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विवेकी राय से डॉ. भूपेंद्र बिष्ट की वार्ता

प्रसिद्ध ललित निबंधकार विवेकी राय की आज जयंती है। आज उनसे एक पुरानी बातचीत पढ़िए। 1990 में यह बातचीत उनसे भूपेन्द्र बिष्ट ने की थी-

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हिंदी कथा साहित्य में गंवई जीवन के प्रति समर्पित शैलीकार के रूप में डॉ. विवेकी राय (19 नवंबर, 1924  –  22 नवंबर, 2016) की खास पहचान है. भोजपुरी साहित्य के भी आप सिरमौर रहे और विद्यानिवास मिश्र एवं कुबेरनाथ राय के क्रम में ललित निबंध के प्रणेता भी.

गाजीपुर (उ. प्र.) में महाविद्यालय के हिंदी विभाग से सेवा निवृत होकर बड़ी बाग, गाजीपुर में आप निवास कर रहे थे. वहीं अप्रैल 1990 की एक सुबह डॉ. राय से विभिन्न बिंदुओं पर बात करने का मुझे सुयोग प्राप्त हुआ.

भेंट वार्ता के कुछ अंश :

  • डॉ. साहब इधर हाल में आपने क्या लिखा है और इन दिनों आप क्या लिख रहे हैं ?

–  “सोना-माटी” उपन्यास के बाद पिछले दिनों मेरी तीन किताबें आई हैं, दो उपन्यास : “आम रास्ता नहीं है” और “चित्रकूट के घाट पर” तथा एक समीक्षा की – “समकालीन हिंदी उपन्यास” करके. एक और बड़ा उपन्यास “समर शेष” है, अभी अभी प्रकाशित हुआ है.

आजकल भी मैं एक उपन्यास पर काम कर रहा हूं, जो कि युद्ध पर आधारित है. युद्ध ; 62 का भारत – चीन व 65 का भारत – पाकिस्तान युद्ध.

  • यानी यहां आपने ग्रामीण जीवन के बजाय एकदम दूसरी स्थितियों को हाथ में लिया है.

–  नहीं, गांव का जीवन इस उपन्यास में भी है. दरअसल इसकी कथावस्तु तीन स्तरों पर बुनी जा रही है. पहला स्तर है – सामरिक स्थितियों, मनों और प्रभावों का, दूसरा, लेखक के व्यक्तिगत जीवन की सामग्री और संरूपवाला. तीसरे में गांव के भीतर हो रहा संघर्ष है.

  • गांव के भीतर हो रहे संघर्ष से आपकी मुराद गांव में गांव व गांव के आदमी की बेहतरी के लिए हो रहे संघर्ष से है या …..

–  गांव की बेहतरी के लिए संघर्ष जैसी बात महज़ एक फतवा है. क्योंकि गांव का आदमी बेहतरी के लिए कभी नहीं लड़ पाता. गांव में केवल उदर पूर्ति के लिए, जीविका के लिए संघर्ष होता है.

  • पिछले एक दशक के साहित्य को लें तो उपन्यास तथा कहानी में शरीर, आत्मा, व्यवहार, ध्वनि को लेकर कविता की तुलना में वैविध्य कम नज़र आता है. यानी दिनों दिन कविता का जितना फैलाव हो रहा है, उसको देखते हुए क्या कहानी ठहरी हुई लगती है ! हां तो क्यों ?

–  ऐसी बात नहीं है. कविता का जो चेहरा हर पखवाड़े बदला सा लगता है, वह वास्तव में इस पर सर्दी गर्मी के सर्वाधिक प्रभाव पड़ने का रिजल्ट है. इसके विपरीत उपन्यास और कहानी ऐसी ठोस विधाएं हैं, जो जरा जरा सी ढेर बातों का सिर्फ़ माध्य ग्रहण करती हैं. इसलिए जिसे आप ‘ कविता की धूम मची है ‘ कह रहे हैं, बहुत सही आकलन नहीं है.

हां, इतना ज़रूर है इधर नई पीढ़ी में अधिकांश कविता के साथ सामने आ रहे हैं पर दूसरी तरफ आप पाएंगे कि कहानी वगैरह में जब भी हल्ला होता है तो एक आंदोलन बनता है.

  • नामवर सिंह का कहना है कि समकालीन हिंदी आलोचना में स्व. मलयज के बाद अच्छे आलोचक सामने नहीं आए, क्या सचमुच आज आलोचकों का टोटा हो गया है ?

–  हां, आज बहुत सधे हुए आलोचक हैं नहीं. इसका कारण है. एक तो रचनाकार अब जल्दी छपना चाहते हैं, उनकी पढ़ाई बहुत ज्यादा नहीं रहती. दूसरे आलोचक भी या तो छिछली गलतियों को उछालकर अपना काम ख़त्म समझ लेते हैं या फिर मौजूद किताब के कुछ हिस्सों की रट लगाए रखना अपना धर्म मानते हैं.

