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मैं और मेरी हमबिस्तर प्रेमिकाएँ:स्वयं प्रकाश

प्रसिद्ध लेखक स्वयंप्रकाश जी की किताब आई है है ‘लिखा पढ़ा’, उनके मरणोपरांत प्रकाशित इस पुस्तक का महत्व असंदिग्ध है। उसी का एक अंश पढ़िए-
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स्वयं प्रकाश जी अपने लिखे से मोहाविष्ट नहीं रहते थे। लेखन उनके लिए आंदोलन था और मिशन भी। इसके लिए कहानी, नाटक और उपन्यास के साथ उन्हें बच्चों के लिए लिखना जरूरी लगता था तो पुस्तक समीक्षा भी। अपने लेखन के शुरुआती दौर से ही वे पुस्तक समीक्षा भी करते रहे। अजमेर से निकलने वाली प्रसिद्ध पत्रिका ‘लहर’ और राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘मधुमती’ में उनकी समीक्षाओं के उल्लेख मिलते हैं। बाद में जब प्रसिद्ध पत्रकार-कथाकार और उनके मित्र विष्णु नागर ‘शुक्रवार’ साप्ताहिक के सम्पादक बन गए तब उन्होंने नागर जी के आग्रह पर जमकर समीक्षाएं लिखीं, यह 2011 के आसपास की बात है। तब तक वे कहानी लेखन से विरत हो चुके थे लेकिन नयी किताबें पढ़ने की उनकी उत्सुकता अभी बरकरार थी। इसी दौर में उन्होंने यूनिकोड में टाइप करना सीखकर ईमेल से समीक्षाएँ विष्णु नागर जी को भेजना शुरू किया। इस प्रक्रिया का लाभ यह हुआ कि ये समीक्षाएँ सुरक्षित रह गईं अन्यथा उनके लेखन के प्रारम्भिक दौर की समीक्षाओं को खोजना अब आसान नहीं है। कुछ प्रयत्नों से मधुमती और इण्डिया टुडे में छपी पुरानी समीक्षाएँ भी यहाँ दे दी गई हैं। मेरी जिद पर वे नागर साहब को मेल करते हुए एक कॉपी मुझे भी भेज देते थे और मैं ‘शुक्रवार’ का नियमित पाठक था ही सो उनकी फ़ाइल बनाता गया। यह किताब उसी फ़ाइल का सुपरिणाम है। 2018 में कौटिल्य बुक्स ने स्वयं प्रकाश जी से चार किताबें छापने का अनुबंध किया था। टंकण, प्रूफ और तमाम दिक्कतों के चलते इनमें से दो किताबें अब प्रकाशित हो पा रही हैं। दो किताबें प्रकाशित होकर जब मुंबई के पते पर भेजी गईं तब तक स्वयं प्रकाश जी पार्थिव संसार को अलविदा कह चुके थे।

