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धीरेंद्र अस्थाना की आत्मकथा पर यतीश कुमार की टिप्पणी

प्रसिद्ध लेखक धीरेंद्र अस्थाना की आत्मकथा को आए कई साल हुए लेकिन अभी उसकी चर्चा मंद नहीं पड़ी है। आज कवि-समीक्षक यतीश कुमार ने राजकमल से प्रकाशित उनकी आत्मकथा ‘ज़िंदगी का क्या किया’ पर यह टिप्पणी लिखी है। और हाँ, यतीश कुमार काव्यात्मक समीक्षाएँ ही नहीं गद्य भी अच्छा लिखते हैं-

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जीवन कभी मामूली नहीं होता! कितना बड़ा सच है यह और शायद इसीलिए ज़रूरी है इस अनमोल यादों को कहीं एक जगह समेट लिया जाए जो रचनाकार की स्मृतियों में कहीं टंके रह जाते हैं बुरे,बदहाल,बदशक्ल, असुरक्षित और मजबूर समय और उन सारे पलों को याद करते हुए जब वह रचता है तो उसकी आँखों में प्रेम होता है और वह उन पलों को स्नेहिल भाव से रचता है ताकि प्रेम पाठकों की आँखों में चमके !

मैंने जितनी भी किताबें पढ़ी होंगी उनमें सबसे ज़्यादा आत्मकथा और संस्मरण हैं। हर संस्मरण एक दूसरे से भिन्न होता है क्योंकि यादें भिन्न होती हैं पर जो चीज नहीं बदलने वाली बात है वह है उनकी दुर्लभ यात्रा। हर बार की तरह इस बार भी इस आत्मकथा ने चौंकाया जब पढ़ा कि कच्ची दारू, पकौड़ी और सिगरेट में डूबे इस युवा को भभकाने वाले और कोई नहीं उनके पिता और उनका पूरा पितृत्व ही था।

दसवीं में रामलीला में गायन से बी. ए. तक आते-आते प्रूफरीडर का सफ़र कोई आसान तो नहीं ही होगा। इस किताब को पढ़ते हुए यह भी समझा कि लेखक नरक और स्वर्ग के बीच की सीढ़ी भी रचता है। संस्मरण लिखते हुए वह भीतर बैठी जटिलताओं को आज़ाद भी कर रहा होता है। लेखन के नेपथ्य में यायावरी और आवारापन न हो तो उसकी लेखनी की तासीर ठंडी रह जाती है। धीरेन्द्र जी और उनके अजीज यारबाज़ दोस्त देशबन्धु जी ने जिस ज़िंदगी को ज़िया उसे देख ‘यह भी कोई देस है महाराज’ वाले अनिल यादव की याद आयी।

छंग,कच्ची-शराब, ठर्रा, नशीली-चाय, हरी शराब, रम और व्हिस्की सब का घोल अस्थाना जी की लेखनी में घुला है जिसका आस्वाद जीवन की सच्चाई का क़रीब से दर्शन करवाता है और बार-बार छले जाने पर भी लेखक को मानवीय और संवेदनशील बने रहने में मदद भी करता है।

हिन्दी साहित्य जगत की एक विशेषता है कि वह नये का भरपूर स्वागत करती है पर अगर गुणवत्ता बनी नहीं रहती है तो उसे अस्वीकार्यता का दंश भी सहना पड़ता है। धीरेन्द्र जी की पहली कहानी लोग/हाशिये पर का स्वागत साहित्य जगत की इसी हृदय विशालता का प्रतिबिंब है। कहानी आयाम को अब पढ़ना ही होगा जिसने ललिता जी को धीरेन्द्र जी के जीवन से सदा के लिए जोड़ दिया। यह पढ़ते हुए मैं सच में बहुत रोमांचित था कि एक कहानी जीवन को इस मुक़ाम पर भी ला सकती है।

शुरुआती संघर्ष और ललिता जी के साथ का ज़िक्र जब भी आएगा आप को भावुक कर जाएगा। लेखक की भाषा, पत्नी का ज़िक्र आते ही तरल और संवेदना से ओत प्रोत हो जाती है जो पाठक के दिल पर सीधी दस्तक देती है और उसकी फुहार उसे भी भिगो जाती है। मुज़फ़्फ़रनगर, देहरादून बीच में लखनऊ और फिर दिल्ली और उसका ख़ौफ़ से लेकर मुंबई तक का सफ़र फिर वापस दिल्ली और फिर थक हार कर मुंबई, इन सब के पीछे का सच रोचकता से भरा है ।इन यात्राओं ने ललिता जी के साथ ने लेखकीय यात्रा में जो खाद पानी का कम किया उसे पढ़ना आपको प्रेरित भी करता है जिजीविषा की ललक को जिलाये जगाये रखने में।

उदय प्रकाश और धीरेन्द्र सक्सेना का दिनमान में शुरुआती संघर्ष और एक साथ काम करने का वाक्या भी बहुत रोचक है। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना भी वहीं काम करते थें। एक बहुत ही रोचक वाकया का ज़िक्र है कि क्यों सर्वेश्वर दयाल सक्सेना नन्दन जी के केबिन में एक ही ऑफ़िस में रहते हुए भी नहीं जाते थे ।

खुल जा सिम सिम का ज़िक्र जिस तरह से है उसे पढ़कर यही लगा इसे जल्द ही पढ़ना होगा ।

