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पल्लवी प्रसाद के उपन्यास ‘सूर्यावर्त’ का एक अंश

आज पढ़िए लेखिका पल्लवी प्रसाद के नए उपन्यास ‘सूर्यावर्त’ का अंश-
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बासवप्पा ईश्वरप्पा राव रसूखदार आदमी हैं। उनका रसूख पीढ़ियों पुराना है । बासवप्पा के पिता ईश्वरप्पा ने अंग्रेजी राज और उसके साथ ही अपनी जागीर के जाने का मातम मनाने में, अपना समय व्यर्थ नहीं किया। बल्कि उन्होंने अपनी पूर्व रियाया पर महाजनी की लगाम पहले से अधिक कस दी। इस देश में चाहे वह चंबल के बीहड़ हों अथवा दक्खिन का दुर्गम पठार, एक महाजनी का धंधा ही है, जो हर जगह और हर काल में निर्बाध फलता-फूलता रहा है। फिर ईश्वरप्पा के जमाने में, जब यह राष्ट्र नया-नया बना था तब आधुनिक बैंकिग व्यवस्था और उसका विकास नहीं हुआ था। इसलिये बैंकों के राष्ट्रीयकरण व अन्य प्रकार के आधुनिक निर्धारण का प्रश्न ही नहीं उठता है। यही कारण है कि महाजनी का अकूत धन रखने वाले सामंती पिता की छत्रछाया में बासवप्पा का बचपन और युवावस्था बड़े ऐशोआराम से कटे थे। दुनिया का ऐसा कोई शौक या कहिये ऐब नहीं, जिसका स्वाद बासवप्पा ने अपने जीवन में न चखा हो।
 
परंतु वे लोग जो बासवप्पा को आज, इस उम्र में देखते हैं, वे उनकी गुजरी हुई बातों व क़िस्सों पर यकीन नहीं कर पाते हैं। बासवप्पा के पके हुए बाल और दाढ़ी, क्षीण काया और झुर्रियों से भरा चेहरा देखने पर, वे कहीं के पहुँचे हुए संत-पैगंबर हों ऐसा जान पड़ता है। शहर के बाजार के ठीक बीचोबीच उनकी पुश्तैनी हवेली खड़ी है। जहाँ आज भी सपरिवार उनकी रिहाईश है। इस हवेली की इमारत अद्भुत है। इसका अगला हिस्सा शहर के मुख्य चौक पर खुलता है। और इस हिस्से का अत्याधुनिक ढंग से पुनर्निमाण करवाया गया है। जबकि हवेली का पिछला हिस्सा एक अन्य, बहुत पुरानी सड़क पर खुलता है। हवेली के सामने के हिस्से से बिल्कुल विपरीत, उसका पिछला हिस्सा इतना पुरातन है कि देखने वाले हैरत में पड़ जाते हैं…कि वह जर्जर हिस्सा कहीं उनकी नजरों के ताप से ही न झड़ जाये? आम तौर पर हवेली के नौकर-चाकर और मिलने के लिये आने वाले स्थानीय लोग, पिछवाड़े के हिस्से से ही आवागमन करते हैं। हवेली का आधुनिक और खूबसूरत अगला हिस्सा अक्सर शांत रहता है। वह हिस्सा घरवालों और उनके विशेष अतिथियों के उपयोग में ही आता है।
 
बासवप्पा स्थानीय लोगों के बीच सिर्फ ‘अप्पा’ नाम से प्रसिद्ध हैं। अप्पा को विरासत में जमीन और महाजनी, दोनों मिले हैं। एक ओर आजादी के बाद, उनकी पैतृक जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा चला गया और दूसरी ओर, समय के साथ-साथ सरकार महाजनी पर अपनी आँखें कड़ी करने लगी। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद, उनकी शाखाएँ बरसात में कुकरमुत्तों की मानिंद, सुदूर और दुर्गम इलाकों में खुलने लगीं। देश भर के विभिन्न व्यवसायिक क्षेत्रों में सहकारी आंदोलन शुरु हो गये अथवा कर दिये गये, जिन्हें सरकार का समर्थन ही नहीं, बल्कि प्रोत्साहन प्राप्त हुआ और वह आज भी उन्हें प्राप्त है। इसी सहकारिता ने अप्पा के पारंपरिक सामर्थ्य को अद्यतन किया है। सहकारिता के बदौलत, वे रूपयों के मालिक बने बिना ही, अपने धंधों में करोड़ों रूपयों का मनचाहा वारा-न्यारा किया करते हैं। आज अप्पा के पास जो भी है, वह उनकी पुश्तैनी मिल्कियत से कई गुना ज्यादा है। बासवप्पा, इस क्षेत्र के सहकारी उद्योगों और संस्थाओं के ‘तात्’ कहलाते हैं। चीनी कारखाना, सूतघिरनी (स्पिनिंग मिल), सहकारी ग्रामीण बैंक तथा अनेक स्थानीय वित्तीय संस्थाओं के बोर्ड पर अप्पा निदेशक नियुक्त हैं। और इतना ही नहीं, वे इस क्षेत्र के एकमात्र अभियांत्रिकी कॉलेज के मालिक भी हैं। इस प्रकार, इस क्षेत्र के लगभग सभी उद्यमों व उद्योंगों के व्यवसायिक निर्णयों और मुनाफों में अप्पा की दखल और भागीदारी रहती है। इससे ठीक विपरीत, तमाम व्यवसायों में होने वाले नुकसान, जनता के बीच साझा कर दिये जाते हैं, यही है सहकार! इस इलाके में होने वाली गन्नों और कपास की फसलें, अप्पा द्वारा संचालित सहकारी कारखानों में खपा करती हैं। साथ ही, ऋण के दुष्चक्र में फँसे यहाँ के किसान, अप्पा की सहकारी वित्तीय संस्थाओं में खप जाया करते हैं! गौरतलब बात यह है कि चाहे किसानी का काम हो अथवा कोई और उद्यम-उद्योग, यहाँ की धरती पर प्रत्येक व्यवसाय के वास्ते ‘कच्चा माल’ सुलभ है। इस प्रकार बासवप्पा दूर-दूर तक, अप्पा के नाम से जाने जाते हैं। अप्पा यानि पिता, बाप!
 
