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गरिमा श्रीवास्तव के उपन्यास ‘आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा’ का एक अंश

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर पढ़िए गरिमा श्रीवास्तव के उपन्यास ‘आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा’ का एक अंश। प्रेम और स्त्रीत्व की एक बड़े विजन की कथा वाले इस उपन्यास का प्रकाशन वाणी प्रकाशन से किया है। आप एक अंश पढ़िए- 

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एक भ्रम ही जीवन काट देने के लिए पर्याप्त होता और मुझे मिलती आर्थिक-भौतिक सुरक्षा – कहा था यही रहमाना खातून ने- “मैं चाहती तो बस सकती थी सियालदह या चंदननगर में. पड़ोसी-रिश्तेदार मुझे बुलाते शादी-ब्याह, मुंडन-जनेऊ में और पीठ पीछे बांच देते मेरी पूरी जन्मकुंडली-भर हाथ चूड़ी ,सिंदूर पहने मैं भी सुहागिन-दर्प से इठलाती या इठलाने का नाटक करती. बिराजित सेन की एक आहट पर मेरा पूरा शरीर कान हो जाता। समाज सब जा नता पर बिराजित मुझे ठीक पहले की तरह वधू का दर्ज़ा देते क्या ?
लड़ाई मेरी स्वयं से थी। इसलिए लड़ने के बाद, स्वयं को खो देने के बाद दुबारा मैंने खुद से प्रेम करना सीखा -यह प्रेम पिछले प्रेम से अलहदा था -इसमें उम्मीद नहीं थी, अपेक्षा नहीं थी। हसनपुर की मिट्टी, पोखर, माछ, रोगी-दीन-वंचित क्षुधित -बुभुक्षित सब मेरे प्रेम के पात्र थे, संगीत के राग मन के भीतर फिर से जी उठे जिससे प्रकाशित हो उठा मेरे मन का कोना-कोना। अब प्रकाश के लिए मुझे कहीं बाहर जाने की ज़रूरत नहीं थी।रागों में जी उठे मेरे पूर्वज जिन्होंने न जाने किस देस से आकर अपनी मेहनत से बनाई थी झोपड़ी, जिनके पसीने की बूंदों से नम हो गयी थी धरती – अँखुआए हुए बीजों ने ला दी थी उनके थके-भूखे चेहरों पर धवल मुस्कान। मैंने याद किया अपनी पूर्वजाओं को, जो जान ही नहीं पायीं कि पति और चूल्हे के परे भी कोई दुनिया होती है, ज्ञान का संस्कार क्या होता है, कैसे वह आत्मा को मुक्त करता है। जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी रसोईघर के अँधेरे कोनों में गुज़ार दी ताकि अपने पुरुषों को सुखी-संतुष्ट रख सकें और चुपचाप मूक रुदन में चौरंगी जैसे रोगों के साथ इस दुनिया से विदा ले ली। वे चली गयीं इस दुनिया से बिना बताये कि वे कहाँ और कितनी बार कुचली, दबाई, नोची, खसोटी गयीं, असुरक्षित प्रसूतियों के बीच काल-कवलित हो गयी कितनी, अनगढ़ संतानों को कभी दूध नहीं पिला पायीं, बेटी -जिसके पैदा होते ही मुंह में नमक भर कर मिट्टी में गाड़ना अपनी भरी आँखों से देख निश्वास छोड़ती रहीं .याद से कभी न जाएँ वे संघर्षरत औरतें जो तालिबानी सत्ता से टकरा रही हैं अपने अधिकारों के लिए, वे भी जो रोज़ दिन संगसार हो रही हैं जिनकी आँखें फोड़, नाक-कान काट दिए जा रहे हैं क्योंकि वे औरतें हैं .चूँकि उन्होंने स्त्री देह धरी है इसलिए उनका पुरुष मालिक होना ज़रूरी है जिसके लिए बन्दूक की नोक पर उनका विवाह करवा दिया जा रहा है . उन अनब्याही और विधवा पूर्वजाओं को भी कैसे विस्मृत कर दूँ जिन्हें मौका नहीं मिला कभी अपनी कोख के बच्चे को जीवित देखने का, जो परित्यक्त की गयीं, अनजाने अंधेरों में धकेल दी गयीं, घर के सुरक्षित दायरे से दूर कोठों पर बेच दी गयीं कहलायीं तवायफ़ें ,जिनका इतिहास में कहीं /कभी नाम भी लिया नहीं जायेगा .