या… आ… मैं भी तो? बोलो… ज़रा। तुम मेरी बराबरी करोगी? ज़ुबान लड़ाओगी मुझसे? वह गुस्से से उठा और उसने अवन्तिका के मुंह को दोनों जबड़ों से अपने हाथ के अंगूठे और अंगुलियों से कसकर पकड़ लिया।

“छोड़ो मुझे वैभव, छोड़ो मुझे। मुझे दर्द हो रहा है।” उसने उसके हाथ को अपनें दोनों हाथों से पकड़कर अपना मुंह छुड़वाने का असफ़ल प्रयास किया।

“अब मेरी बराबरी भी करोगी तुम। औरत हो अपनी औकात में रहो। मैं मर्द हूं मर्द! समझी तुम? बहुत पर निकल आएं हैं तुम्हारे। आज के बाद बाहर जाने की बात कभी भी मेरे सामने अपनी ज़ुबान पर मत लाना समझी तुम? दिन में तो अपने यारों के साथ गुलछर्रे उड़ाती ही हो, अब छुट्टी के दिन भी इसे अय्याशी करनी है अपने यारों के साथ।” उसने उसके जबड़े को झटककर उसे पीछे की ओर धकेल दिया।

“कान खोलकर सुन लो। तुम सिर्फ़ मेरी पर्सनल प्रॉपर्टी हो। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी दौलत, तुम्हारी साँसें, तुम्हारा प्यार, और सरनेम। सब मेरा है। तुम्हारी हर एक चीज़ पर सिर्फ़ मेरा हक़ है। तुम मेरी इजाज़त के बग़ैर कोई काम नहीं करोगी, वरना तुम्हारा वो हाल कर दूंगा कि तुम्हारी रुह भी कांपेगी।” उसने अपनी तर्जनी अंगुली दिखाते हुए चेतावनी दी। उसके स्वर में पुरुष होने दंभ झलक रहा था।

उसका क्रोध तेज़ आग पर चढ़े कढ़ाहे में खौलते पानी सा था। क्रोध और कुंठा में उसने अपने असली रूप को मिटा दिया था। जैसे कोई उफान वाले जल में अपना प्रतिबिंब नहीं देख पाता; ठीक वैसे ही वह अपने प्रेमपूर्ति रूप को देख नहीं पाया। वह पहला दिन था जब वैभव ने अवन्तिका पर हाथ छोड़ा था। वह उस दिन खूब रोई। वह वैभव के कहे एक-एक शब्द के बारे में सोचने लगी। उसने स्वीकार भी किया कि उसकी ज़िन्दगी का हर लम्हा, पैसा,  रुतबा, शरीर और सरनेम! सब पर उसका हक़ था लेकिन… प्रेम? प्रेम कहाँ था? उसे लगा जैसे इन सब के बीच अगर कुछ नहीं था तो वह था प्रेम! वह पनीली आँखों से ट्रे में पड़े चाय के दोनों प्यालों को देख रही थी। वे भरे हुए प्याले जैसे उदास आंखों से उसकी ओर ही देख रहे थे।

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वह सारा दिन ऑफिस में और घर आने के बाद घर का काम करके थक जाती थी। यही अब उसकी रोजमर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा था। एक रात वह होमवर्क फिनिश करने के बाद अपने बैडरूम में आई और मैन लाइट ऑफ़ कर लैंप लाइट को ऑन कर आँखें बंदकर बिस्तर पर लेट गई। सारा दिन की थकान से टूट चुका बदन अब निढ़ाल होकर बिस्तर पर ढ़ेर हो चुका था। शरीर इतना टूट चुका था कि वह केवल और केवल आराम की ही डिमांड कर रहा था। जैसे ही उसकी आँख लगने वाली थी, वैभव बैडरूम में आ गया। वह टेबल लैंप स्विच ऑफ करके उसकी बगल में लेट गया। अवन्तिका गहरी नींद की आगोश में जाने ही वाली थी कि उसके शरीर पर वैभव के हाथ रेंगने लगे। उसे बहुत बुरा फील होने लगा और साथ ही गुस्सा भी आने लगा, किंतु अपने गुस्से पर कंट्रोल कर उसने वैभव से रिक्वेस्ट के लहज़े में कहा,- “वैभव प्लीज़! आज़ नहीं। मैं बहुत थक चुकी हूं। प्लीज़… ज…सोने दो मुझे।”

अवन्तिका के अनुनय-विनय का कोई भी असर वैभव पर नहीं हुआ। उसके हाथ और तेज़ गति से उसके जिस्म पर फिसलने लगे। यूँ तो ऐसा करना केवल एक दिन का ही काम नहीं था वैभव के लिए। अवन्तिका की मर्ज़ी का वैभव के आगे कोई महत्व नहीं था और उसके मना करने का उस पर कोई असर होता नहीं था। अवन्तिका उससे बार-बार रिक्वेस्ट करती रही, किंतु उसने हर बार अनसुना कर दिया।

       उसके हाथ जब अवन्तिका के बदन को छूने लगे तो उसे ऐसा महसूस होने लगा जैसे उसके पूरे शरीर पर हजारों कीड़े रेंगने लगे हों। उसकी देह पर वैभव के मचलते हाथ उसे किसी खूंखार जानवर के नुकीले पंजे से लगने लगे,जो उसके जिस्म को नोच रहे थे। जैसे-जैसे वह छूता गया वैसे-वैसे उसका शरीर पाषाण की भाँति सख़्त होता चला गया। उसकी उंगलियां उसे अपने सूखे सख़्त बदन पर हल की नोक-सी प्रतीत होने लगी, जो उसके शुष्क हो चुके शरीर की मिट्टी को उखाड़ती प्रतीत हो रही थी। उसके लाख मना करने पर भी वह नहीं माना। अब ये होने लगा था कि वह जितना उसे रोकती वह उतना ही उसके शरीर को सरनेमरौंदता रहता। अवन्तिका पुरुष की ताक़त और मनमर्ज़ी के आगे ध्वस्त हो जाती। उसने जब कभी भी विरोध करने की हिम्मत की तब-तब उसे केवल एक ही बात हज़ार बार कही जाती और वह ये कि,- “तुम एक स्त्री हो और पत्नी भी। पत्नी का यह धर्म है कि वह अपने पति को हर हाल में संतुष्ट रखे। तुम पर मेरा पूरा अधिकार है। मैं मालिक हूं तुम्हारा तमाशा करना बन्द करो और पत्नी धर्म निभाओ।” उसके तीखे स्वर उसे चुप करा दिया करते और हमेशा की भांति अपनी शारीरिक भूख और मानसिक संतुष्टि की तृप्ति होने के बाद वह चैन की नींद सो जाता।

         अवन्तिका रात भर आंसुओं से नहाती आंखें लिए सोचती रहती कि क्या करे? किससे कहे?  इन दो सालों के अंदर देखते ही देखते वैभव के व्यवहार में इतना परिवर्तन उसके लिए बड़े ताज़्जुब की बात थी। वह उसकी एक न सुनता; न समझता। सारी सैलरी, गहने, संपत्ति उसका शरीर सब उसी का था। यहां तक की मिसिज सक्सेना का सरनेम भी उसी का दिया था। जबकि उसका जो भी कुछ था वह सब कुछ तो वैभव को पहले से ही समर्पित था। हर माह बैंक खाते से सैलरी बड़े प्यार से ट्रांसफर करवा ली जाती। कभी जरूरतों के नाम पर; तो कभी किस्तों के नाम पर। जैसे-जैसे समय बीतने लगा वैसे-वैसे अवन्तिका का तनाव और वैभव की डिमांड भी बढ़ने लगी। हालत बद से बदतरत होने लगे। अब तो वह अपनी मर्ज़ी से सांस भी नहीं ले सकती थी; फ़िर भी उसने सब्र से काम लिया और रिश्ते को बनाये रखने का भरसक प्रयास जारी रखा। किन्तु ऐसा लगता था जैसे शायद उसे ज़िंदगी का सबसे दर्दनाक हिस्सा देखना अभी भी बाकी था।

प्रेम खिड़की से दबे पांव रुख़सत हो गया और गृहक्लेश दरवाज़े से प्रवेश कर स्थायी निवास कर गया। लड़ाई झगड़े बढ़ते-बढ़ते इतने बढ़ गए कि दो लोगों का घर की एक छत के नीचे रहना दुर्भर हो गया। इस रिश्ते का भी हश्र वही होने वाला था जो आमतौर पर होता है। शादी को ढ़ाई साल ही हुए थे और नौबत तलाक तक आ गई।

अवन्तिका ने जब पहली बार वैभव के मुँह से तलाक की बात सुनी तो उसकी आंखें फटने तक खुल गई। उसके पैरों तले की ज़मीन खिसक गई।

उसके चेहरे पर घबराहट के भाव उमड़ आए, शरीर कांपने लगा, दिल इतनी ज़ोर से धड़कने लगा जैसे सीना फटकर बाहर आ जाएगा। उसने वैभव का हाथ अपने हाथ में लिया और उसके किए उन वादों को याद दिलाने लगी जो उसने प्यार में वशीभूत होकर कर डाले थे। वह अपने रिश्ते को बचाने के लिए खूब गिड़गिड़ाई थी, किन्तु शायद रिश्ते की साँसे अंतिम चरण में थीं। उसने आख़िरी पल तक इस रिश्ते को बचाने की बहुत कोशिशें की; लेकिन उसके हाथ केवल नाकामयाबी ही लगी। एक प्यारा सा रिश्ता पुरुषत्व के अहंकार की वेदी पर स्वाहा हो गया।

वह इसे भी अपना मुकद्दर मान बैठी और अपनी इच्छाओं की आहुति देकर वैभव को सदा के लिए प्रेम और विवाह की डोर से मुक्त कर दिया। स्त्री ने प्रेम की भूमि में भावनाएं, समर्पण, त्याग रोपे और पुरुष ने छल, बल और कपट। स्त्री ने पुरुष को पाना और पुरुष ने स्त्री को हासिल करना चाहा। वह भावनाओं को महत्व देती रही, वह पौरुष शक्ति और दंभ को। वह प्रेम में लूटती रही, वह लूटता रहा, स्त्री ने हृदय के सारे भेद निश्छलता से खोल दिए किन्तु पुरुष ने रखे गोपनीय। पुरुष ने स्त्री की नाज़ुकता की एवज में केवल कठोर दंड दिए और प्रेम के बदले मिली घृणा और पुरुष को पारितोषिक में मिली वासना और स्त्री रूप का असीम भोग। स्त्री की संवेदना, प्रेम, विश्वास, त्याग और समर्पण के बदले अंत में क्या मिला? संबंध विच्छेद का दस्तावेज़?….. तलाक?