अप्पा साहेब ने अपना जीवन ‘मेक इट लार्ज’ के फ़लसफ़े पर बृहतर जिया है। लेकिन आज भी उनके जीवन का एक मकसद बचा हुआ है, जिसे वे पूरा नहीं कर पाये हैं। अब यह देखना बाकी रहता है कि जीवन के सांध्यकाल में वे अपनी यह उदेश्यपूर्ति कर पाते हैं, या नहीं? दरअसल वे औपचारिक रूप से प्रदेश का बाप बनना चाहते हैं, अर्थात वे राजनीति में उतरने का न जाने कब से अधूरा स्वप्न देख रहे हैं। वे प्रदेश चुनाव में अपने शहर से विधायक का टिकट हासिल करने के लिये एड़ी-चोटी की ताकत लगाते आये हैं, मगर अब तक असफल रहे हैं। उन्हें कोई ऐसा-वैसा टिकट नहीं चाहिए, बल्कि वे देश की सबसे बड़ी और पुरानी राजनीतिक पार्टी के चुनावी-टिकट पर अपनी निगाह लगाये बैठे हैं। जीवन में अप्पा साहेब ने कभी छोटा सोचा ही नहीं। परंतु राजनीतिक पार्टियों का अपना अलग गणित हुआ करता है। इसलिये हर तरह की काबिलियत रखने के बावजूद, पार्टी-टिकट पाने का उनका हर प्रयास अब तक नाकामयाब रहा है। हर बार, उनके हाथ शिकस्त लगी है। उनके द्वारा लक्षित पार्टी, हर चुनाव में अपनी तरफ से किसी मराठा प्रत्याशी को ही खड़ा करती आयी है। यह क्षेत्र, मराठा बहुल क्षेत्र जो है। और अप्पा के साथ मुश्किल यह है कि उनके पास सब कुछ है, सिवाय जाति के। वे मराठा जाति के नहीं, लिंगायत समुदाय के हैं। यह वह समुदाय है, जो यहां अल्पसंख्यक हैं। लिंगायत समुदाय भगवान शिव की उपासना तो करता है किंतु स्वयं को हिंदुओं से भिन्न मानता है। लिंगायत अपने मृतकों को अग्नि के सुपुर्द करने की बजाय, बैठी हुई मुद्रा में, जमीन में दफनाते हैं। अप्पा साहेब सदा अपने गले में लिंग और रुद्राक्ष धारण करते हैं। मगर वे हिंदुओं की तरह अपने ललाट पर भभूत या चंदन का तिलक नहीं लगाते, बल्कि लिंगायत होने के नाते चूना का तिलक लगाते हैं।
 
इस चुनाव में देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करने के लिये मजबूर हो गयी है। क्योंकि पिछले तीन चुनावों से लगातार विपक्षी दल की नेत्री वर्षा ताई बावलेकर, देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी द्वारा चुनाव के अखाड़े में खड़े किये गये प्रत्याशी को धूल-मिट्टी चटा रही है। तीन चुनावों में हारने के बाद, अब पुरानी-बड़ी पार्टी कुछ नया कर गुजरने को तत्पर हुई है। वह बूढ़े अप्पा साहेब को नहीं, परंतु उनके छोटे बेटे विजय राव को टिकट देने के लिये राजी हो गयी है। अंधा क्या माँगे? दो आँखें! इस बार पार्टी किसी युवा प्रत्याशी को खड़ा करने के पक्ष में है, सो अप्पा साहेब खुशी-खुशी अपने बेटे के हक में पीछे हट गये। उन्हें उम्मीद है कि उनकी बूढ़ी आँखों के सामने अप्पाओं की नयी पीढ़ी सिंहासनारूढ़ होगी। इस प्रकार उनके मंसूबे उनकी कल्पना से बेहतर पूरे हुए। क़ायदे से पार्टी-टिकट पर अप्पा साहेब के बड़े बेटे का अधिकार होना चाहिए। लेकिन जब अप्पा साहेब ने पार्टी को अपने छोटे बेटे का नाम प्रेषित किया, तो किसी को अचरज नहीं हुआ। क्योंकि यह बात सबको पता है कि अप्पा साहेब का बड़ा बेटा कुंद-जेहन है यानि दिमाग़ी रूप से कमजोर। इसी बात को लोग मुलायमियत से कहते हैं – बड़े भाऊ साहेब बिल्कुल भोला भंडारी हैं! बड़े भाऊ साहेब विवाहित भी हैं। और उनका ससुराल पक्ष अपनी बेटी के हित के लिये तेज-तरार और बहुत महत्वाकाँक्षी भी है, चूँकि ऐसे आदमी से बेटी का विवाह करके, उसका अहित वह पहले ही कर चुके हैं। यही कारण है कि अप्पा ने बड़े पुत्र अथवा पुत्रवधु को पीछे छोड़ते हुए, छोटे पुत्र का नाम पार्टी को प्रेषित कर दिया है। पार्टी-टिकट के लिये अप्पा साहेब के छोटे पुत्र के चयनित होने की बात जितनी अनायास प्रतीत हो रही है, शायद उतनी है नहीं। लगातार पंद्रह वर्षों से यहाँ के विधायक की कुर्सी पर आसन जमायी, वर्षा ताई बावलेकर कुनबी मराठा जाति-समुदाय से आती है। यही कारण है कि तीन चुनावों में अपने मराठा प्रत्याशी खड़े करने के बावजूद, विपक्ष की पार्टीयाँ वर्षा ताई से शिकस्त खा चुकी हैं। सो लाजिमी है कि पुरानी-बड़ी पार्टी के आला-कमान और उनके सलाहकारों ने, इस बार अपना दाँव बदला है। कहावत है न – कोशिश करते रहने वाले की कभी हार नहीं होती। आखिरकार अप्पा साहेब अपने लिये न सही, लेकिन अपने छोटे बेटे विजय राव के लिये पार्टी-टिकट खरीदने में सफल हो गये हैं।
 
“साँय्य…साँय…भट् भट् फट् फट् फट्…” अनगिनत मोटरसाइकलों पर पार्टी का झंडा सजाये और अपने माथे पर विजय राव के नाम की तिरंगी पट्टियाँ बाँधे, उनके कितने ही समर्थक सवार, दिन-दिन भर जिले के चप्पे-चप्पे में रैलियां निकाल रहे हैं। हर चौक-चौराहे पर लाऊड-स्पीकर से विजय राव के लिये वोट माँगे जा रहे हैं। शहर के घर-घर में पर्चे बँट रहे हैं, शहर की हर दीवार पर विजय राव की तस्वीर सज गयी है। लोकप्रिय गीतों की तर्ज पर चुनावी गीत और चुनावी नारों को बजाते हुए ऑटो-रिक्शा, नित्य सुबह-शाम गली-कूचों में फेरियाँ लगा रहे हैं। सदा उनिंदा रहने वाला यह शहर, अचकचा कर जाग उठा है। दुनिया के लिये पैसा हाथ का मैल होता होगा, लेकिन अप्पा के लिये मानो पैसा मन का मैल है। उनके मन में आ जायें, उतने रुपये वे जब चाहें हाजिर कर दे सकते हैं। आखिर, बासवप्पा राव सहकारिता के बादशाह हैं – ‘द को-ओपरेटिव किंग’!
 
