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मेरी माँ बढ़िया जलेबी बनाती थी, मैं कहानियों की जलेबियाँ उतारती हूँ- अलका सरावगी

आज पढ़िए प्रसिद्ध लेखिका अलका सरावगी और कवि-कथाकार अर्पण कुमार की बातचीत-

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अपनी दादी से गहरे जुड़ी अलका के भीतर पीढ़ियों से जुड़ाव के सूत्र दरअसल उनके बचपन से जुड़ते हैं। लीक से हटकर सोचने-चलने वाली कथाकार की कथा पुरानी है और अपने आसपास की साधन-संपन्नता और उसकी चकाचौंध से बग़ैर आक्रांत हुए उसके पीछे जाकर देखने की ज़िद भी। यह निरपेक्षता, लेखकीय स्वीकृति के बाद भी पूर्ववत् बनी और अपनी राह चलती रही। अलका सरावगी की कहानियों के दो संग्रहों- ‘कहानी की तलाश में’ (1996) और ‘दूसरी कहानी’ (2000) में तीस से अधिक कहानियाँ हैं। कुछ कहानियाँ इन दो संग्रहों से बाहर भी हैं। अब उनकी सभी कहानियाँ हाल ही में प्रकाशित उनकी संपूर्ण कहानियाँ संग्रह में पढ़ी जा सकती हैं। उनकी कहानियों में ख़ूब कथा-रस है और गझिन बुनावट भी। एक समय था, जब वे झटपट-झटपट कहानियाँ लिखा करती थीं। उनके यहाँ कहानी-उपन्यास के बीच की आवाजाही रोचक है। उपन्यास विधा के साथ उनके लेखक की एकमेवता से ख़ैर हम सभी परिचित हैं। सर्जनात्मक बतकही में उठते-बैठते हुए देखे कई स्वप्न रचनाकार के अवचेतन में गहरे पैठते चले गए। सुदीर्घ समय की कोख में दर्ज़ विभिन्न अजीबोगरीब घटनाओं को कलात्मक और कथापरक ढंग से रखना आसान नहीं था, मगर अलका के रचनाकार ने इस चुनौती को स्वीकारा और ‘कलि-कथा वाया बाइपास’ जैसा उपन्यास संभव हुआ। पेंचदार यथार्थ को रोचक तो कुछ कौतुक भरे मोड़ों के साथ प्रस्तुत करते जाने की कोशिश उनके परवर्ती उपन्यासों में भी ख़ूब दिखाई पड़ी। उनकी ओर से उठाए जानेवाले कथ्य औपन्यासिक स्थापत्य में ही फिट आते हैं। उन कृतियों में उठाए गए विषय अपना शिल्प स्वयं ढूँढ़ते हैं।

उनका जन्म नवम्बर, 1960 में कलकत्ता (कोलकाता) में हुआ। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से रघुवीर सहाय पर अपना शोध-कार्य किया। वे दुनियादारी से अमूमन दूर रहीं। उनकी माँ को हरदम यह लगता था कि उनकी बेटी कुछ दुनियादारी सीख ले, मगर अलका का स्वभाव सृजन की दुनिया में रमता था। एक गृहस्थिन के रूप में उन्हें कई दिक़्क़तें आईं मगर कलम जो एक बार पकड़ी, फिर छोड़ी नहीं। उनके पहले उपन्यास ‘कलि-कथा:वाया बाइपास’ (1998) पर उन्हें वर्ष 2001 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। उसके शिल्प और कथानक ने पाठकों/आलोचकों को चौंकाया। उस उपन्यास के बहाने आलोचक एवं कवि विजय बहादुर सिंह अलका के रचनाकार में कोई ‘व्याकुल मनोलोक’ पाते हैं जो ‘आज ऐसी स्वाधीनता का आग्रहशील है जिससे उसका समय और समाज आत्म-साक्षात्कार और आत्मालोचन की प्रक्रिया से साथ-साथ गुज़र सके।’ उसके प्रकाशन को एक घटना की तरह देखा गया। वह उपन्यास उर्दू, मराठी, गुजराती, मलयालम, उड़िया, बाँग्ला, अँग्रेज़ी सहित इटालियन, फ़्रेंच, जर्मन, स्पैनिश भाषाओं में अनूदित है। भारत सहित विश्व के कई विश्वविद्यालयों में वह कोर्स में पढ़ाया जा रहा है। उनके परवर्ती उपन्यास हैं- ‘शेष कादम्बरी’(2001), ‘कोई बात नहीं’ (2004), ‘एक ब्रेक के बाद’ (2008), ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ (2015), ‘एक सच्ची झूठी गाथा’ (2018), ‘कुलभूषण का नाम दर्ज़ कीजिए’ (2020), ‘गांधी और सरलादेवी चौधरानी : बारह अध्याय’(2023)। बाँग्ला, अंग्रेज़ी, इटालियन में अनूदित ‘शेष कादम्बरी’ को के. के. बिरला फ़ाउंडेशन का बिहारी पुरस्कार प्राप्त हुआ।. ‘एक ब्रेक के बाद’ का इटालियन, कन्नड़ और मलयालम में अनुवाद हुआ। ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ को अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा पुरस्कार दिया गया। ‘कुलभूषण का नाम दर्ज़ कीजिए’ को कलिंगा लिटफ़ेस्ट के ‘बुक ऑफ़ द ईयर अवार्ड’ (2021) और वैली ऑफ़ वर्ड्ज़, देहरादून के अवार्ड (2021) प्राप्त हुए। यह बाँग्ला में अनूदित है।

पूरी शिद्द्त और बेबाकी से कही गई गाथा अपने उतार-चढ़ाव के साथ पाठकों को बाँधे रख पाती है। पीढ़ियों, परस्पर भिन्न स्वभावों को संग-साथ लेकर चलना और हरेक के पक्ष और दृष्टि को समान लगाव के साथ लेकर आगे बढ़ना और इन सबसे एक सर्जनात्मक कोलाज बनाना– उनके उपन्यासकार की विशिष्टता कही जा सकती है। वे सहज भाव से कहती हैं- ‘जीवन इतना विविध है, दोहराव का क्या काम!’

बीच-बीच में ह्यूमर की गुदगुदाती छींटों के बीच रचना को आगे बढ़ते पाना और उनसे रचनाकार के स्वभाव को समझना उनके पाठकों का हासिल होता है। पाठ का रचाव पाठ के प्रभाव से मानो संगत करने लगता है। इसे एक बड़ी लेखकीय सार्थकता के रूप में देखा जा सकता है। लोगों की अटकलों से विपरीत उनके यहाँ शेष हरदम अशेष रहता है। हिलती हुई इमारत में पूरा शहर करवट लेता दिखता है। समय की कथा समुदाय, शहर, देश-विशेष से आगे निकल एक बड़ा वृत्त रचती चलती है, जिसमें विश्व की कई प्रमुख घटनाओं के तार आपस में जुड़ते दिखते हैं। अन्याय और भेदभाव के ख़िलाफ़ लड़ती मानवता के दर्द अपना एक कम्यून बनाते चलते हैं। पहचान के संकट और उसको दर्ज़ करने की छटपटाहट अलका के यहाँ हरदम क़ायम रहती है। एक के बाद एक कई औपन्यासिक कृतियों में हम  इसे सहज ही पाते हैं। ऐतिहासिक उपन्यासों के संदर्भ में वे कल्पना को घटनाओं को परस्पर जोड़ने के सूत्र के रूप में देखती हैं। वे कुछ रचते हुए अपने उद्देश्य को लेकर स्पष्ट रहती हैं। अपनी रचनाओं को सायास चटखारेदारे, मसालेदार बनाने से बचती हैं। तेरह हलफ़नामे (2022) नाम से अनुवाद की उनकी किताब में ग्यारह भारतीय भाषाओं से तेरह महत्त्वपूर्ण भारतीय स्त्री-कथाकारों की कहानियों को हम हिंदी में पढ़ सकते हैं।

अपने पाठकों से सीधा जुड़ने की उत्सुकता और मंशा उनके रचनाकार को नित्य नवीन करने की ऊर्जा देती है। रचनाकार की कई बार प्रकट रूप से दिखती अव्यावहारिकता और खीझ में रचना-मात्र के प्रति समर्पित उसका एकनिष्ठ मन होता है। देखें तो यह भी दिखे। खोजें तो यह भी मिले। दयावती देवी मोदी स्त्री-शक्ति सम्मान (2022) और फ़क़ीरमोहन सेनापति सम्मान (2023) से सम्मानित अलका सरावगी की निजता के कुछ अनछुए पृष्ठ भी इस संवाद में हम पढ़ सकेंगे, जो बताते हैं कि किसी रचनाकार का व्यक्तित्व छोटी-बड़ी किन बातों से नाभिनाल-बद्ध होता है!

वे फ़्रांस, जर्मनी, इटली, ब्रिटेन, नॉर्वे, मॉरिशस जैसे देशों में पुस्तक मेलों और साहित्यिक सेमिनारों में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं। वे देश-दुनिया के विभिन्न हिस्सों में जिस तरह साहित्यिक कार्यक्रमों में शिरकत कर रही हैं, लेखकों-पाठकों के साथ उनके जुड़ाव की ललक हम उनमें पाते हैं।

अर्पण कुमार

  1. आप मारवाड़ी समाज से आती हैं। इसका बड़ा रचनात्मक प्रयोग कलि-कथा:वाया बाइपासमें और अन्यत्र हो पाया है। अगर उपन्यास के केंद्रीय चरित्र किशोर बाबू की बात करें, 1925 में उनका जन्म होता है। जैसे ही, किशोर बाबू, मुख्य पात्र के रूप में यहाँ कल्पित/ अवतरित होते हैं, उनकी और पूर्ववर्ती-परवर्ती पीढ़ियों की कई कहानियाँ हमारे सामने आने लगती हैं। किशोर बाबू उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो भारत की आज़ादी के कुछ अंतिम वर्षों में अपने फ़ॉरमेटिव ईयर्स में थे। इस उपन्यास में कई अंतर्कथाएँ चलती हैं। यहाँ विस्थापन, बंगाल के अकाल, द्वितीय विश्व युद्ध, आज़ादी की लड़ाई, द ग्रेट कलकत्ता किलिंग आदि कई ऐतिहासिक घटनाएँ, क़िस्सों और पके अनुभवों के-से रोचक और प्रामाणिक ढंग से आते हैं। मुख्य किरदार किशोर बाबू से जुड़े कई छोटे-बड़े प्रसंगों को यहाँ पर जगह दी गई है। इससे, समय और स्थान का एक बड़ा फलक, हमारी आँखों के सामने धड़कने लगता है। सवाल यह कि एक बड़े युग-बोध को ठीक-ठीक कैसे सँभाला जाए, स्वयं अपने लिए आप इसका किस तरह ध्यान रखती हैं?