इस किताब का महत्त्व केवल स्मृतियों के कारण मान लेना सर्वथा अनुचित होगा। किताब का एक प्रूफ खुद स्वयं प्रकाश जी ने देख लिया था। वे होते तो संभवत: भूमिका भी लिखते। बहरहाल, इस किताब से नए समीक्षक सीख सकते हैं कि यदि आपको लेखन की परम्परा का सम्यक ज्ञान है और आप प्रस्तुत कृति का सच्चा पाठ करना जानते हैं तो बिना आक्रांत हुए किस तरह खरी समीक्षा लिख सकते हैं। स्वयं प्रकाश इन छोटी छोटी सी समीक्षाओं में भी अनेक जगहों पर सूत्र रूप में टिप्पणियाँ करते गए हैं जो विधा, लेखक, लेखन और प्रकाशन जगत के सम्बन्ध में स्थाई महत्त्व रखने योग्य हैं। लगभग पचास साल से साहित्य में निरन्तर सक्रिय लेखक की इस किताब में उनके अनुभवों का निचोड़ भी मिलता है जो रचनाकारों और समीक्षकों के लिए समान रूप से उपयोगी है। वे यहाँ अपने मित्रों की किताबों की भी निर्भीक समीक्षाएँ लिखते हैं तो आसमान चढ़ी किताबों की जमीनी हकीकत से भी रूबरू करवाते हैं। जिन दिनों समीक्षाओं को पुस्तक प्रशस्ति से अधिक नहीं समझा जाता हो तब इस पुस्तक को पढ़ना हिंदी की तेजस्वी परम्परा को जानना है जो प्रगतिशील विचार के आलम्बन से दो टूक सच कहना जानती थी। यह सच लेखकों को खबरदार करने वाला है तो आत्मश्लाघा से दूर रहने की हिदायत भी देता है।
याद आता है शुक्रवार में ही छपी अपनी एक समीक्षा को स्वयं प्रकाश जी ने पुस्तक में लेने से रोक दिया था। एक युवा कथाकार के कहानी संग्रह पर लिखी गई उस समीक्षा से युवा कथाकार अत्यंत कुपित हो गए थे और उन्होंने स्वयं प्रकाश जी को कानूनी कार्रवाई की चेतावनी भी दी। अपने लम्बे लेखकीय जीवन में इस तरह का अनुभव स्वयं प्रकाश जी के लिए सचमुच हतप्रभ करने वाला था। यह भी याद करने योग्य बात है कि उनकी एक बेधक और तेजस्वी समीक्षा को पढ़कर विख्यात आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने ‘शुक्रवार’ को पत्र लिखा। नागर जी ने पाठकों के पत्रों में उस पत्र को छापा। इधर के लिखे में इस तरह की घटना भी विरल ही है।
शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय युवा सम्पादक विश्वम्भर के आग्रह पर उन्होंने बच्चों की किताबों पर लिखना स्वीकार किया था और दिगन्तर (जयपुर) की पत्रिका ‘शिक्षा विमर्श’ के लिए बच्चों की किताबों पर लिखा। इन किताबों पर लिखते हुए उनकी दृष्टि सर्वथा नई है जो हिंदी में बाल साहित्य की प्रचलित समझ को खारिज करने वाली है। इस क्षेत्र में आ रहे युवाओं के नये लेखन का वे बेहद गर्मजोशी से स्वागत करते हैं वहीं पुराने किस्म के नैतिकता के उपदेशों से भरे बाल साहित्य की सीमाएं बताने से नहीं रुकते।
उनके न रहने पर कौटिल्य बुक्स के निदेशक श्री राजू अरोड़ा जी ने मुझे इस पुस्तक को अंतिम रूप देने की जिम्मेदारी दी जिसे पता नहीं मैं किस तरह निभा पाया हूँ। आंटीजी श्रीमती रश्मि भटनागर जी की उदारता का स्मरण भी करता हूँ जिन्होंने इस अधूरे काम को पूरा कर देने के लिए मुझ पर भरोसा किया। स्वयं प्रकाश जी की लिखी किन्तु अब तक असंकलित रह गई सामग्री अभी भी बहुत है। इस समूचे असंकलित लेखन को ठीक तरह से प्रस्तुत कर पाठकों तक पहुँचाने की कोशिश में पाठकों और उनके प्रशंसकों का भी सहयोग मिले, यह आग्रह करता हूँ- पल्लव 
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किशोरावस्था में जिन तीन पुस्तकों ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वे थीं गुलीवर्स ट्रेवल्स, अलीबाबा और चालीस चोर और बेताल पच्चीसी। युवावस्था में जिन तीन पुस्तकों ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वे थीं बोरिस पोलेवोई की ‘असली इन्सान’, हावर्ड फास्ट की ‘आदिविद्रोही’ (अनु. अमृतराय) और निकोलाई आॅस्त्रोवस्की की ‘अग्निदीक्षा’। प्रौढ़ावस्था में जिस पुस्तक ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया, वह थी ‘महाभारत’। आज भी यदि मुझे किसी एक ही पुस्तक को पढ़ने की अनुशंसा करनी हो तो वह पुस्तक ‘महाभारत’ ही होगी।

इतना कहकर बात खत्म की जा सकती है।

लेकिन इस बीच खासकर किशोरावस्था और युवावस्था के बीच और भी कई पुस्तकें मेरे जीवन में ‘घटित’ हो रही थीं। मसलन फ्राॅयड के मनोविज्ञान ने मुझे चैंका दिया। मैंने उनकी अनेक केस हिस्ट्रीज पढ़ीं। इसके बाद मैंने एडलर और जुंग को भी तन्मयता से पढ़ा। यह जिन्दगी को देखने का एक निराला ही कोण था। इन्हीं दिनों डा£वन की एक छोटी-सी किताब मेरे हाथ लग गई। यह सामाजिक विषयों पर लिखे गये निबन्धों का संग्रह था। इनमें एक निबन्ध नास्तिकता पर भी था। क्या किताब थी! काश! उस जमाने में फोटोकाॅपी की सुविधा होती और मैं उस निबंध को सुरक्षित रख पाता!