शहर के बस-अड्डे के पास ही, टैक्सियों का अड्डा लगता है। विनायक इन दिनों अक्सर यहीं रहा करता है। किसी खास टैक्सी पर उसकी नियुक्ति नहीं हुई है। वह खानापूर्ती किया करता है, यानि वह इमरजेंसी ड्राईवर है। लेकिन उसे आशा है कि जल्द ही कोई टैक्सी-मालिक उसे अपनी किसी गाड़ी पर स्थायी ड्राइवर बहाल कर लेगा। इसलिये वह वहीं, अड्डे के आस-पास सारा दिन बना रहता है। जब किसी टैक्सी का ड्राइवर बीमार पड़ता है या काम पर आने से नागा करता है, तो उसके बदले उस टैक्सी की ‘स्टियरिंग’ पर विनायक हाजिर हो जाता है। इस प्रकार, अब उसे आये दिन काम मिलने लगा है और जीवन में पहली बार वह अनियमित रूप से कमाने लगा है।
 
इस शहर में रेल नहीं चलती है। इसलिये शहर का नाक, कान, आँख, जो भी है, सो यह बस-अड्डा है। इन दिनों रातोंरात बस-अड्डे पर फ्लैक्स-बोर्ड के बने रंगीन, गगन-चुँबी पोस्टर लगा दिये गये हैं। जिन पर बड़े, लाल अक्षरों से लिखा है ‘आपल्या वोट आपल्या नेता विजय राव ला द्या’ (अपना वोट अपने नेता विजय राव को दें)। फिर उसके नीचे, थोड़े छोटे अक्षरों में, आगामी दिनों में होने वाली जनसभाओं के स्थल और उनके समय की जानकारियाँ दी गयी हैं। विनायक एक छायादार पेड़ तले खड़ी, सफेद, इंडिका टैक्सी का टेक लिये हुए खड़ा है। अपने काम से खाली हुए, बैठे-खड़े हुए अन्य ड्राइवर बँधुओं के साथ वह गप्पें मार रहा है।
 
एक कहता है – ” देखो, अपने वाँ का राजकुमार खड़ा हुआ है…तो वह जीत भी सकता है! इसने ताई को हरा दिया तो?”
 
दूसरा अपनी मूँछों पर ताव देता है – ” काय का हरायेगा? ताई को हराना सोपा (आसान) आहे का…?”
 
इस बीच विनायक ने अपनी बात जोड़ी – “अपने मराठा लोग ताई के खिलाफ थोड़े ही जायेंगे?”
 
“ए रे…तू तो पहेलीच दफे वोट डालेगा? मालूम क्या, ये अपन लोग से उमर में छोटा है!” श्याम भी वहीं था और उसने हँसते हुए यह बात अपने यारों पर जाहिर की।
 
दूसरे ने विनायक के कँधे पर धौल जमा कर पूछा, “किस को वोट देगा बे?”
 
विनायक ने गंभीर हो कर जवाब दिया, “सोचूँगा। यह बताने की बात थोड़े ही है?”
 
पहला ड्राइवर जिस ऊँची जगह पर चढ़ कर बैठा था, वहाँ से कूद कर नीचे उतरा। उसने इस ओर, पास आते हुए किसी ग्राहक को देख लिया है। उस ग्राहक की तरफ लपकते हुए, उसने लापरवाही से अपनी पीठ के पीछे फिकरा उछाला – “किसको बी वोट डाल न डार्लिंग…अपन जैसों की हालत में घंटा नई फर्क पड़ने का! समझा क्या?”
 
“हो साहेब? किधर की सवारी साहेब?…सात रुपये किलोमीटर सादा रेट, दहा रूपये ए.सी. रेट।” ग्राहक सादे रेट से जाने की मंशा व्यक्त करता है। यहां आने वाले लोग अक्सर ‘सादा’ चुनते हैं। पहला ड्राइवर, ग्राहक का सामान अपनी गाड़ी की डिकी में डालने लगा। फिर ड्राइवर ने, आगे की सीट पर बैठ कर, चाबी घुमायी और गाड़ी स्टार्ट कर दी। वह पल दो पल ठहरा, उसने रियर व्यू मिरर में देखा। उसका ग्राहक पीछे की सीट पर सुव्यवस्थित बैठ गया है। ग्राहक ने गाड़ी का दरवाजा खींच कर बंद किया और ड्राइवर ने टैक्सी आगे बढ़ा दी। इधर जिस पेड़ की छाया में सभी एकत्रित हुए थे, उसकी निचली शाख पर, एक कौआ कहीं दूर से उड़ कर आया और बैठ गया। कौवा अपनी गर्दन निकाल कर काँव-काँव बोलने लगा। विनायक ने ऊपर देखा और शाख के नीचे जहाँ वह खड़ा था, वहाँ से जरा दूर हट कर खड़ा हो गया। ‘कौवे का क्या भरोसा…’ विनायक के मन में यह विचार आते ही, “टप्!” कौवे ने बीट कर दी।
 
विनायक आगे बढ़ता हुआ, होर्डिंग के नीचे आ कर खड़ा हो गया। उस होर्डिंग के चित्र के पीले रंग की जमीन पर, विजय राव की मुस्कुराती हुुई, सुदर्शन तस्वीर को वह टुकुर-टुकुर देख रहा है। आज से पहले उसने इतना सुंदर और कमसिन नेता नहीं देखा है। उम्र में वह उसे अपने करीब जान पड़ता है, परंतु सौंदर्य की बात और है! तस्वीर उसका मन अपनी ओर खींच रही है। न जाने वे कौन से लोग हैं, जिनके पास सब कुछ हुआ करता है – सुंदर रूप, जन्म, धन, संपत्ति, परवरिश, अवसर और भी न जाने क्या-क्या! विनायक के मन में कितने ही प्रकार के खयाल और भाव बनने-बिगड़ने लगे। इस वक्त, उसे विजय राव अपनी हसरतों का केंद्रबिंदु जान पड़ रहा है। तो क्या अकेले विनायक को ऐसी बातें महसूस हुआ करती हैं? नहीं। इन दिनों इस शहर में ऐसी बातें, जन-जन के मन में घुमड़ रही हैं। जनता तो परंपरा में रची-पगी चलती आयी है, उसे फोड़न-भर आधुनिकता का स्वाद-भर मिला है। ऐसे में अनायास ही, मानो जनता का सामना अपने पारंपरिक गौरव से हो गया है। सामंतवाद, लोकतंत्र का जामा पहन कर, सुसंस्कृत बन, जनता के समक्ष प्रकट हुआ है, उसका बहुमूल्य वोट माँगने। आखिर जनता सामंतों की विरासत है। इसलिये लोगों पर विजय राव का रँग गाढ़ा चढ़ रहा है। यहाँ के बूढ़ों को विजय राव मानो उनका पौत्र और अधेड़ों को वह अपना पुत्र समान प्रतीत होने लगा है। लोगों के दिलों से उसका रिश्ता जुड़ गया है। और शहर के युवाओं की तो मत पूछिये! वे विजय राव में अपनी प्रतिच्छवि देख रहे हैं, वह उनका अपना नायक है! विनायक इन्हीं प्रकार के भावों के वश में है और सामने लगी होर्डिंग को एकटक देखता ही जा रहा है।
 
