
पंकज पराशर संगीत-शायरी पर जब लिखते हैं तो बहुत अलग लिखते हैं। भाषा और विषय दोनों में महारत के साथ। यह लेख प्रसिद्ध उर्दू शायर जाँ निसार अख़्तर और उनके शायराना परिवार को लेकर है। एक पढ़ने और सहेजने लायक़ लेख-
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हम ने सारी उम्र ही यारो दिल का कारोबार किया
(जाँ निसार अख़्तर और उनका ख़ानदान के मुताल्लिक चंद बातें)
पंकज पराशर
महज बासठ बरस की उम्र में 19 अगस्त, 1976 को उर्दू के मुमताज शायर जाँ निसार अख़्तर इस फ़ानी दुनिया से कूच कर गए. उनके इंतकाल के तकरीबन पैंतालिस बरस बाद आज जब उनकी शायरी और उनके कारनामों के मुताल्लिक सोचते हैं, तो इस बात पर हैरानी होती है कि जिस शायर की मौत को निदा फ़ाज़ली साहब ने ‘एक जवान मौत’ कहा, उस जवान शायर की शायरी भला बुजुर्ग कैसे हो सकती है! जाँ निसार अख़्तर साहब के मुताल्लिक मैंने जब-जब सोचा किया, उनके ख़ानदान के वे आला दर्ज़े के के शायर और दानिश्वर बारहा याद आए, जिनके तख़्लीकी कारनामों ने उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के उर्दू अदब को बेहतरीन बनाया. जाँ निसार अख़्तर के ख़ानदान के बराबर अगर उर्दू अदब के किसी दूसरे अदीब के ख़ानदान को खड़ा किया जा सकता है, तो वे हैं शहर अज़ीमाबाद यानी पटना के उर्दू के नामचीन नक़्क़ाद कलीमुद्दीन अहमद. कलीमुद्दीन अहमद के वालिद अज़ीमुद्दीन अहमद साहब अँगरेजी, जर्मन, अरबी, फारसी तथा उर्दू जब़ान-ओ-अदब के बड़े विद्वान तो थे ही, अलावा इसके वे उर्दू के शायर भी थे. अज़ीमुद्दीन साहब एक नज़्म की चंद पंक्तियाँ देखें, ‘सबा उस से ये कह जो उस तरफ़ होकर गुज़रता हो/ क़दम ओ जाने वाले रोक मेरा हाल सुनता जा/ कभी मैं भी जवाँ था मैं भी हुस्न-ओ-इल्म रखता था/ वही मैं हूँ मुझे अब देख अगर चश्म-ए-तमाशा हो.’ सन् 1909 में वे पढ़ाई के लिए जर्मनी गए थे और बिहार के वे ऐसे पहले शख़्स थे, जिन्होंने विलायत जाकर पी-एच.डी. की थी और उनकी थीसिस बेहद मशहूर Gible Memorial Series में छपी थी.
कलीमुद्दीन अहमद के दादा अब्दुल हमीद पटना शहर के बड़े नामी हकीम और अपने ज़माने के उर्दू के मशहूर शायर माने जाते थे. उनके परदादा मौलवी अहमदुल्लाह भी काफी पढ़े-लिखे इनसान थे. उनके पूरे ख़ानदान को पटना सिटी के ख़्वाजाकलाँ मोहल्ले के बेहद इज्जतदार और कुलीन परिवारों में गिना जाता था. मौलवी अहमदुल्लाह के पिता इलाहीबख़्श भी बेहद रौशनख़याल और नामवर शख़्स थे. कलीमुद्दीन अहमद साहब के परदादा मौलवी अहमदुल्लाह साहब बहुत बड़े वतनपरस्त, वहाबी आंदोलनकारी और अँगरेजों के विरोधी थे. गदर के विद्रोह में उन्होंने खुलेआम बग़ावत की थी, नतीज़तन 18 अप्रैल, 1865 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा देकर कालापानी भेज दिया गया. उसके बाद अँगरेजी हुकूमत ने सन् 1880 में उनकी पूरी जायदाद ज़ब्त करके उसे एक लाख, इक्कीस हजार, नौ सौ, अड़तालीस रुपये, चार आना, एक पाई में बेच दिया. उनकी जायदाद बेचने के बाद मिले पैसे की क़ीमत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि सन् 1880 में एक तोला सोने की कीमत थी 20 रुपये. इस हिसाब से मौलवी अहमदुल्ला की ज़ब्त की गई जायदाद से मिले रुपये से उन दिनों पाँच हजार, आठ सौ, सतहत्तर तोला सोना खरीदा जा सकता था. आज क़ीमत के हिसाब से अगर हम पाँच हजार, आठ सौ, सतहत्तर तोला सोने की क़ीमत का अंदाज़ा लगाएँ, तो वह तकरीबन छब्बीस करोड़, इकहत्तर लाख, नौ हजार, छह सौ पचास रुपये बैठता है. अँगरेज़ी हुकूमत की कुदृष्टि के कारण एक ओर मौलवी अहमदुल्लाह को आजीवन कारावास की सज़ा देकर कालापानी भेज दिया गया, जहाँ 20 नवंबर, 1881 को उनका इंतकाल हो गया. इधर उनकी जायदाद जब्त करके बेच दी गई, सो अलग.