जब मैं ‘कलिकथा वाया बाइपास’ लिख रही थी, तब भारत अपनी आज़ादी की पचासवीं वर्षगाँठ मना रहा था। बहुत सी बातें हवा में थीं जिनमें बीते समय का नॉस्टैल्जिया था, अफ़सोस था और ग़ुस्सा भी। रघुवीर सहाय पर मेरा शोध पिछले साल ही पूरा हुआ था और मेरे मन में 1967 में लिखी उनकी कविता गूँजती थी;

बीस वर्ष

खो गये भरमे उपदेश में/

एक पूरी पीढ़ी जनमी पली पुसी क्लेश में/

बेगानी हो गयी अपने ही देश में…”

मेरे पास एक खिड़की थी जो इस बेगानी हो गयी पीढ़ी के मन में खुलती थी। मैं इस खिड़की को बिना चूक के रोज़ खोलती और घंटों उसके दुःख-संताप को महसूस करती थी। मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस भी मुझे वहाँ अक्सर दिखता जो दूसरों के किए पापों के लिए अपनी चमड़ी छीलता रहता। दूसरी तरफ़  रघुवीर सहाय की कविता के ‘सफल लोग’ मेरी दुनिया को आबाद किए हुए थे। एक सफल व्यक्ति का हार्ट बाइपास हुआ और मेरी कल्पना की छलांग में वह अपनी सफलता के पैमानों से विरक्त होकर समय में उलटे पाँव चलता, बेगानी हो गयी पीढ़ी में शामिल हो गया। फिर क्या था! वह सड़कों पर बदहवास सा फिरने लगा। मारुति गाड़ी में वह न बैठे क्योंकि इसका पैसा विदेश जाता है! सड़क पर पेशाब करते, दीवार की तरफ़ मुँह कर उकड़ूँ बैठकर खाते लोगों पर नोट लिखने लगा। ज़ाहिर है कि उसके ‘सफल’ परिवार ने मनोचिकित्सक के पास उसका इलाज शुरू किया।

चूँकि समय उल्टे पाँव ही चल रहा था, उसके पुरखे 1857 के ग़दर से लेकर प्रथम विश्वयुद्ध की कलकत्ते की कमाई से बनी राजस्थान की हवेली तक उसके साथ हो लिए। पर बेगानापन झेलती 1997 में बुजुर्ग हो गयी पीढ़ी के आदर्श और सपने तो गाँधी-सुभाष ने गढ़े थे। पिछली शताब्दी के चालीसवें दशक में उसने कितना कुछ देखा-झेला था: दूसरे विश्वयुद्ध में कलकत्ते पर गिरे बम की आवाज़ें, बंगाल का तिरालिस का अकाल, छियालीस में ग्रेट कलकत्ता किलिंग का दंगा और फिर आज़ादी! वह आज़ादी जो अब पचास साल बाद भुखमरी, भ्रष्टाचार और विदेशी कम्पनियों की झंडे के तीन रंगों वाली गाड़ियों के साथ अपना जश्न मना रही थी। बस यही युगबोध था जिसे जितना देखा-समझा, उसे जैसे-कैसे लिखा जाए, लिखना चाहा था। उसमें दूर देश से प्रवासी चिड़ियों की तरह कलकत्ता शहर में आ बसी व्यापारिक जाति के इतिहास के साथ अनायास शहर का इतिहास और आज़ादी की लड़ाई का ताना-बाना बुना हुआ था। इस लम्बे दौर में परिवार-समाज से लेकर देश के स्तर पर बदलते मूल्यों की टकराहट तो थी ही, जो कथा की सतह के नीचे लगातार प्रवाहित थी।

  1. पद्मा सचदेव को 31 वर्ष की उम्र में साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। अमृता प्रीतम को 1956 में जब साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ, तब इस पुरस्कार से सम्मानित होनेवाली किसी भाषा की वे पहली महिला थीं। मगर, तब वे 37 वर्ष की थीं। हिंदी में जिस लेखिका को पहली बार साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ, वे कृष्णा सोबती हैं। ज़िंदगीनामा उपन्यास के लिए उन्हें 1980 का यह पुरस्कार प्राप्त हुआ। महादेवी वर्मा को साहित्य अकादेमी पुरस्कार तो प्राप्त नहीं हुआ, मगर 1971 में साहित्य अकादेमी की सदस्यता ग्रहण करने वाली वे पहली महिला थीं। हाँ, वर्ष 1982 में उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से ज़रूर सम्मानित किया गया। हिंदी में कृष्णा सोबती के बाद इस पुरस्कार से सम्मानित होनेवाली आप दूसरी स्त्री-रचनाकार हैं। जब आपके पहले उपन्यास कलि-कथा वाया बाइपास पर आपको वर्ष 2001 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला तो उस समय की अनुभूति के बारे में कुछ बताएँ। 41 वर्ष की उम्र में मिले इस सम्मान से आपके रचनाकार पर क्या प्रभाव पड़ा?

मेरे ख़याल से हिंदी में सारे लेखकों में मुझे ही अब तक सबसे कम उम्र में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है। जैसा कि मैंने आपके पहले प्रश्न पर ही बताया था कि मेरी दुनिया की आबादी  ‘सफल लोगों’ से भरी थी। उसमें रहते हुए एक पूछ-विहीन हिंदी लेखक होना, जिसे न कोई ख़ास पारिश्रमिक मिलता है न रॉयल्टी, कोई आसान काम नहीं है। साहित्य अकादेमी पुरस्कार ने मुझे लेखक बने रहने की सहूलियत और वैधता दी। मैंने कुछ चैन की साँस ली। दूसरी तरफ़ मेरी जो दत्तक ली हुई बेचैन दुनिया थी, उसे बहुत डर था कि लेखन की शुरुआत में मिल गया इतना बड़ा पुरस्कार मुझे ख़त्म कर देगा। मुझे उसे बहुत आश्वासन देना पड़ा कि एक महज़ पुरस्कार मेरे अंदर बैठे लेखक का किरदार बदल नहीं पाएगा। इस दुनिया ने इस पुरस्कार को उपलब्धि न बनाकर मेरे लिए एक चुनौती बना दिया। बहरहाल, मेरे लिखने पर पुरस्कार ने कोई असर न डाला। मैं तो आज़ादी से लिख ही रही हूँ।

  1. आपकी चालीस के आसपास कहानियाँ हैं। उनमें से किन कहानियों को आप अपनी पसंदीदा कहानियों में रखना चाहेंगी और क्यों?

लगभग हर कहानी ने मुझे लिखने की एक नई शैली और नई थीम दी है। इस अर्थ में मुझे सभी कहानियाँ अपनी यात्रा का एक अभिन्न हिस्सा लगती हैं। वैसे ‘एक पेड़ की मौत’, ‘पार्टनर’, ‘कन्फ़ेशन’ आदि कुछ कहानियाँ मुझे विशेष रूप से प्रिय हैं क्योंकि इनके कथा-रस में एक अलग तरह की उड़ान है।

  1. आपकी पहली कहानी आपकी हँसीमें लोगों की नज़र में पागल माने जाते पात्र के साथ कथावाचक अनायास ही जुड़ता चला जाता है। उसमें आपके चर्चित औपन्यासिक पात्र किशोर बाबू और कुलभूषण कुछ-कुछ दिखाई देते हैं। कहानी की तलाश मेंके वृद्ध में भी किशोर बाबू की झलक है। इकहरी संरचना की कहानी मिसेज डिसूजा के नाममें सुस्मिता गुप्ता के पत्र के माध्यम से जीवन के कई मूलभूत प्रश्न उठाए गए हैं। विशेषकर विद्यालयों में (जहाँ बच्चे गढ़े जाते हैं) बच्चों के प्रति हो रहे बर्ताबों को लेकर। अँधेरी खोह में’, ‘महँगी किताब’, ‘एक पेड़ की मौतकहानियाँ अपने-अपने स्तर पर कहन-शैली से दो-चार होती हैं, वहीं पिस्सू और कलमघिस्सू’, ‘कलम-तंत्र की कथाएँसरीखी कहानियों में कहानी विधा को लेकर विचार है। …ज़ाहिर है, ये सभी कहानियाँ काफ़ी पहले की हैं। जब कभी आप स्वयं इनकी ओर पलटती हैं तब आपको कैसा लगता है? इनसे और अपनी अन्य कहानियों से जुड़ी कुछ और बातें भी बताएँ।

मुझे पहले लगता था कि मेरी लिखी हुई कहानियाँ मुझसे बहुत दूर चली गई हैं या मैं उनसे बहुत दूर चली आयी हूँ। पहला उपन्यास लिखने के बाद से ही मेरे लिए कहानी लिखना मुश्किल होता चला गया था। सिर्फ़ एकाध ही कहानियाँ उसके बाद लिखी गईं। किंतु अब तक़रीबन पच्चीस सालों में आठ उपन्यास लिखने के बाद ऐसा हुआ है कि मैं अपनी कहानियों में वाक़ई अपने उपन्यासों के कुछ पात्रों की आंशिक झलक देख पाती हूँ और उस सेंसिबिलिटी से भी गुज़रती हूँ जो अंततः मुझे आज तक यहाँ ले आयी है। उसमें कुछ कौतुक से भरा मन है, कुछ खोजने की तीव्र चाह है, कुछ ओझल रहस्य झाँकते से हैं और अपनी बात को अपनी तरह से कहने की व्यग्रता है।

