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युवा कवि गोलेंद्र पटेल की कविताएँ

आज किसान और किसानी जीवन पर कुछ चकित का देने वाली कविताएँ पढ़िए।इसके कवि गोलेन्द्र पटेल के बारे में इतना ही जानता हूँ कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र हैं-
=================
 
 
1.
 
ऊख //
 
(१)
प्रजा को
प्रजातंत्र की मशीन में पेरने से
रस नहीं रक्त निकलता है साहब
 
रस तो
हड्डियों को तोड़ने
नसों को निचोड़ने से
प्राप्त होता है
(२)
बार बार कई बार
बंजर को जोतने-कोड़ने से
ज़मीन हो जाती है उर्वर
 
मिट्टी में धँसी जड़ें
श्रम की गंध सोखती हैं
खेत में
उम्मीदें उपजाती हैं ऊख
(३)
कोल्हू के बैल होते हैं जब कर्षित किसान
तब खाँड़ खाती है दुनिया
और आपके दोनों हाथों में होता है गुड़!
 
 
2.
 
“जोंक”
———–
 
रोपनी जब करते हैं कर्षित किसान ;
तब रक्त चूसते हैं जोंक!
चूहे फसल नहीं चरते
फसल चरते हैं
साँड और नीलगाय…..
चूहे तो बस संग्रह करते हैं
गहरे गोदामीय बिल में!
टिड्डे पत्तियों के साथ
पुरुषार्थ को चाट जाते हैं
आपस में युद्ध कर
काले कौए मक्का बाजरा बांट खाते हैं!
प्यासी धूप
पसीना पीती है खेत में
जोंक की भाँति!
अंत में अक्सर ही
कर्ज के कच्चे खट्टे कायफल दिख जाते हैं
सिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए!
इसे ही कभी कभी ढोता है एक किसान
सड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में!
 
 
3.
 
सावधान // गोलेन्द्र पटेल
—————————–
 
 
हे कृषक!
तुम्हारे केंचुओं को
काट रहे हैं – “केकड़े”
सावधान!
 
ग्रामीण योजनाओं के “गोजरे”
चिपक रहे हैं –
गाँधी के ‘अंतिम गले’
सावधान!
 
विकास के “बिच्छुएँ”
डंक मार रहे हैं – ‘पैरों तले’
सावधान!
 
श्रमिक!
विश्राम के बिस्तर पर मत सोना
डस रहे हैं – “साँप”
सावधान!
 
हे कृषका!
सुख की छाती पर
गिर रही हैं – “छिपकलियाँ”
सावधान!
 
श्रम के रस
चूस रहे हैं – “भौंरें”
सावधान!
 
फिलहाल बदलाव में
बदल रहे हैं – “गिरगिट नेतागण”
सावधान!
 
 
4.
 
उम्मीद की उपज
उठो वत्स!
भोर से ही
जिंदगी का बोझ ढोना
किसान होने की पहली शर्त है
धान उगा
प्राण उगा
मुस्कान उगी
पहचान उगी
और उग रही
उम्मीद की किरण
सुबह सुबह
हमारे छोटे हो रहे
खेत से….!
 
 
5.
 
गाँव से शहर के गोदाम में गेहूँ?
गरीबों के पक्ष में बोलने वाला गेहूँ
एक दिन गोदाम से कहा
ऐसा क्यों होता है
कि अक्सर अकेले में अनाज
सम्पन्न से पूछता है
जो तुम खा रहे हो
क्या तुम्हें पता है
कि वह किस जमीन का उपज है
उसमें किसके श्रम की स्वाद है
इतनी ख़ुशबू कहाँ से आई?
तुम हो कि
ठूँसे जा रहे हो रोटी
निःशब्द!
 
 
6.
 
उर्वी की ऊर्जा //
 
उम्मीद का उत्सव है
उक्ति-युक्ति उछल-कूद रही है
उपज के ऊपर
 
उर है उर्वर
घास के पास बैठी ऊढ़ा उठ कर
ऊन बुन रही है
उमंग चुह रही है ऊख
ओस बटोर रही है उषा
 
उल्का गिरती है
उत्तर में
अंदर से बाहर आता है अक्षर
ऊसर में
स्वर उगाने
 
उद्भावना उड़ती है हवा में
उर्वी की ऊर्जा
उपेक्षित की भरती है उदर
उद्देश्य है साफ
ऊष्मा देती है उपहार में उजाला
अंधेरे से है उम्मीद।।
 
 
7.
 
ईर्ष्या की खेती || गोलेन्द्र पटेल
 
मिट्टी के मिठास को सोख
जिद के ज़मीन पर
उगी है
इच्छाओं के ईख
 
खेत में
चुपचाप चेफा छिल रही है
चरित्र
और चुह रही है
ईर्ष्या
 
छिलके पर
मक्खियाँ भिनभिना रही हैं
और द्वेष देख रहा है
मचान से दूर
बहुत दूर
चरती हुई निंदा की नीलगाय !
 
 
8.
 