अब आइये फिर से लौटते हैं जाँ निसार अख़्तर साहब पर. ज़रा अंदाज़ा लगाइए तीस के दशक के में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का साहित्यिक और बौद्धिक परिवेश कैसा रहा होगा, जिसके परिसर में एक साथ जाँ निसार अख़्तर, सफ़िया मजाज़ (मजाज़ लखनबी की बहन, जाँ निसार अख़्तर की बेगम और जावेद अख़्तर साहब की माँ), अली सरदार जाफ़री, ख़्वाजा अहमद अब्बास, सआदत हसन मंटो, इस्मत चुग़ताई जैसे दिग्गज पढ़ रहे हों. जाँ निसार अख़्तर ने सन् 1935-36 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से बी.ए. (ऑनर्स) और एमए किया था. एम.ए. में वे न सिर्फ अव्वल दर्जे से पास हुए, बल्कि गोल्ड मेडल भी हासिल किया था. मेरा ख़्याल है कि जाँ निसार अख़्तर साहब देश के शायद सबसे पहले उर्दू के गोल्ड मेडलिस्ट रहे होंगे. उनके अज़ीज़ दोस्त जोय अंसारी ने एक मजामीन में उनकी दिलकश शख़्सियत का ख़ाका कुछ इस तरह पेश किया है, “जाँ निसार अख़्तर बेदाग़ शेरवानी, बेतक़ल्लुफ़ जुल्फ़ों, दिलकश गोल गंदुमी चेहरे और अदब-आदाब के साथ जब मुशायरे के स्टेज पर क़दम रखते, तो एक तरहदार नौजवान नज़र आते थे. उनके हुलिये में महबूबीयत थी. अंदर से भी ऐसे ही थे. किसी को रंज न पहुंचाने वाले, कम बोलने वाले, हालात से ख़ुश रहने वाले और चाहे जाने वाले. उनके इस रखरखाव और नफ़ासतपंसदी को बंबई का धुंआ और एक घुटा हुआ कमरा दीमक की तरह चाट गया. बाक़ी गुण उन्होंने धूनी दे-देकर संभाल कर रखे.”
