प्रसिद्ध लेखिका गीताश्री आजकल कश्मीर में हैं। वहाँ कला शिविर, वहाँ के हालात पर उनकी एक प्रासंगिक टिप्पणी पढ़िए-
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श्रीनगर के युवा चित्रकार नौशाद गयूर कला शिविर में अपने शहर के तात्कालिक हालात से अनजान पेंटिंग बना रहे थे. डल गेट और डल लेक पर छोटा आइलैंड चार चीनार की आकृतियाँ बना रहे थे. उधर शहर जल रहा था, क्रोध में, दुख में, क्षोभ से, पीड़ा से.
उन्हें किसी ज़ब बताया तब वह पानी पेंट कर रहे थे, हरे पीले रंग की आभा. पता चलते ही पेंटिंग का रंग बदल गया, ब्रश का मूड बदल गया. नौशाद आहत होकर पानी पर लाल रंग लगा देते हैं. मैं वहीं पास में खड़ी होकर उन्हें पेंट करते देखती हूँ और अचरज से भर कर पूछती हूँ.
वे उदास होकर जवाब देते हैं -“ हम यहाँ नेशनल उत्सव में डूबे हैं , उधर मेरा शहर रक्त रंजित है. तीन मासूम लोग मार दिए गए. प्रशासन ने भी मान लिया कि उनसे गलती हुई है. आप बताएँ, जिन परिवारों के चिराग़ बुझ गए हैं, उनका क्या होगा? क्या क़सूर उनका? जो जीवन भर आतंकवादियों के ख़िलाफ़ लड़ते रहे, उनके ही घर उजाड़ दिए. “
पेंटिंग अचानक दहशत से भर जाती है. नौशाद ख़ामोश हो जाते हैं.
मैं नसीम बाग के उस माहौल में घूमने लगती हूँ जहां चारों तरफ़ चिनार के सूखे पत्ते फैले हैं. कुछ उड़ रहे हैं. कुछ झड़ रहे हैं. सड़कें सूनी हैं.
हमें साउथ कश्मीर जाना था, शोपियां क्षेत्र में. बताते हैं, श्रीनगर से ज़्यादा खूबसूरत इलाक़ा है, वहाँ घने जंगल हैं , जहां कुछ आदिवासी अब भी रहते हैं. उनके बीच जाना था, उनके बच्चों के साथ काम करना था. उन्हें ढेर सारे उपहार भी देने का प्लान था.
सब धरा रह गया.
आर्ट कैंप की क्यूरेटर चित्रकार अनुराधा ऋषि कश्मीर बंद की खबर से सहसा उदास और चिंतित नज़र आने लगती हैं. उन्हें कलाकारो की चिंता होती है. माहौल अचानक तनावग्रस्त हो उठता है. अगले दिन श्रीनगर बंद है, जुम्मे की नमाज़ के बाद धरना-प्रदर्शन की आशंका जताई जाने लगी थी. कश्मीर विश्वविद्यालय का परिसर चर्चित हजरत बल दरगाह के साये में बना हुआ है. स्थानीय प्रशासन ने
आयोजक को सूचित कर दिया कि सुरक्षा कारणों से बाहर निकलना उचित नहीं. देशभर से आए कलाकारों की सुरक्षा को देखते हुए सब गेस्ट हाउस में सिमट कर रह गए.
ऐसा दूसरी बार हुआ कि जब मैं श्रीनगर यात्रा पर थी, तब कोई न कोई हादसा हुआ और शहर बंद.
यहाँ जैसे बंद के अभ्यस्त हो चुके हैं. हमारे ड्राइवर राजू भाई से मैं अचंभे से पूछती हूँ कि इतना बंद करते हो आप लोग, जरुरत की चीजें भी नहीं मिलतीं, कैसे काम चलता है?
“अरे मैम, यहाँ हमें इसी तरह जीने की आदत पड़ चुकी है. आप किसी कश्मीरी के घर चले जाइए, उसके पास सात आठ महीने का सामान मिलेगा. हम पूरा स्टॉक रखते हैं. किसी चीज की कमी नहीं पड़ती.“
राजू भाई लगातार हमारे साथ संवाद करते हैं तो उनका दुख , ग़ुस्सा छलक पड़ता है. जब पहले दिन वे हमारे साथ आए तब उनका चेहरा तना हुआ था. आवाज़ भी भारी और रुखी लगी.