अपने आंसुओं में उनकी स्मृति को जीवंत रखना चाहती हूँ जिनकी आँखों के हज़ार-हज़ार सपनों ने धरती पर आये बिना दम तोड़ दिया. उनसे कभी उनकी इच्छा-अनिच्छा पूछी ही नहीं गयी .वे औरतें जो अपने केशों में बसे मसाले-प्याज की गंध के परिवृत्त से बाहर अपने पतियों के कपड़ों से आती परायी गंध को सूंघने के लिए नाक सिकोड़े हर छल-छद्म को झेलकर हरितालिका व्रत कथा सुनने में प्रवृत्त हो गयीं निरुपाय, वे भी जो ट्रेन, हवाई जहाज़ पर चढ़कर आकाश और धरती के अनंत विस्तार को महसूसने से वंचित रहीं. वे भी जो दो रोटियों के लिए वृन्दावन के आश्रम में दिनरात कीर्तन कर के स्वर्गगमन की भीख माँगा करती हैं और वे भी जो अशक्त होकर वृद्धाश्रम में पड़ी-पड़ी अपने कभी न आने वाले बेटे की बाट निरंतर जोहा करती हैं .वे भी हैं मेरी स्मृति का अनिवार्य हिस्सा जो पिता, पति, भाई का दाय चुकाने बाज़ार का रुख कर लेती हैं, वे भी जिन्हें बाज़ार अपनी चकाचौंध की गिरफ्त में ले लेता है। उन औरतों को भी याद करती हूँ जो बंद हैं जेलों में कि जिनके खिलाफ़ सालों-साल पुलिस चार्जशीट दाखिल करने की ज़हमत नहीं उठाती, जेलर, वार्डन और पुरुष कैदियों की ज़बरदस्ती का शिकार ये औरतें जेल में ही मां बन जाती हैं, दो रूपए की चोरी के आरोप के लिए काटती हैं आजीवन सश्रम कारावास, वे बाहर नहीं जाना चाहतीं क्योंकि उन्हें मालूम है कि बाहर की दुनिया इससे भी ज्यादा हृदयहीन है.”
मेरे भीतर राग की तरह बजती रहती हैं रहमाना खातून.क्या इसके अलावा कोई राग नहीं जो मुझे अपने वेग में बहा सके, दे सके एक गहरी नींद एक ऐसी थपकी जिसकी चाह में जीवन के चारपांच दशक मैंने निकाल दिए यूँ ही.
सबीना से बात करते हुए भी भीतर ज्यों निरंतर मेरा संवाद अम्मा से चलता है, लेकिन यह मैंने सबीना से कहा नहीं, कह सकती नहीं. क्योंकि कुछ बातें कही न जाकर भी कह दी जाती हैं. क्या रहमाना खातून ने प्रेम किया होगा, क्या बिराजित सेन के बाद उनका जीवन… मैं क्यों सोचने लगती हूँ अम्मा के बारे में?
“और तुम सबीना… तुमने तो विवाह में प्रेम ढूँढने की कोशिश थी ,मिला क्या?…
“मिलता कैसे, जो चीज़ थी ही नहीं उसका मिलना कैसे? मेरे पति ज्यू हैं… यहूदी वही जो ईसा मसीह थे ,शादी के बाद देखा वे घंटों ‘कादिश’ (यहूदी प्रार्थना )पढ़ते ,इतने बड़े साइंटिस्ट हैं रेनाटा लेकिन अपने पुराने शहर काजीमेर्ज (
kazimierz) को रोज़ जीते हैं, पैदाइश उनकी ठीक 1960 के दो साल बाद की, जब सभी पोलिश यहूदियों को इज़रायल जाने के लिए एकतरफा टिकट दिया गया। दूसरे विश्वयुद्ध में घायल, खण्डहर इमारतों वाले उदास सोये हुए शहर में बच रहे कुछ बूढ़े और बेचारे लोग। मेरे पति ने अपने हताहत रिश्तेदारों की स्मृतियों और अंधे पिता के साये में बचपन गुजारा, पढ़ाई–लिखाई की ,परिवार की स्मृतियाँ संभाल कर रखीं, लेकिन वर्तमान में जीना सीख नहीं पाये। काजीमेर्ज में हर साल गर्मी के मौसम में यहूदियों का सांस्कृतिक उत्सव होता है ,ये भी जाते हैं वहाँ… सुबह–शाम कादिश पढ़ते हैं मैंने उन्हें कभी आनंदित होते नहीं देखा। दिन भर काम, प्रयोगशाला और रात में प्रार्थना के बाद नींद की गोली, कितना तो जी करता है कि कहूँ कि दिल खोलकर मुझसे बातें करो। पहले तो मुझे ऐसा लगता था कि शायद किसी और को पसंद करते रहे हों ,मुझ पर दिल न हो, लेकिन ऐसा था नहीं।