किसान है क्रोध || गोलेन्द्र पटेल
 
निंदा की नज़र
तेज है
इच्छा के विरुद्ध भिनभिना रही हैं
बाज़ार की मक्खियाँ
 
अभिमान की आवाज़ है
 
एक दिन स्पर्द्धा के साथ
चरित्र चखती है
इमली और इमरती का स्वाद
द्वेष के दुकान पर
 
और घृणा के घड़े से पीती है पानी
 
गर्व के गिलास में
ईर्ष्या अपने
इब्न के लिए लेकर खड़ी है
राजनीति का रस
 
प्रतिद्वन्द्विता के पथ पर
 
कुढ़न की खेती का
किसान है क्रोध !
 
 
9.
 
 
जवानी का जंग || गोलेन्द्र पटेल
 
बुरे समय में
जिंदगी का कोई पृष्ठ खोल कर
उँघते उँघते पढ़ना
स्वप्न में
जागते रहना है
 
शासक के शान में
सुबह से शाम तक
संसदीय सड़क पर सांत्वना का सूखा सागौन सिंचना
वन में
राजनीति का रोना है
 
अंधेरे में
जुगनूँ की देह ढोती है रौशनी
जानने और पहचानने के बीच बँधी रस्सी पर
नयन की नायिका नींद का नृत्य करना
नाटक के नाव का
नदी से
किनारे लगना है
 
फोकस में
घड़ी की सूई सुख-दुख पर जाती है बारबार
जिद्दी जीत जाता है
रण में
जवानी का जंग
 
समस्या के सरहद पर खड़े सिपाही
समर में
लड़ना चाहते हैं
पर सेनापति के आदेश पर देखते रहते हैं
सफर में
उम्र का उतार-चढ़ाव
 
दूरबीन वही है
दृश्य बदल रहा है
किले की काई संकेत दे रही है
कि शहंशाह के कुल का पतन निश्चित है
दीवारे ढहेंगी
दरबार खाली करो
 
दिल्ली दूह रही है
बिसुकी गाय
दोपहर में
 
प्रजा का देवता श्रीकृष्ण नाराज हैं
कवि के भाँति!
 
 
10.
 
किसान की गुलेल || गोलेन्द्र पटेल
 
 
 
गुलेल है
गाँव की गांडीव
चीख है
शब्दभेदी गोली
 
लक्ष्य है
दूर दिल्ली के वृक्ष पर!
 
बाण पकड़ लेता है बाज़
पर विषबोली नहीं
 
गुरु
गरुड़ भी मरेंगे
देख लेना
एक दिन
राजनीति के रक्त से बुझेगी
ग्रामीण गांडीव की
प्यास!
 
 
11.
 
 
सफ़र
 
 
सरसराहट संसद तक बिन विश्राम सफ़र करेगी
 
 
तिर्रियाँ पकड़ रही हैं
गाँव की कच्ची उम्र
तितलियों के पीछे दौड़ रही है
पकड़ने की इच्छा
अबोध बच्चियों का!
 
बच्चें काँचे खेल रहे हैं
सामने वृद्ध नीम के डाल पर बैठी है
मायूसी और मौन
 
मादा नीलकंठ बहुत दिन बाद दिखी है
दो रोज़ पहले मैना दिखी थी इसी डाल पर उदास
और इसी डाल पर अक्सर बैठती हैं चुप्पी चिड़ियाँ!
 
कोयल कूक रही है
शांत पत्तियाँ सुन रही हैं
सुबह का सरसराहट व शाम का चहचहाहट चीख हैं
क्रमशः हवा और पाखी का
 
चहचहाहट चार कोस तक जाएगी
फिर टकराएगी चट्टानों और पर्वतों से
फिर जाएगी ; चौराहों पर कुछ क्षण रुक
चलती चली जाएगी सड़क धर
सरसराहट संसद तक बिन विश्राम किए!
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11 comments

  1. रंजीत सिंह चौहान

    गोलेन्द्र की कविताएं सरकारों के उदासीन रवैये और किसानों के बहुमूल्य श्रम की आत्मा झकझोरती हैं, नागार्जुन की परंपरा वाले युवा कवि को शुभकामनाएं।

  2. युवा तन लिए कवि गोलेंद्र के किसानी मन ने सटीक शब्दों के बीज बोए है, कल इन बीजो से फल नहीं, बदलाव के हथियार उगेंगे, ऐसी उम्मीद है

  3. जमीन किसान पसीना मेहनत पर अनुभूतियों से परिपूर्ण कविताये

  4. युवा कवि गोलेन्द्र पटेल जी द्वारा रचित कविता में किसानी क्रांति व सरकार द्वारा किसानो के प्रति उदासीन रवैये को सटीक शब्दों में उकेरा है। इनके द्वारा लिखित शब्दों के बीज एक दिन बदलाव के स्वरूप तय करेंगे।

  5. I am a student of BAK College. The recent paper competition gave me a lot of headaches, and I checked a lot of information. Finally, after reading your article, it suddenly dawned on me that I can still have such an idea. grateful. But I still have some questions, hope you can help me.

  6. Reading your article helped me a lot and I agree with you. But I still have some doubts, can you clarify for me? I’ll keep an eye out for your answers.

  7. बहुत दिन बाद इतनी अच्छी और किसानों पर सच्ची कविताएं पढ़ने को मिली।

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