सत्ता दल के होर्डिंग और पोस्टर भी शहर में आनन-फानन लग गये। मानो यह कोई जवाबी युद्ध-कार्यवाही हो। लेकिन उनके पोस्टरों व बैनरों पर अंकित लोकप्रिय नेत्री वर्षा ताई बावलेकर की प्रौढ़ व स्थूल छवियों में वह बात कहाँ? वर्षा ताई, बीती हुई आलू बोंडा (चॉप) हैं अर्थात वह बोंडा जो बासी हो गया है, जिसका स्वाद उतर गया है। जबकि बाहरगाँव के कॉलेज में डोनेशन दे कर पढ़े और कई प्रयासों के बाद, कम्प्यूटर इंजिनीयरिंग की शिक्षा प्राप्त करने में सफल हुए, विजय राव का नाम-मात्र जनता में नवीन आस-उल्लास भर देने के लिये पर्याप्त है। गर्म लहु की बात ही और होती है! क्या विजय राव वह न कर पायेगा, जो वर्षा ताई इतने बरसों से कर रही है? बल्कि ताई के बनिस्बत, विजय राव कहीं बेहतर नेता साबित हो सकता है। शहर के नुक्कड़-चौराहों पर चर्चा-बहसें जारी हैं। जनता के मन में नया विश्वास अँकुरित हो रहा है। विजय राव के रगों में राजसी रक्त बहता है! वह बासवप्पा का पुत्र, ईश्वरप्पा का पौत्र और राजाओं का वशंज है। सत्ता-पक्ष वाले कहते हैं, विजय राव राजनीति में अभी बच्चा है। उसे बहुत कुछ सीखना-समझना है। मगर जनता को इसकी फ़िक्र नहीं। क्या कभी शेर के बच्चे को शिकार कैसे करना है, यह सीखाने की जरूरत पड़ी है?
 
“अपना नेता कैसा हो – विजय राव जैसा हो!”
 
“विजय राव तुम आगे बढ़ो – हम तुम्हारे साथ हैं!”
 
भारी-बैठी हुई आवाजों से नारे बुलंद करते हुए, कई अगुवा बंदे विजय राव के समर्थकों का जुलूस लिये सड़क पर बढ़ रहे हैं। उनके पीछे चल रही भीड़ पूरे जोशोखरोश में उनके दिये गये नारे दुहरा रही है। जिस मुहल्ले से यह जुलूस गुजरता है, वहाँ के बाशिंदे कुछ दूरी तक शोर मचाते, नारे लगाते हुए, जुलूस के साथ जुड़ जाते हैं। दिन ढल रहा है और मर्द काम से अपने घरों को लौट रहे हैं। अपने घरों के दरवाजों पर खड़ी औरतें, जुलूस को चुपचाप देखा करती हैं। सड़क के किनारे उछलते-दौड़ते-खेलते बच्चे जुलूस को देखने के लिये ठहर जाते हैं। वे चुनावी नारों की नकल उतारते हैं और अपनी नकल पर आप हँसते-खिलखिलाते हैं। शाम का झुटपुटा घिर आया है। जुलूस के पीछे-पीछे, एक काले रंग की खुली मारुति जिप्सी, धीमी गति से बढ़ रही है। उसके पीछे बैठे बासवप्पा के पाबंद लोग, बाहर की ओर झुक-झुक कर, पीले रंग के पर्चे लोगों के हाथों में पकड़ा रहे हैं। इन पर्चों में कल दोपहर को होने वाली विजय राव की जन-सभा की विस्तृत सूचना दी गयी है। पिछले कई दिनों से ये पीले पर्चे शहर की हर दीवार और चप्पे-चप्पे पर प्रकट होते रहे हैं। अपने घर को लौट रहा विनायक, इस जुलूस से घिर गया। वह अपनी साइकल से उतर कर सड़क के एक किनारे खड़ा हो गया और जुलूस के वहाँ से गुजरने और अपने जाने का रास्ता खुलने का इंतजार करने लगा। उसका मन कौतुहल से भर उठा। वह अपनी आँखों पर जोर डालते हुए, जुलुस के अगुवा लोगों के बीच, अब तक सिर्फ तस्वीरों में दिखे प्रिय प्रत्याशी विजय राव को ढूँढने लगा। वह अपनी संभावी सुदर्शन सरकार का दीदार करना चाहता है। लेकिन अभी कहाँ? यह जुलूस तो महज पार्टी कार्यकर्ताओं और विजय राव के समर्थकों का जुटान मालूम पड़ता है। विजय राव को प्रत्यक्ष देखने के लिये विनायक को कल दोपहर उनकी जन-सभा में जाना होगा। यह भी ठीक है। लोगबाग हाथों में थमाया गया पीला पर्चा पढ़ रहे हैं और कुछ उसे बिना पढ़े ही, अपनी जेब में रख लेते हैं। औरतों के पास जेब नहीं है इसलिये उनका हाथ आदतन अपने ब्लाऊज़ में चला जाता है। वे अपने दाँत निपोर देती हैं और चंचल हो कर, आपस में कुछ कह-सुन कर हँसती हैं। ज्यादातर मर्द चुपचाप देख रहे हैं, जैसे औरतों की चुहल से वे बेखबर हों। कोई बात विनायक के समझ में आयी और वह अपनी साइकल घसीटता हुआ, उस खुली जिप्सी के ठीक पीछे आ कर खड़ा हो गया। उसके मन में चिंता उठी कि न जाने माँ को रास्ते में यह जुलूस मिला भी या नहीं? माँ के बारे में वह नहीं जानता, परंतु यह मौका वह स्वयं चूकना नहीं चाहता। विनायक ने दायाँ हाथ ऊपर उठाया और अपनी हथेली फैला दी। बासवप्पा के किसी आदमी ने उसके हाथ में पीला पर्चा थमाया, साथ ही एक चिकना नोट भी – पाँच सौ का है? वह यह तय कर पाता, इससे पहले ही जिप्सी के सामने की तरफ जोरदार हंगामा छिड़ गया! लोग “हो-हो” कर रहे हैं…विनायक ने चौंक कर देखा, कई पुलिसवाले जिप्सी गाड़ी के सवारों को माँ-बहन की गालियाँ दे रहे हैं। न जाने ये वर्दीधारी कहाँ से प्रकट हो गये हैं? “…मार! मार!” बासवप्पा के समर्थक-गण पुलिस के डंडों से बचने के लिये धक्का-मुक्की कर रहे हैं। ‘तड़-तड़-तड़ातड़…!’ तीन-चार पुलिसिया डंडे गाड़ी के बॉनेट पर बरस गये। कहीं से कोई चिल्लाया – “मादर च्…तेरी…!!!”
 
