1922 में आज के ही दिन क्रांतिकारियों ने चौरी चौरा में थाना फूंक दिया था। जिसके बाद महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था। आज इस घटना के 99 साल हो गए। चौरी चौरा की इस घटना को आधार बनाकर सुभाष चंद्र कुशवाहा ने किताब लिखी ‘चौरी चौरा: विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन’। पेंगुइन से प्रकाशित इस किताब का एक अंश पढ़िए-
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इतिहास के पन्नों में चौरी चौरा जैसे विद्रोह के साहसिक कृत्य में दलितों के शौर्य बेमिसाल हैं। उनकी निम्न सामाजिक स्थिति, उच्च बलिदान को गौरवान्वित करती दिखती है। संभव है कि उनके गौरवमय इतिहास को ओझल करने के कुचक्र में ही चौरी चौरा विद्रोह को ‘गुंडों का कृत्य’ कहा गया हो। यहाँ के प्रभावशाली जमींदार, जो चौरी चौरा विद्रोह के नायकों को चुन-चुनकर गिरफ्तार कराने, अपने और अपने कारिंदों से झूठी गवाही दिलाकर, उन्हें सजा दिलाने की भूमिका में थे, उन्होंने दलितों की कार्रवाई को ‘अपराधियों का कृत्य’ कहकर प्रचारित किया। मगर सच्चाई तो यह है कि डुमरी खुर्द और आसपास के किसानों की इस कार्रवाई ने केवल ब्रिटिश सत्ता को चुनौती ही नहीं दी थी, बल्कि आसपास के बीसियों जमींदारों के नेतृत्व को नकारते हुए उन्हें भी चुनौती दी थी। अनपढ़ों द्वारा अपने देश के ले सर्वस्व निछावर करने वाला यह कृत्य इतिहास के पन्ने में अद्वितीय है।
इस कार्रवाई को अंजाम देने वालों ने गांधीवादी विचारधारा और गांधी के चमत्कारों का सहारा लेते हुए हाशिए के समाज की गोलबंदी तो की ही, उन्होंने विश्व में अपराजेय ताकत का झंडा फहराने वाले ब्रिटिश साम्राज्य को भी नतमस्तक किया, साथ ही साथ गांधीवाद और उसके छद्म स्वराज का पर्दाफाश भी किया। उन्होंने यह भी दिखाया कि जब गरीबों की पीठ कोड़ों से छिल चुकी हो, उस पर नमक और लालमिर्च रगड़कर दंभी प्रशासन द्वारा आनंद हासिल किया जा रहा हो, तब अछूत कहा और समझा जाने वाला समाज जाति और धर्म की सीमाओं को तोड़, क्रांति का पताका अपने हाथों में ले लेता है। तब उसे किसी पढ़े लिखे, चालाक या धूर्त नेतृत्व की ज़रूरत नहीं होती।
चौरी चौरा किसान विद्रोह में मुख्य हिस्सा लेने वाली जातियाँ डुमरी खुर्द और चौरा गांव की थीं। चाहे वे दलित जातियाँ हों या मुसलमान, पूर्वांचल के सामंती समाज में दोनों को अस्पृश्य ही समझा जाता था। मुसलमानों को कुएं से पानी भरने से पहले, हिंदुओं की बाल्टियों को जगत से दूर रखवाना पड़ता। हिंदुओं के यहाँ दावत में उन्हें या तो अपने बर्तन साथ ले जाने होते या दूसरे पत्तलों पर खाना होता। इनमें से किसी को भी सामंतों के सामने चारपाई पर बैठने की इजाज़त न थी और न पैरों में खडाऊं पहनने की। सामंतों(बाबूओं) के दरवाज़े पर वे या तो ज़मीन पर बैठते थे या पुआल पर। जीवनयापन के लिए उन्हें जानवरं की खालों, हड्डियों और उनके मांस का सहारा लेना पड़ता। इसलिए भी चौरी चौरा विद्रोह का मूल्यांकन करते समय ब्रिटिश जुल्मों, उसके पिट्ठू ज़मींदारों के शोषण, बेगार, लगान बसूलने के बर्बर तौर-तरीकों पर नज़र डाल लेनी चाहिए और इस तथ्य पर ज़रूर विचार करना चाहिए कि जिन्हें जीवन में समानता का कोई अधिकार हासिल न था, वे थाना फूंकने जैसे नतीज़े पर कैसे पहुँचे थे। कथित अस्पृश्यों के साथ गिनती के जो थोड़े से सवर्ण जाति के लोगों ने भाग लिया था, उनमें से अधिकतर सचेत रूप से उस संघर्ष में नहीं थे। इसलिए जिस समाज ने चौरी चौरा विद्रोह का नेतृत्व किया था, वह मूलत: दलित समाज ही था। ब्रिटिश अभिलेखों में भी वे निम्न जाति के रूप में दर्ज़ किए गए हैं–जो लोग प्रभावित हुए थे, उनमें से ज़्यादातर किराए पर खेती करने वाले और खेतिहर लोग थे, उनमें से ज़्यादा कथित निम्म जातियों के थे।