          प्रेम प्रसंग और हमरूतबा लोगों में भी यह पचड़ा होता है; यह ज़िंदगी के इन ढ़ाई सालों के पश्चात उसे ज्ञान हुआ। अब वह परित्यक्ता और तलाकशुदा औरत थी, जिसके आस सिवाय नौकरी के कुछ नहीं था। न घर, न पति, न बच्चे, न सम्मान और न सरनेम। एक महिला का तलाकशुदा या परित्यक्ता होना कितना अभिशिप्त होता है ये वह भली-भाँति जान चुकी थी। लोगों की भूखी निगाहें उसे क्षण दर क्षण घूरती रहती। उसे अनुभव हो चुका था कि पुरुषों को अपने नसीब में औरते कीमती सामान की तरह मयस्सर चाहिए। केवल खूबसूरत और लुभावनी।

6..

स्त्री का कोई घर नहीं होता न मायके की दहलीज़ के अंदर न सुसराल की चौखट के बाहर। उसे न ही घर चयन करने का अधिकार है और न ही अपने रास्ते। सामाजिक श्रृंखलाओं में आबद्ध, धार्मिक रूढ़ियों से आक्रांत, पुरूषों द्वारा प्रवंचिता स्त्री आज भी पुरातन परम्पराओं की लीक पूर्ण ताकत से पीट रही है। नौकरीपेशा होने पर भी लड़की अभिभावकों की छाती पर विशाल पर्वत सा बोझ होती है, ये आभास उसे वैभव से डिवोर्स लेने के बाद हुआ। दो साल तक घर परिवार ने बेटी की वेदना और विडंबना को समझा या यह कहा जाए कि संकोचवश चुप रहे। तीसरे साल तक आते-आते अवन्तिका ने सोचा कि क्यों न वह अपने लिए एक घर बनाये, जो केवल उसका अपना होगा। जिसकी मालकिन वह स्वंय होगी।

उसके मन में आये इस विचार को उसने एक दिन अपने मम्मी पापा के सामने रख दिया। उसे लगा था जैसे यह बात सुनकर उसके पेरेंट्स बहुत खुश होंगें, उन्हें गर्व होगा अपनी बेटी पर कि वह आत्मनिर्भर बन चुकी है, किन्तु भारतीय समाज और सामाजिक व्यवस्थाएं कब अपना रुख बदल लें कुछ कहा नहीं जा सकता। जब उसने यह विचार रखा तब वहां उसका छोटा भाई भी वहीं मौजूद था।

“पापा मैं अपना अलग से एक घर बनाना चाहती हूं।”

“क्यों… बेटा? हमारे साथ यहां रहने में किस बात की तकलीफ़ है? ये भी तो तुम्हारा ही घर है।”

“नहीं पापा कोई तकलीफ़ नहीं। बस! मैं चाहती हूं मेरा अपना घर हो।” उसने शालीनता से ज़वाब दिया।

“मतलब दी! आपने खानदान की नाक कटवाने का पूरा प्लान बना लिया है?” उसका भाई बीच में तपाक से बोल पड़ा।

“ये तुम क्या कह रहे हों? इसमें नाक कटवाने की बात कहां से आई?”

“ठीक कह रहा हूं दी। वैसे ही सोसायटी वाले कानाफूसी करते हैं। पीठ पीछे सौ बातें बनाते हैं कि हम आपकी कमाई खा रहे हैं। यही कारण कि अभी तक हमने आपकी दूसरी शादी के बारे में नहीं सोचा…. और ऊपर से आप ये कहकर जले पर नमक छिड़क रही हैं!”

“क्या कहा तुमने…? नमक छिड़क रही हूं?”

“हां ठीक कह रहा हूं दी। आप एक नई प्रॉब्लम क्रिएट कर रही हैं। हमसे अलग अकेली रहोगी तो लोग क्या कहेंगे? पति को छोड़ दिया अब अकेली रह रही है।”

“तुम्हें ये कहने का कोई हक़ नहीं समझे? पति को छोड़ दिया या उसने पत्नी को छोड़ दिया?”

“कुछ भी है, लेकिन साथ तो नहीं हो न?” वह भी बिफ़र पड़ा।

“मैं पापा मम्मी से बात कर रही हूं। तुम बीच में टांग न अड़ाओ तो ही अच्छा है। तुम्हें बड़ों की बात में दख़ल देने का कोई राइट नहीं है।”

“क्यों राइट नहीं हैं दी? मैं घर से बाहर घूमता हूँ। लोगों की जली कटी बातें झेलता हूं? ज़िन्दगी समाज के साथ जी जाती है दी।”

“तुम दोनों चुप हो जाओ।” पापा ने उन दोनों को डांटते हुए चुप करा दिया। भाई मुंह फुलाकर वहीं सोफे पर बैठ गया और पापा उसे समझाने लगे,-“बेटा। भाई सही कह रहा है। ये समाज है और समाज में ऐसा नहीं होता। लोग हम पर अंगुलियां उठाएंगे।”

“क्यों उठायेंगे। मैं भी तो सक्षम हूं। इंडिपेड रहना चाहती हूं, मैं अपना घर बनाऊंगी। इसमें समाज को क्या प्रॉब्लम?”

“और उस घर की नेमप्लेट पर क्या लिखेंगी आप? अवंतिका सक्सेना….?” भाई ने उसकी बात को बीच में ही काट दिया।

उसकी बात सुनकर अवन्तिका को धक्का सा लगा। उसे लगा जैसे उसका भाई ही उसे ताने दे रहा है।

“तुम उठो यहां से। चलो जाओ अपने कमरे में।” पापा ने उसे तुरन्त कमरे से बाहर जाने का आदेश दे दिया। वह उठा और कमरे से निकल गया।

अवन्तिका की आँखें उसके मुख से तंज भरा सरनेम सुनकर भर आई। वह रोते हुए अपने कमरे में चली और औंधे मुंह बिस्तर पर गिर कर रोने लगी। मम्मी उसके पीछे-पीछे कमरे में चली आई। वह उसके सिर पर हाथ फेरने लगी और वह उनकी गोद में सिर रखकर रोती रही।

“मेरी बात ध्यान से सुन बेटा। जो हुआ सो हुआ। बीती बातों को भूला दो। पहाड़-सी ज़िंदगी अकेले नहीं कटती और सभी इंसान एक समान नहीं होते। हम जब तक जिंदा हैं तब तक ठीक है, लेकिन उसके बाद? भाई-भाभी के साथ कैसे और कब तक रहोगी? इसीलिए तुम्हें दोबारा ज़िंदगी जीने के लिए सोचना पड़ेगा।” उनका लहज़ा बेहद शालीन था।

“अवंतिका स्त्रियों के अपने घर नहीं होते और अगर होते भी तो बहुत जल्दी वीरान, खंडहर हो जाते। उनका नाम लेने वाला कोई नहीं होता। वे वंश चलाने वाले को पैदा करने के लिए बनी हैं वंश चलाने के लिए नहीं। वंश केवल पुरुषों के होते और घर भी। जब स्त्री के सिर पर पुरुष का हाथ नहीं होता तो घर की दीवारें भी उसे खाने को दौड़ती हैं। भूखी निगाहें उसका पीछा करती हैं और शिकारी जाल बिछाते हैं। ये मान लो कि रक्षक भी वही है और भक्षक भी। फ़िर भी हर स्त्री का जीवन पुरुष के बिना अकारण है, महत्वहीन है।” मम्मी की बातें सुनकर अवन्तिका को इतना तो भान हो चला था कि भले ही स्त्री आत्मनिर्भर हो या नहीं, किन्तु परिवार और समाज पर निर्भर रहना उसके लिए अनिवार्य शर्त है। पिता, भाई,पति और पुत्र। उसे पुरुष की अभिरक्षा में सदैव ही रहना है। बस अंतर केवल इतना है कि स्त्री वही रहती हैं किन्तु समय के साथ-साथ  नारी के अभिरक्षक बदल जाते हैं। इसे यदि नारी को शासित करने के लिए सत्ता हस्तांतरण कहा जाए तो कोई विशेष बात तो बिलकुल नहीं होगी।

उसे नहीं पता था कि समाज और परिवार कहे जाने वाले लोग उसकी अभिरक्षा का हस्तांतरण किसी अन्य पुरुष को सौंपने की तैयारी में जुट चुके थे, जिससे वह पूर्णतः अनभिज्ञ थी।