शायद और कोई लड़की होती तो तलाक ले लेती, लेकिन जब प्रेम ही नहीं तो उम्मीद कैसी. कहते हैं प्रेम में अपेक्षा नहीं करनी चाहिए लेकिन सच तो यह है कि हम जिससे प्रेम करते हैं उससे अपेक्षा, उम्मीद भी उतनी ही होती है, कभी सोच नहीं पाते कि वह व्यक्ति स्वयं में एक पृथक इयत्ता है, जिसका अतीत है और है वर्तमान जिसके बीच की आवाजाही उसके व्यक्तित्व को निरंतर दरेरा दिए रहती है।पीछा छोड़ता ही नहीं अतीत कभी। सिर्फ शरीर –धर्म निभाना मेरे लिए प्रेम नहीं है, शायद किसी के लिए हो भी नहीं सकता। रेनाटा कभी मेरे पास खुद नहीं आये ,रात के अँधेरे में उनकी कामना के उजालों से मैं कभी रू-ब-रू हुई होऊं ऐसा कहना मुश्किल है. कभी पहल नहीं की। अगर मैं तैयार हूँ ,थोड़ा चिपक विपक रही हूँ तो बेचारे किसी धार्मिक कृत्य को निभाने की तर्ज़ पर मेरे साथ हो लेते. इसलिए मुझे बच्चे की उम्मीद भी नहीं थी. वैज्ञानिक महोदय ने मुझे जी –भर के कभी देखा होगा इसमें संदेह है। वैसे भी वे आवेग के ज्वार मुझमें भी उम्र के साथ उतर गए .हम एक घर में एक साथ होकर भी अलग –दुनिया में जीते रहे ,रेनाटा ने मुझे कभी रोका –टोका नहीं. एक रात तो ऐसा हुआ कि हमारे साथ होते ही वे कादिश पढ़ने लगे ,मुझे हिब्रू नहीं आती मगर लगा ज्यों मृतात्माओं से माफ़ी मांगते हों. मैं डर गयी, बत्ती जलाई तो वहां एक आवेगहीन डरा–सहमा ,सिकुड़ा–सा कातर पुरुष पाया, समझ गयी मैं कि मुझे इसी रूप में ज़िन्दगी को लेकर चलना है. एक बच्चा जिस तरह की कहानियाँ सुनकर बड़ा होता है ,उसके साये से निकलना शायद मुमकिन नहीं होता ,बड़े होने पर भी नहीं।
रेनाटा के पास अपने परिवार का लहूलुहान इतिहास है, जिसके पन्ने उनके लिए कभी पुराने नहीं पड़े. अतीत को काँधे पर लादे हुए वर्तमान की राह पर हम झुकी पीठ और बोझिल कमर के साथ ही चल सकते हैं भविष्य की ओर दौड़ नहीं सकते. मैं जानती हूँ कि बचपन और अपने समुदाय का अतीत रेनाटा को कभी उच्छ्वसित होने नहीं देता. रेनाटा के दादा याकूब को जर्मनी से पोलैंड की ओर खदेड़ दिया गया था 1939 में।जर्मनी से निकलते वक्त वे अपनी जमा–जथा छोड़ आए, छोड़ नहीं आए बल्कि छोड़नी पड़ी, कितना कठिन होता है बरसों की जमी–जमाई गृहस्थी को तोड़ना, हर सामान ज़रूरी लगता है, बीस साल पहले खरीदी घड़ी, उपहार में मिला फूलदान, शादी में खरीदे बर्तन न जाने कितना कुछ लेकिन जीवन से बड़ा कुछ नहीं, जीते रहे तो फिर से गृहस्थी बना लेंगे, पत्नी सुबकती रही, कुछ गहने पोटली में रखकर स्कर्ट में सिल लिए ,घर छूटा, बिस्तर–बर्तन सब कुछ छूट ही तो गया, अपने शहर में पराए, ज्यू लोगों की अब कोई पहचान नहीं बची. पत्नी और दो जुड़वां लड़कों के साथ काजीमेर्ज में उन्हें नए सिरे से जीवन शुरू करना था क्योंकि वे जन्मना यहूदी थे।