रचना और आलोचना की इस चालू सूरत के चलते आलोचना के हलके में एक हल्कापन आ गया है, समकालीन आलोचकों में पिछली पीढ़ी के प्रति नकार को भी आप यहां जोड़ सकते हैं.

  • आज सभी पत्र-पत्रिकाओं के व्यावसायिक होते जाने के बीच भी कुछेक पत्रिकाएं ऐसी हैं या प्रत्यागत क्रम में सामने आ रही हैं, जो गाहे बगाहे यह प्रोपोगेट करती हैं कि साहित्य में उनका योगदान बहुत मानीखेज़ है, इस चीज़ को आप किस तरह समझते हैं ?

–  बड़े पैमाने पर निकलने वाली और बाज़ार के लिए छपने वाली पत्रिकाओं में से किसी एक का भी साहित्य को कुछ देने जैसा प्रोपेगैंडा अहंकार है महज़. यह तो इस तरह है जैसे टिटिहरी कहती है, मैंने आसमान रोका हुआ है. वास्तव में यह सब कुछ कर नहीं रही, शुद्ध व्यवसाय के सिवा. लेकिन लघु पत्रिकाएं, मसलन “पहल” है, “नया पथ” है और “साक्षात्कार”, “पूर्वाग्रह” “आलोचना” आदि भी हैं – ज़रूर कुछ कर रही हैं.

  • आमतौर पर साहित्य के विद्यार्थियों में समकालीन लेखक और लेखन की जानकारी कम रहती है, एक अध्यापक के नाते इस कमी की जड़ आप कहां पाते हैं ?

–  विद्यालयों में साहित्य पढ़ने वाले समकालीन को ही नहीं पूर्ववर्ती को भी ढंग से नहीं जानते. वे सही अर्थों में तुलसी को नहीं जानते, मैथिलीशरण को नहीं जानते. कारण समय है. समय की गति ने युवा पीढ़ी के रुझान को बदल दिया है, आज वे साहित्य को जीवन के लिए नहीं पढ़ते.

उनकी जानकारी ‘स्विफ्ट’ हो गई है, उनके ज्ञान का वृत्त परिवर्तित हो गया है. वे क्रिकेट के हरेक खिलाड़ी को और उसके खेल को जानते हैं, टीवी के प्रत्येक एक्टर को जानते हैं. लोकदल का इतिहास तक जानते हैं, क्षेत्रीय भ्रष्टाचार के बावत सारा कुछ जानते हैं पर मुक्तिबोध को नहीं जानते, रांगेय राघव को नहीं जानते.

यह दूसरी बात है कि कुछ प्रतिभाशाली भी होते हैं, जो व्यक्तिगत प्रयासों से लहर का अतिक्रमण करते भी हैं.

  • मौजूदा दौर में जीवन और साहित्य के रिश्ते को आप कैसा देखते हैं ?

–  इस समय जीवन और साहित्य का कोई रिश्ता नहीं रह गया है, दोनों अलग-अलग बातें हो गई हैं. जीवन टूट गया है, विकृत हो गया है और साहित्य दूर की कोई अमूर्त चीज़.

यानी आज साहित्य से क्रांति की या जीवन के लिए दूसरे किसी काम की संभावना ज्यादा नहीं है. यूं भी साहित्य और जीवन का नाता केवल लोक काव्य के युग में ही संभव है, लोक काव्य के युग में पूरी दुनिया, सारी आदमियत भावुक होती है और साहित्य उस पर अपनी तरह का असर करता है.

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  • डॉ. भूपेंद्र बिष्ट

साठ के दशक में अल्मोड़ा, उत्तराखंड के एक छोटे से गांव में जन्म. पहाड़ में स्कूली शिक्षा के बाद काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी से पढ़ाई. “स्वतंत्रयोत्तर हिंदी कविता में जीवन मूल्य : स्वरूप और विकास” विषय पर पी-एच. डी. उत्तर प्रदेश सरकार में लोक सेवा से निवृत.

धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादम्बिनी, सरिता, दिनमान, रविवार, पराग, जनसत्ता सबरंग, अहा ! जिंदगी, वर्तमान साहित्य, लफ़्ज़, हंस, पाखी, वागर्थ, बया, पहल, संवेद, लमही, दशकारंभ, व्यंग्य यात्रा आदि पत्रिकाओं एवं अमर उजाला, दैनिक जागरण तथा जनसत्ता में कविताएं/आलेख.

इंडियन पोएट्री सोसायटी द्वारा प्रकाशित कविता संग्रह ‘सार्थक कविता की तलाश’ में कविता संकलित.

संपर्क –

“पुनर्नवा”

लोअर डांडा हाउस

चिड़ियाघर रोड, नैनीताल

(उत्तराखंड) – 263002

मोबा : 6306664684

 
      

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