लगभग इसी उम्र में विवेकानन्द साहित्य पढ़ा। लेकिन सिवा ‘कर्मयोग’ (सम्पूर्ण विवेकानन्द साहित्य, भाग-3) किसी में खास मजा नहीं आया। हाँ, शिकागो से अपने प्रिय शिष्य आलासिंगा को लिखे विवेकानन्द के पत्रों में खूब मजा आया। गांधीजी की छोटी-सी किताब ‘हिंद स्वराज’ ने मुझे बहुत प्रभावित किया। खासकर इसलिए भी कि मैंने इस किताब को माइकल शूमाखर की किताब ‘स्माॅल इज ब्यूटीफुल’ के साथ मिलाकर पढ़ा। चढ़ती जवानी में डी.एच.लाॅरेन्स की ‘लेडी चेटर्लीज लवर’, नावाकोव की ‘लोलिता’, नेन्सी फ्रायडे की ‘माय सीक्रेट गार्डन’ और इन सबसे ज्यादा अल्बर्टो मोरेविया की ‘वूमन आॅफ रोम’ ने मुझे कई दिन पागल बनाए रखा। दिलचस्प बात यह है कि उन्हीं दिनों मैंने अखबार में अंतरराष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक सम्मेलन की एक तस्वीर देखी थी जिसमें अल्बर्टो मोरेविया भाषण दे रहे थे। फिर पता नहीं कैसे मुझे बर्नार्ड शाॅ का चस्का लग  गया। उन दिनों पत्रा-पत्रिकाओं में बर्नार्ड शाॅ और मार्क ट्वेन के मजाक बहुत छपा करते थे। संयोग ऐसा हुआ कि ‘पिग्मेलियन’ पढ़ी और कुछ रोज बाद ही ‘माय फेयर लेडी’ देखने को मिल गई। रेक्स हेरीसन और आॅडेª हेपबर्न ने शाॅ की कल्पना को साकार कर दिया। प्रोफेसर हिगिन्स मेरे सपनों में आने लगे। वह आते और किसी की आवाज आती, ‘इट राइन्स माइनली आॅन द प्लाइन्स आॅफ स्पाइन!’ और मैं सोते-सोते हँस पड़ता। उन दिनों शाॅ के पचासियों मजाक मुझे जबानी याद थे और उन्हें मैं दोस्तों के बीच खूब चटखारे लेकर सुनाया करता था। खासकर वह, जिसमें ब्लैकबोर्ड पर ‘फिश’ लिखकर शाॅ पूछते थे कि यह क्या है और फिर खुद ही बताते थे कि यह ‘छोटी’ है और अन्त में अफसोस के साथ कहते थे कि ये अंग्रेज अपने बच्चों को अंग्रेजी क्यों नहीं सिखाते? लेकिन मजाकों को और उनके नाटकों को उनके ‘डायलाॅग्स’ ने धराशायी कर दिया। मुझे इसमें भविष्य का एक नया कलारूप दिखाई दिया और मैंने मन ही मन तय किया कि जब मैं परिपक्व हो जाऊँगा तो मैं भी डाॅयलाॅग लिखूँगा। इसके तुरन्त बाद मैं मार्क ट्वेन से टकरा गया और उनकी महान प्रतिभा के आगे नतमस्तक हो गया। जब मैं छोटा था। मार्क ट्वेन भाषण देने भारत भी आए थे और लोग टिकट लेकर उनका भाषण सुनने गए थे। तब मैंने सोचा था यह तो बहुत खूब रही। ऐसा तो मुझे भी बड़े होकर करना चाहिए। उन दिनों मेरे शहर इन्दौर में अनेक व्याख्यानमालाएँ होती थीं जिनमें कला-साहित्य-संस्कृति जगत की हस्तियों को बुलाया जाता था और लोग ठठ के ठठ उनका भाषण सुनने जाते थे। यह और बात है कि टिकट नहीं लगते थे। समाजसेवी संस्थाएँ चंदा करके ये आयोजन करती थीं। मेरा आज भी मानना है कि टाॅम सोइयर और हकलबरी फिन जैसे पात्र विश्वसाहित्य में और नहीं हैं। मार्क ट्वेन शिकागो टाइम्स में एक स्तंभ लिखते थे ‘एडम्स डायरी’ जो खूब लोकप्रिय हुआ। तो उन्होंने उसके अनुवर्तन में ‘ईव्स डायरी’ भी लिखा। वह और भी ज्यादा लोकप्रिय हुआ। अफसोस इनका आज तक हिंदी में अनुवाद नहीं हुआ है।