हिंदुस्तान के तकसीम से पहले ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में उन्हें उर्दू पढ़ाने का काम मिला, जहाँ कुछ वक़्त तक पढ़ाने के बाद भोपाल के हमीदिया कॉलेज में उर्दू-फारसी विभाग के अध्यक्ष होकर गए, पर वहाँ ज़्यादा दिनों तक उनका जी न लगा. ‘सफिया’ जो जावेद अख्तर साहब की अम्मी हैं, से उनका निकाह सन 1943 में हुआ. ‘सफिया’ उस दौर के सबसे रोमांटिक शायर ‘मजाज़’ लखनवी की बहन थीं. साफ़िया मशहूर शायर मजाज़ की बहन थी. बेहद नफीस, पढ़ी लिखी-औरत जिन्होंने जाँ निसार के लिए काफ़ी दुःख उठाये पर कभी कहा नहीं. सफ़िया बच्चों को भी संभालतीं और नौकरी भी करतीं. दोनों का रिश्ता तकरीबन नौ साल चला. सफ़िया कैंसर से मर गईं. उन नौ सालों में दोनों लगभग एक दूसरे से दूर ही रहे. साफ़िया जांनिसार को कामरेड कहकर बुलाती थी. सफ़िया मजाज़ से जाँ निसार साहब को दो औलादें हुई, सन् 1945 में जावेद अख़्तर और 46 में सलमान अख़्तर. दोनों मियाँ-बीवी हमीदिया कालेज में पढ़ाने लगे और प्रोग्रेसिव राइटर मूवमेंट से जुड़ गए. 1953 में उनकी बेगम सफ़िया की कैंसर की वज़ह से मौत हो गई. सन् 1956 में उन्होंने ’ख़दीजा तलत’ से दूसरी शादी कर ली. जाँ निसार अख़्तर एक ख़ानदानी आदमी थे और ख़ानदानी शायर भी. उनके परदादा ’मौलाना फ़ज़्ले हक़ खैराबादी’, जिन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब के कहने पर उनके दीवान का संपादन किया था. बाद में 1857 में ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ ज़िहाद का फ़तवा ज़ारी करने की वज़ह से ’कालेपानी’ की सजा दी गई. उनके वालिद मुज़्तर ख़ैराबादी भी अच्छे शायर थे.
बात करते-करते अगर बात उनके वालिद मुज़्तर ख़ैराबादी साहब की निकल आई है, तो चलिए अब ज़रा उनके वालिद की शायरी और हयात को ज़रा ठहरकर देखते चलें. मुज़्तर खैराबादी का पूरा नाम सैयद इफ्तिखार हुसैन रिज़वी था. उनका का जन्म सन् 1865 में उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले के कस्बा खैराबाद में हुआ था. वे अरबी, फारसी और उर्दू के अदीब, शायर, दानिश्वर और दीन-ओ-मज़हब के बड़े आलिम मौलवी फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी के नाना थे. वे जंगे-आज़ादी के सिपाही थे और उन्होंने सन् 1857 के हिंदुस्तान की आज़ादी के लिए किये पहले आंदोलन में एक अहम किरदार अदा किया था. उनके दादा ‘तफज्जुल हुसैन’ राजस्थान के रियासत टोंक के राजदूत थे और देहली में उनके मिर्ज़ा ग़ालिब के साथ बेहद अच्छे तआल्लुक थे. उन्होंने ग़ालिब को रियासत टोंक के नवाब वजीरउद्दौला से मिलवाया था. मुज़्तर ख़ैराबादी के वालिद हाफ़िज़ अहमद हसन ‘रुसवा’ थे और मुज़्तर साहब के बड़े भाई ‘सैय्यद मोहम्मद हुसैन बिस्मिल’ टोंक के ‘नवाब इब्राहिम अली खान’ के उस्ताद थे. कमाल की बात यह है कि उस दौर में जबकि गिनी-चुनी औरतें भी शायरी की मैदान में नज़र नहीं आती थीं, तब मुज़्तर ख़ैराबादी की वालिदा मोहतरमा सैय्यद-उन-निसा शेर कहने के लिए ‘हिरमाँ ख़ैराबादी’ तख़ल्लुस इस्तेमाल करती थीं. लगे हाथों के उनके चंद अशआर आप भी मुलाहिज़ा फरमाएँ,
