स्वयं प्रकाश जी अपने लिखे से मोहाविष्ट नहीं रहते थे। लेखन उनके लिए आंदोलन था और मिशन भी। इसके लिए कहानी, नाटक और उपन्यास के साथ उन्हें बच्चों के लिए लिखना जरूरी लगता था तो पुस्तक समीक्षा भी। अपने लेखन के शुरुआती दौर से ही वे पुस्तक समीक्षा भी करते रहे। अजमेर से निकलने वाली प्रसिद्ध पत्रिका ‘लहर’ और राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘मधुमती’ में उनकी समीक्षाओं के उल्लेख मिलते हैं। बाद में जब प्रसिद्ध पत्रकार-कथाकार और उनके मित्र विष्णु नागर ‘शुक्रवार’ साप्ताहिक के सम्पादक बन गए तब उन्होंने नागर जी के आग्रह पर जमकर समीक्षाएं लिखीं, यह 2011 के आसपास की बात है। तब तक वे कहानी लेखन से विरत हो चुके थे लेकिन नयी किताबें पढ़ने की उनकी उत्सुकता अभी बरकरार थी। इसी दौर में उन्होंने यूनिकोड में टाइप करना सीखकर ईमेल से समीक्षाएँ विष्णु नागर जी को भेजना शुरू किया। इस प्रक्रिया का लाभ यह हुआ कि ये समीक्षाएँ सुरक्षित रह गईं अन्यथा उनके लेखन के प्रारम्भिक दौर की समीक्षाओं को खोजना अब आसान नहीं है। कुछ प्रयत्नों से मधुमती और इण्डिया टुडे में छपी पुरानी समीक्षाएँ भी यहाँ दे दी गई हैं। मेरी जिद पर वे नागर साहब को मेल करते हुए एक कॉपी मुझे भी भेज देते थे और मैं ‘शुक्रवार’ का नियमित पाठक था ही सो उनकी फ़ाइल बनाता गया। यह किताब उसी फ़ाइल का सुपरिणाम है। 2018 में कौटिल्य बुक्स ने स्वयं प्रकाश जी से चार किताबें छापने का अनुबंध किया था। टंकण, प्रूफ और तमाम दिक्कतों के चलते इनमें से दो किताबें अब प्रकाशित हो पा रही हैं। दो किताबें प्रकाशित होकर जब मुंबई के पते पर भेजी गईं तब तक स्वयं प्रकाश जी पार्थिव संसार को अलविदा कह चुके थे।
किशोरावस्था में जिन तीन पुस्तकों ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वे थीं गुलीवर्स ट्रेवल्स, अलीबाबा और चालीस चोर और बेताल पच्चीसी। युवावस्था में जिन तीन पुस्तकों ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वे थीं बोरिस पोलेवोई की ‘असली इन्सान’, हावर्ड फास्ट की ‘आदिविद्रोही’ (अनु. अमृतराय) और निकोलाई आॅस्त्रोवस्की की ‘अग्निदीक्षा’। प्रौढ़ावस्था में जिस पुस्तक ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया, वह थी ‘महाभारत’। आज भी यदि मुझे किसी एक ही पुस्तक को पढ़ने की अनुशंसा करनी हो तो वह पुस्तक ‘महाभारत’ ही होगी।
इतना कहकर बात खत्म की जा सकती है।
लेकिन इस बीच खासकर किशोरावस्था और युवावस्था के बीच और भी कई पुस्तकें मेरे जीवन में ‘घटित’ हो रही थीं। मसलन फ्राॅयड के मनोविज्ञान ने मुझे चैंका दिया। मैंने उनकी अनेक केस हिस्ट्रीज पढ़ीं। इसके बाद मैंने एडलर और जुंग को भी तन्मयता से पढ़ा। यह जिन्दगी को देखने का एक निराला ही कोण था। इन्हीं दिनों डा£वन की एक छोटी-सी किताब मेरे हाथ लग गई। यह सामाजिक विषयों पर लिखे गये निबन्धों का संग्रह था। इनमें एक निबन्ध नास्तिकता पर भी था। क्या किताब थी! काश! उस जमाने में फोटोकाॅपी की सुविधा होती और मैं उस निबंध को सुरक्षित रख पाता!