विनायक की साइकल के हैंडिल पर ‘धप्प’ की आवाज के साथ एक भारी झोला गिरा! उसने पीला पर्चा थामे-थामे ही, अपने हाथ से झोले को सड़क पर गिरने से रोक लिया। विनायक ने अपनी मिचमिचाई आँखों को उठा कर देखा, तो देखता क्या है कि जिप्सी में खड़े एक मोटे, काले-भुजंग आदमी ने उसे मानो अपनी मैली आँखों के फ्रेम में कैद कर रखा है, जैसे कोई कैमरा! विनायक का ध्यान बरबस उस आदमी की सोने का छल्ला पहनी हुई ऊंगली पर गया, जो ठीक उसकी दिशा में उठी हुई है और चेतावनी का इशारा करती हुई, हवा में रुकी है!…फिर ऊँगली ने हरकत की और उसे इशारा किया, वहाँ से चले जाने का। विनायक ने बुद्धि समेटी, अपने पिठ्ठु बैग में पर्चे-नोट के साथ उस मोटे का दिया हुआ झोला डाला और वह साइकल पर सवार हो कर, जहाँ से आ रहा था उसी दिशा में लौट गया। क्योंकि वह आगे कैसे बढ़ता, आगे तो पुलिस की धाड़ (रेड) पड़ी है! उसने साइकल चलाते हुए, झाँक कर पीछे की ओर देखा। तो वह क्या देखता है कि वे पुलिस वाले अब जिप्सी पर चढ़ गये हैं और बासवप्पा के आदमी और ड्राईवर नीचे सड़क पर खड़े हैं। सबकी तलाशी चालू है। एक-दो अनमने पुलिस वाले, मुहल्ले के लोगों से तफ्तीश कर रहे हैं। विनायक की तरफ किसी का ध्यान नहीं है, यह बात समझ में आते ही, विनायक ने अपनी साइकल की रफ्तार बढ़ा दी!
 
लेकिन विनायक जाता, तो जाता कहाँ? जिस रास्ते पर वह था, वह रास्ता उसके घर को न जाता था। इलाके को निरापद पा कर, वह रुक गया और चुपचाप एक पुलिया पर सुस्ताने और सोचने के लिये जा बैठा। अँधेरा पूरी तरह घिर गया है। नजदीक लगे बिजली के खंभे की रोशनी सड़क पर उजला वृत्त बना रही है। विनायक ने अपने पिठ्ठु बैग को पीठ से उतारा और अपनी गोद में रख लिया। उसने अधीर ऊंगलियों से बैग का मुँह खोला और चालाक निगाहों से अपने आस-पास मुआयना किया कि कहीं उसे कोई देख तो नहीं रहा? किंतु उसके और खंभे की रोशनी के उजले घेरे में उड़ रहे भुनगों के सिवाय, वहाँ कोई न था। यह जगह किसी नव-विकसित कॉलोनी के पिछवाड़े में पड़ती है। बहरहाल, विनायक ने उस मोटे आदमी के दिये थैले को बिना बाहर निकाले, पिट्ठु बैग के भीतर ही खोल कर देखा, तो अनायास उसके हाथ और फिर वह खुद सांगोपांग काँपने लगा – थर-थर-थर-थर…’इतके नोटां!’ उसकी थरथराती ऊंगलियाँ किसी दम तोड़ते हुए परवाने के परों की मानिंद, रुपयों की गड्डियों पर नि:शब्द बजने लगीं। ‘शंबर चे नाही…पाँच शे चे नोट (सौ के नहीं, पाँच सौ के नोट)!’ भगवान ही जानता है कुल कितना धन होगा इस झोले में!
 
अपनी पीठ पर पिठ्ठु बैग को दुबारा कस कर, जब विनायक उठ खड़ा हुआ तो उसने पाया कि उसकी टाँगें गुजराती मुहल्ले में नवरात्र में खेले जाने वाले जोड़ा-डांडिया सी लड़खड़ा रही हैं। यद्यपि वह अपने कदम सड़क पर आगे बढ़ाता है, तो उसकी टांगे ‘टकाटक’ बजने लगेंगी। लेकिन इस सुनसान इलाके में और अधिक ठहरना बड़ी मूर्खता होगी।
 
अप्पा साहेब की हवेली का बेनूर पिछवाड़ा, अँधेरे में डूबा हुआ है। पुराने बरामदे पर लगी लोहे की भारी ‘कोलैप्सिबल’ जाली बंद है। वहाँ मध्यम वॉट-पावर का बल्ब जल रहा है, जो बरामदे की रंग-झड़ी दीवारों को अधिक उदास जाहिर करता है। अहाते के अँधेरे का तो खैर, वह बल्ब भी कुछ न बिगाड़ पा रहा। विनायक की पसीने भरी हथेलियों ने जब बहुत देर तक, लोहे की जाली पर पड़े बाबा आदम-युग के ताले को बजा लिया, तब जा कर भीतर से किसी के आने की पदचाप उसे सुनायी दी। विनायक की यह मजाल न हुई थी, कि वह हवेली के वैभवशाली अगवाड़े पर जा कर, वहाँ के नक्काशीदार लैंप-जड़ित फाटक पर खड़ा हो कर, हवेली का बेल बजा देता। आगे का प्रवेशद्वार ‘राजाद्वार’ है। विनायक अपनी हैसियत के अनुकूल ‘प्रजा-द्वार’ पर खड़ा, जाली-ताला बजा रहा है। और तभी, उसकी हैसियत से मिलता-जुलता, एक दुबला-पतला, साँवला आदमी जो शायद यहाँ पर नौकर है, बरामदे में निकला और अँधेरे में खड़े, अनदेखे आगंतुक को उसने डपटते हुए पूछा –
 
“बाहेर कुण आहे, रे?”
 
शायद प्रजा-द्वार पर आने वालों के स्वागत में फटकार बरसाना यहाँ का तरीका होगा? या यह बात है कि रात बहुत हो चली है? दूसरा विचार मन में आते ही, विनायक को भान हुआ कि उसे समय का ठीक-ठीक पता भी नहीं! सिवाय इस बात के कि वह आज न जाने कब से कब तक, बाजारों में अपने होशोहवास गँवाये घूमता रहा है। वह उत्तर में हकलाया –
 
“मी-मी…विजय राव…भाऊ…भाऊ से मिलना है, मेरे को!”
 