पीछे देखती हूँ तो पहली कहानी  ‘आपकी हँसी’ जब ‘वर्तमान साहित्य’ के महाविशेषांक (1991) में छपी तो कहानी को लेकर थैले भर पत्र आए। ‘हंस’ में प्रकाशित ‘एक पेड़ की मौत’ पर भी पाठकों की बहुत सी प्रतिक्रियाएँ मिलीं। उसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ—चेक, जर्मन आदि में। मेरी एक लगभग अचर्चित कहानी है – ‘कलम तंत्र की कथाएँ’। साहित्य अकादेमी से कहानियों का एक संकलन आया— ‘बीसवीं सदी की हिंदी कथा-यात्रा’ नाम से। उसमें यह कहानी संकलित देखकर मुझे बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ। ख़ासकर इसलिए कि कमलेश्वर ने उस कहानी को पसंद और चयनित किया था। कहानियों की भी अपनी कहानी होती है। मेरी एक कहानी है- ‘रहस्य कथा’, जिसके छपने पर मुझे लगा कि किसी को चोट पहुँची। इसलिए मैंने उसे किसी संग्रह में नहीं रखा। ‘साक्षात्कार’ में छपी वह कहानी इतिहासकार सुधीर चंद्र जी को बड़ी पसंद आई थी। वह अब भी उनकी स्मृति में है। मैं उसे भूल चुकी थी, मगर मेरे पाठक हालिया प्रकाशित मेरी कहानियों के संकलन ‘संपूर्ण कहानियाँ’ (राजकमल प्रकाशन) में पढ़ सकते हैं। इसमें मेरी एक और कहानी है, जो पहली बार किसी संकलन में आई है—‘कहानी में नाटक में नेलपॉलिश का महत्त्व’।

  1. आपके कथा-साहित्य में ऐसे पात्रों की अच्छी संख्या है, जो अपने तरीक़े से अपना जीवन जीना चाहते हैं। व्यक्ति के मनोभावों का उतार-चढ़ाव और दूसरे की दृष्टि से स्वयं को देखते चले जाने की जद्दोजहद हर शै बदलती हैकहानी में है। हर हाल में जिजीविषा (समय-समय पर परिवर्तन के लिए आग्रह सहित) को बचाए रखने की कोशिश यहाँ और आपकी दूसरी कहानियों में नज़र आती है। सवाल यह कि कई बार नया और चौंकानेवाला ढूँढ़ने की कोशिश मात्र में क्या हमारे कई साहित्यकार अपने लिखे में जीवन से दूर चले जाने लगते हैं?

लिखना अंततः ख़ुद के लिए और पाठक के लिए जीवन के रहस्यों को जानना, अक्सर उनसे मुठभेड़ करना और सुलझाना होता है। मुझे नहीं लगता कि जीवन से दूर कोई कहानी वाक़ई कहानी बन पाती है। वैसे कहानी कुछ नया कहे या चौंका ही दे  तो इसमें हर्ज भी क्या है?

  1. आपके कुछ कथा-पात्र अपने अजीब-ओ-ग़रीब स्वभाव के कारण हमारी स्मृति के स्थायी नागरिक बने हुए हैं। मसलन, ‘कब्ज-हरकहानी के सच्चिदानन्द सिंह को ही ले लें। ऐसे किरदार हमारे आसपास के इतने चिर-परिचित व्यक्तित्व होते हैं कि कई बार उनकी साधारणता के कारण उनपर ध्यान नहीं जा पाता। कथा-लोक के परिसर में उनका आना उनकी खीझ, समस्या (छोटी–बड़ी जैसी भी हो), असमंजस का आना भी है। कहानियों में उन्हें ठीक-ठीक उतार लाना सुविधापरक होता है। उपन्यास में तो केंद्रीय कथा और उसके मुख्य चरित्रों से संबंधित प्रसंग और पात्र ही आएँगे। अब जब आप कहानियाँ नहीं लिख रही हैंतो क्या ऐसे कई चरित्र आपके कथाकार से छूटते जा रहे हैं? आज भी आप सबसे अधिक कहानियाँ पढ़ती हैं, फिर कहानियों के साथ आपकी पार्टनरशीप क्यों समाप्त हो गई?

वैसे उपन्यास में भी ऐसे तमाम साधारण पात्र आते हैं, बल्कि कहिए कि ज़्यादा आते हैं। उपन्यास में उनके आने की जगह ज़्यादा होती है, कम नहीं। कुछ कहानियाँ जो ज़ेहन में रहती हैं वे किसी-न-किसी रूप में उपन्यास में चली ही आती हैं। उनसे उपन्यास को फैलाव मिलता है। इस तरह जीवन के कुछ ऐसे पक्ष कथा में चले आते हैं जो अन्यथा नहीं आते। अलबत्ता यह होता है कि उनपर एक कहानी की तरह फोकस नहीं होता।

कहानियाँ लिखना एक तरह के अनुशासन की माँग करता है जबकि उपन्यास में आज़ादी है। उपन्यास का विस्तृत फैलाव एक मौक़ा होता है जिसमें तरह-तरह के पात्र आ सकते हैं और शैली के प्रयोग किए जा सकते हैं। यह बड़ा कैनवास मुझे लुभाता है।

  1. आपके उपन्यासों में मुख्य पात्र के अतिरिक्त सहायक पात्रों की भी अपनी सशक्त उपस्थिति होती है। चाहे उनके रूप जैसे हों और उन्हें कथा में जितनी जगह मिली हो। उपन्यास कलि-कथा वाया बाइपासमें किशोर बाबू के अतिरिक्त उनकी पत्नी, भाभी और माँ के चरित्र भी उतने ही प्रभावी हैं। नामवर सिंह, किशोर बाबू की पत्नी की चुप्पी में काफ़ी कुछ गुँजायमान पाते हैं। आप कुछ कहें।

एक उपन्यास में एक पूरी दुनिया होती है। इसलिए मुख्य पात्र मुख्य होते हुए भी बार-बार हाशिए पर जाता रहता है। जिन्हें हम असली ज़िंदगी के हाशिए पर पड़े कमज़ोर पात्र समझते हैं, असल में उनका हाशिए पर होना हमारे समाज की सत्तावादी संरचना का पर्दाफ़ाश करता है। वह पाठक को अन्याय के प्रति सजगता  और आक्रोश से भी भरता चलता है। ‘कलिकथा वाया बाइपास’ की चुप रहनेवाली पत्नी या विधवा भाभी को लेकर मुझ पर यथास्थितिवादी होने और अपनी स्त्री-अस्मिता को नकार कर पुरुष की कथा कहने के (defeminization) सवाल उठाए गए थे। मुझे तब तक हिंदी के एजेंडावादी साहित्य को मुख्य विमर्श मानने के चलन की जानकारी नहीं थी। इस अज्ञान के कारण मुझे घोर आश्चर्य हुआ था। किशोर बाबू की पत्नी को विद्रोहिणी नारी के रूप में दिखाना तो समय के उस दौर के इतिहास को धो-पोंछकर पुनर्लेखन करने जैसा होता। मेरी साहित्य की परिभाषा तो यह नहीं थी। और मैंने सोचा, अरे भई, अब जीवन की तरह हिंदी में भी ये कौन लोग हैं जो मुझे सिर्फ़ ‘अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी’ या ‘अबला से सबला जीवन तक..’  लिखने का फ़रमान जारी करने चले हैं! मैंने उन्हें वैसे ही ‘इग्नोर’ किया, जैसे मैं उनलोगों को करती आई थी जो मुझे तेरह साल की उम्र से माहवारी होने पर इधर-उधर सबकुछ छूने से मना करते आए थे। नामवर जी तो साहित्य के पारखी थे। उन्होंने कहा कि किशोर बाबू की पत्नी का मौन इतना मुखर है कि हज़ार पन्नों से ज़्यादा बोलता है। श्रीकांत वर्मा पुरस्कार समारोह में ऐसा ही कुछ उन्होंने कहा था। सुनकर मुझे काफ़ी तसल्ली हुई।

  1. आप इस उपन्यास के बारे में बताती रही हैंबीच वाला कमरा कहाँ है नाम से आपने पहले इसे कहानी के रूप में लिखना शुरू किया। आपका, किसी ऐसे व्यक्ति से मिलना होता है, जिसका बाइपास ऑपरेशन होता है। वह, अपने ऑपरेशन के बाद अपने बचपन के दिनों में चला जाता है। जब उनकी पत्नी, उनके ऑपरेशन के बाद, उनसे बीच वाले कमरे में जाने को कहती है, तब वे पूछते हैं कि बीच वाला कमरा कहाँ है? उनके बचपन के दिनों में उनके घर में इतने कमरे नहीं थे। इस उपन्यास में, वे व्यक्ति किशोर बाबू हैं। इसी तरह, ‘कुलभूषण का नाम दर्ज़ कीजिए उपन्यास का एक अध्यायतद्भव पत्रिका में लंबी कहानी के रूप में छपा। इसे क्या समझा जाए! क्या यह माना जाए कि आपके यहाँ किसी कहानी के गर्भ में कोई उपन्यास होता है या यह कि कई कहानियाँ मिलाकर आप एक उपन्यास को खड़ा करती हैं? या इस तरह के किसी विभाजन का कोई ख़ास अर्थ नहीं है?