मिरे ज़ब्त-ए-अलम ने ताब-ए-गोयाई न दी मुझ को
सुनाता अहल-ए-आलम को फ़साने ज़िंदगी भर के
ज़बाँ कटती है जिस दर पर सदा देते दुआ देते
गदा कहलाते हैं ‘हिरमाँ’ हम उस बेदर्द के दर के
हिरमाँ ख़ैराबादी, अल्लामा फज़ले हक खैराबादी’ की बेटी और ‘मौलवी शम्सउल हक ख़ैराबादी’ की बहन थीं. उनके भाई मौलाना अब्दुल हक़ ख़ैराबादी’ ने उनके बारे में कहा था, “मुझे खुशी है कि वह एक ख़ातून थीं, मर्द नहीं. अगर वह मेरा भाई होता, तो मुझे उसके सामने बौद्धिक रूप से चमकने का मौका नहीं मिलता. वह है ही इतना बड़ा दिमाग़.” ग़ौरतलब है कि जब औरतों को तालीम को लेकर लोग सोचते भी नहीं थे, उस अहद की हिरमाँ ख़ैराबादी बेहद ज़हीन और तेज़-तर्रार ख़ातून होने साथ-साथ एक उम्दा शायरा भी थीं. इन्हीं हिरमाँ ख़ैराबादी के बेटे थे मुज़्तर ख़ैराबादी और उनके पोते थे जाँ निसार अख़्तर. हिरमाँ साहिबा ने अपने साहबज़ादे मुज़्तर को न सिर्फ शुरुआती तालीम दी, बल्कि मुज़्तर जब कोई शेर कहते तो वही इस्लाह भी किया करती थीं. हिरमाँ बड़े बेटे सैय्यद मोहम्मद हुसैन बिस्मिल टोंक के नवाब इब्राहिम अली खान के उस्ताद और ख़ुद बहुत अच्छे शायर थे और इनकी सरपरस्ती भी मुज़्तर ख़ैराबादी साहिब को हासिल थी. मुज़्तर साहब की शक़्लो-सूरत बहुत अच्छी थी और हमेशा वे अच्छे कपड़े पहनते थे. नवाबों और राजाओं को कानूनी सलाह देने के एवज में उन्होंने ख़ूब माल-ओ-दौलत कमाया और जो कमाया उसे खर्च करने में भी कोई कोताही नहीं बरती. मुज़्तर साहब रियासत रामपुर के नवाब के उस्ताद भी रहे थे और रियासत टोंक और ग्वालियर में उन्होंने बतौर काज़ी काम किया. कई बार अपने फैसले वे शायरी की शक्ल में दिया करते थे. एक मामले को लेकर मुज़्तर ख़ैराबादी को ख़ास तौर पर याद किया जाना चाहिए. हुआ यह कि एक मामले में रियासत ग्वालियर के महाराज ने नाथूमल को मुज़्तर एक मामले में फंसाया था, लेकिन मुज़्तर साहब ने नाथुमल पर लगाए गए आरोपों को सही नहीं पाया और उसे आज़ाद कर दिया. इसके बाद अपने शाही सरपरस्त की इच्छा के विपरीत जाकर उन्होंने ग्वालियर की नौकरी से इस्तीफा दे दिया और वहाँ से भोपाल भाग गए. अपने आख़िरी सालों में वे रियासत इंदौर में रहे और वहीं रहकर काम किया.
उर्दू अदब में मुज़्तर ख़ैराबादी अपने नातिया कलाम के लिए ख़ास तौर पर जाने जाते हैं. उन्होंने ख़ुदा की शान में एक मजमुआँ (कविता-संग्रह) लिखा था ‘नज़र-ए-ख़ुदा’ और अल्लाह के रसूल पैगंबर मोहम्मद की शान में लिखा था, ‘नेयाज-ए-मुस्तफा’ और “मिलाद-ए-मुस्तफा” जो भोपाल के अल्वी प्रेस से छपा था. उनकी शायरी का संकलन ‘बेहर-ए-तवील’ उर्दू शायरी में उल्लेखनीय कृति मानी जाती है. अलावा इसके उनके नस्र (गद्य) के क़द्रदान भी कम नहीं हैं. “अल्लाह बस बाकी हवा”, “दुखी की पुकार” और “मुंह देखी मुहब्बत” उनके नस्र की उम्दा मिसाल हैं. उनके काव्य