जाने हुए सच के बीच सहसा आँख खोल कर उसे ताकना ही तो संस्मरण है। इस किताब के कई हिस्सों को पढ़ते हुए लगता है धीरेन्द्र अस्थाना ने कितनी मासूमियत में डूबकर इस संस्मरण को लिखा है। यह बात राजेन्द्र यादव और हरि प्रकाश त्यागी वाले हिस्से में और ज्यादा दिखती है। जब वे यह बात भी इतनी ही मासूमियत से लिखते हैं कि पति पत्नी दोनों को रचनाकार नहीं होना चाहिए और रेणु का हवाला देते हुए लिखते हैं कि रेणु की पत्नी नर्स थी, और लेखक की पत्नी के लिए नर्स होना बहुत ज़रूरी है तो वही मासूमियत खल जाती है।

साहित्यकारों से इतर जब लेखक करमा डोलमा पर अपनी बात रखते हैं और रखते हुए अपनी लंबी कविता साझा करते हैं तो लेखक की वही मासूमियत एक तीव्र संवेदनशील भावुक व्यक्तित्व में बदल जाती है । डोलमा एक ऐसी लड़की जिसकी बस एक ही चाह है कि वह पढ़ सके जिसके लिये वह सुदूर पहाड़ पर चाय बेचती है ।

किसी उपन्यास के विमोचन में 600 लोगों का आना अभी भी एक रिकॉर्ड ही है। यह दर्शाता है कि धीरेन्द्र जी को कितने प्यार करने वाले लोग थे। यह सिर्फ़ किताब नहीं बल्कि रिश्तों की मिठास का भी असर था। इस आत्मकथा  को पढ़ने के ठीक पहले निदा फ़ाज़ली की दीवारों के बीच और दीवारों  के बाहर आत्मकथात्मक उपन्यास पढ़ा था तब नहीं जानता था कि दोनों मुंबई में एक दूसरे के इतने क़रीब रहे हैं। धीरेन्द्र जी के उपन्यास `गुज़र क्यों नहीं जाता’ का शीर्षक भी उन्हीं का दिया हुआ है जिसे पढ़कर प्रतिक्रिया देते समय राजेन्द्र यादव ने दीवारों के बीच का ज़िक्र भी किया था ।

इस लेखक का जीवन भी लहरों की तरह आरोह-अवरोह की श्रृंखला बनाते हुए बीता। एक पल हज़ार खुशियाँ तो दूसरे पल शून्य, निर्वात एकांत और उस नितांत में सिर्फ ललिता जी का साथ संबल जिनके साथ ने मंगलसूत्र तक बेच दिया ताकि धीरेंद्र अस्थाना को स्वाभिमान से साँस लेने के लिए कुछ पल और मिल जाये। वे पल कभी साल में बदल जाते कभी पाँच साल में पर हर बार लगभग खाली हाथ होकर एक नया मोड़ लेता। मुम्बई जाने से पहले दिल्ली में उनकी हालत या देहरादून से दिल्ली आने के बाद उनकी हालत खाली हाथ और सिर्फ खाली हाथ पर आश्चर्य इस बात का है कि नौकरी को लात मारने या अख़बार बंद होने के बाद नौकरी ढूँढने में हर बार साहित्य से जुड़े मित्रों ने अग्रजों ने मदद की जो हिन्दी साहित्य जगत का बहुत सकारात्मक पक्ष भी सामने लाता है।

संजय निरुपम के बारे में जो जानकारी मिली और जिस तरह जनसत्ता में धीरेन्द्र जी के साथ काम करते हुए उनका राज्य सभा तक पहुँचना एक रोचक हिस्सा है। उसी तरह राकेश श्रीमाल का सानिध्य मुझे उनकी जिंदगी के अंतिम तीन सालों में मिला और यहाँ संजय निरुपम के राजनीति में जाने के बाद उनका स्थान राकेश श्रीमाल ने लिया। जीवन की कड़ियाँ कहाँ कैसे जोड़ती हैं यह आश्चर्य की बात है।

इस संस्मरणात्मक आत्मकथा की एक और ख़ास बात है कि खानों का ज़िक्र बहुत तबियत से किया गया है। किस दोस्त ने कब कौन सा डिश बनाया कब क्या खिलाया ऐसे लिखा गया है कि पढ़ते हुए मुँह में पानी आ जाए। पढ़ते हुए आप आसानी से जान जाएंगे कि अंडा करी धीरेन्द्र जी की पसंदीदा डिश है। शराब और प्रकाश बीड़ी इस कथा के अन्तरंग मित्र हैं । धीरेन्द्र जी की दोस्ती की रेंज बड़े से बड़े जनकवि से लेकर कुणाल सिंह और चंदन पांडेय तक रहा है। एक सच्चा यारबाश । अनामिका शिव से पता चला उनका भाई धीरेन्द्र जी के घर पर रह कर पढ़ा है।

किताब के अंत में बहुत सारी तस्वीरों के बीच एक तस्वीर ललिता जी के साथ की है जो पूरे सफ़र की दास्तान कह रही है जिस पर नजर बारहा ठहर जाती है। इस सफ़र की कलाबाज़ियाँ बनी रहे आप यूँ यारों के यार बने रहें और संस्मरण के गोते से यूँ ही मोती निकालते रहें।

 
      

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5 comments

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    अच्छी समीक्षा है । नि:संदेह यतीश जी काव्य ही नहीं अपितु गद्य भी रुचिकर लिखते हैं ।
    साधुवाद!

  3. क्या लेख है! मुझे धीरेंद्र अस्थाना की आत्मकथा पर यतीश कुमार की टिप्पणी बहुत पसंद आई। उनका विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण वास्तव में नई अंतर्दृष्टि प्रदान करता है

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