“काय के वास्ते?” हवेली के नौकर जान पड़ने वाले आदमी के रूखे लहजे ने उसे फटकारा।
 
“उनको ही बताने का है…।”
 
“फिर कल आना!” – नौकर।
 
“दादा…आज ही? अभी-च…?” विनायक की आँखें मानो याचना में उबल पड़ीं।
 
नौकर को उसे इस तरह देख-सुन कर तिल भर भी फर्क नहीं पड़ा है, परंतु वह जानता है कि चुनाव का मौसम चल रहा है।इसलिये किसी मतदाता मानुष को हवेली के द्वार से धक्के मार कर बाहर निकाला नहीं जा सकता है। उसके ऐसा करने से, भाऊसाहेब की छवि मलिन हो सकती है।
 
‘कोलैप्सिबल’ का ताला व लोहे की जाली सस्वर खुले –
 
नौकर ने बरामदे से भीतर कमरे में जाने वाले, एक भारी दरवाजे को धक्का दे कर खोला और उस कमरे की छोटी बत्ती जलायी। उसने विनायक की ओर देख कर कहा, “थामा” यानी रुको। इतना कह कर, नौकर अंत:पुर में चला गया। विनायक ने चारों ओर अपनी नजरों को घूमा कर देखा। उसने देखा कि वह जिस बैठक में खड़ा है, उसकी सज्जा बहुत ही पुरानी और पारंपरिक है। शायद वह हवेली की पुरानी बैठक में आया है? ठीक ही तो है। नौकर, अपने बराबर अथवा अपने से कमतर औकात के आदमी को ‘बसा’ (बैठो) कैसे कहता? उसका हुलिया देख, नौकर उसे खड़ा रहने के लिये ही तो कहता! सो विनायक नौकर के लौटने के इंतजार में खड़ा रहा। थोड़ी देर बाद जब नौकर लौटा तो उसने किसी गूंगे की मानिंद, विनायक को अपने पीछे आने का खामोश इशारा किया। विनायक उसके पीछे-पीछे चल दिया। वे दोनों, हवेली के अँधियाले और अर्ध-रोशन गलियारों से गुजरने लगे। प्रतीत होता था, मानो हवेली में सोता पड़ चुका है। लेकिन विनायक को हवेली के दूसरे हिस्से में पहुँचने पर, थोड़ी चहल-पहल दिखायी देने लगी। नौकर अब विनायक को एक दूसरी बैठक में ले आया है। विनायक ने देखा, बैठक के भीतर बहुत रोशनी है और वहाँ कई सारे लोग बैठे हुए हैं। वे सारे लोग पुरुष हैं, उनके बीच कोई स्त्री या बच्चा उपस्थित नहीं है। इतनी देर रात तक यहाँ ठहरे हुए ये लोग, अवश्य ही राजनीतिक कार्यकर्ता या अप्पा के दरबारी होंगे। विनायक ने देखी हुई तस्वीरों की स्मृति से, पास ही बैठे एक युवक को पहचान लिया – विजय राव! विनायक को लगा, विजय राव उससे उम्र में कुछ साल ही बड़ा होगा। विनायक ने अपने कँधे झटक कर, पिठ्ठु बैग को उतारा और उसे खोल कर उस मोटे आदमी का दिया हुआ थैला निकाला। उसने किसी मूक प्राणी की तरह उस थैले को विजय राव के हाथों में दे दिया। उसे ऐसा करते हुए देख कर, वहाँ बैठी मंडली अवाक् रह गयी, खुद विजय राव भी। विजय राव ने वह थैला, अपने पास बैठे हुए एक आदमी को थमा दिया। पलक झपकाते ही, उस आदमी ने वह थैला वहाँ से गायब कर दिया, जैसे वह कोई जादूगर हो! विनायक ने आँखों ही आँखों में, थैला कहाँ गया यह जानने के लिये उस आदमी के नीचे-पीछे, इर्द-गिर्द, उसे ढ़ूंढने की विफल कोशिश की। विनायक के इस प्रकार बैठक में चले आने से वहाँ चल रही किसी तीव्र चर्चा में बाधा पड़ी है, ऐसा विनायक को महसूस हुआ। लेकिन उन लोगों ने अब पुन: आपस में बातें करना शुरू कर दिया है। विनायक उनके सामने हतप्रभ और गूँगा बना खड़ा रहा। उसे लगा, मानो उनके लिये अब वह वहाँ उपस्थित नहीं था। क्या थैले की तरह वह भी गायब हो गया है अथवा उसे गायब कर दिया गया है? एक छोटे कद और सफेद बालों वाले बुजुर्ग, जो शायद बासवप्पा हो सकते हैं, उन्होंने एक आदमी को कोई इशारा किया। बदले में उस आदमी ने विनायक का कँधा छुआ और उसे एक सोफे के किनारे बैठ जाने का इशारा किया। इतने पैसे वाले बड़े लोगों के बीच, जीवन में आज से पहले विनायक कभी नहीं बैठा है। उसे बहुत अटपटा लगने लगा। वह इस प्रकार डरता-डरता हुआ बैठा, मानो उसे किसी सोफे पर नहीं बल्कि सूई-कीलों के आसन पर बिठाया जा रहा हो। वहाँ कुछ देर बैठने के बाद, जब उसके होश तनिक लौटे, तो अपने कानों में पड़ती हुई उन लोगों की चर्चा, कुछ-कुछ उसके पल्ले पड़ने लगी। उसने देखा, जिस आदमी ने उसे वहाँ बिठाया था, वह उसी सोफे के पीछे खड़ा हो कर फोन पर किसी से बातें करने लगा है। वह अपने द्वारा कहीं भेजे गये, किन्हीं लोगों को इस हवेली पर लौट आने का आदेश दे रहा है। क्या वे लोग, जिन्हें अब हवेली पर लौटना है, विनायक को शहर में ढ़ूंढ़ने के लिये भेजे गये थे? पहली बार विनायक का ध्यान, अप्पा के ठीक सामने बैठे हुए एक आदमी पर गया। वह आदमी वर्दी पहने हुए है। वह कोई पुलिस अफसर है। उसकी वर्दी को देखते ही विनायक चौंक गया। उस आदमी के सीने पर लगा हुआ बिल्ला बताता है कि वह यहाँ का थाना-प्रभारी है। अब विनायक यह सोच कर घबराया कि क्या इन लोगों ने उसे पकड़ने के वास्ते पुलिस भी बुला ली है? उस मोटे आदमी ने थाने में जा कर, अवश्य ही उसके खिलाफ शिकायत लिखवायी होगी! लेकिन विनायक ने तो कुछ भी नहीं किया? विनायक ने ठान लिया कि वह इन लोगों को फौरन बता देगा कि वह बेकुसूर है…
 