पोलैंड में यहूदियों की संख्या अच्छी –ख़ासी थी ।बच्चे स्कूल जाने लगे, ज़िंदगी और मेहनत पर्याय बन गए, पत्नी घरेलू काम के साथ दरजिन का काम करने लगीं, और वे खुद कुली से लेकर दुकान -नौकर का काम किया करते पर इतनी तसल्ली थी कि वे अपने जैसे लोगों के बीच हैं, छोटे–छोटे उत्सव, मिलना–जुलना और जाड़ा-बरसात सहते हुए ज़िंदगी ढर्रे पर आ ही चली थी कि जर्मनी ने पोलैंड पर हमला कर दिया। ये हमला मनुष्यता पर हमला था. वे और उन जैसे यहूदी समझते रहे कि युद्ध शुरू हुआ है तो खत्म भी हो जाएगा। लेकिन नात्सी सरकार के फरमान आने शुरू हुए तो खत्म होने का नाम ही नहीं। पहले बच्चों को सामान्य स्कूल से निकालने का हुक्म हुआ, अब यहूदी बच्चों के लिए बनाए विशेष स्कूल में ही वे पढ़ सकते थे, शाम के सात बजे के बाद सड़कों पर यहूदी नहीं निकल सकते थे, उन्हें पुराने पहचान –पत्र जमा कराकर नए पहचान पत्र बनवाने पड़े, वे सिनेमाघरों में नहीं जा सकते थे,यहूदियों को शेष समाज से अलग –थलग करने के हिटलरी आदेशों से जीवन अस्त –व्यस्त होने लगा, युद्ध शुरू हुआ और यहूदियों की निशानदेही की जाने लगी, मार –पिटाई, डिटेन्शन सेंटर, निर्धनता ने उन्हें और उन जैसों को डरा दिया, मनुष्य देह का अपमान हो रहा था, गैर -यहूदियों को यहूदियों के छिपने के ठिकाने बताए जाने के लिए विवश किया जाने लगा। राशन–पानी सब यहूदियों की ज़द से बाहर।
याकूब के बड़े भाई जाकोव ने जर्मनी से सन 1941 की मई में लिखा था _”दुख की बात है कि अब हम साथ नहीं हैं ,अच्छा हुआ कि तुम पोलैंड चले गए ।यहाँ के बच रहे यहूदियों के साथ बहुत बुरा बर्ताव किया जा रहा है, जिसके बारे में पत्र में लिखना मुमकिन नहीं है, जासूस चारों ओर फैले हुए हैं, मालूम नहीं कि यह चिट्ठी तुम्हें मिलेगी कि नहीं,या मिलेगी भी तो कब। मुझे कई लोगों के साथ कपड़ों की फैक्टरी में काम पर लगाया गया है। ठंड अधिक है या कम -कहना मुश्किल है ।मुझे मालूम नहीं कहाँ से …पर रोज़ –ब –रोज़ पुराने ,पहने हुए नए -पुराने हजारों कोट और स्वेटर यहाँ लाये जाते हैं ,जिनकी उधड़ी सिलाई को दुबारा ठीक करना ही हमारा काम है ,बच्चे ,औरतों और मर्दों के कोट को इस सिलाई फ़ैक्टरी में लाया जाता है ,उनपर टंके सितारों से लगता है कि वे यहूदियों के होंगे ।यहाँ से नया करके उन्हें बेचने ले जाया जाता है। तुम इतने बड़े संसार में दूर चले गए हो ,यह सोचकर मन उदास होता है ,पर पिता की बात याद रखना –‘हो सकता है तुम्हें कष्ट उठाना पड़े फिर भी हर स्थिति को गरिमापूर्ण ढंग से स्वीकार करना ,काम करने से मत डरना और बेसहारों की मदद से कभी पीछे न हटना .’ यह तूफ़ानी युद्ध बहुत कुछ बदल देगा ,पर उम्मीद है हम फिर मिलेंगे।
इंतज़ार करूंगा तुम्हारे पत्र का जिसमें अपने हाल –चाल लिखना और कोई ऐसी बात न लिखना जो जासूसों को नागवार गुजरे।”
–तुम्हारा भाई जाकोव