■■

छः साल बीत चुके थे वैभव से तलाक लिए। इस दौरान अवन्तिका ने सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी नौकरी और परिवार पर ही फ़ोकस रखा। वह लगभग बीती हुई बातों को भूलने लगी थी। उसने अपनी जिंदगी की रिक्तियों को केवल अपने काम से ही भरने का प्रयास किया। उसे न किसी चीज़ की कमी थी और न ही हसरत। वह अपने आप में ख़ुश थी किन्तु फ़िर भी माता-पिता के लिए बेटी का एकांकी होना बहुत अखरता है। बेटी बाप के घर में अच्छी नहीं लगती। हर माँ बाप की ख़्वाहिश होती है कि उसकी बेटी का घर बसे। एक दिन उसके मॉम-डैड उसके कमरे में आए और बातों ही बातों में उन्होंने अवन्तिका से पुनर्विवाह करने का प्रस्ताव उसके समक्ष रख दिया। अवन्तिका ने दूसरी शादी करने से साफ़तौर पर मना कर दिया लेकिन मॉम डैड उसे मनाने में जुट गए।

“एक स्त्री किसी पुरुष के बिना क्यों नहीं रह सकती डैडी? मैंने कुछ गलत किया है या आपको मुझ पर विश्वास नहीं है? मेरी शादी की फ़िक्र छोड़ दीजिए।”

“अवंतिका बेटा! हमें तुम पर गर्व भी है और भरोसा भी। लेकिन बेटियां बाप के घर में रहने के लिए नहीं होती।”

“तो मुझे ख़ुद का घर बनाने दीजिये न! ख़ुद का घर बनाऊंगी और अकेली रहूंगी तो आपका नाम ख़राब हो जाएगा, आपके साथ रह नहीं सकती फिर क्या करूँ?” उसके लहज़े में हल्की झल्लाहट थी।

“देखो बेटा! जब तक हम ज़िंदा है ये घर तेरा है। इस घर में तेरा उतना ही हक़ है जितना भाई का। पर हम चाहते हैं कि तुम शादी करो और खुशहाल जीवन जिओ।

हमने तेरे लिए एक लड़का देख लिया है। बहुत अच्छा इंसान है। मैंने छानबीन कर ली है, भला लड़का है। उम्र भी ज्यादा नहीं। उसकी पहली पत्नी तीन साल पहले ही बीमारी से चल बसी। कोई बाल बच्चे भी नहीं हैं। एक साधारण पुरुष है और बिजनेसमैन भी। अपना कारोबार है। इस बारे तुम ज़रूर सोचना बेटा। चलो अब सो जाओ।” ये कहकर वे दोनों चले गए। उस रात तो वह बात ख़त्म हो गई किन्तु फिर हर रोज़ ही उस बात का ज़िक्र घर में होने लगा। वह समझ चुकी थी कि परिवार की ज़िद और जीवन की सुरक्षा के लिए एक बार फिर से उसे एक नए घर में एक नई जिंदगी की शुरुआत करनी ही होगी। किसी अनजान पुरुष के साथ जो शायद उसे कभी जान ही न पाए। एक साल की जद्दोजहद के बाद मॉम डैड ने उसे विवाह के लिए राजी कर ही लिया और इस प्रकार

 अंततः उसने पिता का घर छोड़कर एक नए पुरुष के घर प्रवेश कर ही लिया किन्तु पुराने सरनेम के साथ।

अभिनव से विवाह करने के बाद अवन्तिका की ज़िंदगी बदल सी गई। उसे किसी चीज़ की कोई कमी नहीं थी। अभिनव बहुत परिपक्व एवं सरल स्वभाव का लड़का था। वह न तो उस पर सन्देह करता और न ही किसी प्रकार का कोई अनावश्यक दख़ल ही देता था। वह कभी अवन्तिका से उसकी सैलरी के बारे में भी नहीं पूछता और न ही उससे पैसे की माँग करता। सब कुछ ठीक चल रहा था जैसे एक सामान्य घर में चलता है, किन्तु यहाँ केवल एक समस्या ही थी जिसका निराकरण बहुत आवश्यक था।

वह समस्या थी अवन्तिका का सरनेम। अवन्तिका से सभी आवश्यक दस्तावेजों में श्रीमती अवन्तिका सक्सेना लिखा था। अभिनव चाहता था कि उसका सरनेम बदलकर अभिनव का सरनेम किया जाए ताकि उसको भविष्य में किसी प्रकार की समस्या का सामना न करना पड़े। अभिनव की ये बात गलत भी नहीं थी। अभिनव की ये बात गलत भी नहीं थी। वे जब भी कहीं बाहर जाते तो सबसे पहले उन्हें होटल में रूम लेने में परेशानी का सामना करना पड़ता। दोनों की पहचान अलग अलग थी। मिसेज सक्सेना के साथ अभिनव सिंघानिया को रूम मिलने में परेशानी आना सामान्य बात थी। इसके अलावा भी बहुत सारी समस्याएं थी जो सरनेम की वजह से क्रिएट हो जाती थी।अवन्तिका भी समझती थी कि दस्तावेजों में नाम बदलना ज़रूरी काम था किन्तु सरकारी काम इतनी आसानी से भी कहाँ होते है। कई तरह की प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है और उन प्रक्रियाओं से गुजरने के लिए उन दोनों ने अपने प्रयास शुरू कर दिए थे।लगातार कई दिन सरकारी दफ़्तर के चक्कर लगाते-लगाते लोगों के कई ज़हर बुझे तीर से सवालों का सामना अवन्तिका को करना पड़ रहा था। वह अपने नाम परिवर्तन की फ़ाइल लेकर सम्बंधित कार्यालय में पहुँच गई। सीट पर बैठे एक मोटे और गंजे आदमी के पास जाकर उसने विनम्रता से अभिवादन किया।

“नमस्कार सर।”

“जी नमस्कार। कहिए।”

“सर मुझे अपना सरनेम चेंज करवाना था।”

“वो सामने ठाकुर साहब बैठे हैं, आप जाकर उनसे बात करें।”

“जी सर। शुक्रिया।” उसने फ़िर अभिवादन किया और बताई गई सीट की तरफ़ बढ़ गई। उस के पास जाकर उस आदमी का भी अभिवादन किया और अपनी समस्या बता दी।

“आप सरनेम क्यों परिवर्तित करना चाहती हैं?”

“क्यों कि मेरे हसबैंड को कुछ प्रॉपर्टी के पेपर्स तैयार करवाने हैं, जिनमें उन्हें सरनेम की प्रॉब्लम आ रही है।”

“आप अपने सभी पेपर्स दिखाइए।”

“जी सर! लीजिए।” उसने हाथ में थमी फ़ाइल टेबल पर रख दी। उस आदमी ने फ़ाइल को पढ़ा और लंबी साँस भरते हुए बोला,-“ओह ! तो ये आपकी दूसरी शादी है?”

उसने अवन्तिका को देखते हुए पूछा। बदले में अवन्तिका ने ‘हाँ’ में मुंडी हिला दी।

“पिछली शादी को क्या हुआ? मेरा मतलब विडो या डिवोर्सी?”

“डिवोर्सी।” उसने तपाक से उत्तर दिया।

“अभी शादी को कितना समय हुआ है?”

“एक साल होने वाला है।”

“तो इतनी जल्दी क्या है? थोड़ा रुक जाइये। क्या मालूम बदलने की नौबत न आये।”

“क्या मतलब? सर मैं कुछ समझी नहीं।”

“मैडम समझने जैसा कुछ नहीं है। आजकल शादियां टूटने की जल्दी और करने की भी जल्दी। इसलिए बोल रहे हैं कि थोड़ा सब्र से काम लीजिये। रुक जाइये क्या पता बदलना ही न पड़े कल को अगर आप तीसरा पति बदलेंगी तो क्या फ़िर से सरनेम बदलवाने आएंगी? थोड़ी शादी की जड़ें तो जमने  दीजिये।” उसने अवन्तिका पर गहरा कटाक्ष  किया। उसकी बात सुनकर अवन्तिका के मुख पर क्रोध की लकीरें उभरने लगी किन्तु उसने स्वयं पर नियंत्रण रखा।

“ठाकुर साहब आप भी न।” पास बैठे एक थुल-थुल से दिखने वाला कर्मचारी भी उसके उपहास में शामिल हो गया।

“वर्मा जी। वैसे हम मर्दों को अपने नाम अपनी घर वालियों को देने ही नहीं चाहिए। शादियों की वेलिडिटी आजकल कम हो गई है। वैसे भी औरतों का कोई भरोसा नहीं। कब पति और सरनेम बदल लें। क्यों मैडम?” उसने ठहाका लगाया। उसका यह वाक्य निश्चित रूप से उसे बेइज्ज़त करने के लिए था।

“ये बद्दतमीज़ी है। आपको इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ सकता है मिस्टर ठाकुर साहब।” अवन्तिका ने टेबल पर हाथ रखकर उसकी नेमप्लेट पर उसका नाम पढ़ते हुए उसे घूरा।