लगभग इसी उम्र में विवेकानन्द साहित्य पढ़ा। लेकिन सिवा ‘कर्मयोग’ (सम्पूर्ण विवेकानन्द साहित्य, भाग-3) किसी में खास मजा नहीं आया। हाँ, शिकागो से अपने प्रिय शिष्य आलासिंगा को लिखे विवेकानन्द के पत्रों में खूब मजा आया। गांधीजी की छोटी-सी किताब ‘हिंद स्वराज’ ने मुझे बहुत प्रभावित किया। खासकर इसलिए भी कि मैंने इस किताब को माइकल शूमाखर की किताब ‘स्माॅल इज ब्यूटीफुल’ के साथ मिलाकर पढ़ा। चढ़ती जवानी में डी.एच.लाॅरेन्स की ‘लेडी चेटर्लीज लवर’, नावाकोव की ‘लोलिता’, नेन्सी फ्रायडे की ‘माय सीक्रेट गार्डन’ और इन सबसे ज्यादा अल्बर्टो मोरेविया की ‘वूमन आॅफ रोम’ ने मुझे कई दिन पागल बनाए रखा। दिलचस्प बात यह है कि उन्हीं दिनों मैंने अखबार में अंतरराष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक सम्मेलन की एक तस्वीर देखी थी जिसमें अल्बर्टो मोरेविया भाषण दे रहे थे। फिर पता नहीं कैसे मुझे बर्नार्ड शाॅ का चस्का लग गया। उन दिनों पत्रा-पत्रिकाओं में बर्नार्ड शाॅ और मार्क ट्वेन के मजाक बहुत छपा करते थे। संयोग ऐसा हुआ कि ‘पिग्मेलियन’ पढ़ी और कुछ रोज बाद ही ‘माय फेयर लेडी’ देखने को मिल गई। रेक्स हेरीसन और आॅडेª हेपबर्न ने शाॅ की कल्पना को साकार कर दिया। प्रोफेसर हिगिन्स मेरे सपनों में आने लगे। वह आते और किसी की आवाज आती, ‘इट राइन्स माइनली आॅन द प्लाइन्स आॅफ स्पाइन!’ और मैं सोते-सोते हँस पड़ता। उन दिनों शाॅ के पचासियों मजाक मुझे जबानी याद थे और उन्हें मैं दोस्तों के बीच खूब चटखारे लेकर सुनाया करता था। खासकर वह, जिसमें ब्लैकबोर्ड पर ‘फिश’ लिखकर शाॅ पूछते थे कि यह क्या है और फिर खुद ही बताते थे कि यह ‘छोटी’ है और अन्त में अफसोस के साथ कहते थे कि ये अंग्रेज अपने बच्चों को अंग्रेजी क्यों नहीं सिखाते? लेकिन मजाकों को और उनके नाटकों को उनके ‘डायलाॅग्स’ ने धराशायी कर दिया। मुझे इसमें भविष्य का एक नया कलारूप दिखाई दिया और मैंने मन ही मन तय किया कि जब मैं परिपक्व हो जाऊँगा तो मैं भी डाॅयलाॅग लिखूँगा। इसके तुरन्त बाद मैं मार्क ट्वेन से टकरा गया और उनकी महान प्रतिभा के आगे नतमस्तक हो गया। जब मैं छोटा था। मार्क ट्वेन भाषण देने भारत भी आए थे और लोग टिकट लेकर उनका भाषण सुनने गए थे। तब मैंने सोचा था यह तो बहुत खूब रही। ऐसा तो मुझे भी बड़े होकर करना चाहिए। उन दिनों मेरे शहर इन्दौर में अनेक व्याख्यानमालाएँ होती थीं जिनमें कला-साहित्य-संस्कृति जगत की हस्तियों को बुलाया जाता था और लोग ठठ के ठठ उनका भाषण सुनने जाते थे। यह और बात है कि टिकट नहीं लगते थे। समाजसेवी संस्थाएँ चंदा करके ये आयोजन करती थीं। मेरा आज भी मानना है कि टाॅम सोइयर और हकलबरी फिन जैसे पात्र विश्वसाहित्य में और नहीं हैं। मार्क ट्वेन शिकागो टाइम्स में एक स्तंभ लिखते थे ‘एडम्स डायरी’ जो खूब लोकप्रिय हुआ। तो उन्होंने उसके अनुवर्तन में ‘ईव्स डायरी’ भी लिखा। वह और भी ज्यादा लोकप्रिय हुआ। अफसोस इनका आज तक हिंदी में अनुवाद नहीं हुआ है।