किसी कहानी को लिखते हुए जब आपको बतौर रचनाकार यह एहसास होता है कि इसका कालखंड बड़ा होने जा रहा है, तब वह कहानी आपके लिए किसी उपन्यास का रूप लेती हुई आगे बढ़ने लगती है। लिखने की यह प्रक्रिया अपने आप में रहस्यमय होती है। कई तरह के अनुभवों से हम गुज़रते हैं। ऐसे ही कुछ निजी, रोचक अनुभवों को हमसे साझा करें।  

‘बीचवाला कमरा कहाँ है?’ कहानी लिखते-लिखते स्वतः ही उपन्यास बनता चला गया। सवाल पर सवाल खड़े होते गए…जब सिर्फ़ बीचवाला कमरा था, तब नीचे से क्या आवाज़ें आती थीं? लोग क्या खा रहे थे, किन चीजों से डरे हुए थे, क्या सपने देख रहे थे, उनके पुरखे कहाँ से क्यों आए थे और बीचवाला कमरा कैसे हासिल हुआ- वग़ैरह वग़ैरह। पर इसके उपन्यास बनने के पीछे और भी क़िस्से हैं। एक तो यही कि शोध जमा होने के बाद अशोक सेकसरिया ने गुरु के कर्तव्य से मुझे कहा, ‘अब आपको एक उपन्यास लिखना चाहिए।’ सुनकर मेरे अंदर बैठी ज़िम्मेदारियों से दबी दो बच्चों की माँ उर्फ़ संयुक्त परिवार की बहू उर्फ़ अदद पति की पत्नी चिंहुँककर बोली, कहानी लिखने का तो वक्त नहीं मिलता, उपन्यास कहाँ से लिखूँगी! पर गुरु की इच्छा का बीज तो पड़ ही गया था। दूसरी बात यह कि अशोक जी को दिल्ली में  पत्रकारिता करने और छद्म नाम से कहानियाँ लिखने के दौर में तीसेक साल पहले निर्मल वर्मा ने कहा था, ‘अशोक, तुम्हें मारवाड़ियों पर एक उपन्यास लिखना चाहिए।’ यह बात अशोकजी के मुँह से कई बार सुनी थी। कहीं अवचेतन में यह भी बीज पड़ा हुआ था। कुलभूषण तक तो मैं सिर्फ़ उपन्यासकार ही बन चुकी थी। क़रीब पैंतीस कहानियाँ दो संग्रहों में आए बीस साल बीत चुके थे। दरअसल कलिकथा के बाद से ही कहानियाँ मन में उपन्यास की तरह ही आतीं। ‘तद्भव’ में छठा उपन्यास ‘एक सच्ची झूठी गाथा’ पूरा छापने की बात हुई। फिर मुझे लगा यह ठीक न होगा। वचन पूरा करने के लिए मैंने ‘कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’ शीर्षक से लम्बी कहानी लिखी, पर मुझे पहले से मालूम था कि यह कथा आगे लिखी जाएगी।

  1. आप एक कथाकार हैं। आपने रघुवीर साहित्य के साहित्य में यथार्थ-बोध विषय पर अपनी पीएचडी की। निश्चय ही बतौर लेखक (मुख्यतः कवि) रघुवीर सहाय का यथार्थ-निरूपण आपको प्रभावित करता होगा। आपकी रचनाओं में यथार्थ बेहद साफ़, बेबाक और बहुस्तरीय है। यह, आपको, आपकी पीढ़ी के कई रचनाकारों (स्त्री-पुरुष दोनों) से अलहदा भी करता है। इसके बारे में कुछ कहना चाहेंगी?

यथार्थ की ठोस भूमि पर खड़े रहना मेरी फ़ितरत ही है, भले ही मैं कितनी उड़ान भरना चाहूँ। पर उसमें कौतुक न हो, तो मुझे बोरियत होने लगती है। मेरे अंदर बहुत हँसने की इच्छा बचपन से रही, पर मुझे हँसमुख क्या, हमेशा लोगों ने बचपन से बहुत गम्भीर और उदास टाइप पाया। मैंने पहली कहानी से ही पाया कि मैं अपनी कहानियों में दबे-छुपे हँस पाती हूँ। अनामिका जी ने एक बार मेरे कहानी- संग्रह की समीक्षा में मेरे ‘हँसमुख गद्य’ की बात लिखी, तो मुझे बड़ी ख़ुशी हुई थी। एक बार एडिनबरा बुक फ़ेस्टिवल में मैं अँग्रेज़ी में कलिकथा का वह प्रसंग पढ़ रही थी जिसमें किशोर बाबू का परिवार इस बात को छुपाना चाहता है कि वे लोग कभी नॉर्थ कलकत्ता के रेलमपेल वाले, भिनभिनाते इलाक़े के बाशिंदे थे। मैंने आश्चर्य से देखा कि लोग हर पंक्ति पर ख़ूब हँसते जा रहे थे। बाद में ‘द टेलिग्राफ’ के पत्रकार ने बताया कि लोग इसलिए हँस रहे थे क्योंकि एडिनबरा में साउथ की तरफ़ बस गए लोग ऐसा ही व्यवहार करते हैं।

रघुवीर सहाय संसद पर एक कविता में लिखते हैं, ‘हल्की सी दुर्गंध से भर गया था कक्ष’। आप खाए-पिए-अघाए लोगों के पेट के बारे में सोचिए, तो आप इस एक पंक्ति पर लोटपोट हो सकते हैं। पर देखिए, कि इसमें एक राष्ट्र की, लोकतंत्र की विडम्बना कैसे झांकती है। और स्मृति से ही कहूँ , तो रघुवीर जी की कविता का एक बिम्ब है.. यह भारत एक महाप्रेम का गद्दा है, जिस पर सदानंद महीन धोती पहने पसरा है…हमारा यथार्थ है ही इतना बहुस्तरीय कि उसे सीधे-सीधे पकड़ना मुश्किल है। सच मानिए, व्यंग्य-वक्रोक्ति तो पिट गए हैं।

  1. आपका दूसरा उपन्यास शेष कादम्बरीअपने स्त्री-स्वर के लिए अलग से ध्यान खींचता है। पीढ़ियों का अंतराल और भिन्न स्त्री-अनुभूतियों को हम रूबी गुप्ता और कादम्बरी और अन्य स्त्री-पात्रों के बीच महसूसते हैं। यहाँ समय के साथ बढ़ते उपभोक्तावाद और घटते उदारतावाद का भी चित्रण है। यहाँ कई जगहों पर उपन्यास और जीवन के बीच का अंतर पटता हुआ महसूस होता है। एक लेखक का मानसिक अवसाद क्या और कैसा होता है? लेखक लेखन के बग़ैर ज़िंदा नहीं रह सकता। सुना है, ऐसे मनोभावों के बीच शेष कादम्बरी का सृजन हुआ है। अपने इस दूसरे उपन्यास के रचाव और उसके पहले के लेखकीय शैथिल्य के बारे में कुछ बताएँ।

‘कलि-कथा वाया बाइपास’ के छपने के साल यानी 1998 के अंत में एक पारिवारिक दुर्घटना के कारण मैं गहरे अवसाद में चली गयी। मुझे नहीं लगता था कि अब मैं कभी कुछ और लिख पाऊँगी। किंतु छह महीने बाद रूबी गुप्ता की कहानी ने मुझे उबार लिया। मैं फिर शब्दों की दुनिया रचने लगी। एक हैरतअंगेज असली वकालतनामे से कहानी शुरू हुई और बस चल पड़ी। कृष्णा सोबती ने मुझे कहा कि वे चकित थीं कि एक वृद्ध महिला का मन मैं कैसे इस कदर पकड़ पाई।

कादम्बरी का संस्कृत में अर्थ उपन्यास होता है। एक स्तर पर यह रूबी गुप्ता और उनकी नातिन कादम्बरी की कथा थी और दूसरे स्तर पर उपन्यास क्या है, इसकी पड़ताल भी। रूबी गुप्ता की आत्मकथा को उनकी नातिन रिजेक्ट करती है, यह कहकर कि एक मामूली खाते-पीते घर की महिला की कहानी में क्या धरा है। ख़ुद वह एक ऐसे पात्र— देवीदत्त मामा को लेकर उपन्यास लिख रही है जो 1900 में पैदा होकर हर राजनीतिक हलचल और पूरी शताब्दी की कथा में भागीदार है। मेरे मन में यह सवाल था कि क्या मामूली जीवन का उपन्यास इतना मामूली है कि उसे हम रिजेक्ट कर दें?

लंदन में बीबीसी के एक हिंदी पत्रकार ने मुझसे पूछा कि अब कलिकथा के बाद आप क्या लिख पाएँगी क्योंकि उसमें आपने सब कुछ तो लिख ही दिया है! मुझे अचम्भा हुआ क्योंकि मैं तब शेष कादम्बरी लिख रही थी। मुझे तभी समझ में आ गया था कि मैं कुछ भी लिखूँगी, उसकी प्रतिस्पर्धा कलिकथा से ही होगी। मुझे लगा, ये लोग मेरी स्कूल टीचरों की तरह ही पढ़े-लिखे मूर्ख हैं जो मेरी क्लास में साथ पढ़नेवाली मुझसे दो साल बड़ी बहन को रोज़ अपमानित करते थे, यह कहकर कि तुम अलका जैसी तेज़ क्यों नहीं हो!

मैं हर बार नया लिख रही हूँ, और कम से कम मुझे तो यह मालूम है ही। प्रसंगवश, अब मेरी बड़ी बहन ने  मुझे उससे ज़्यादा तेज होने के लिए माफ़ कर दिया है।

  1. कुल तीन खंडों में रचित आपका उपन्यास एक सच्ची-झूठी गाथाअपने छोटे-छोटे टुकड़ों के कारण ध्यान आकर्षित करता है। प्रमित सान्याल और  गाथा के संवाद रोचक और  विचार-प्रवण हैं। पाठक कभी प्रमित के साथ हो लेता है तो कभी गाथा के साथ। बतौर लेखक, आपने दोनों ही चरित्रों की मनोभूमि और उनके बीच के तनाव को भली-भाँति उकेरा है। प्रमित, भ्रमित नहीं है और गाथा, झूठी नहीं है। दोनों के अपने-अपने सच है। बिल्कुल भिन्न इन दो किरदारों के संवादों में रचनाकार का अपना अंतर्द्वंद भी सामने आता है। अलका सरावगी के भीतर ही प्रमित, गाथा और उनके परस्पर-विरोधी विचार हैं। चुटीली और कसी हुई बहस के बीच चलती इस संवाद-कथा को पढ़ने का अपना विशेष अनुभव है। बीच-बीच में आने वाली कविताएँ इस पाठ को समृद्ध करती हैं। दर्जनों चरित्रों को अपनी कथाओं में उतारती और साधती अलका के इस उपन्यास में यहाँ प्रकटतः काफ़ी कम चरित्र हैं। यह उपन्यास, आपके रचनाकार के किसी अन्य पक्ष को हमारे सामने रखता है। प्रमित सान्याल और गाथा के संवादों में जीवन और उसके प्रति अपनाए जानेवाले दृष्टिकोण भिन्न दिखाई पड़ते हैं। दोनों के संवाद-संबंधों के बीच माध्यम के रूप में आधुनिक तकनीक-परिघटना भी सामने आती है। गाथा एक लेखिका है और प्रमित सान्याल एक हथियारबंद संगठन से जुड़ा हुआ है। वहाँ वर्चुअल दुनिया के पीछे की वास्तविकता आती है। लेखकों के स्वभावों और उनकी अहन्मयता को लेकर प्रमित बहुत कुछ कहता है। यहाँ लेखन बरक्स ज़मीनी आंदोलन का विमर्श खड़ा होता है। एक सच्ची-झूठी गाथा और इसके रचाव से जुड़े अनुभवों के बारे में कुछ कहें। इस उपन्यास की रचना-प्रक्रिया के बारे में कुछ बताएँ।