शाम का वक्त था, हम कश्मीर विश्वविद्यालय के गेट से बाहर निकल रहे थे. पास में ही हज़रतबल दरगाह से अजान की आवाज़ आई.
गाड़ी में हमारी सहयात्री मोबाइल पर गाने बजा रही थी.
अजान की आवाज़ सुन कर राजू भाई की भारी आवाज़ निकली- गाना बंद करिए…”
किसी ने नहीं सुनी, गाना बजता रहा. मैं बग़ल वाली सीट पर बैठी थी. मैंने पहले ध्यान नहीं दिया कि वे गाना बंद करने को क्यों कह रहे हैं? मुझे अजीब लगा था. उनका चेहरा सख्त लगा. दुबारा उन्होंने और ज़ोर से गाना बंद करने को कहा. तब भी पीछे कोई रिएक्शन नहीं हुआ. अचानक उन्होंने सड़क पर साइड में गाड़ी रोक दी. तभी मेरा ध्यान अजान की तरफ़ गया और मैं तत्काल समझ गई. मैंने पीछे घूम कर कहा कि गाना बंद कर दें, अजान हो रही है.
इतना सुनते ही गाड़ी में सभी संभल गए. गाना बंद हो गया. गाड़ी चल पड़ी.
थोड़ी देर बाद फिर सब सामान्य हो गया. हालाँकि उसके बाद से वे ख़ूब हिले-मिले. उनके चेहरे से तनाव ख़त्म हुआ और वे घुल मिल गए.
मैंने सबकुछ समझते हुए भी उनसे तनाव का कारण क्या पूछा, वे पूरी तरह खुलते चले गए.
शहर बंद के कारण पर वो हर दिन बात करते कि कैसे तीन निर्दोष लोगों को आतंकवादी कह कर मार दिया गया.
एक युवा लड़का भी मारा गया, उसके पिता के बारे में बताते हैं – “उसका बाप हमेशा फ़ौज के साथ मिल कर रहा. उनके लिए काम किया, आतंकवाद के ख़िलाफ़ रहा, उसे आतंकवादियों से धमकी भी मिली थी, उसी इंसान का बेटा कैसे आतंकवादी हो सकता है? बाप इंसाफ़ माँग रहा है और बार-बार सवाल पूछ रहा है. इससे हम लोगों में बहुत ग़ुस्सा भरा हुआ है.”
मैंने एक स्थानीय परिचित से पूछा कि क्या हम लोग यहाँ असुरक्षित हैं? हमें कोई ख़तरा है? हम बाहर घूमने नहीं जा सकते?
उसने आश्वस्त किया -“ टूरिस्ट को कुछ नहीं कहते. उन्हें हाथ भी नहीं लगाते, सारे आतंकवादी संगठनों ने सख़्त हिदायत दे रखी है कि टूरिस्ट की गाड़ी रोकना नहीं है और टूरिस्ट प्लेस को नहीं हाथ लगाना. आप सब सेफ हैं मगर बाहर निकलना उचित नहीं. यहाँ कभी भी, कहीं भी कुछ भी हो सकता है.”
उनकी बातों से अंदाज़ा लगाइए कि यहाँ आतंक कितना संगठित ढंग से चलता है.
हालाँकि एक स्थानीय पत्रकार ने निजी बातचीत में दावा किया कि अब आतंकवादी संगठनों की कमर टूट गई है. उनकी आर्थिक मदद बंद हो गई है. लोग भी हताश होकर अपने सामान्य जीवन में लौटने लगे हैं. कितना लड़ेंगे और और कब तक लड़ेंगे?
एक तीस वर्ष का युवा वसीम तल्ख़ अंदाज में हस्तक्षेप करता है – “सबको लग रहा है कि हम ग़ुलाम है. इसलिए लड़ रहे सब. यहाँ आठ लाख फौज, दो लाख जे एंड के पुलिस है.