इधर याकूब के लिए जीना और अपने छोटे परिवार को सुरक्षित रखना बहुत मुश्किल हो रहा था ,स्वजातीय देखते –देखते गायब होने लगे थे ,नात्सी सैनिक हमेशा यहूदियों की तलाश में रहते –देखते ही जबरन ट्रकों में चढ़ा लेते ,बेगार करवाते ,पिटाई करते और गायब कर देते ,तरह -तरह की अफवाहें सुनने में आतीं .जाकोव अपने पत्रों में भाई को दिलासा देता “यदि ज़िंदा रहना है तो हमेशा काम करते रहो ।अपने भीतर की चिंगारी को बुझने मत दो ,अच्छा वक़्त ज़रूर आएगा और हम ज़रूर मिलेंगे “ भाई के पत्र याकूब को दिलासा तो देते पर वह क्षणिक होती ।पूरे पोलैंड में हिंसा की घटनाएँ थीं आए दिन सेना की टुकड़ियाँ सड़कों पर मार्च करतीं ,इन सैनिकों में औरतें और मर्द दोनों हुआ करते ।स्त्री सैनिक अधिकारी भी पुरुषों जैसी ही क्रूर थीं ,तने हुए ,बड़े –बड़े चेहरे जिनपर कोमलता की कोई छाया नहीं ,मनुष्यता से कोसों दूर ,सेना की वर्दी उन्हें और डरावना बनाती ,बांह पर बंधी बेल्ट पर स्वस्तिक का लाल चिन्ह उनके नात्सी होने की पहचान था ।याकूब पढ़ा –लिखा था ,अखबारों और अफवाहों ने उसे देश का हाल बखूबी बता दिया था ।कोने पर फल की दुकान वाले से उसकी दोस्ती थी ,जो बाहर से आने वाले अखबारों के टुकड़ों जिसमें फल लिपटे रहते ,उसे पढ़ने के लिए इस शर्त पर दे देता कि वह अखबार जला देगा । अखबारों ने उसे इतना तो बता ही दिया था कि पोलैंड पर नात्सी शासन काबिज़ हो चुका है ,सबसे ज्यादा निशाने पर हैं यहूदी ,पोलिश और जिप्सी .जासूस चप्पे –चप्पे पर हैं इसलिए वह अपनी जमा –जथा एक कपड़े की थैली में रखता ,पता नहीं कब ज़रूरत पड़ जाए ,दो –दो दिन पूरा परिवार सूखी पावरोटी पर गुज़ारा करता ,जुड़वां बच्चे अब दस साल के हो रहे थे,लड़का –लड़की दोनों के चेहरे सुन्दर और आँखें नीली थीं .बच्चों का बाहर जाना बंद था ,पत्नी-बच्चों के साथ बत्ती बुझाकर किराये के उस छोटे मकान में चुपचाप पड़े रहते .भीतर से एक ही आवाज़ आती –बिएग्निज़ ! बिएग्निज़ ! स्ज्य्बको बिएग्निज़ लेकिन कहाँ जाते …
याकूब अपने जुड़वां बच्चों की बढ़त देख कर आश्चर्य करता ,कभी सोचता कि ये दोनों सब दिन नन्हें –मुन्ने ही रहते तो अच्छा था.बाहर सड़क पर फौजी टुकड़ियों की गश्तें आये दिन हुआ करतीं ,बर्फ़ के पिघलने से कंक्रीट की रोड हमेशा गीली रहती जिसके गीलेपन को भयावह बनाती उसपर गुजरने वाले फौजियों के कड़क बूटों की आवाज़. तालबद्ध बड़े धमकदार बूटों का समवेत स्वर ,कलेजे में भय फड़फड़ाता ,बड़े –बड़े भारी काले ऊनी कोट पहने फौजियों का भय दिनों –दिन बढ़ता ही जाता और उसी परिमाण में आम नागरिकों में आपसी अविश्वास,कल तक जो अच्छे पड़ोसी थे आज संदेहास्पद हो गए थे.सबको अपनी –अपनी पड़ी थी.किसको पकड़कर कहाँ ले जाया जा रहा था ,कुछ को घेटो में रहने के लिए ले जाया जा रहा था .सुनने में आया कि नात्सी लोग जुड़वां बच्चों को ले जाते हैं ,इसलिए बार –बार रात में जागकर अपने बच्चों की पहरेदारी किया करता .तरह तरह के विचार मन में आते ,कभी वे आ ही जाएँ ,गोली -बन्दूक के बल पर ले ही जाएँ ज़बरदस्ती.फल वाले से उसने कहा था आर्सेनिक(संखिया ) का इंतज़ाम करने ,यदि आ ही जाये ऐसी स्थिति तो …”

 
      

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2 comments

  1. thanks, interesting read

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