जब मैं स्नातक कक्षा में आया तो नियम बना लिया कि परीक्षा के तुरंत बाद पाठ्यक्रम की बदबू दिमाग से निकालने के लिए एक जासूसी उपन्यास जरूर पढँू़गा। उस चक्कर में कुछ हिचकाॅक, कुछ अगाथा क्रिस्टी कुछ पैरी मैसन भी पढ़ लिए। पाॅपुलर फिक्शन की बात हो रही है तो इरविंग वालेस के उपन्यास ‘द मेन’ और अलेक्स हेली के उपन्यास ‘द रूट्स’ का जिक्र भी करना चाहिए। आज अमेरिका में एक अश्वेत राष्ट्रपति है, लेकिन वह कितना अश्वेत रह गया है? ठीक इसी समय मुझे जेम्स बाल्डविन के नाटक ‘ब्लूज फाॅर मिस्टर चार्ली’ की याद आ रही है। यह एक नीग्रो लड़के बारे में है जिसे जबर्दस्ती मुजरिम बना दिया जाता है। यह पुस्तक मैंने अपने मित्र दिनेश मिश्र के निजी पुस्तकालय से पहले माँगकर पढ़ी थी, फिर चुरा ली थी, और आज भी मेरे पास है। पहले सोचा था कि अनुवाद करूँगा, फिर सोचा रूपान्तर करूँगा, फिर सोचा इस पर आधारित नाटक लिखूँगा, लेकिन जब हिंदी के दलित लेखकों ने प्रेमचंद को गाली देना शुरू किया और कहा कि दलित साहित्य सिर्फ दलित लिख सकते हैं तो मैंने सोच लिया कि अब जिन्दगी भर दलितों पर कुछ नहीं लिखूँगा। यहीं कुछ और अत्यंत प्रभावशाली पुस्तकों का जिक्र करता चलूँ। ये हैं एल्विन टाॅफलर की तीनों पुस्तकें (‘फ्यूचर शाॅक’, ‘द पाॅवर शिफ्ट’ और ‘थर्ड वेब’) सुसांत गुणतिलक की ‘द क्रिपल्ड माइण्ड्स’ (‘पंगु मस्तिष्क’ नाम से जिसके अनुवाद का मुझे सुअवसर मिला), उर्वशी बुटालिया की ‘द अदर साइड आॅफ साइलेंस’ और पिंकी वीरानी की ‘बिटर चाॅकलेट’! बाइगाॅड! क्या किताबें हैं। मैं अब भी इनका हिंदी में अनुवाद करने को तैयार हूँ, बशर्ते कोई प्रकाशक ढंग का प्रस्ताव दे। लेकिन जब निश्चय कर लिया कि अपने को लिखना ही है तो अध्ययन को व्यवस्थित और अनुशासित करना जरूरी हो गया। समकालीन भारतीय साहित्य से परिचित होने के लिए अनेक मोटी-मोटी लेकिन पनीली पुस्तकें पढ़ीं। तारा शंकर बंदोपाध्याय की ‘गणदेवता’, गोपीनाथ महांती की ‘माटी मटाल’, क.मा. मुंशी की ‘जय सोमनाथ’, अमृतलाल नागर का ‘बूँद और समुद्र’, यशपाल का ‘झूठा सच’ और पन्नालाल पटेल का ‘मानव नी भवई’। मैंने हैरान होकर सोचा कि लोग इतना कैसे लिख लेते हैं? और क्यों लिख लेते हैं? मेरा खयाल है पढ़ने के बारे में हड़बड़ी बिल्कुल नहीं करना चाहिए। ये हौंस कि हम सब कुछ पढ़ लें …फालतू हैं। क्योंकि इस तरह चीजें न याद रहती हैं न असर छोड़ती हैं। पुस्तक को प्रेमिका समझना चाहिए और उससे भी बड़ी शाइस्तगी के साथ पेश आना चाहिए। उसका नशा धीरे-धीरे चढ़ता है। हड़बड़ी में न उसे मजा आएगा न तुम्हें।

आप यह भी देख रहे होंगे कि यह सारा कुछ एकदम सिलसिलेवार नहीं आया है। बात यह है कि किताबों हर जगह मिलती नहीं हैं। मिलतीं भी तो खरीदने की अपनी औकात नहीं। अधिकतर किताबें पुस्तकालयों से इशू कराकर, दोस्तों से माँगकर या इधर-उधर से चुराकर ही पढ़ीं हैं। तो जब जो मिल गई। अफसोस! कि अब तो पुस्तकें कोई चुराता भी नहीं।

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6 comments

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