‘एक सच्ची झूठी गाथा’ के पीछे बहुत सारे भूतपूर्व-नक्सलियों से परिचय और वार्तालाप है। वैकल्पिक राजनीति के बहुत सारे तार अशोकजी के कमरे में मिलते लोगों से जुड़े रहे। पर अशोकजी की मृत्यु के बाद उस शून्य को भरते हुए सचमुच प्रमित जैसे एक युवा का मिलना था, जिसकी बातों ने मेरे वजूद को, मेरे सोच को हिला दिया। जिन लोगों को हम आतंकवादी मानकर अख़बारों के पन्ने में छोड़ देते हैं, वे जब व्यवस्था के अन्याय के प्रति आपकी आँखें खोलते हैं, तो ज़मीनी यथार्थ का सामने लेखक का गढ़ा यथार्थ छोटा पड़ जाता है। गाथा प्रमित के तर्क न ख़ारिज कर सकती है न यह मान पाती है कि मनुष्यता के पास हिंसा ही अंतिम साधन है। उसका अंतर्द्वंद्व हर संवेदनशील व्यक्ति या पाठक के अंदर ध्वनित होगा।

  1. अशोक सेकसरिया की कविता है :

पीछे छूट जाती हैं सारी बारीकियाँ

और उनका आग्रह

मन चाहता है सर्च जीवंत देह-सा

और उसके मर्म तक चाहता है पहुँचना

मर्म ही धर्म है

और यह तुक नहीं है

मर्म से जो अवांतर है

वह सब छूट जाता है और उसका

छूटना ही भला है

अशोक सेकसरिया की इन कविता पंक्तियों को उद्धृत करते हुए, उनकी याद को आप अपना पाँचवाँ उपन्या जानकीदास तेजपाल मैनशन समर्पित करती हैं। उनसे (अशोक सेकसरिया जी से) जुड़ी कई बातें आपने हमें पहले भी बताई हैं। यहाँ इस अवसर पर भी कुछ साझा करें तो बेहतर हो! पहले ही उपन्यास पर मिले साहित्य अकादेमी पुरस्कार को लेकर उन्होंने अपने तईं सोचा, आपको बताया भी, मगर, आपकी रचनात्मक सक्रियता ने उनकी आशंकाओं को निर्मूल साबित किया। उन्होंने आपके उपन्यास जानकीदास तेजपाल मैनशन  पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी भी की है। उनकी राय का बड़ा महत्व है। आपके रचनाकार के प्रति उनकी आश्वस्ति के बारे मेंकुछ बताएँ। कालांतर में वे  आपकी रचनाशीलता को लेकर  स्वयं आपसे क्या कहते रहे?

अशोकजी के बारे में बता पाना सहज नहीं है। उनके बाहरी रूप के वर्णन से शुरू करती हूँ। टूटी सी हवाई चप्पल और खादी के मुसे-तुसे कुर्ते-पाजामे में अशोकजी कभी अपनी गली के फुटपाथ पर इटालियन (ईंट के बने) सैलून में हजामत बनाते दिख सकते थे या पुराने लम्बे छाते की मूठ पकड़े बस-स्टैंड पर खड़े मिल सकते थे या चलते दिख जाते थे। उन्होंने अपनी कविता की तरह आम जगत की बाहरी बारीकियों को छोड़कर यह रूप धारण किया था। यह बताना ज़रूरी है कि अविवाहित अशोकजी के भाई का समृद्ध परिवार और व्यापक मारवाड़ी समाज उन्हें एक अजूबे की तरह देखता था।

उनके अंदर एक बैचेन आत्मा थी, जो आज़ादी के आदर्शों की टूट-फूट देख शोक में डूबी रहती थी। सिर्फ़ वहीं तक नहीं, मामला परिवार, समाज और साहित्य की दुनिया तक भी फैला था, जिसे दिल्ली में पत्रकारिता करते हुए अशोकजी ने क़रीब से जाना था। अशोकजी के साहित्य के पैमाने इतने ऊँचे थे और आत्मपरीक्षण इतना अधिक, कि ख़ुद को अयोग्य समझते हुए उन्होंने अपना वह उपन्यास कभी नहीं लिखा, जिसे वे जाने कब से लिखना चाहते थे। मुझे लगता था कि मेरे जैसे कमतर लोग लिख पाते हैं क्योंकि हम अपनी सीमाओं को जानते हुए लिख लेते हैं। उनका कष्ट प्रबल था और उसके साथ रहना न सिर्फ़ उनके किए तकलीफ़देह था, मेरे लिए भी कम कष्टकारी नहीं था। उनकी ज़्यादातर अनकही आलोचना, उनकी हवा में फैली कसौटी पर अपने को हर घड़ी कसना होता था। उन्हें मेरे लिखे से भी उतना ही भय था कि जाने इसमें कोई बात बनी है या नहीं। मैं ज़िद्दी थी इसलिए लिख लेती और उनकी निराशा में न डूबकर उसे छपने भेज देती। किसी दूसरे के लिए इतना दुखी, इतना संवेदनशील, इतना मर्म का आग्रही शख़्स न हुआ होगा और होगा भी, तो किसी भाग्यशाली को ही मिला होगा। उनके पास आनेवाले लेखकों, राजनीतिक विचारकों,  पत्रकार, विद्यार्थी, एवं अन्य लोगों से लेकर नौकर-दरबान-सफ़ाई कर्मचारी तक सब इसका अनुभव कर पाते थे।

मुझे उन्होंने एक बार भी कभी नहीं कहा कि मैंने कुछ अच्छा लिखा है। वे कुछ विस्मित से दिखते तो मैं भाँप लेती थी। कलिकथा के शुरुआती प्रसंग (जो दूसरे अध्याय के बाद लिखा गया था) पर उन्होंने मुझे एक काग़ज़ की चिंदी पर लिख नोट भेजा था, कि ‘यह तो चमत्कार हो गया।’ मैं जब उनके पास अपना लिखा पढ़ाने नहीं जा पाती थी तो उन्हें काग़ज़ भेजकर वापस मंगवा लेती। इसलिए यह नोट मुझे एक पुरस्कार की तरह मिला।

इससे आप यह भी समझिए कि अशोकजी मर्म के साथ साहित्य में चमत्कार के भी आग्रही थे। कभी-कभी किसी मसले की विद्रूपता या मूर्खता पर उनकी ज़ोर की लम्बी हँसी भी उनके कमरे में आनेवाले लोगों को चौंका जाती थी। यों तो वे मौन रह सबकी सुनते और सबको झेलते रहते थे। हम जैसे लोग आराम से उनकी बातों को काट सकते थे और वे हमेशा एक बच्चे की तरह अपनी गलती मान लेते। अपने को किसी का गुरु मानने की अहंता उनमें थी ही नहीं। एक बार मेरे पूछने पर उन्होंने कहा था कि उनके जीवन का लक्ष्य अपने को धूल का कण बना देना है। पर असल में उनके जैसा गुरु कोई नहीं हो सकता, जो बिना पढ़ाए पढ़ाता है।

13.आपके यहाँ पुरुषों और स्त्रियों के चरित्रों का वैशिष्ट्य हमें चौंकाता है और उनकी सादगी प्रभावित करती है। कई पात्रों की अजीबोगरीब आदतें हमें लंबे समय तक गुदगुदाती हैं। वे पात्र बड़े मौलिक और जीवंत होकर हमारे सामने आते हैं। उनकी सोच और दृष्टि, कथावस्तु का हासिल होती हैं। कई पात्र जिस भी सीमा तक, जीवन से सीधे लिए गए होंगे। पात्रों के चरित्र-चित्रण को लेकर आप किस तरह की मेहनत करती हैं, इसके बारे में कुछ कहें।

हम जिस समाज का अंग होते हैं, उसकी विशेषताओं, कमज़ोरियों और सनक से हमारा परिचय गहरा होता है। मूलतः मारवाड़ी समाज एक व्यावसायिक समाज है जिसमें मनुष्य की हैसियत रुपयों से तौली जाती है। इसका मतलब यह नहीं है कि जो मारवाड़ी नहीं हैं, वे उनसे अलग या बेहतर हैं। उपभोक्तावाद ने अब सबको एक ही प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ा कर दिया है। पात्रों का चरित्र कथा के प्रवाह में गढ़ता जाता है, या कहिए कि कथा का प्रवाह पात्रों के कारनामों से बंधा रहता है। उसमें मेहनत जैसी कोई चीज़ नहीं लगती, क्योंकि अगर आपको कथा दिख रही है, तो आप के अंदर वह पात्र रूप ले चुका है। दुनिया को देखने की हमारी दृष्टि, बल्कि कहिए कि जैसी दुनिया हम बनाना चाहते हैं, उस दृष्टि से ही हम पात्र की सनक और उसके आसपास के लोगों की प्रतिक्रियाओं को रचते हैं। कुलभूषण बस का कंडक्टर रह चुका है, इस पर उसका परिवार उसकी पीठ पीछे बात करता है । जब भाई की लड़की उससे सीधे पूछ लेती है, तो वह तमाम बहानों और सच्चाई का झोल बनाकर उत्तर परोसता है। उसके जवाब में रिश्तों में उसकी हैसियत की धूप-छाँह प्रकट हो जाती है।

  1. आपके कथा-जगत में अमूमन संयुक्त परिवारों की बहुलता है। साथ ही, कई सारे परिवार कुछ कॉमन बाथरूम और ट्वायलट का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे परिवेश में काफ़ी कुछ घट रहा होता है। कई अंतर्कथाएँ एक साथ चल होती हैं। आपके यहाँ ऐसे कई विवरण बड़े दिलचस्प बन पड़े हैं। आज, क्रमशः संयुक्त परिवार विलोपित और टूटते जा रहे हैं। एकल परिवार को अधिक वरीयता मिल रही है। आपका रचनाकार इस बदलाव को कैसे देखता है?