संग्रह ‘इल्हामात’ का संपादन उनके पुत्र ‘नश्तर खैराबादी’ ने किया था. उन्होंने ख़ैराबाद से एक पत्रिका निकाली थी, ‘करिश्मा-ए-दिलबर’. उनकी शायरी और तख़्लीकी कारनामों की वज़ह से उन्हें ‘ख़ान बहादुर’, ‘एतबर-उल-मुल्क’ और ‘इफ्तेखार-उश-शुआरा’ सहित कई विशिष्ट उपाधियाँ मिली थीं. उनके बेटे जां निसार अख्तर ने उनके एंथोलॉजी को “खिरमन” के रूप में संपादित किया था, जिसे उनके पोते जावेद अख़्तर ने छपवाया. मुज़्तर ख़ैराबादी के बेटे एतबर हुसैन उर्फ़ बरतर ख़ैराबादी’, यादगर हुसैन उर्फ़ नश्तर ख़ैराबादी’, जां निसार हुसैन अख्तर और उनके पोते बाकर हुसैन, नामदार हुसैन शामिल हैं. , शानदार हुसैन, डॉ शहज़ाद रिज़वी, इरशाद रिज़वी, और ज़िया ख़ैराबादी और पोती सैयदा नाहिद नश्तर, डॉ. सैयदा सुहेला नश्तर, डॉ. सैयदा इमराना नश्तर, रुखसाना वसीम, जावेद अख्तर और डॉ. सलमान अख्तर इस पीढ़ी के बाद ख़ानदान में फरहान अख्तर, जोया अख्तर, कबीर अख्तर और निशात अख्तर शामिल हैं. सन् 1927 में ग्वालियर में वे इंतकाल कर गए और वहीं उनको दफनाया गया.
सन् 1960 में महेश भट्ट के पिता नानाभाई भट्ट की एक फिल्म रिलीज हुई थी ‘लाल किला’. इस फिल्म के निर्माता एच. एल. खन्ना ने निर्देशक नाना भाई भट्ट से कहा कि फिल्म के गाने ऐसे हों, जिसे सुनकर लगे कि फिल्म वाकई मुग़लिया दौर को साकार कर रही है. इस पर फिल्म के लेखक पंडित गिरीश से नानाभाई भट्ट ने राय-मश्वरा किया, तो पंडित गिरीश ने उन्हें यह राय दी कि इस फिल्म की शुरुआत क्यों न आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर की ही किसी ग़ज़ल से की जाए. सन साठ के दौर में बहादुरशाह ज़फर के नाम से एक ग़ज़ल बेहद मशहूर थी और आम लोगों की यह राय थी कि ये गज़ल बहादुरशाह ज़फर की है. बावज़ूद इसके कि ‘लाल किला’ फिल्म रिलीज होने से पहले इस ग़ज़ल को लेकर दबी ज़ुबान से कुछ बातें होने लगी थी. उस दौर में ‘निगार’ नाम की एक पत्रिका निकालने वाले नियाज़ फतेहपुरी का ने फरमाया था कि ये गज़ल बहादुर शाह ज़फर की है ही नहीं, ये तो मुज़तर ख़ैराबादी नाम के शायर की है, लेकिन उस दौर में तकरीबन 99 फीसदी लोगों की राय यह थी कि यह ग़ज़ल बहादुरशाह ज़फर की ही है. ख़ैर, चूँकि ज़्यादातर लोगों की राय नियाज़ फतेहपुरी साहब के पक्ष में नहीं थी, इसलिए इस बात को लेकर ज़्यादा हायतौबा नहीं मची और इस ग़ज़ल को ‘लाल किला’ फिल्म के निर्देशक नानाभाई भट्ट ने मोहम्मद रफी की आवाज़ में रिकॉर्ड करवा कर फिल्म में शामिल कर लिया. फिल्म संपादन के समय यह ग़ज़ल निर्देशक नानाभाई भट्ट को इतनी अच्छी लगी कि फिल्म की शुरुआत ही उन्होंने इससे की. नतीज़ा यह हुआ कि जो लोग उर्दू अदब से ज़रा भी तआल्लुक नहीं रखते थे उन्हें भी अब यह यक़ीन हो गया कि यह ग़ज़ल बहादुरशाह जफर की ही है. लेकिन मुज़्तर ख़ैराबादी के पोते और मशहूर शायर-गीतकार जावेद अख़्तर साहब के हवाले से सन् 2015 में जब मुज़्तर ख़ैराबादी की ग़ज़लों का संकलन ‘खिरमन’ छपकर आया, तब यह बात बिल्कुल स्पष्ट हुई कि अब तक दुनिया जिस ग़ज़ल को बहादुरशाह ज़फर की ग़ज़ल समझ रही थी, वो दरअसल मुज़्तर ख़ैराबादी की ग़ज़ल थी. जिसका मतला यानी आख़िरी शेर देखिये तो मामला बिल्कुल साफ हो जाता है,