“सॉरी मैड़म। आप तो बुरा मान गई। मेरी तो मज़ाक करने की आदत है।” वह खिसियाने लगा।

बगल की चेयर पर बैठा लगभग पच्चीस छब्बीस साल का दिखने वाला नौजवान लडका ‘हिमाक्ष’ बैठा था। यह नाम उसके सामने टेबल पर रखी नेमप्लेट पर लिखा था। वह चुपचाप अपनी झुकी आँखें उठाकर ये सब प्रकिया देख रहा था। अपने सहकर्मियों द्वारा अवन्तिका पर लगाए जा रहे ठहाकों को भी सुन रहा था। उसकी भाव-भंगिमाओं से स्पष्ट हो रहा था कि उसे उनका ये व्यवहार बहुत बुरा लग रहा था। बस कह पाने में असमर्थ था। किन्तु उन उपहास उड़ाने वालों के प्रति अवन्तिका का कठोर रुख देखकर अब उसे कुछ सुकून मिला था।

ठाकुर ने एक कर्मचारी को बुलाया और उसी समय अवन्तिका की फाइल तैयार करवाने लगा।

फ़ाइल तैयार होने के पश्चात अवन्तिका के हाथ में फाइल थमाते हुए ठाकुर ने उसे उस नौजवान कर्मचारी हिमाक्ष के पास फाइल ले जाने का संकेत कर दिया।

 “आप फाइनली इस फ़ाइल को उनसे चैक करवा लीजिए।”

अवन्तिका अपनी जगह से उठी और हिमाक्ष के टेबल की ओर बढ़ गई। वह अपने काम में व्यस्त फाइल में सिर गड़ाए बैठा था।

“एक्सक्यूजमी सर।”

“जी कहिए।” वह अपनी सीट पर सावधानी से बैठ गया।

“ये फाइल आपसे चैक करवानी है सर।” उसने फाइल उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा।

“जी बैठिए।” उसने हाथ के इशारे से कुर्सी की ओर संकेत करते हुए कहा।

“जी थैंक यू। अवन्तिका ने बैठने से पहले उसका आभार प्रकट किया।

“मैम आज आपका काम नहीं हो पाएगा। क्यों कि अभी दफ़्तर में लंच टाइम होने ही वाला है। अगर आप रुक सकती हैं तो मैं लंच के बाद फ़ाइल तो चेक कर दूँगा लेकिन काम फ़िर भी नहीं हो पायेगा। इसकी प्रक्रिया काफ़ी लंबी है आपको धैर्य रखना होगा। इस सप्ताह दो हॉलिडेज़ भी है। आप तीन-चार दिन में आकर पता कर लीजिएगा।”

“जी।”

“और हां! उस दिन भी आप लंच से पहले ही आना क्यों कि आप तो जानती ही होंगी कि लंच टाइम के बाद सरकारी दफ़्तर में कोई काम नहीं होता। आप अपना नम्बर फ़ाइल पर लिख दीजिएगा अगर कोई कमी हुई तो आपको सूचना कर दी जाएगी।” वह ये कहते हुए हल्का सा मुस्कुरा दिया।

“जी ठीक है थैंक यू।” उसने अपना नम्बर फ़ाइल पर नोट कर दिया। वह अपनी जगह से उठी, मुस्कुराई और फुर्ती से दफ़्तर के बाहर का रुख कर गई।

■■■

तीसरे दिन वह ऑफिस का इमरजेंसी काम निपटाने में इतना व्यस्त हो गई वह भूल ही गई कि उसे फाइल का पता करने भी जाना था। जैसे ही उसे याद आया तो लंच का टाइम हो चुका था। उसने उसी समय दफ़्तर जाने के लिए अपना बैग उठाया किन्तु उसे फ़िर याद आया कि हिमाक्ष ने उसे लंच से पहले आने के लिए बोला था। उसने अपने माथे पर ज़ोर से हाथ मारा और बैग को टेबल पर पटककर अपनी सीट पर बैठ गई। इतने में उसका फोन बज उठा। फ़ोन अभिनव का था। अवन्तिका ने उसका फ़ोन जानबूझकर अटेंड नहीं किया। उसे पता था कि उसने, उसे दफ्तर जाने के बारे में ही पूछने के लिए कॉल किया था। वह अभिनव की डांट नहीं सुनना चाहती थी इसलिए फ़ोन कटते ही उसने दफ़्तर के नम्बर पर कॉल लगा लिया। एक के बाद एक कई कॉल किये किन्तु रिंगिंग होने के बाद भी किसी ने कॉल अटेंड नहीं किया। उसने अपना बैग उठाया और उस दफ़्तर के लिए निकल पड़ी।वह पैंतीस मिनट में ही उस दफ़्तर में पहुँच गई। उसने चारों ओर अपनी नज़रें दौड़ाई। ऑफिस में इक्के-दुक्के कर्मचारी ही अपनी सीट पर बैठे थे। उसने हिमाक्ष की सीट की तरफ़ रुख किया, किन्तु वह भी अपनी सीट पर नहीं था।

अवन्तिका ने वहाँ बैठे एक कर्मचारी से पूछा,-“उस सीट पर जो सर बैठते हैं, वे कहां हैं?” उसने हिमाक्ष की सीट की तरफ़ इशारा करते हुए कहा।

जी वे तो आज छुट्टी पर हैं। कल आएंगे।”

“ओह!”  उसके मुँह से सहसा निकल गया।

“सर! क्या इनका नंबर मिल सकता है? बार-बार ऑफ़िस आना संभव नहीं है। मैं आज भी ऑफिस से मुश्किल से छुट्टी लेकर आई हूं। अगर नम्बर मिल जाये तो मैं कॉल करके आ जाऊँ।” उसने उस आदमी को अपनी समस्या से अवगत कराते हुए पूछा।

“पर्सनल नम्बर तो नहीं दे सकता मैडम। आप ऑफिसियल लैंड लाइन नंबर ले जाइए। उनसे बात कर लीजिएगा। नंबर वहां टेबल पर लिखा है।” उसने टेबल की ओर इशारा करते हुए कहा।

“लैंडलाइन नम्बर है मेरे पास। बस ऑफ़िस में कोई फ़ोन उठाने वाला ही नहीं है।” वह मुस्कुराई और उस आदमी को धन्यवाद बोलकर थके हारे कदमों से घर की ओर चल पड़ी।उस दिन के बाद वह कई दिनों तक उस लैंडलाइन नंबर को ट्राय करती रही। ऑफिस के लैंड लाइन नंबर पर रिंग तो जाती लेकिन कोई फ़ोन को रिसीव नहीं करता। कोई फ़ोन उठाएगा इसी भरोसे बैठे दो सप्ताह का समय निकल गया। जो नम्बर उसने फ़ाइल पर हिमाक्ष के कहने से छोड़ा था उस पर भी उनका कोई कॉल नहीं आया था। थक हारकर आख़िरकार उसे वो हॉफ डे भी लेना ही पड़ा जो उस दिन बचाकर रखा था। किन्तु समस्या ये थी कि इस बार भी वह लंच के बाद ही ऑफिस जा पाई। वहां जाकर देखा तो रोज़मर्रा की तरह इक्का-दुक्का लोग ही अपनी सीट पर बैठे थे, जिनमें हिमाक्ष आज भी अपनी सीट पर नहीं था। उसका माथा ठनक गया कि कहीं आज भी नहीं आएं होंगे तो फ़िर से अभिनव से डांट पड़ना निश्चित है। उसने वहां बैठे एक व्यक्ति से धीमी आवाज़ में अभिवादन किया और हिमाक्ष के बारे में पूछा,- “क्या वह सर आएं हैं?” उसने सीट की ओर इशारा करते हुए पूछा।

“जी! आएं तो हैं।” उन्होंने उसकी ओर देखा और एक क्षण रूक कर उसे गौर से देखते हुए फिर बोल पड़े,-“आप तो शायद कई दिन पहले भी आई थी न?”

“जी।” उसने विनम्रता से उत्तर दिया।

“वह अपनी सीट पर कब तक आएंगे, कुछ बता पाएंगे सर आप?”

“ये तो मेरे लिए बताना संभव नहीं, पर हां! वे कैंटीन में बैठे हों शायद। आप वहां जाकर देख लीजिए।”

उनका ज़वाब सुनकर अवन्तिका को थोड़ी राहत मिली।

“जी सर थैंक्स।” वह मुस्कुराई।

आज भी काम होगा या नहीं इस उधेड़बुन में उलझी हुई वह कैंटीन की ओर चल पड़ी। कैंटीन में अच्छी खासी भीड़ थी। वह अपनी निगाहें हिमाक्ष को ढूंढने के लिए दौड़ाने लगी। कैंटीन के एक कोने की टेबल पर अकेले बैठकर चाय पीते हिमाक्ष उसे नज़र आ गया। वह फटाफट  उसकी तरफ़ क़दम भरने लगी। पास पहुंचकर उसने अभिवादन की औपचारिकता पूरी की।

“नमस्ते सर!”