संयुक्त परिवार उपभोक्तावाद के चलते तेज़ी से टूट रहा है। पिछले समय के कॉमन ट्वायलेट वाले परिवार तो अमूमन बिखर चुके हैं। अब मध्यवर्ग की आकांक्षाएँ इतनी बढ़ गयी हैं कि हम न अपनी समृद्धि किसी से साझा करने तैयार हैं न सुख-दुःख। अशोकजी अक्सर हैरत से कहते थे कि परिवार में फलाने ने मुझे बताया तक नहीं कि उसका ऑपरेशन हुआ है। तो देखिए कि एक सत्ताविहीन आदमी से कोई अपना दुःख-परेशानी भी साझा नहीं करता, सुख-साधन साझा करने की तो बात ही छोड़िए।

  1. आपके पात्र अमूमन आदर्श पात्र नहीं होते। उनमें जीवन की अच्छाइयाँ-बुराइयाँ सभी होती हैं, मगर वे अपने जीवन में कोई ऐसी ज़िद या कोई ऐसा आग्रह पाले रखते हैं कि वे हमें अपने उन संघर्षों में, अपनी सनक में याद रह जाते हैं। कई बार अपनी विडंबनाओं का वे शिकार होते हैं। जो भी होवे बड़े सच्चे दिखते हैं और अपने तईं पूरी कथा को आगे बढ़ा ले जाते हैं। ऐसी कथाओं के रचाव के साथ आपका क्या उद्देश्य होता है?

किसी मित्र ने मुझसे कलिकथा के किशोर बाबू के लिए कहा था, क्यों तुमने ऐसा पात्र चुना जो पागल की तरह सड़क माप रहा है! मैंने सोचा, धीरोदात्त या आदर्श पात्र का ज़माना तो गया, बॉलीवुड ने तो खलनायक को ही नायक बना दिया। अब समाज की विडम्बना किसी पागल-से पात्र के ज़रिए आए, तो क्या बुरा है। यदि आप ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ के जयदीप की बात करें तो देखिए कि उसका आदर्शवाद कैसे हवा हो जाता है। जिन ताक़तों से लड़कर वह अपने मैनशन को बचाना चाहता है, उन्हीं ताक़तों के साथ मिलकर एक बुढ़िया को ग़ैरक़ानूनी ढंग से निकल उसका घर ख़ाली करवाता है। प्रमोटोर, पुलिस, म्यूनिसिपैलिटी और नेताओं की मिलीभगत शहरों के नक़्शे बदलने में लगी है। वह हर व्यक्ति को साम-दाम से अपने साथ शामिल कर लेती है। नतीजा यही कि हमारे समाज में अब आदर्श की खुरचन भी नहीं बची है। मुझे लगता है कि कलिकथा के अमोलक जैसे विशुद्ध आदर्श में रमे पात्र लेखक की कमजोरी होते हैं क्योंकि असल ज़िंदगी में वे नज़र नहीं आते। वे बस लेखक का सपना होते हैं।

  1. आपके यहाँ इतिहास और स्मृति आपस में गड्डमड्ड होकर आते हैं। दिखे के अनदिखे हिस्से को दिखाने का ढंग भी बड़ा आकर्षक है। वर्तमान को उसके अगले-पिछले छोरों से देखना, उसे उलट-पुलट कर कई-कई कोणों से देखना… आपका गल्पकार इसमें सिद्धहस्त है। व्यस्त दिखते पुरातन महानगर  कलकता (अब कोलकाता) की कई अनजानी गलियों में आपका आना-जाना होता है। इस आवाजाही के बीच चिर-परिचित शहर के कई अदृश्य रूप हमारे सामने दृश्यमान हो उठते हैं। वक़्त के साथ बदलाव सहते महानगर की इमारत में हमें, आप कुछ अधिक रोचक और जटिल ढंग से ले चलती हैं। आधुनिक रंग-ढंग में रँगते महानगर में होती टूट-फूट की कथा आपके यहाँ दर्ज़ है। स्थूल-सूक्ष्म बदलावों पर एक लेखक की पैनी निगाह दिखाई पड़ती है। आपके अख्यानों में बंगाल की पृष्ठभूमि जब-तब आती रहती है। नक्सल आंदोलन या उससे जुड़े लोग, किसी-न-किसी रूप में मौज़ूद होते हैं। जानकीदास तेजपाल मैनशन में अंडरवर्ल्ड भी आता है, जिसकी ओर इशारा अशोक सेकसरिया इसपर लिखी अपनी टिप्पणी में करते हैं। मुख्य धारा से ओझल दिखते या बिल्कुल स्पष्ट न दिखते ऐसे परिदृश्य हमारे साथ किसी-न-किसी रूप में बड़े गहरे जुड़े होते हैं। ऐसे क़िस्से, दुनिया के हर हिस्से में हैं। इस उपन्यास का कलेवर भी, भारत से लेकर अमेरिका तक फैला हुआ है। मुख्य धारा और समांतर धारा के बीच की ऐसी आवाजाही को आपका रचनाकार उकेरता रहा है। ऐसा करते हुए, कहाँ और किस हद तक की सीमाएँ आती हैं?

वर्तमान की नब्ज़ पकड़ने के क्रम में स्मृति और इतिहास में उतरना अनायास होता है। सच पूछिए तो कलिकथा लिखने से पहले मैंने कभी नहीं सोचा था कि इतिहास इस तरह मेरे लेखन में घुस आएगा। रुशदी ने कहीं कहा है कि हमारे हाथों में इतिहास की हथकड़ी लगी है। कलकत्ता शहर का इतिहास मुझे इस कदर पकड़े है कि चिर-परिचित रास्तों से गुज़रते भी मेरी निगाहें जाने क्या खोजती रहती हैं। कलकत्ता के पुराने इलाक़े तेज़ी से बदल रहे हैं, मैं उन सब को अपने मन-दिमाग़ में दर्ज कर लेना चाहती हूँ। जानकीदास के ब्लर्ब में अंडर्वर्ल्ड लिखकर अशोकजी ने उपन्यास की आत्मा को पकड़ लिया था। कोल इंडिया के अधिकारी और अशोकजी के पुराने मित्र कवि जवाहर गोयल ने पांडुलिपि पढ़ आश्चर्य से अशोकजी को पूछा कि अलका ने यह उपन्यास कितने दिन में लिखा है? पूँजी और सरकार-पुलिस के बीच की साँठ-गाँठ उन्होंने क़रीब से देखी थी। उनके अनुमोदन से अशोकजी ने मुझे फ़ोन कर बच्चों की तरह प्रसन्न होकर मुझे यह बात

बताई थी। वैसे मैंने सुना था कि किसी ने उनसे कलिकथा के बारे में राय माँगी, तो उन्होंने कहा कि उन्हें वह उपन्यास समझ में नहीं आया है! अशोकजी अपनी तरह मेरी रचनाशीलता पर उतना ही संदेह रखते थे। कोई और प्रशंसा करे तो ही वे आश्वस्त होते थे।

मुख्य धारा और समांतर धारा के बीच की दुनिया में मेरी आवाजाही रघुवीर सहाय, किशन पटनायक, सच्चिदानंद सिन्हा, अशोक सेकसरिया के कारण बनी और बनती रही। मेरी छटपटाहट का अनुमान कोई नहीं कर सकता। एक नितांत साधारण गृहस्थी में खपे हुए मुझे सब कुछ पढ़ना-समझना था। मुझे खीझ होती थी जब इनलोगों के बीच मुझे लगता कि मैं कुछ नहीं जानती। मुझे कई बार लगता कि काश मेरी शादी न हुई होती.. मेरे बच्चे न होते। मैं भी रात-दिन साहित्य में, समाज-राजनीति-दुनिया के तंत्र को जानने में डूबी रहती। पर कथा कहने की ताक़त ऐसी होती है कि उसके अंदर की दुनिया को गढ़ते आप अपनी सारी सीमाएँ अपने पात्रों के ज़रिए पार कर जाते हैं। पात्र लेखक को अंगुली पकड़ रास्ता दिखाता है।बस यही मेरा संबल है।

  1. आपकी कृतियों के कई भाषाओं में अनुवाद हुए। उनमें से कुछ विदेश स्थित विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती रही हैं। अपनी रचनाओं के हुए अनुवाद से जुड़े कुछ अनुभव बताएँ । अनूदित कृतियों को पढ़ने वाले पाठक से जुड़ी कुछ यादगार बातें भी साझा करें। भिन्न संस्कृतियों में पले-बढ़े वे पाठक, अनुवाद के माध्यम से मूल कथ्य तक कितना पहुँच पाते हैं? कथ्य की आत्मा अनुवाद के माध्यम से किस हद तक पहुँच पाती है?

फ़्रेंच, इतालवी, जर्मन, स्पैनिश भाषाओं में अनुवाद का मैंने सपना भी नहीं देखा था। फ़्रेंच और इतालवी के अनुवादक एनी मोंतो और मरीयोला ओफ़्फ़्रेदी मेरे घर आकर रहे। उनके प्रश्न सुनकर मैं हैरान होती कि इन्हें मेरी कथा में इतनी दिलचस्पी कैसे और क्यों है। इतालवी में जब कलिकथा के पहले दो संस्करण धड़ाधड़ बिक गए तो कुछ पाठकों से बात करने से मेरी समझ में आया कि एक फ़्रेंच किशोर बाबू और एक इतालवी किशोर बाबू इन देशों की सड़कों पर भी घूमते हैं, यह सोचते कि जिस आदर्श से उन्होंने जीवन की शुरुआत की थी, उसकी बात करने से उन्हें पागल क्यों समझा जा रहा है?