न किसी की आँख का नूर हूँ, न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके, मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ
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न मैं मुज़्तर उनका हबीब हूं, न मैं मुज़्तर उनका रक़ीब हूं,
जो पलट गया वो नसीब हूं, जो उजड़ गया वो दयार हूं
वालिद का मामला साफ करने के बाद आइये एक बार फिर से लौटते हैं मुज़्तर ख़ैराबादी के बेटे जाँनिसार अख़्तर पर. जाँनिसार अख़्तर साहब ने अपनी ज़िंदगी के सबसे हसीन साल साहिर लुधियानवी की सोहबत में गर्क कर दिए. जो हादसा उनके उनके बाप मुज़्तर ख़ैराबादी के साथ हुआ कि उनकी लिखी ग़ज़ल को दुनिया बहादुशाह जफर की ग़ज़ल की समझती रही, उसी तरह का वाकया जाँनिसार साहब के साथ भी पेश आया. जाँनिसार साहब की ज़िंदगी का बेशतर हिस्सा साहिर के साए में ही बीता और लोग कहते हैं कि उनकी प्रतिभा की चमक को साहिर लुधियानवी साहब ने ही ठीक से उभरने नहीं दिया. वे जैसे ही साहिर की दोस्ती से आज़ाद हुए, तो उसके बाद उनमें और उनकी शायरी में बड़ी तब्दीली नज़र आई. साहिर की दोस्ती से आज़ाद होने के बाद जाँनिसार अख़्तर ने जो कुछ लिखा उससे उर्दू शायरी के हुस्न में कई गुणा ईजाफा हुआ. सन् 1955 में आई फिल्म ’यास्मीन’ से जाँनिसार साहब के फिल्मी करियर ने जब रफ़्तार पकड़ी, तो फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. उनके कुछ मशहूर गाने हैं, ’आँखों ही आँखों में इशारा हो गया’, ’ग़रीब जान के हमको न तुम दगा देना’, ’ये दिल और उनकी निगाहों के साये’, ’आप यूँ फासलों से गुज़रते रहे’, ’आ जा रे ओ नूरी’ वगैरह-वगैरह. कमाल अमरोही की फिल्म ’रज़िया सुल्तान’ का गीत ’ऐ दिले नादाँ’ उनका लिखा आखिरी गीत था. रजिया सुल्तान फिल्म जब बन रही थी, तभी उनका इंतकाल हो गया और बाद के दो गाने निदा फ़ाज़ली ने लिखे. सन् 1935 से 1970 के दरम्यान लिखी गई उनकी शायरी की किताब “ख़ाक़-ए-दिल” के लिए उन्हें 1976 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला. पंडित जवाहरलाल नेहरू जी ने जाँ निसार साहब को पिछले 300 बरस की शायरी का एक कलेक्शन तैयार करने का जिम्मा दिया था, जिसे बाद में श्रीमती इंदिरा गाँधी ने ’हिन्दुस्तान हमारा’ शीर्षक से दो खण्डों में छपवाया था. निदा फ़ाज़ली लिखते हैं, ‘जांनिसार आख़िरी दम तक जवान रहे. बुढ़ापे में जवानी का यह जोश उर्दू इतिहास में एक चमत्कार है, जो उनकी याद को शेरो-अदब की महफ़िल में हमेशा जवान रखेगा.
जाँ निसार साहब के एक शेर से ही हम उन्हें ख़िराजे-अक़ीदत पेश करते हैं.
और क्या इस से ज़ियादा कोई नर्मी बरतूँ
दिल के ज़ख़्मों को छुआ है तिरे गालों की तरह
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