“अप्पा साहेब, हम तो सरकारी मुलाजिम आदमी हैं। और वे लोग अभी सत्ताधीश हैं। उन्होंने आपकी कम्पलेन कर डाली, तो हमें मजबूरन रेड करनी पड़ी। ओनली औफिशियल साहेब, नथिंग पर्सनल। …पुलिस आपसे बाहेर थोड़े है साहेब? पुलिस जनता की सेवक है। हम आपकी सेवा के लिये ही हैं, सर।” – अफसर अपनी सेवा-भाव पर बारंबार जोर देते हुए, अप्पा को अपनी बात का विश्वास दिलाने का प्रयास कर रहा है।
 
“कितना राड़ा किया तुम्हारे आदमी लोगों ने, मालूम क्या तुमको? जनता की येइच् सेवा करती पुलिस?” अप्पा के पीछे खड़े एक कद्दावर शख़्स ने अफसर को घुड़कते हुए यह सवाल पूछा।
 
“बोला तो मैं आपको। दो नवे रंगरूट रेड-पार्टी में चले गये थे। अब उनकी नवी नौकरी है, नवी वर्दी…मैंने थाने पर बहुत झाँपा (डाँटा) है उनको! बालक हैं, क्या करें?” अफसर ने यह जवाब, अप्पा साहेब को मुखातिब हो कर ही दिया।
 
“नवी वर्दी की तो हम…” इस प्रकार बोल रहे उस कद्दावर आदमी को, अपने हाथ के इशारे से अप्पा ने बीच में रोक दिया। मानो उनके इशारे का तात्पर्य था – ‘बहुत हुआ।’ विनायक ने सोफे के कोने पर बैठे हुए, हैरत से यह देखा कि वह कद्दावर आदमी सविनय अपना सिर झुका कर, खामोश हो गया है। कितना पालतू है वह!
 
आखिरकार, दारोगा वहाँ से चलने के लिये खड़ा हो गया। माहौल को थोड़ा अन-औपचारिक बनाने के प्रयास में खिसियानी हँसी हँसते हुए, बिना किसी के माँगे ही उसने अपनी सफाई पेश कर डाली, “चलता हूँ, सर। वाइफ वेट कर रही होगी।”
 
बैठक के दरवाजे के बाहर, आगंतुकों द्वारा भीतर जाने से पहले, उनके द्वारा उतारे गये जूते-चप्पलों को रखने के लिये एक रैक रखा रहता है – ‘शू-रैक’। उसी रैक के ऊपर पुलिस अफसर की टोपी और डंडा भी रखे हुए हैं। रैक के निचले खाने में अफसर के जूते रखे हैं। पुलिस अफसर वहाँ रुका और उसने झुक कर पहले अपने जूते पहने। फिर शू-रैक से टोपी उठा कर अपने सिर पर रखी और डंडा बगल में दबाते हुए, वह जल्दी से बाहर निकल गया।
 
विनायक समझ नहीं पा रहा है कि इन लोगों ने उसे यहाँ इतनी देर तक क्यों बिठा रखा है? वे कुछ कहते भी नहीं। ऐसे में उसे बिल्कुल समझ नहीं आ रहा है कि उसे क्या करना चाहिये? आज शाम की सारी घटनाएँ उसके साथ इतनी अचानक और अप्रत्याशित रूप से घटी हैं कि वह मानो अभी तक किसी मंत्र के वश में है। वह इतना भावशून्य हो उठा है कि इनाम पाने का लालच या विचार भी उसके मन में प्रवेश नहीं किया है। वह तो जैसे मंत्रचालित सा यहाँ पहुँच गया है! अब जबकि वह पुलिस अफसर यहाँ से चला गया है और बैठक में हो रही चर्चा भी मानो शेष हो चली है, तो विनायक असमंजस में पड़ गया है। आखिरकार वह भी चलने के लिये उठ खड़ा हुआ। विनायक को उठता हुआ देख कर, बुज़ुर्ग बासवप्पा ने धीमी आवाज में उसे टोका और अपने पास बुलाते हुए कहा, “यहाँ आओ। मेरे पास बैठो।”
 
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विनायक अपनी रोटी खायेे जा रहा है। वह माँ को आज शीरी भाकर (बासी, ज्वार की रोटी) का उलाहना नहीं देता है।
 
आज विनायक के घर लौटने में देर होती देख कर, शोभा को लगा था कि वह आज अपने किसी दोस्त के घर से शायद खाना खा कर लौटेगा। वह कभी-कभार बाहर से खा-पी कर आया करता है। विनायक की थाली में परोसी गयी भाकर तो शीरी थी ही। उसके साथ परोसी गयी सब्ज़ी, किसी घर-मालकिन ने अपना फ्रिज खाली करने की गरज से शोभा को दे दी थी। सब्ज़ी भी बस ‘अब-तब’ में थी, समझो। लेकिन इतनी देर रात से घर लौटे विनायक को दिन भर का भूखा-प्यासा जान कर, उसकी आई ने अपनी मन की ग्लानि को छिपाते हुए, यह बचा हुआ खाना झट-पट उसके सामने थाली में रख दिया। शोभा जानती है कि इतनी देर रात बीते, अब ताजा खाना राँधने का समय कहाँ? भूखे बेटे के सामने, न ही कोई बहाना बनाने के लिये उसके पास मुँह बचा है। इसलिये उसने मिट्टी की हांडी में अपना दायाँ हाथ घुसा कर, बिना तेल और सिर्फ नमक में पगे और पके आम के अचार का एक सूखा फाँक निकाल कर, बेटे की थाली में रख दिया। वह डरती है कि कहीं विनायक उस पर बिगड़ न उठे। शोभा ने गहरी आँखों से गौर किया कि उसके सामने उसका विनू नहीं, सिर्फ विनू की भूख बैठी है। जो सबकुछ और जैसा भी हो, उदरस्थ किये जा रही है। उसका अपना विनू किसी दूसरी दुनिया मेें खोया हुआ है। बेटे को यूँ जीमता देख कर, शोभा का जी तरल हो आया। वह दुबारा उठी और उसने एक ढेला गुड़ अपनी मुट्ठी में दबा कर चूर किया और बेटे की थाली में दे कर, उसके ऊपर जरा सा मीठा तेल चूआ दिया, “ले, जरा तूप।” – वह बोली। तूप माने घी। जिन लोगों के बूते में देशी घी खाना नहीं होता है, वे तेल को घी कह कर, अपना गुजारा किया करते हैं। आखिर दोनों चिकनाई ही तो हैं! शोभा जब कभी विनू को खुश करने के लिए उन दोनों की चाय से बच गए थोड़े दूध में, पानी फेंट कर, शीरी भात और शक्कर मिला कर, खीर बनाती है तो बशी (प्याली) भर खीर के ऊपर इसी तरह ‘तूप’ चूआ देती है। जीवन में स्वाद और सुगंध के अभाव की भरपायी शब्द ही किया करते हैं।
 