  1. कई बार आप स्वयं भी पाठकों से जुड़ने की कोशिश करती रही हैं। फ़ेसबुकसहित सोशल मीडिया पर। इसके लिए आपको हल्के-फुल्के ढंग से बहुत तरह के आरोप भी सहने पड़े। मगर,वहाँ आपकी भावना, सीधे अपने पाठकों तक पहुँचने की थी, न कि अपने किताबों की बिक्री की। कुछ जगहों और लोगों से आपको अच्छे रेसपांस भी मिले। पाठकों से जुड़े कुछ अनुभवों (प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों) को हमसे साझा करें।

पता नहीं कि लोग इतने अक़्ल-मंद कैसे होते हैं कि वे हिंदी जगत की हक़ीक़त को जानते हुए भी कि बड़े शहरों तक में न कोई क़ायदे की हिंदी किताब की दुकान होती है और न प्रकाशक को चिंता कि पाठक कैसे खोजें, अगर कोई रास्ता लेखक को फ़ेसबुक ने दिया कि वह पाठक तक सीधे पहुँचे, तो वे उसे सेल्समैन का दर्जा दे बैठते हैं। हो सकता है मुझे ऐसी उपाधि देने के पीछे मेरा मारवाड़ी होना कारण हो। पर ये लोग तो इतना भी नहीं जानते कि कश्मीर से कन्याकुमारी और असम से गुजरात तक जिन तीन सौ पाठकों को मैंने किताब बेची/ या प्रकाशक को पैसे दिलाए, उससे मेरी रॉयल्टी इतनी न हुई जितनी कि एक साड़ी बेचकर हो जाती( प्रसंगवश, लिखने के अलावा मेरा कोई कारोबार नहीं है)। ख़ैर, नासमझ लोगों ने माफ़ी माँगी। मैंने माफ़ कर दिया। मैं उसी राह पर आज़ादी से चल रही हूँ। मैं अब भी चाहती हूँ कि पचास करोड़ हिंदीभाषी मेरी किताबें पढ़ें, जिन्हें लिखने में मैंने अपना जीवन दिया है, अपने बच्चों के हक़ का समय दिया है। रॉयल्टी के पैसों से तो मैं एक गरीब बच्चे के पढ़ने का सालाना ख़र्च भी नहीं दे पाती।

  1. आपके गद्य के कुछ ख़ास रंग हैं। बीच-बीच में उसमें कई पोएटिक पैचेजभी आते हैं। कथा-गद्य को लेकर बतौर पाठक आपके अपने क्या आग्रह और अपेक्षाएँ होती हैं? आपके लेखक से, आपका पाठक कितना संतुष्ट हो पाता है?

किसी भी लेखक का गद्य अंततः उसके पढ़े-सुने से उपजता है। भाषा का संस्कार हमारे पुरखों का दिया होता है, पर वह समय के साथ नया रूप भी लेता रहता है। गद्य में जब कोमल प्रसंग आते हैं, तो भाषा का काव्यात्मक हो उठना सहज है। हो सकता है कि यह छायावाद का असर है जो परिवार की पिछली पीढ़ी से मुझ पर आया है।

 मेरा लिखा प्रायः मेरा पहला ड्राफ़्ट होता है। यदि मैं उससे संतुष्ट न भी होऊँ, तो भी छोटे-मोटे बदलाव ही कर पाती हूँ।

  1. आप किसी उपन्यास पर लिखते हुए काफ़ी तैयारी करती हैं। जब किसी कथा-विशेष के बहाने कई पीढ़ियों और सुदीर्घ समय की कहानी होगी, तो यह वांछित और अपेक्षित भी है। उसमें पूर्ववर्ती पीढ़ियों से सुनी गई दास्तानें हैं तो दूसरी तरफ़ शहर और समुदाय विशेष को लेकर लिखी गईं साहित्यिक और साहित्येतर पुस्तकों को आप पढ़ती हैं। बेशक उन पुस्तकों के संदर्भ कम आएँ, मगर उस काल, चरित्र-निर्माण और घटनाओं को प्रामाणिक ढंग से उकेरने में वे बड़े सहायक होते हैं। उपन्यास लिखने से पहले की जानेवाली अपनी तैयारियों के बारे मे बताएँ।

अक्सर मेरी तैयारी उपन्यास शुरू करने के बाद चलती है। बहुत से संयोग अपने आप जुटते चले जाते हैं। कलिकथा लिखने के दौरान मारवाड़ियों पर लिखी अमेरिकन लेखक टिनबर्ग की किताब से शुरुआत हुई तो पता चला कि दादी से सुनी तमाम कथाओं का एक संदर्भ था। सीताराम सेकसरिया की ‘एक कार्यकर्ता की डायरी’ के दो खंड अशोकजी से मिले। फिर मैक्समुलर लाइब्रेरी से कलकत्ता के इतिहास पर प्रदीप सिन्हा की किताब पढ़ी, तो पता चला कि बचपन से स्कूल का रास्ता ‘मराठा डिच’ होते हुए ही जाता था। प्रदीप सिन्हा के घर पहुँची और उनसे हज़ारों गप्प लगायीं। एशियाटिक सोसायटी के लायब्रेरीयन से मिली। मौलाना आज़ाद की ‘इंडिया विंस फ़्रीडम’ से आज़ादी का इतिहास जाना और बंगाल के अकाल, द्वितीय विश्वयुद्ध में कलकत्ता से पलायन और ग्रेट कलकत्ता किलिंग के क़िस्से बतानेवाले दर्जनों लोग मिलते गए। आज उनमें से एक भी ज़िंदा नहीं है। शायद सही समय पर लिखना  भी मायने रखता है। कुलभूषण की बात करें तो बांग्लादेश के कुष्टिया शहर से आए लोग मिलते चले गए। बांग्लादेश से पता चला कि एशिया की सबसे बड़ी मोहिनी मिल मालिक की अट्ठत्तर वर्षीय पौत्री तो घर के नज़दीक ही रहती थीं।

इंटरनेट से ढाका विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसरों के नम्बर निकाले, तो कुष्टिया के डॉक्टर क़ासिम के पुत्र प्रोफेसर अबुल बरकत मिल गए, जिन्होंने किशोरावस्था में इकहत्तर की लड़ाई में भाग लिया था। उनके मार्फ़त वृद्ध शिक्षक मिलन सरकार मिले, जिन्होंने कुष्टिया के इतिहास पर लेख लिखे हैं।

पूर्व पाकिस्तान से विस्थापित लोगों की शृंखला अपने आप मिलती गयी। जादवपुर विश्वविद्यालय की इतिहासकार मित्र अनुराधा रॉय ने इस विषय पर बांग्ला साहित्य और फ़िल्मों की सूची बना दी। दंडकारण्य का वर्णन शक्तिपद राजगुरु की किताब में मिला। धोबी जाति के इतिहास पर एक पुस्तक दिल्ली से मित्र ने खोज कर भेजी। बांग्ला लेखक मिहिर सेनगुप्ता की किताब के हिंदी अनुवाद की एडिटिंग कर मैंने भूमिका लिखी थी, वह किताब एक ख़ज़ाना साबित हुई। हम जब सब कुछ भूलकर मन साधकर कुछ खोजने निकल पड़ते हैं, तो कायनात आपकी मदद करती है। आप उसमें डूब जाते हैं और रोज़ नए रास्ते बाँहें फैलाए मिलते रहते हैं। ऐसा मेरा अनुभव रहा है।

  1. कई बार उपन्यास का शिल्प स्वयं उपन्यासकार की आसानी के लिए बदलता है। कथा की संगति और पाठकों तक उसे आसान रूप से पहुँचाने के उद्देश्य से। हर बार, वह शिल्प किसी और रूप में हमारे सामने आता है। आपका उपन्यासकार स्वयं इसे किस तरह देखता है?

कलिकथा के शिल्प पर बहुत बातें हुईं। पर वह शिल्प, कथा के प्रवाह की अनिवार्यता से और अपने को पढ़े-सुने से मुक्त कर लिखने की आज़ादी से उपजा था। सच कहूँ तो मेरे पहले पाठक मेरे घर के लोग थे, जिन्हें अकादमिक आलोचना की भनक तक नहीं थी। वे कथा के साथ बह पा रहे थे और चमत्कृत थे; लेकिन यह सोचकर नहीं कि यह शिल्प अनोखा है!

मैं कथा कहने का ऐसा तरीक़ा खोजती रहती हूँ कि कथा लिखने का आनंद मुझे आता रहे। गीतांजलिश्री के ‘रेत समाधि’  उपन्यास को पढ़कर मुझे इसीलिए इतना आनंद आया था कि वाह, क्या आनंद में डूबकर मन की मौज से लिखा गया है। मैंने उसकी रिव्यू लिखी, जब बुकर की बात तक हवा में नहीं थी। कथा इक्कड़-दुक्कड़ खेलती चले, उसके लेखक ख़ुद अचरज में हो कि क्या लिख दिया, तो बात कुछ और होती है।

  1. मानवीय सभ्यताओं के उतार-चढ़ावों के साथ विस्थापन गहरे जुड़ा हुआ है। आपके कथा-संसार में यह पीड़ा, कई-कई रूपों में और स्तरों पर विद्यमान है। देश के भीतर और ग्लोबल स्तर पर भी। आपके उपन्यास कुलभूषण का नाम दर्ज़ कीजिए में भी यह पूरा परिदृश्य पूरी सघनता के साथ मौज़ूद है। विस्थापन और साहित्य या अन्य कला-माध्यमों में उसके चित्रण को आप किस तरह देखती हैं?