“नमस्ते।” हिमाक्ष ने गर्दन झुककर अभिवादन का प्रतिउत्तर दिया।

“सर आपने पहचाना मुझे?” उसने सवाल किया।

“हां, हां। क्यों नहीं। आप अवन्तिका मैम हैं। बैठिए प्लीज़।” उसने होठों पर मुस्कान बिखेरते हुए कहा।

“आप यहाँ?” उसने अचरज से पूछा।

“जी सर! आपसे ही मिलने आई हूँ।”

“आपने तकलीफ़ क्यों की? मैं ऑफ़िस ही आ रहा था। ख़ैर! अब आ ही गई हैं तो एक कप चाय हो ही जाए।” उसने फिर हल्की सी मुस्कान बिखेर दी।

“नहीं सर। शुक्रिया।”

“क्यों? आप चाय नहीं पीती?” उनके सवाल में अपनत्व सा था।

“नहीं सर, ऐसी बात नहीं है।” कहकर उसने थोड़ी गर्दन और नज़रे झुका ली।

“अरे मैम! इतनी फॉरमाल्टी की ज़रूरत कहाँ है। पी लीजिए। ये सरकारी दफ़्तर की कैंटीन है, यहाँ लोग सिर्फ़ चाय पानी पिलाने आते हैं। मैं हूँ जो आपको पिला रहा हूँ; तो मना मत कीजिये।” उसकी बात सुनकर अवन्तिका के चेहरे पर मुस्कान फैल गई।

हिमाक्ष ने दो चाय का ऑर्डर दे दिया।

कुछ देर बाद टेबल पर चाय आ गई।

“थैंक्स ।” अवन्तिका हल्की सी मुस्कुरा दी।

“नो नीड।” उसने कप उठाया और चाय की हल्की सी चुस्की ले ली।

“जी बताएं।” उसने अवन्तिका की ओर देखते हुए प्रश्न किया।

“सर! मैं लास्ट वीक भी आपसे फाइल के बारे में इन्फॉर्मेशन लेने आई थी, लेकिन आप छुट्टी पर थे।”

“हां, जी।” उसने बात को पुख़्ता किया और चाय का कप उठा एक घूँट और भर ली।

“सर। क्या मेरी फाइल कुछ आगे बढ़ी?” उसने एक घूँट चाय लेने के बाद कप को एक बार के लिए टेबल पर रख दिया।

“मैंने आपकी फ़ाइल जाँच कर ली है मैम। आपके दस्तावेज़ तो पूरे हैं, किन्तु फ़िर भी इसमें बहुत समय लग सकता है। नाम परिवर्तन की प्रकिया थोड़ी जटिल होती है। आपके पेपर्स भी काफ़ी हैं, आपके स्कूल से लेकर दूसरी शादी के सरनेम तक। सारे दस्तावेजों को बदल पाना आसान काम नहीं है।” वह कहते-कहते ख़ामोश हो गया और कप उठाकर चाय के घूँट भरने लगा।

“आपको दुःखी होने की आवश्यकता नहीं है। दस्तावेजों की जाँच प्रक्रिया में काफ़ी समय लगेगा, किन्तु काम हो जाएगा। मैं जितना जल्दी हो सकेगा आपका काम करवाने की कोशिश करूंगा।” उसने तसल्ली देते हुए कहा।

“आपको रोज यहां आने की भी आवश्यकता नहीं है, आप ऑफिस के नंबर पर कॉल कर लीजिएगा या ज़रूरत पड़ने पर मैं कर लूँगा।”

“सर आपका ऑफिसियल नम्बर तो किसी काम का नहीं है। कोई रिसीव ही नहीं करता, केवल रिंग ही जाती रहती हैं। पिछले एक वीक से मैं यही कर रही हूं।”

“जी! फ़िर तो आपको ख़ुद ही आकर पता करना होगा।” उसने चाय के प्याले को होंठो से लगाते हुए कहा।

हिमाक्ष की बात सुनकर वह थोड़ी नर्वस हो गई।

“सर मैं एक कम्पनी में काम करती हूं और बॉस मुझे रोज-रोज छुट्टी नहीं देते।” उसने अपनी मज़बूरी व्यक्त की।

“ओह!”अफ़सोस जताते हुए बोले।

कुछ देर तक चुप्पी छाई रही। वे दोनों चाय की घूँट भरने लगे।

“मज़ाक कर रहा हूँ मैम। परेशान होने की ज़रूरत  नहीं है। आवश्यकता पड़ने पर मैं ख़ुद आपको कॉल करूँगा।” उसने कप को टेबल पर रखते हुए कहा।

“आपको कोई एतराज़ न हो तो क्या आपका कॉन्टक्ट नंबर मिल सकता है?”

” हाँ! क्यों नहीं। मुझे तो कोई प्रॉबलम नहीं, बस आपके घर में कोई प्रॉब्लम मेरे नंबर की वज़ह से न हो। बस इतना ध्यान रखिएगा।” उसके चेहरे पर मुस्कान और बातों में गंभीर भाव था।

“नहीं होगी सर, मैं संभाल लूंगी।” अवन्तिका भी हल्के से मुस्कुरा दी और इसी के साथ उसने चाय का आख़िरी घूंट लेकर कप टेबल पर रख दिया।

उसने हिमाक्ष का नम्बर लिया और सेव करते हुए उसका नाम पूछा,- “योर गुड़ नेम? सर।”

“हिमाक्ष।” उसने उत्तर दिया।

“नाम तो आपका जानती हूँ सर। मगर सर आगे क्या?”

“आगे क्या मैम?”उसने माथे पर सिलवटें डालते हुए कहा।

“मेरा मतलब सरनेम सर।” उसने बात संभाली।

“आप सर भी छोड़िए और सरनेम भी। केवल नाम सेव कीजिये। मेरा नाम हिमाक्ष है।” उसके चेहरे पर निश्छल भाव झलक रहा था।

वह एक क्षण के लिए चुप हो गया और फ़िर अपनी बात को पूरी करते हुए कहने लगा- “आप मेरे सरनेम की जगह मेरा ओहदा लिख लीजिए। यही मेरी पहचान है।”

“जी सर। लिख लेती हूँ।”

“आप चाहें तो मुझे नाम से बुला सकती हैं। मैं आपसे उम्र में बहुत छोटा हूं। सर तो बिल्कुल नहीं लगता।” उसने मुस्कुराते हुए अपनी बात ख़त्म की।

उसकी बात और अपनेपन को देखकर अवन्तिका के मुख पर भी मुस्कुराहट नाचने लगी। उन दोनों ने अपनी चाय के साथ एक उस शिष्टाचार भरी मुलाक़ात का समापन किया और फिर दोनों ने अपनी-अपनी राह पकड़ी।

■■

एक महीना बीतने वाला था। इस दौरान वह इस काम सिलसिले में हिमाक्ष को कई बार कॉल कर चुकी थी। बडे़ हँसमुख स्वभाव और सुलझे चरित्र का लड़का था वह। उसने अवन्तिका को दिलासा दिया कि वह चिंता न करें, जैसे ही उसका काम हो जाएगा वह स्वंय उसे इन्फॉर्म कर देगा। वह ऑफिस में अपने कैबिन में बैठकर लैपटॉप पर काम करने में बिज़ी थी; कि अचानक से उसकी नज़र टेबल पर वाइब्रेट हो रहे फ़ोन पर पड़ी। फ़ोन हिमाक्ष का था। अवन्तिका ने बिना समय बर्बाद किए फटाफट फ़ोन रिसीव कर लिया।

“हेलो। मैं हिमाक्ष बोल रहा हूँ मैंम।” ये आवाज़ सुनकर अवन्तिका के मस्तिष्क पर काम का ओवर बर्डन होने के बावजूद भी उसके मन को हल्का सा सुकून दे गई।

“हेलो सर।” उसके होठों पर मुस्कान ने दस्तक दे दी।

दोनों ने एक दूसरे का हालचाल लिया और सामान्य औपचारिकता पूरी होने के बाद मुख्य बिन्दु पर बातचीत प्रारंभ हो गई।

” मैम! मैंने आपको ये बताने के लिए कॉल किया है कि आपकी फाइल एकदम रेडी है; बस अब आप जितना जल्दी हो सके इस फाइल पर साइन करने आ जाएं ; ताकि अधिकारी को ये फाइल बिना विलंब भेजी जा सके।” उसने अपनी बात एक ही बार में समाप्त कर दी।

“जी थैंक्यू सो मच। आपने मेरी बहुत बड़ी प्रॉब्लम शॉट आउट कर दी लेकिन….!”  कहते-कहते वह चुप हो गई।

“लेकिन..क्या मैम?” उसने चिंतित भाव से सवाल किया।

“आपने तो अपना काम कर दिया लेकिन बॉस ने अब मुझे छुट्टी नहीं देने वाले। आज काम की बहुत व्यस्तता है।” उसने अपनी मज़बूरी व्यक्त कर दी।

“ओहो!” उसने उदासीनता भरा एक शब्द बोला।

“अब तो कल ही हो पायेगा सर और वह भी लंच के बाद।”

“मैंम! अगर आपको एतराज़ न हो तो मैं आज शाम को आपके ऑफ़िस से हस्ताक्षर ले जाऊँ? मेरा रास्ता वहीं से है।”

“शुक्रिया सर। मैं आपको तकलीफ़ नहीं देना चाहती।” उसने बहुत नर्म लहज़े में अपनी बात रखी।

“अरे नहीं मैंम। तकलीफ़ जैसी कोई बात नहीं है। मैं शाम को ऑफ़िस से थोड़ा जल्दी निकलूंगा तो रास्ते में आपके हस्ताक्षर ले लूँगा।” उसने बहुत आत्मीयतापूर्वक कहा।

“बहुत शुक्रिया। मैं आपकी हमेशा एहसानमंद रहूंगी सर।” मैंने कृतज्ञता ज्ञापित की।

“मैम कोई बात नहीं, एक इंसान ही दूसरे इंसान के काम आता है। चलिए अच्छा है इस बहाने आपका ऑफिस भी देख लूंगा। और अगर आप चाहें तो सरकारी दफ़्तर की चाय का बदला निजी दफ़्तर में भी चुका सकती हैं।” उसने मजाकिया अंदाज में कहा। उसकी बात सुनकर अवन्तिका हँस पड़ी।

“शॉर! मैं शाम को इंतज़ार करूँगी।”

“जी मैम! मिलते हैं आज शाम।” उसने फ़ोन डिसकनेक्ट कर दिया।

         शाम को नियत समय पर हिमाक्ष अपनी बाइक से अवन्तिका के ऑफिस पहुँच गया। उसने कॉल कर अपने आने की सूचना अवन्तिका को दे दी।

उसने हिमाक्ष को चौथी मंज़िल पर बने अपने कैबिन में आने को कहा। वह साधारण सी कमीज़ और पेंट में, बेतरतीब बालों को अपने एक हाथ की चारों अंगुलियों से ठीक करता हुआ उसके कैबिन में प्रवेश कर गया। वह अपनी सीट से उठी और अपनी जगह पर खड़ी हो गई।

दोनों के मध्य हेलो, हाय की औपचारिकता पूर्ण होने के बाद वे दोनों आमने-सामने की कुर्सियों पर बैठ गए।

“अच्छा ये बताओ चाय लोगे या..?”