“क्या आज रास्ते में जुलूस मिला था तुझे?” विनायक जब कमरे से बाहर जा कर, अपने जूठे हाथ धो रहा था, तब शोभा ने उससे यह सवाल पूछा।
 
“नहीं।” विनायक मुकर गया। उसने देखा, माँ ने अपने चेहरे का भाव एकदम व्यस्त बना लिया है। मानो विनायक के उत्तर पर उसने अपने कान ही न लगाये थे। विनायक जानता है कि माँ घबराती है कि अब कहीं यही सवाल वह उससे न पूछ ले। और वह यह भी जानता है कि ठीक उसकी ही तरह वह भी झूठ बोल देगी। माँ यह बात उस पर कभी नहीं जाहिर करने वाली है कि आज उसे अचानक पाँच सौ रूपये, ऊपर से प्राप्त हुए हैं। सोचने वाले सोचेंगे कि वह ऐसा क्यों करेगी? इसलिये, क्योंकि वह ऐसी ही है – तुरंत में अपना धन-लाभ छुपा लेने वाली और उनको ले कर सदा संशय में जीने वाली। खुद विनायक ने ही शोभा को कहाँ बताया है कि उसे आज अप्पा साहेब ने उनका थैला लौटाने की एवज में हजार रुपयों का इनाम बख़्शा है? और उसने यह भी तो नहीं बताया कि आज उसे रास्ते में जुलूस मिला था? न ही उसने यह बात बतायी कि जुलूस-वालों ने उसे पाँच सौ रूपये दिये थे। इन बातों पर वह अभी-अभी, अपनी माँ से साफ झूठ बोल गया है। वह भी तो अपनी माँ जैसा ही है। सदा संशय में जीने वाला।
 
आज शाम हवेली की नयी बैठक में, वह पहली बार सयाने और दुनियादार मर्दों की सभा में बैठा है। चाहे उसे अपनी सगी माँ पर विश्वास न हो, परन्तु विनायक जो एक बिना बाप का लड़का है, आज ही मिले उन नितांत अजनबी पुरुषों पर पूरा-पूरा यकीन रखना चाहता है। कितने पैसेवाले हैं वे आदमी और कितने साधनसंपन्न! उन सभी के जीवन में कितनी सार्थकता है। उनकी दुनिया कितनी विशाल और रहस्यमयी होगी? वे मर्द उसकी तरह नहीं हैं, जो अपनी आई की गाँठ से बंधा हुआ एक मरगिल्ला पिल्ला है। वह माँ की कमायी हुई रूखी-सूखी रोटियों पर पलता आया है। यह सोच कर विनायक को अपनेआप से हिकारत महसूस होने लगी। उससे अच्छा चमक्या है जो कम से कम अपने मन का मालिक तो है! वह अपनी मर्जी से अपनी भूख मिटाता है। किसी पत्थर चलाने या लात मारने वाले को वह काट सकता है और जाड़ों में जिसके हमशक्ल पिल्ले हर गली में दिखायी पड़ते हैं, अपनी माँ का दूध चटोरते हुए।
 
अप्पा साहेब ने विनायक को अपने पास बिठा कर, उससे उसका परिचय पूछा था। वह उन्हें क्या बताता, अपने नाम के सिवाय? उन्होंने जब उसका काम जानना चाहा, तब वह क्या बताता गाड़ी-चालक होने के सिवाय? अप्पा साहेब के करुणामय बर्ताव से, उसे लगा था कि शायद वे उसे अपने यहाँ काम पर रख लेंगे? विनायक बहुत चाहते हुए भी यह पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था कि वे उसे कच्ची नौकरी पर रखेंगे अथवा उसे उनकी कोई गाड़ी नियमित रूप से चलाने के लिये मिलेगी? विनायक याद करता है, उस वक्त कैसे अप्पा साहेब अपने लोगों से मुखातिब होते हुए बोले थे कि उन्हें सिर्फ आदमी नहीं, ईमानदार आदमी की जरूरत है। संसार के हर बेईमान आदमी को ईमानदार मातहत चाहिये। यही कारण है कि दुनिया के सारे ईमानदार लोग, बेईमानों के लिये काम किया करते हैं। लेकिन ऐसी बातों से विनायक का क्या लेना-देना है? उसने अपने जीवन में पहली बार किसी के पुरुष का वात्सल्यपूर्ण पोस महसूस किया है। वह भी अप्पा साहेब का पालतू बनना चाहता है। जैसे वह डरावना, कद्दावर आदमी पहले-पहल बना होगा! यह बात भी कितनी अजीब है कि अनगिनत रूपयों के जिस झोले को संभालते हुए विनायक सारी शाम थरथराता रहा था, अपने हाथ से निकल चुके उस धन का दु:ख मनाने की जगह, वह अन्य बातों और वाक्यात को अपनी स्मृति में बारंबार दुहरा रहा है? अप्पा साहेब, विजय राव, उनके आदमी और वह पुरानी-नयी हवेली में घटित हुए अनेकानेक दृश्य और संवाद उसके मन-मस्तिष्क में गूँज रहे हैं, घूम रहे हैं। अवश्य ही विनायक पर कोई भयानक विपरीत ग्रह या नक्षत्र का दुष्प्रभाव रहा होगा कि वह प्राप्त धन को हवेली पर इस प्रकार लौटा आया? ऐसी बेवकूफी कौन करता है भला? जिसे भी यह बात की खबर लगेगी, वही विनायक को मूर्ख-शिरोमणि ठहरायेगा! सिर्फ मूर्ख नहीं, पागल! लेकिन भला यह बात कोई जानेगा ही क्यों? विनायक अपनी आई से भी कुछ नहीं बोलेगा! आई उसकी जगह होती तो वह ऐसा काम कभी नहीं करती! वह जानती, तो उसे भी ऐसा कभी नहीं करने देती। उसकी आई को घर-मालकिनों द्वारा कितनी ही बार काम से निकाल दिया गया है। कभी हाथ-घड़ी, तो कभी कोई अन्य कीमती सामान चुराने के आरोप में। अपने मालिकों के बटुओं से रुपये चुराना आई के बाँये हाथ का खेल है। न जाने तब विनायक की मति कैसे मारी गई? उसने क्या सोच कर हाथ लगा धन लौटा दिया? इतना कुछ गँवा देने के बावजूद, फिलवक्त विनायक को इन बातों की चिंता नहीं सता रही है। उस पर तो हवेली का जादू इस कदर चढ़ रहा है, जैसे देह का बढ़ता हुआ ताप हो! बार-बार वही दृश्य, वे ही लोग, उनकी ही बातें…विनायक के दिमाग में चक्कर लगा रहे हैं।
– पल्लवी प्रसाद।
 
      

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