आसपास देखिए मैम… ऐसा लगता है जैसे हम किसी छावनी में जी रहे हैं. कैसे जिएँगे हमारे बच्चे. हम तो जी लिए… ।”
मेरे पास और भी सवाल हैं. कश्मीर प्रवास में जो भी मिलता है, उनसे बातचीत करती हूँ. उनका मानस टटोलती हूँ.
एक वाचाल क़िस्म का युवा छात्र बोल उठता है – “यहाँ इंडिया सुनते ही सबकी फट जाती है. इन दिनों इतना आतंक है . किसी को भी पकड़ के अंदर कर देते हैं. श्रीनगर की जेल ख़ाली है, सारे आरोपियों को यहाँ की जेल से हटा कर बाहर के जेलों में शिफ़्ट कर दिया है. अब गरीब और साधनहीन लोग कैसे मिलने जाएँ अपने लोगों से?”
हालाँकि कश्मीर विश्वविद्यालय परिसर में रौनक़ लौटने लगी है. छात्र-छात्राओं की चहलक़दमियाँ दीखने लगी हैं. नसीम बाग में चिनार के सुनहरे सूखे पत्ते सड़कों पर, छतों पर लगातार झर रहे हैं. उन पर सरगोशियां बढ़ गई हैं.
आम कश्मीरी अपने व्यवसाय को लेकर फ़िक्रमंद है, ग्रामीण इलाक़ों के लोग अपने बच्चों की पढ़ाई को लेकर जागरुक हो गए हैं. होस्टल में बच्चे आने लगे हैं.
पत्थर फेंकने वाले हाथों में अब किताबें, पेन, बस्ते आ गए हैं, उनके माथे पर करियर की चिंताएँ उभरने लगी हैं.
शहरी इलाक़ों में रहने वाले लोग किसी तरह शांति और अमन-चैन बहाल करवाना चाहते हैं… ताकि उनका जीवन सुचारु रुप से चल सके. आतंक से, अशांति से ऊब गए हैं लोग.
दबी ज़ुबान में पाकिस्तान के दखल को कोसते हैं लेकिन खुल कर कोई नहीं बोलता.
कुछ उदारवादी लोग साफ़ स्वीकारते हैं कि यहाँ अधिकतर लोग पाकिस्तान परस्त हैं , कुछ लोग त्रस्त हैं. कुछ वर्ष पूर्व कश्मीर यात्रा के दौरान मिला था एक ड्राइवर जिसने साफ़ कहा था कि हम तो भारत के साथ ही रहना चाहते हैं. पाकिस्तान की अंदरुनी हालत बहुत ख़राब है, वो हमारे लिए क्या करेगा? हमें तो भारत जैसा उदारवादी मुल्क चाहिए जहां से हमें आर्थिक लाभ भी मिलता है.”
इस बार मैंने एक स्थानीय , उदार व्यक्ति को दलील दी – “पाकिस्तान के खिलाफ कभी नारे लगाते हैं आपलोग?”
“नहीं, कैसे लगाएँ, साबित हो जाएगा कि हमारा आंदोलन पाकिस्तान समर्थित है. लेकिन अब हम लोग उसके हस्तक्षेप से आजिज़ आ चुके हैं.”
मौजूदा सरकार से बेहद ख़फ़ा कश्मीरी अवाम का सिर्फ पाकिस्तान से ही नहीं, राजनीति और राजनेताओ से भी मोहभंग हो चुका है. वे समझ चुके हैं कि उनके नेताओं ने उन्हें मूर्ख बनाया, खूब लूटा है. अवाम हमेशा वंचित रही.
यू टी बनने और धारा 370 के हटाए जाने के बाद वे एक बार फिर से संशय से भर उठे हैं. उम्मीद और आशंकाएँ अपार हैं.
इन सबके बीच कश्मीर बहुत सर्द हुआ जा रहा है. पेड़ों ने अपने पत्ते गिरा दिए हैं ताकि आने वाले समय में सफ़ेद चादरें ओढ़ सके. इधर मौसम ने बर्फ़बारी की तैयारी कर ली है. झील का पानी काँपने लगा है जमने की आशंका से. कश्मीर के बदन पर कोहरा घना है.