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‘रूदादे-सफ़र’ उपन्यास जीवन-सबंधों का मानक है

पंकज सुबीर का उपन्यास ‘रुदादे सफ़र’ जब से प्रकाशित हुआ है लगातार चर्चा में है। आज पढ़िए इस उपन्यास पर लेखिका लक्ष्मी शर्मा की टिप्पणी-

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हमारे समय के महत्त्वपूर्ण लेखक पंकज सुबीर के नए उपन्यास ‘रूदादे-सफ़र’ को हाथ में लेकर पृष्ठ पलटने से पहले ही आवरण पर Erzebet S की पेंटिंग ‘father with daughter’ के चित्र पर दृष्टि ठहर गई। उपन्यास पढ़कर लगा, इस से अच्छा आवरण क्या होता।

पिता-पुत्री के सम्बन्धों की मूल गंगधार के बीच देहदान की जमना और एनोटॉमी की सरस्वती को समाहित कर सिरजे इस उपन्यास को पंकज ने जिस कोमल भाव-प्रवणता, गहन शोध और सामाजिक सरोकार-प्रतिबद्धता से लिखा है, अद्भुत है। वस्तुतः पिता-पुत्री ही नहीं, यह उपन्यास जीवन-सबंधों का मानक है। पिता डॉ. राम भार्गव डॉक्टर की आत्मा में कवि, दार्शनिक और संत हैं, उनके जीवन को आत्मसात् करके चलती ज़हीन, सम्वेदनशील पुत्री डॉ. अर्चना के सुपर हीरो।

इनका एक-दूसरे की आत्मा में गुँथा सम्बन्ध पाठक की आत्मा को नम कर देता है। बौद्धिक परिपक्वता, दोस्ताना खिलंदड़े भाव और अपने-अपने निविड़ एकांत के दुखों को साझा करते दो लोगों के बीच इस रूदादे-सफ़र में अन्य पात्रों के अन्तर्सम्बन्ध भी महत्त्वपूर्ण हैं। चाहे वो माँ-बेटी के बीच का सम्बन्ध हो, जो दुनियादार माँ से मत-वैभिन्य के चलते ऊपरी तौर पर घनिष्ठ नहीं लगता, लेकिन संवादहीनता के नीचे शांत, बिन बोले बहता रहता है।

उपन्यास में डॉ. रेहाना और अर्चना के रिश्ते पर पर सबसे कम बात हुई है। जबकि मेरी दृष्टि में एक-दूसरे के लिए फ्रेंड, फिलॉसफ़र, गाइड बनी इन स्त्रियों का सम्बन्ध उपन्यास की सबसे मज़बूत कड़ी और उपन्यास के कथ्य का वाहक है।

बारहा शब्दों के सप्तक सुर में गाता प्रेम रीत जाता है लेकिन मौन के सुर में गूँजता प्रेम राग अक्षय कलश की तरह स्थिर प्रेम से पूर रहता है। डॉ. अर्चना और जिलाधिकारी प्रवीण गर्ग का सम्बन्ध इसी अनकहे सुर का गायक है। परिपक्व उम्र और बुद्धि के दो लोगों के बीच इस अनकहे सम्बन्ध को लेखक ने जिस संतुलन से साधा है, कमाल है। कहानी का मार्मिक अंत कमज़ोर पड़ जाता अगर ये सुर होठों तक आ जाना हो जाता। अर्चना की पीड़ा में सहभागी बन के खड़ा पाठक अवाक् रह जाता है।

उपन्यास देहदान जैसे अनिवार्य विषय पर महज दखल दे कर नहीं रह जाता, पूरी प्रतिबद्धता के साथ उससे जुड़ता है। देहदान के सामाजिक और तकनीकी पक्ष ही नहीं, देहदानी के परिजनों का असमंजस और दुख जैसे भावात्मक पक्षों को भी संवेदनशीलता से प्रस्तुत करता है।

प्रत्येक उपन्यास में मुख्य कथ्य से जुड़े हर विषय पर गहन और सर्वांगीण शोध-अधिकार के साथ लिखना उपन्यासकार की सुख्यात विशेषता है, जो इस उपन्यास में पाठक को चमत्कृत कर देने की सीमा तक दिखाई देती है। उपन्यास के मुख्य परिवेश चिकित्सा विज्ञान, विशेषकर एनोटॉमी, के हर पहलू से जुड़े छोटे से छोटे तथ्य पर साधिकार लिखे ब्यौरे पढ़कर लगता है लेखक स्वयं एनोटॉमी-विशेषज्ञ हैं।

लगभग सारे उपन्यास में गूँजते गीत-ग़ज़ल और वायलिन के सुर लेखक की गीत-संगीत पर गहरी समझ को तो दर्शाते हैं, चिकित्सा विज्ञान जैसे रूखे परिवेश की नीरस एकरसता में सरसता घोल देते हैं। भोपाल के आसपास बिखरे प्राकृतिक सौंदर्य और इंदौर के जिह्वा प्रेम का चटखारेदार वर्णन भी बेहद रोचक है।

गृहत्यागी पिता की औचक सामने आई लाश के सदमे में डूबी अर्चना के पास खड़े प्रवीण की उपस्थिति और ‘अब जहाँ भी हैं वहीं तक लिखो रूदादे-सफ़र, हम तो निकले थे कहीं और ही जाने के लिए।’ के साथ उपन्यास सम पर आता है, सम पर क्योंकि ऐसे राग कभी टूटते नहीं, और पाठक एक आशान्वित सन्तोष के साथ किताब बन्द कर देता है कि अर्चना के पास उसी की तरह आदर्शवादी, कर्मनिष्ठ और सामाजिक सरोकारों से जुड़ा प्रवीण खड़ा है, जो इस सफ़र में सदा उसके साथ रहेगा, चाहे किसी भी रूप में।

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लक्ष्मी शर्मा

सेवानिवृत एसोसिएट प्रोफेसर- हिंदी, राजस्थान कॉलेज एजुकेशन। प्रकाशित कार्य- सिधपुर की भगतणें, स्वर्ग का अंतिम उतार (उपन्यास), एक हँसी की उम्र, रानियाँ रोती नहीं (कहानी संग्रह), स्त्री होकर सवाल करती है (फेसबुक पर स्त्री-सरोकारों की कविताओं) का संकलन-संपादन, मोहन राकेश के साहित्य में पात्र संरचना (आलोचना ग्रन्थ), आधुनिक काव्य संकलन (संपादन), इसके अतिरिक्त पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, एकांकी, बालकथा, आलोचना, पुस्तक-समीक्षा आदि प्रकाशित। अन्य- साहित्यिक पत्रिका ‘समय-माजरा’ एवं ‘अक्सर’ के संपादन मंडल से सम्बद्ध। ‘राजस्थान की लघु पत्रिकाएँ : कथ्य और कलेवर’ विषय पर शोध-कार्य।

संपर्क – 65, विश्वकर्मा नगर द्वितीय, महारानी फार्म, जयपुर-302018

ईमेल – drlakshmisharma25@gmail.com

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समीक्षित पुस्तक: रुदादे-सफ़र (उपन्यास), लेखक- पंकज सुबीर, प्रकाशक- शिवना प्रकाशन, सीहोर, कीमत- 300

 
      

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