“चाय।” अवन्तिका की बात पूरी होने से पहले ही वह तपाक से अपनी प्यारी सी मधुर आवाज़ में बोल पड़ा।

उसकी बच्चे जैसी हरकत देखकर अवन्तिका हँस पड़ी।

“ठीक है। फिर चाय ही पीते हैं।” अवन्तिका ने चाय के लिए बोल दिया।

कुछ क्षणों के बाद चाय आ गई। वे दोनों चाय के साथ इधर-उधर की बातें करते रहे। इतनी बातें और मुलाकातों के बाद उन दोनों के मध्य एक अच्छी एवं मर्यादित मित्रता का संबन्ध तो लगभग स्थापित हो ही चुका था। उन दोनों के मध्य पारिवारिक और व्यवसायिक सभी प्रकार के विषयों पर बातचीत होने लगी थी। समय के साथ-साथ वे दोनों अच्छे दोस्त बन रहे थे।

चाय पीते-पीते ही हिमाक्ष ने डॉक्यूमेंटस पर साइन लेने के लिए फाइल अवन्तिका के आगे बढ़ा दी।

अवन्तिका ने भी समय की सीमाओं को समझा और चाय के साथ-साथ ही हस्ताक्षर करने लगी। हस्ताक्षर होने के बाद अवन्तिका ने हिमाक्ष से झिझकते हुए एक प्रश्न किया। “हिमाक्ष! आप बुरा न माने तो एक बात पूछूं?”

“जी मैंम। बेझिझक पूछिए।” उसने चाय के कप को होंठो से हटाते हुए उसकी ओर देखकर झट से कहा।

“आप अपने नाम के आगे सरनेम क्यों नहीं लगाते?” उसके प्रश्न में हिचकिचाहट भरी थी।

“सरनेम ज़रूरी है क्या? उसके बिना भी काम चल सकता है।” उसने शांत लहज़े में कहा।

“हाँ! चल सकता है लेकिन…।” उसने अपनी बात अधूरी छोड़ दी।

हिमाक्ष ने चाय की घूँट जल्दी-जल्दी भरना शुरू कर दिया।

अवन्तिका ने प्रश्न पूछ तो लिया किन्तु उसे इस गलती का अफसोस था। उसे लगा जैसे हिमाक्ष को बुरा लग गया। वे दोनों कुछ पल के लिए चुप हो गए। चाय की चुस्कियों की आवाजें तेज़ होने लगी। हिमाक्ष ने चाय समाप्त कर कप टेबल पर रख दिया। उसने एक लंबी साँस भरी और फिर धीरे से बोला- “मैं एक छोटे से गांव से बिलोंग करता हूँ और समाज में छोटी कही जाने वाली जाति से भी। सरनेम में क्या लगाऊँ? अपना धर्म, गाँव, शहर या जाति? मैं हीन और नीच जात हूँ मैंम। गाँव में तो सब मेरी जाति से मुझे जानते हैं लेकिन इस शहर में कोई नहीं जानता। हमारे लिए हमारी जाति ही हमारा सरनेम होता है जिसे मैं नकारता हूँ।” उसने अवन्तिका की आँखों में झाँकते हुए कहा। वह लड़का जो कुछ देर पहले बच्चे की तरह शरारती नज़र आ रहा था यकायक गंभीर हो गया। उसके चेहरे पर परिपक्वता झलकने लगी।

“सरनेम आपके लिए गर्व, सम्मान का विषय होगा मैंम, किन्तु मेरे लिए अपमान, घृणा और शोषण के प्रतीक से अधिक कुछ नहीं। यह किसी के लिए रास्ते खोलता है तो किसी के लिए बन्द भी कर देता है। यह किसी के लिए वरदान है, तो किसी के लिए अभिशाप।”

उसकी बात सुनकर अवन्तिका अपराधी सा महसूस कर रही थी। उसे लगा जैसे उसने हिमाक्ष के हृदय को ठेस पहुंचाई है।

 उन दोनों के मध्य एक बार पुनः चुप्पी छा गई।  कुछ क्षण  के बाद हिमाक्ष ने चुप्पी तोड़ी और वह अपनी बात ख़त्म करने के लिए फ़िर बोलने लगा-

“मेरे लिए सरनेम मेरी पहचान या गर्व का विषय नहीं है, बल्कि मेरा नाम और ओहदा ही मेरे स्वतंत्र अस्तित्व की पहचान है। मेरे पिता का दिया नाम, उनका परिश्रम करके मुझे दिया गया ये पद ही मेरा गर्व और मेरी पहचान है। मैं सरनेम लगाकर अपने अस्तित्व को धूमिल नहीं करना चाहता।” उसने अपनी बात पूरी की और यकायक अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ।

“मैम! अब मैं चलता हूं। अब आपका काम जल्दी ही हो जाएगा। और हाँ! चाय बहुत अच्छी थी मैंम।” उसके होठों पर एकाएक फिर से मुस्कान नाचने लगी। उसको हँसते हुए देखकर अवन्तिका के मन को थोड़ा सुकून मिला।

“थैंक यू सो मच हिमाक्ष।” उसने खड़े होकर उसका आभार प्रकट किया।

“इसके बदले मोस्ट वेलकम तो बिलकुल  नहीं कहूंगा। मैं नहीं चाहता कि इस तरह की कोई और फाइल आपको कभी भी परेशानी दे।” वह फ़िर मुस्कराया।

“तुम एक अच्छे और प्यारे इंसान हो हिमाक्ष। मुस्कुराते हुए अच्छे लगते हो।”

“शुक्रिया मैम। आप भी बहुत अच्छी और प्यारी हैं। मिलते हैं फ़िर कभी।” उन दोनों के चेहरों पर स्माइल थी।

हिमाक्ष ने फ़ाइल उठाई और कैबिन से बाहर निकल गया। अवन्तिका उसे जाते हुए देखती रही। उसका शरीर जड़ की भाँति स्थिर था और मन में अनेकों प्रश्नों का भूचाल उमड़ रहा था। वे प्रश्न जो उस नटखट से बालक की बातों से उसके मन-मस्तिष्क में अकस्मात ही उपज गए थे।

■■■

अवन्तिका रात भर करवटें बदलते हुए सोने की कोशिश में आँखें बंद किए बिस्तर को रौंदती रही। वह अजीबोगरीब  ख्यालों में भटकने लगती और बार- बार घबराकर आँखें खोल लेती। उसके मस्तिष्क में सैंकड़ो विचार आने लगते। सोचते-सोचते उसके दिमाग में यकायक एक साथ कई आकृतियां उभरने लगी। देखते ही देखते अंधेरे कमरे की दीवारों पर आकृतियों के चेहरे सामने आने लगे। वह ए.सी रूम में भी पसीने से तरबदर होने लगी। उसकी सांसें दौड़ते हुए मृग शावक की भाँति फूलने लगी।

उसकी आँखों के सामने वैभव का चेहरा आ गया। वह बहुत ही डरावना और भयानक दिख रहा था। उसने काला लिबास धारण कर रखा था, उसकी आंखें लाल थीं और चेहरा कठोर। वह निरन्तर अवन्तिका को घूर रहा था। अचानक उसके मुख पर व्यंग्य भरी कुटिल हँसी फूट पड़ी।

“हा..हा..हा! कैसी हो अवन्तिका? ओह सॉरी। मिसिज अवन्तिका। मिसिज अवन्तिका सक्सेना। मिसिज अवन्तिका वैभव सक्सेना। हा.. हा.. हा..। तुम तो मिसिज अवन्तिका वैभव सक्सेना हो। और अब?” उसने व्यंग्य बाण छोड़ते हुए कहा।

“नहीं! नहीं हूं मैं मिसिज सक्सेना।” अवन्तिका ने उत्तर दिया।

“तो फ़िर कौन हो?” दूसरी तरफ़ से एक स्त्री की आकृति उभरी। अवन्तिका उस आवाज़ की दिशा में पलटी।

उसने देखा एक स्त्री जो देखने में हू-ब-हू अवन्तिका लग रही थी किन्तु उसके केश बिखरे हुए थे, आँखें ज्वाला सी धधक रही थी। वस्त्र अस्त-व्यस्त थे। वह देखने में बेबस, लाचार और ज़िंदगी की जंग हारी हुई सी कोई स्त्री प्रतीत हो रही थी।

“कौन हो तुम?” वह फ़िर दहाड़ी।

“मैं अवन्तिका हूँ।”

“नहीं ये तो मिसिज सिंघानिया हैं।” उस स्त्री की  बगल में एक और पुरुष रूप उभर आया था जो अभिनव का प्रतिरूप था।