जब मैं स्नातक कक्षा में आया तो नियम बना लिया कि परीक्षा के तुरंत बाद पाठ्यक्रम की बदबू दिमाग से निकालने के लिए एक जासूसी उपन्यास जरूर पढँू़गा। उस चक्कर में कुछ हिचकाॅक, कुछ अगाथा क्रिस्टी कुछ पैरी मैसन भी पढ़ लिए। पाॅपुलर फिक्शन की बात हो रही है तो इरविंग वालेस के उपन्यास ‘द मेन’ और अलेक्स हेली के उपन्यास ‘द रूट्स’ का जिक्र भी करना चाहिए। आज अमेरिका में एक अश्वेत राष्ट्रपति है, लेकिन वह कितना अश्वेत रह गया है? ठीक इसी समय मुझे जेम्स बाल्डविन के नाटक ‘ब्लूज फाॅर मिस्टर चार्ली’ की याद आ रही है। यह एक नीग्रो लड़के बारे में है जिसे जबर्दस्ती मुजरिम बना दिया जाता है। यह पुस्तक मैंने अपने मित्र दिनेश मिश्र के निजी पुस्तकालय से पहले माँगकर पढ़ी थी, फिर चुरा ली थी, और आज भी मेरे पास है। पहले सोचा था कि अनुवाद करूँगा, फिर सोचा रूपान्तर करूँगा, फिर सोचा इस पर आधारित नाटक लिखूँगा, लेकिन जब हिंदी के दलित लेखकों ने प्रेमचंद को गाली देना शुरू किया और कहा कि दलित साहित्य सिर्फ दलित लिख सकते हैं तो मैंने सोच लिया कि अब जिन्दगी भर दलितों पर कुछ नहीं लिखूँगा। यहीं कुछ और अत्यंत प्रभावशाली पुस्तकों का जिक्र करता चलूँ। ये हैं एल्विन टाॅफलर की तीनों पुस्तकें (‘फ्यूचर शाॅक’, ‘द पाॅवर शिफ्ट’ और ‘थर्ड वेब’) सुसांत गुणतिलक की ‘द क्रिपल्ड माइण्ड्स’ (‘पंगु मस्तिष्क’ नाम से जिसके अनुवाद का मुझे सुअवसर मिला), उर्वशी बुटालिया की ‘द अदर साइड आॅफ साइलेंस’ और पिंकी वीरानी की ‘बिटर चाॅकलेट’! बाइगाॅड! क्या किताबें हैं। मैं अब भी इनका हिंदी में अनुवाद करने को तैयार हूँ, बशर्ते कोई प्रकाशक ढंग का प्रस्ताव दे। लेकिन जब निश्चय कर लिया कि अपने को लिखना ही है तो अध्ययन को व्यवस्थित और अनुशासित करना जरूरी हो गया। समकालीन भारतीय साहित्य से परिचित होने के लिए अनेक मोटी-मोटी लेकिन पनीली पुस्तकें पढ़ीं। तारा शंकर बंदोपाध्याय की ‘गणदेवता’, गोपीनाथ महांती की ‘माटी मटाल’, क.मा. मुंशी की ‘जय सोमनाथ’, अमृतलाल नागर का ‘बूँद और समुद्र’, यशपाल का ‘झूठा सच’ और पन्नालाल पटेल का ‘मानव नी भवई’। मैंने हैरान होकर सोचा कि लोग इतना कैसे लिख लेते हैं? और क्यों लिख लेते हैं? मेरा खयाल है पढ़ने के बारे में हड़बड़ी बिल्कुल नहीं करना चाहिए। ये हौंस कि हम सब कुछ पढ़ लें …फालतू हैं। क्योंकि इस तरह चीजें न याद रहती हैं न असर छोड़ती हैं। पुस्तक को प्रेमिका समझना चाहिए और उससे भी बड़ी शाइस्तगी के साथ पेश आना चाहिए। उसका नशा धीरे-धीरे चढ़ता है। हड़बड़ी में न उसे मजा आएगा न तुम्हें।
आप यह भी देख रहे होंगे कि यह सारा कुछ एकदम सिलसिलेवार नहीं आया है। बात यह है कि किताबों हर जगह मिलती नहीं हैं। मिलतीं भी तो खरीदने की अपनी औकात नहीं। अधिकतर किताबें पुस्तकालयों से इशू कराकर, दोस्तों से माँगकर या इधर-उधर से चुराकर ही पढ़ीं हैं। तो जब जो मिल गई। अफसोस! कि अब तो पुस्तकें कोई चुराता भी नहीं।
===========================
दुर्लभ किताबों के PDF के लिए जानकी पुल को telegram पर सब्सक्राइब करें
I am a student of BAK College. The recent paper competition gave me a lot of headaches, and I checked a lot of information. Finally, after reading your article, it suddenly dawned on me that I can still have such an idea. grateful. But I still have some questions, hope you can help me.
Thanks for the good writeup. It in truth was a leisure account it.
Glance advanced to more brought agreeable from you!
By the way, how can we be in contact?
Hurrah, that’s what I was looking for, what a material!
present here at this blog, thanks admin of this website.
Excellent post. I will be going through many of these issues as well..