लेखन में उभरते नए सौन्दर्यशास्त्र पर पर यह छोटा सा लेख युवा कवि-लेखक अविनाश ने लिखा है। नए लेखन को लेकर, उसकी पसंद-नापसंद को लेकर उन्होंने कई नए बिंदु इस लेख में उठाए हैं-
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किसी भी दौर का लेखन अपने शिल्प में, अपने समसामयिक परिवेश के अंतर्द्वंदों को समेटे रहता है। इसे इस तरह से समझा जाये कि विश्व युद्ध के बाद के दौर में वैश्विक साहित्य (या यूरोपीय साहित्य) में गद्य से उसके अलंकार छीन लिये गये थे और पद्य में नई उपमाएँ गढ़ी जाने लगीं, जिन्हें पुरातन दृष्टि में सुंदर काव्यात्मक लहजा नहीं कहा जा सकता था। उसी तरह बीट जनरेशन से सम्बद्ध लेखक काव्य में वर्जित क्षेत्रों की उपमाएँ घसीट लाये, और गद्य लम्बी अनवरत चले जानी वाली पंक्तियों से बनने लगा था। आज का दौर सोशल मीडिया का है। लेखन और लेखकों का यह सशक्त माध्यम बन कर उभर रहा/चुका है, जहाँ स्तर का निर्धारण नये साहित्यिक आयामों पर किया जाता है। इसे यदि राजनीतिक दृष्टि से देखा जाये तो साहित्य का लोकतंत्रीकरण हुआ है। जिसे जितने लाइक्स और शेयर्स वह नया लेखकीय प्रजाति में शिरोमणि।
कुछ दिन पहले की बात है, हम कुछ लोग इस बाबत चर्चा कर रहे थे कि कुछ कवियों की कविताओं को लोग दूसरे की कविताओं से ज्यादा पसन्द करते हैं, ऐसा क्यों? मास अपील में कुछ लोग दूसरों से इतने भिन्न क्यों हैं? मोटे तौर पर तो इस प्रश्न को यह बोलकर ख़ारिज किया जा सकता है कि जब आप साहित्यिक जजमेंट, आम लोगों पर छोड़ देंगे तो वह अपनी कलेक्टिव इंटेलिजेंस से कुछ भी निम्न स्तर का चुन लेंगे। पर यदि इसे बदलते आयाम की तरह सोचा जाये तो, यह हमारे युग की विशिष्टता का परिचायक है। हमारा दौर तेजी से क्षीण होते हुए ध्यान केंद्र का है। रिसर्च की मानें तो तीन सेकंड्स में हम अपनी पसन्द-नापसंद चुन लेते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। अर्थात जिस भी लेखक की पंक्तियाँ तुरंत से हिट करेंगी, वह पसंद किया जायेगा। तो अब शुरू होता है – छोटे, सुंदर और कोटेबल वाक्यों का चलन। यानी इस दौर के लेखन की (सोशल मीडिया के लेखन की) यह पहली शर्त हुई की आपको ध्यान खींचने को कोटेबल लेखन करना है।
दूसरी चीज, अब यहाँ जो महत्वपूर्ण हो जाएगी वह होगी लेखक के तौर पर स्थापना। एक स्थापित लेखक होने के लिये, जहाँ हर तीन सेकंड में लोगों की पसन्द बदलती जाती है, वहाँ नित नये रचना की आवश्यकता जान पड़ती है। ख्याल के म्यान में अब कविताओं और लेखों की कई कई क्यारियाँ बनी रहनी चाहियें ताकि माँग-आपूर्ति का सिलसिला चालू रहे। रेलेवेंट बने रहने के लिये, यह चीज अति आवश्यक होती जाती है। स्थापत्य के लिये अब हमें एक अभेद्य फॉर्मूले की आवश्यकता होगी। जैसे आज के दौर का संगीत -ऑटो-ट्यून और बीट क्लिकिंग से तैयार कम्प्यूटर द्वारा किया जाता है – जिस पर हमारी थिरकन की गारंटी होती है, ठीक उसी तरह एक तर्ज के लेखन का नया फॉर्मूला उभरता है। इसे हम अपनी समझ की सुविधा के लिये “इंस्पायर्ड लेखन” कह सकते हैं। नये लेखकों की मंशा भी अब इस दौड़ में प्रथम पंक्ति में खड़े होने की बनती जाती है। जैसे पहले लेखक अमर होने को लिखते थे, अब के लेखक शेयर होने को लिखते हैं। लेखन की दोनों ही इच्छाएँ उतनी ही आचारभ्रष्टता वाली हैं। पर दोनों इच्छाओं में एक लेखन के तरीके को “इंस्पायर्ड लेखन” बना देती है, दूसरी मौलिक होने की आजादी देती है।
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अच्छा लिखा है अविनाश।