“ये मिसेज सिंघानिया है। मेरी पत्नी।” उसने अवन्तिका की बाजू पकड़ कर अपनी ओर खींचते हुए कठोर शब्दों में कहा।

वे तीनों आकृतियां जो अवन्तिका, अभिनव और वैभव के प्रतिरूप थे, बहस में उलझे हुए थे। उनका चीखना, चिल्लाना और उपहास करना ज़ारी रहा।

अवन्तिका विचलित मन से उन आकृतियों को देख और सुन रही थी। उसकी आँखों के सामने वे सारे दृश्य अचानक दृश्यमान होने लगे जिनका सामना उसे दो माह से करना पड़ रहा था। उसे वे सारे कथन जो उस दिन ठाकुर ने उसे कहे थे और वह अट्टहास भी स्मृत होने लगा जो ऑफ़िस में बैठे लोगों ने उड़ाया था।

“सरनेम बदलने में थोड़ा सब्र से काम लीजिये मैड़म। थोड़ा रुक जाइये, क्या पता बदलना ही न पड़े। कल को अगर आप तीसरा पति बदलेंगी तो क्या फ़िर से सरनेम बदलवाने आएंगी?” कमरे में ठहाके गूंज उठे।

“वैसे हम मर्दों को अपने नाम अपनी घर वालियों को देने ही नहीं चाहिए। शादियों की वेलिडिटी आजकल कम हो गई है। वैसे भी औरतों का कोई भरोसा नहीं। कब पति और सरनेम बदल लें। क्यों मैडम?” फ़िर अट्टहास होने लगा।

“पहले पति बदलती है बाद में सरनेम।” उन आकृतियों के ठहाकों की ध्वनि खंडहर में गुंजन की भांति गूंज उठी।

अवन्तिका उन आवाजों की दिशा में चक्करघिन्नी-सी घूम रही थी। उसका सिर फटने को हो गया।

“नहीं…..ही.. ही.. ई…ई…! कौन हो तुम सब?”  उसने अपने दोनों कानों को अपने हाथों की हथेलियों से ढाँप लिया। वह घुटनों को मोड़ कर रोते-रोते ज़मीन पर बैठ गई और ज़ोर से चीख पड़ी। वह बिलख-बिलखकर रो रही थी।

तुम सब दफ़ा हो जाओ यहां से। दूर हो जाओ मेरी नज़रों से। मैं तुम्हें नहीं जानती। मैं अवंतिका हूं। अवंतिका..।

“न…हीं! अवन्तिका सक्सेना हो।” वैभव बोला।

“नहीं! अवन्तिका सिंघानिया है।” अभिनव ने आवेश में आकर कहा।

“बिलकुल नहीं। ये अवन्तिका सिंह है।” अवन्तिका का अक्स बोला।

वे तीनों प्रतिरूप क्रोधित होकर बहस करते रहे। ठाकुर और अन्य लोगों के ठहाके गूंजते रहे। अवन्तिका बेबस और विचलित नज़रों से उन सबको देखती रही और अंततः वह उन सब पुरुषों की भयानक आकृतियों से घिरी बेबस स्त्री रो-रोकर वहीं बेहोश हो गई और ज़मीन पर ढ़ेर हो गई।

अवन्तिका की आँख खुल गई। उसने अपने आप को पसीने से तर-बतर पाया। उसकी बगल में सो रहा अभिनव गहरी नींद की आग़ोश में था।

■■■

“ये आलिशान कमरे, झूलते हुए झूमर, महकते बगीचे, चमचमाती गाडियाँ; सबके के सब कागज़ी और बनावटी हैं; जब तक स्त्री का स्वयं का कोई वजूद न हो। हमपल्ला (एक समान पद और प्रतिष्ठा) न हो। जन्म से लेकर मृत्यु तक स्त्री का नाम, काम, रंग, रूप, मान, सम्मान, प्रतिष्ठा, पद सब दिखावटी और बनावटी हैं। जैसे मेरी न कोई पहचान है न स्वतंत्रता। सामाजिक व्यवस्था में स्त्री केवल खूंटे से बँधी दो पैरों की पशु है। समय के साथ खूंटे बदलते जाते हैं मालिक भी और सरनेम भी। पुरुष का सरनेम स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व पर अवैद्य कब्जे से अधिक कुछ नहीं है। अवन्तिका सिंह से अवन्तिका सक्सेना और अब, अवन्तिका सिंघानिया। इन सब में अवन्तिका कहाँ है? मेरी शफ़ाफक रूह इस सरनेम के दलदल से बाहर निकल रही थी, किन्तु मुझे फ़िर विवश कर दिया गया एक और खूंटे से बँधने के लिए। बिना पुरुष और सरनेम के भी गुज़र बसर हो रहा था। ज़िंदगी का एक बेकार सुनसान, उदासी भरा पड़ाव निपटा भी नहीं था कि दूसरे पड़ाव में फिर वही कैक्टस उभर आए थे जो मेरे जीवन की शुष्क रेतीली ज़मीन पर वैभव के दिये सरनेम ने बो दिए थे। पुरुष स्त्री को नाम देकर उस पर एहसान करते हैं जबकि ये स्त्री का सबसे बड़ा अपमान है। किसी के वजूद पर अपनी मोहर लगा देना सम्मान कैसे हो सकता है? ये स्वामित्व है। पुरुषत्व का दंभ है।” वह खिड़की के पास खड़ी थी और उसके मन के भीतर ऐसे कई विचारों का तूफ़ान उथल- पुथल मचाये हुआ था।

“हवा सिर्फ़ हवा है। तितली सिर्फ़ तितली। कोयल, कोयल है, गिलहरी सिर्फ़ गिलहरी; तो फ़िर मैं अवंतिका क्यों नहीं? क्यों नहीं! और क्यों नहीं हो सकती?” उसने फ़िर स्वयं से प्रश्न किया।

उसके आस-पास कुछ चेहरे और कहकहे उभरने व गूंजने लगे। जैसे कल रात के स्वप्न में अचानक से उभर आये थे। उसके कानों में फिर से वही स्वर गूँजने लगे जो उसे बीती रात से ही परेशान कर रहे थे।

उसने ज़ोर से अपनी आँखें मिंच ली और झूलती हुई कुर्सी पर आ बैठी। वह बेहद व्याकुल और परेशान नज़र आ रही थीं। उसकी छाती में खोलते तेल सा उबाल था। उसने स्वंय पर नियंत्रण करने का प्रयास किया।

थोड़ी देर बाद वह शांत चित्त होकर धैर्य से बैठ गई।

“सब अल्फाजों के फेर होते हैं।  हूर परी, धर्म-पत्नी, सौभाग्यवती, लक्ष्मी, अप्सरा । अब ये सारे शब्द तल्खियां-सी लगती है।

मिस्टीरियस लहज़े का जादू केवल औरत को कैद करने की मनसा लिए होते हैं।

पहाड़, नदी, झरने, नाव, चिड़ियां, कोयल, हवा, कौआ,

तितली और गिलहरी किसी का न लिंग है,न सरनेम। हिमाक्ष का भी तो कोई सरनेम नहीं है। उसका नाम ही उसके लिए पहचान है। सरनेम केवल स्टेटस है जो श्रेष्ठता को दिखाता है इससे अधिक कुछ नहीं।” वह अनेकों विचारों के भँवर में फंसी थीं कि तभी हवा के ज़ोरदार प्रहार से खिड़की और दरवाज़े के पट खुल गए। पूरा कमरा हवा से भरने लगा। बिफरे हुऐ अजगरों-सी सरसराती फूंकारती हवाएं पूरे कमरे में घुस गई और तभी उसका ध्यान भंग हो गया। उसकी दांयी और बैड पर पड़ा मोबाइल वैब्रेशन से थिरकने लगा। फ़ोन अभिनव का था।

“हेलो।” दूसरी तरफ़ से अभिनव की आवाज़ आई।

“जी।”

“काम पूरा हो गया?” उसने रूखे से शब्दों में सवाल किया।

“पता नहीं।” उसने सच उसके समाने कह दिया।

“पता नहीं मतलब? क्यों पता नहीं?”

“क्यों कि मैं गई ही नहीं।” उसने निर्भीकतापूर्वकता गर्दन तान कर कहा।

“क्या चाहती हो तुम अवंतिका? क्या तुम्हें अब भी उसी सरनेम से प्यार है? तुम समझती क्यों नहीं हो। तुम्हें नोमनी बनाना है। हमें किसी होटल में रूम नहीं मिल रहा है, बिजनेस में इतनी प्रॉब्लम आ रही है। सिर्फ़ एक सरनेम की वजह से। दस्तावेजों को बदलना कितना जरूरी है क्या तुम्हे नहीं पता?” उसके लहज़े में क्रोध और चिंता के मिलेजुले भाव थे।

“मुझे पता है अभिनव! सरनेम की वजह से प्रॉब्लम हो रही है। मैं दस्तावेज बदल दूँगी और सरनेम भी। आप निश्चिन्त रहिये।” अवन्तिका ने फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया।

उसके फोन कट करते ही उसके फ़ोन की घंटी की ध्वनि कमरे में गूंज उठी। वह रिसीव करती उससे पहले ही फोन कट गया। फ़ोन हिमाक्ष का था। अवन्तिका ने कॉलबैक कर लिया।

“हेलो।”