उच्च न्यायालय ने अब्दुल्ला एवं अन्य बनाम सम्राट के अपने फैसले के पैरा 24 में लिखा—अधिकांश समाज के निचले तबके से वास्ता रखने वाले लोग थे। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने रघुवीर सुनार को बाकी अभियुक्तों की तुलना में कथित उच्च जाति में होने के कारण ‘अच्छी सामाजिक स्थिति’ वाला बताया। इससे स्पष्ट होता है कि ज़्यादातर चौरी चौरा विद्रोहियों का दलित वर्ग का होना, सभी की नज़रों में उपेक्षित किए जाने का मुख्य कारण रहा।
यहाँ एक और प्रसंग पर विचार कर लेना ज़रूरी होगा कि जिस काल में पंजाब, बंगाल और यहां तक कि अवध क्षेत्र क्रांतिकारी पहलकदमियां ले रहा था, गोरखपुर के आसपास के सैकड़ो ज़मींदार राष्ट्रीय आन्दोलन को हिंदू आन्दोलन में बदलने की पूरी कोशिश में लगे थे। वे हिंदू मुसलमानों को बांटने में लगे थे।
1890 के आसपास गौ-रक्षिणी सभाओं तथा नागरी आन्दोलनों का लगातार विकास, 1910 में हिंदी पत्रकारिता एवं हिंदू सामाजिक सुधार, 1919-20 तक गोरखपुर के राजनीतिक इतिहास के महत्वपूर्ण बिंदु हैं। 1913 में नागरी प्रचारिणी सभा ने न्यायिक प्रपत्रों को हिंदी में छापने के लिए आन्दोलन किया। 1914 में हिंदी तथा हिंदू धर्म प्रचार को समर्पित पत्रिका ज्ञानशक्ति, पडरौना, तमकुही व मझौली के राजाओं के वित्तीय सहयोग और सरकार समर्थित संस्कृत विद्वान के सहयोग से प्रकाशित की गई, लेकिन यह पत्रिका 1917 के अंत के पहले ही बंद हो गई। 1915 में गोरखपुर से गौरी शंकर मिश्र ने प्रभाकर मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया जिसका उद्देश्य ‘हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान’ था, लेकिन यह पत्रिका एक साल में ही बंद हो गई। 1919 में दो महत्वपूर्ण पत्रिकाएं, स्वदेश तथा मासिक कवि प्रकाश में आईं। स्वदेश के संपादक दशरथ प्रसाद द्विवेदी मुख्यत: गांधीवादी थे और अपने साप्ताहिक अखबार के सहारे गांधीवादी विचारों को फैलाने का काम करते थे। 1919 में एमएम मालवीय की अध्यक्षता वाली ‘भारतीय सेवा समिति’ की एक शाखा देवरिया में खुली। 1919-20 के दौरान ‘सुधारक’ एवं ‘ग्राम हितकारिणी सभाओं’ एवं ‘सेवा समितियों’ की शाखाएं छोटे नगरों और बड़े गांवों में खुलीं।
ऐसे समय और काल में जब गांधी हिंदू-मुस्लिम एकता को स्थापित करते हुए, कांग्रेस और खिलाफत आन्दोलन को एक कर, ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक’ की अवधारणा स्थापित करने में सफल हुए, तब आन्दोलनों में किसानों की पहलकदमी एकाएक तेज हो गई। गांधी ने दलितों को मुख्यधारा में लाने का जो विचार दिया, उससे दलितों का स्वाभिमान जगा। वे उठे और आज़ादी की लड़ाई में अपनी भागीदारी देने में कोताही न की। डुमरी खुर्द सभा में जुटी किसानों की भीड़, जिनमें अधिकांश हिंदू दलित थे, को देखकर कहा जा सकता था कि एक समान पीड़ा भोग रही गरीब जनता के लिए, हिंदू धर्म या उसके निमित्त चलाए जा रहे धार्मिक सुधार कार्यक्रमों से कुछ लेना-देना नहीं था, तभी वे मुस्लिम स्वयंसेवकों के नेतृत्व में दृढ़ निश्चिय के साथ आगे बढ़ी और ज़मींदारों के समझाने बुझाने के बावजूद, जाति और धर्म से ऊपर उठकर, पंजाब और अवध के किसान आन्दोलनों से भी आगे बढ़कर, क्रांतिकारी पहलकदमी लेने को बाध्य हुई।
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