“हेलो मैम! मैं हिमाक्ष।

“हाँ! कहो हिमाक्ष!” उसने शांत स्वर में कहा।

“मैम! अब केवल अंतिम फॉरमेल्टी शेष है। उसके बाद आपका सरनेम बदलने का आदेश हो जाएगा। आपको एक बार सर के सामने फ़ाइल पेश करनी है आपकी ऑरिजनल आइडेंटिटी के साथ। आप ऑफ़िस आ सकती हैं क्या आज?” वह अपनी बात खत्म कर चुप हो गया और अवन्तिका के प्रतिउत्तर की प्रतीक्षा करने लगा।

वह चुपचाप सुन्न खड़ी रही।

“हेलो..हेलो। मेरी आवाज़ आ रही है मैंम?” उधर से हिमाक्ष की आवाज़ बिना रुकावट के उसके कानों से टकरा रही थी।

“जी।”

“मैम! अब आप चिंता मत कीजिये। आपका काम जल्दी हो जाएगा। अब आपके नाम के आगे नया सरनेम होगा।” वह चहककर बोल रहा था किन्तु अवन्तिका शांत और स्थिर थी।

“मैंम! आप ठीक हैं न?” हिमाक्ष ने धीमे से पूछा। उसके स्वर में चिंता थी।

“हाँ! मैं ठीक हूँ हिमाक्ष।”

“फ़िर आप इतनी उदास सी क्यों लग रही है मैंम? अब तो आपका काम भी होने वाला है।”

“क्योंकि अब हमें सरनेम की पूरी फ़ाइल दोबारा बनानी पड़ेगी हिमाक्ष।”

“क्यों? क्या आप नया सरनेम लगा रही हैं?”

“नहीं! हटा रही हूँ।”

“तो फ़िर क्या रहेगा आपका सरनेम?” उसने अचरज से पूछा।

“वही जो जन्म से होना चाहिए था। अवंतिका। केवल अवन्तिका!”

■■■

हिमाक्ष से बात करने के बाद वह फ़िर कमरे की खिड़की से बाहर झाँकने लगी।

बगीचे में खेलती गिलहरी पर उसकी नज़रें ऐसे फिसल रही थी जैसे नाव पानी पर।

उसका दिमाग़ दूसरी ओर मुड़ गया और चेहरे पर जो परेशानी झलक रही थी वह भी दूर होने लगी थी।

अवन्तिका अपने निर्णय पर दृढ़ संकल्पित थी।

उस दिन उसने अपने ऑफ़िस से छुट्टी कर ली।

वह नहा-धोकर अच्छे से तैयार हुई और अपनी स्कूटी को स्टार्ट कर हिमाक्ष के दफ़्तर की ओर रूख कर गई।

उसने अपनी स्कूटी की स्पीड बढ़ा दी। सड़क पर दौड़ती स्कूटी हवा से बातें कर रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे  वह सारी दुनियां को पीछे छोड़ देना चाहती थी। उसका मन बेहद खुश था। वह उन्मुक्त गगन में उड़ते पँछी की भाँति अपनी भावी स्वतंत्रता की पहली उड़ान का आनन्द ले रही थी। उसने हिमाक्ष के दफ़्तर पहुंचकर स्कूटी को पार्किंग में लगाया और तेज़ कदमों और उत्साहित हृदय से उसके टेबल की ओर बढ़ने लगी। वह आज भी लंच टाइम पर ही ऑफ़िस पहुँची जबकि वह जानती थी कि लंच के बाद वहां कोई काम नहीं होता। उसे अपनी ओर आते देख हिमाक्ष अपनी सीट से खड़ा हो गया। अवन्तिका चेहरे पर मुस्कान लिए उसके सामने जा खड़ी हुई।

हिमाक्ष उसे आश्चर्यचकित होकर देखने लगा। सामान्य औपचारिकता पूरी होने के बाद हिमाक्ष ने उसे बैठने का इशारा किया और फ़िर अपनी सीट में धंस कर बैठ गया।

“आपने आज फ़िर देर कर दी मैंम। लंच होने वाला है और सर भी अभी नहीं मिलेंगे। लगता है आज भी आपका काम नहीं होने वाला।”

“कोई बात नहीं! अब कोई जल्दी नहीं है। मुझे इस फ़ाइल पर काम नहीं करवाना।”

“क्या मतलब?” उसने अवन्तिका की ओर देखते हुए कहा।

“बताया तो था। अब सरनेम लगाना नहीं हटाना है।” उसने ठंडे लहज़े में कहा।

“वह बात तो फ़ोन पर ही हो गई थी फ़िर अपने यहाँ आने की तकलीफ़ क्यों की?”

“तुमने ही तो कहा था कि ये सरकारी दफ्तर है यहाँ लोग चाय पानी पिलाने आते हैं। मैं तुम्हें चाय पिलाने आयी हूँ। तुमने मेरा इतना काम जो किया है और आगे भी करवाओगे।” अवन्तिका के होंठ फैल गए।

“मतलब! आप मुझे रिश्वत देने की कोशिश कर रही हैं?”

“जी हाँ।”

“अगर ऐसा है तो….। आप बिलकुल सही समय पर आई हैं। लंच टाइम में मैं बिलकुल फ्री हूँ।” वह मुस्कुरा दिया।

वे दोनों उठकर कैंटीन की ओर बढ़ गए।

गरमा गरम चाय के साथ उन दोनों ने बातों के सिलसिले को छेड़ दिया।

“हाँ! तो बताइए मैम। इतनी मेहनत और ऊर्जा से जो फाइल आपने बनवाई थी उस पर काम नहीं करने का इरादा आपने क्यों बदल दिया? सब ठीक है न? कहीं आप…?” उसने अपनी बात बीच में ही छोड़ दी।

“नहीं हिमाक्ष! न तो मैं दूसरी शादी कर रही हूँ और न ही तलाक ले रही हूँ।” वह हिमाक्ष के चेहरे के भावों को पढ़कर उत्तर दे रही थी।

“फ़िर क्या हुआ मैम?”

“अब हमें फाइल दूसरी बनानी होगी जिसमें कोई सरनेम नहीं होगा।”

“वही तो पूछा मैम कि क्यों?”

“क्यों कि अब मैं किसी का भी दिया सरनेम यूज नहीं करना चाहती।” उसने साफ़ लहज़े में कहा।

“मेरा पहला नाम जो मेरे पिता ने मुझे दिया था, वही मेरा असली नाम था और वही सरनेम जो मेरे पिता का था। लेकिन मैं अब अपने पिता का दिया सरनेम भी इस्तेमाल नहीं करना चाहती।  मुझे केवल अपने अस्तित्व के साथ जीना है किसी के दिए सरनेम के साथ नहीं।” उसके चेहरे पर मुस्कान और बातों में गंभीरता थी।

“मैम! एक बार फिर से सोच लीजिए।”

“सोच लिया। हिमाक्ष।  काश! ये मैं पहले सोच लेती। खैर!” वह बोलते-बोलते रुक गई।

“देर आए दुरुस्त आए। सच कहूं तो मैं आपके इस फ़ैसले से बहुत खुश हूं। आप एक बहादुर स्त्री हैं। ये निर्णय बहुत कठोर है।”

“जानती हूं। आपको पता है ये सबक और प्रेरणा मैंने आपसे ली है?” वह मुस्कुराते हुए बोली।

“मुझ..से?” वह आश्चर्य से भर गया।

हाँ! आपसे। मैं भी सरनेम को अब शाप से कम नहीं मानती, जिसने मेरे अस्तित्व पर ग्रहण लगा दिया। मेरे स्त्रीत्व को छीन लिया, पुत्री होने की पहचान को मिटा दिया। सोच रही हूँ जब मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं होगा तो क्या करूंगी मैं इस जीवन का?

आपने उम्र में छोटा होते हुए भी अपने अनुभव से मेरी आंखें खोल दी। शुक्रिया दोस्त।”

“मुझे ख़ुशी है कि मैं आपके कुछ काम आ सका।”

“अभी तो तुम्हें और काम आना है दोस्त।”

“मतलब! आप मुझसे फ़िर से इस काम पर मसकत करवाएंगी?”

“जी हाँ!”

“कोई बात नहीं मैम। करूँगा।” वे दोनों मुस्कुरा उठे।

चाय की चुस्कियों के साथ चेहरे पर मीठी मुस्कान बिखरती चली गई।

“अच्छा हिमाक्ष!  एक बात पूछूं?” अवन्तिका ने चाय की आख़िरी घूँट भरते हुए पूछा।

“जी । बिल्कुल पूछिए मैम”

“तुम्हारी शादी हो गई?”

“नहीं तो। क्यों? क्या हुआ?” उसने चौंककर पूछा।

“बस ऐसे ही पूछ लिया। सोच रही थी वह लड़की कितनी सौभाग्यशाली होगी न जिससे तुम्हारी शादी होगी?”

“वह कैसे मैम?”

“अरे! इतना भी नहीं समझते? उसे अपना सरनेम नहीं बदलना पड़ेगा। पागल।” अवन्तिका ने उसके कंधे पर हल्की चपत लगाते हुए उत्तर दिया।

उन दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में देखा और ज़ोर से हंस पड़े।

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                  (समाप्त)

 
      

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6 comments

  1. बहुत शानदार कहानी है। स्त्री के अस्तित्व की वास्तविक कथा।

    • सर मेरी कहानी को जानकी पुल पर स्थान देने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करती हूं ।

  2. SUNIL KUMAR PANWAR

    बहुत शानदार कहानी है। स्त्री के अस्तित्व की वास्तविक कथा।

  3. Usually I do not read article on blogs, however I would like to say that this write-up very compelled me to take a look at and do so! Your writing taste has been amazed me. Thanks, quite nice post.

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