विस्थापन का सच आपने कह दिया कि सभ्यता के उतार-चढ़ाव में यह अनिवार्य है। मुझे इसकी पीड़ा का अहसास तब हुआ जब तेरह साल की उम्र में बड़ी बहन की शादी में मैंने मारवाड़ी गीत सुने। आपको कलिकथा की आँसुओं की पूड़ियाँ याद हैं? अभी मुझे पता चला कि एक प्रवासी पक्षी कुरजाँ को लेकर न जाने कितने गीत हैं जिनमें विरहिन अपना संदेश पति को उसके मार्फ़त भेजती है।  एक फ़िल्म मुझे याद आती है, जिसमें एक बंगाली औरत हर सप्ताह किसी ऑस्ट्रेलियन द्वीप पर आनेवाले जहाज़ पर इस आशा में आती है कि उसका पति लौट आएगा। हर बार रवींद्र संगीत बजता है। उसके बाल सफ़ेद होते जाते हैं। चेहरे पर झुर्रियाँ बढ़ती जाती हैं। कुलभूषण का विस्थापन पैसे कमाने के लिए गए इंसान का नहीं है, बल्कि राजनैतिक-ऐतिहासिक

परिस्थितियों का थोपा हुआ है जिसमें लोगों को अपनी जड़ से उखाड़कर कहीं और फेंक दिया जाता है। यह विस्थापन अभी भी संसार में चल रहा है। आपको समुद्रतट पर औंधे मुँह पड़े उस छोटे सीरियन बच्चे की तस्वीर याद है? जो पीड़ा हमें मुश्किल से छूती हुई गुज़र जाती है, कुलभूषण उसे आपके अंदर गहराई तक उतारने की कोशिश करता है। यह विस्थापन जीवन पर्यंत चलता है; सिर्फ़ मृत्यु ही उससे निजात दिलाती है।

  1. अमूमन एक उपन्यास को लिखने में आपको कितना समय लगता है? उपन्यास लिखने के यद्यपि अलग-अलग समय, परिस्थितियाँ और मूड्स होते हैं। कथाएँ अपने हिसाब से अपनी अभिव्यक्ति के दर्ज़ होने को सुनिश्चित करती हैं और उनको रचने के पीछे का अपना एक माहौल भी होता है। फिर भी, अगर यह कुछ विशेष तौर पर आपसे पूछा ही जाए कि किसी उपन्यास को लिखने में अमूमन कितना समय लगता है तो आप क्या कहेंगी?

मैंने बांग्ला का एक उपन्यास पढ़ा था जो एक सप्ताह में लिखा गया था। बांग्ला में लेखक अमूमन हर साल  एक उपन्यास प्रकाशित करवा ही लेते हैं। मैंने कलिकथा सवा साल में लिखा। कृष्णा सोबती जी ने मुझसे पूछा तो मैंने कुछ हिचकिचाते हुए बताया था। उन्होंने कहा कि इतनी सघनता तभी सम्भव है। सुनकर मुझे राहत मिली क्योंकि अक्सर लोग मुझसे तंग रहते हैं कि मैं हर काम हड़बड़ी में करती हूँ। अशोकजी की कलिकथा को लेकर मेरे बारे में यही राय थी। जानकीदास लिखने में सात साल का लम्बा समय लगा क्योंकि परिवार मेरे सिर पर लदा था। यों तो हमेशा ऐसा ही होता है और हर बार लिखने के पहले मुझे मुश्किल से अपने को बटोरना होता है। पर तब समस्याएँ बढ़ी हुई थीं। वैसे एक बार शुरू कर दूँ तो मुझे और सब कुछ दिखना-सुनना बंद हो जाता है। बचपन में भी किताब पढ़ती होती, तो माँ ग़ुस्से से कहती थी, ‘यह तो बहरी है। कुछ सुनता ही नहीं इसे।’

  1. उपन्यास विधा को आप साहित्य की अन्य विधाओं से किस रूप में तुलना करेंगी? आपके रचनाकार के लिए इसका क्या महत्व है? इस विधा के प्रति अपने  प्रेम और समर्पण को आप किस रूप में देखती हैं?

उपन्यास जीवन का प्रतिरूप है। विविधताओं से भरा। इसमें कुछ भी बाक़ी नहीं जो जीवन में है। एक पूरा ब्रह्मांड है इसके अंदर। कितने ही पात्र आएँ, बिना कुछ ख़ास मतलब के टहलते हुए और चले जाएँ। यह उपन्यास में ही हो सकता है। कितनी ही अवांतर कथाएँ आएँ जिनको आप न भी लिख सकते थे। छोटी छोटी बातें चली आएँ जिनका कोई ख़ास मक़सद न हो। पर उपन्यास सब समेट लेता है और कौन सी बात पाठक के लिए बड़ी हो जाती है, यह पाठक ही जानता है। उपन्यास में आज़ादी है। स्त्री होने के कारण आज़ादी मुझे बचपन से लुभाती रही है।

  1. आपके उपन्यासों में राजनीतिक घटनाओं का रचनात्मक टूल्स के रूप में उपयोग होता है। राजनीतिक घटनाएँ, जो सीधे हमारे जीवन से जुड़ी रहती हैं। भिन्न-भिन्न देशों के कई आंदोलनों के हवाले आते हैं। इससे आपकी कृति में काल अपनी व्यापकता में स्पंदित होता है। आपका रचनाकार इसके लिए क्या तैयारियाँ करता है?

सबसे पहले लोगों से मिलना जो उन आंदोलनों से जुड़े रहे, बहुत महत्व रखता है। उनकी छोटी से छोटी कही हुई बात आपकी आँखों के सामने एक समय को ज़िंदा कर सकती है।

लाइब्रेरी से किताबें मिल जाती हैं। इंटर्नेट से बहुत सी सूचनाएँ, और किताबों के नाम मिल जाते हैं। एक नॉन-फ़िक्शन की किताब की अनुक्रमणिका से दस और किताबें मिल सकती हैं। फ़िल्में देखना अब आसान है। सब बातें मिलकर आपको ऐसी अनुभूति देती हैं कि आप ख़ुद उस वक्त, चाहे आपका जन्म भी न हुआ हो, उसमें शामिल थे।

कुलभूषण को लिखने का अनुभव अभी ताज़ा है। प्रोफेसर अबुल बरकत ने बताया कि पाकिस्तानी सेना के शस्त्रागार पर लगे ताले को तोड़ने सुनार से अकुआ रेगिया नाम का केमिकल लाया गया। घोड़ागाड़ी और बैलगाड़ी में बंदूक़ें गाँव-गाँव में पहुँचा दी गयीं। सोचिए कि यह जानकारी क्या किसी आर्काइव या किताब में मिल सकती थी?

  1. आप आज कई पीढ़ियों के लेखकों के साथ संवादरत हैं। हरेक पीढ़ी के अपने संघर्ष और प्रवृत्ति हैं। अच्छाइयाँ-बुराइयाँ भी। पीढ़ीवार रचना-परिदृश्य से जुड़ी कुछ बातें बताएँ। किस तरह के रचनाकारों के साथ आपका विशेष जुड़ाव रहा या किन कारणों से आप कई रचनाकारों से सामीप्य महसूस नहीं कर पाईं?

अशोकजी के घर निर्मल वर्मा, प्रयाग शुक्ल, सोबती जी, गिरधर राठी, अशोक वाजपेयी जैसे वरिष्ठ लेखकों से मिलना होता रहता था। बाद में सेमिनारों में अनंतमूर्ति, महाश्वेता देवी, कृष्ण बलदेव वैद और दिल्ली में ममता कालिया, मृदुला गर्ग, गीतांजलिश्री, अनामिका से परिचय हुआ। प्रियदर्शन से भी बात होती है। इधर फ़ेसबुक पर नए लेखकों से बातचीत होती है और उनकी रचनाएँ भी पढ़ी जाती हैं। उनमें गद्य में अम्बर पांडेय, अनुकृति उपाध्याय सबसे ज़्यादा प्रभावित करते हैं। मेरे पास समय की हमेशा कमी रही। इसलिए सबसे दूरियाँ ही जीवन का सच बना रहा। पर यह प्रतीति रहती है कि हम सब एक महान भाषा को बरतने में साझीदार हैं। इसलिए सब मेरे लिए आत्मवत हैं।

  1. कोई लेखक अपने पात्रों की दृष्टि से भी दुनिया देखता है। किशोर बाबू, रूबी गुप्ता, कादम्बरी, गाथा, जयदीप आदि के माध्यम से लेखक स्वयं ऐसी कई और चीज़ों को देख लेता है जो अन्यथा उसके लिए भी संभव नहीं होता। कुछ लिखते हुए लेखक स्वयं भी उस सृजन में सम्मिलित हो रहा होता है और शायद तभी हर बार लिखने के नए अरण्य में वह प्रवेश करता चला जाता है। ख़ासकर हिंदी यानी भारतीय भाषाओं के साहित्य में जहाँ लेखन को लेकर किसी समुचित पारिश्रमिक की व्यवस्था नहीं है, इस तरह के लेखकीय समर्पण को लेकर क्या कभी कोई चिढ़ भी मचती है? ऐसे किसी मोहभंग से कैसे निपटती हैं?

वाह, आपने मेरे सारे पात्रों को एक साथ सामने खड़ा कर दिया। मैं अपने बहुत सारे पाठकों से फ़ेस्बुक और ईमेल के ज़रिए जुड़ी रहती हूँ। मुझे लगता है पाठकों की उपस्थिति ही मेरा पारिश्रमिक है। मेरे लिखने के बीच मोहभंग या चिढ़ ने कभी बाधा नहीं डाली। लिखते रह पाना ही मेरा ध्येय है। इसमें मेरे जीवन का अर्थ मुझे  मिला है।

  1. जीवन से आए पात्र, कथा में आकर कुछ अलग ढंग से मचलते और विकसित होते हैं। फिर वे अपना एक प्रति-संसार रचते हैं। यथार्थ की वह अनुकृति यथार्थ से दूर तो होती है, मगर अपना एक स्वतंत्र यथार्थ भी रचती है। जीवन और रचना के ऐसे द्वंद्वात्मक संबंधों को लेकर जब आप सोचती हैं, तब आपका रचनाकार अपने रचे पर कितना पुलकता और खीझता है? इन दोनों ही पहलुओं पर चर्चा करें।

आपके प्रश्न बहुत दूर तक सोच को ले जा रहे हैं। हाँ, जीवन से मिले पात्र अपना स्वतंत्र अस्तित्व बना लेते हैं।  कई बार लोग पूछते हैं कि कलकत्ता आएँ, तो आप कुलभूषण से मिलवा सकती हैं? किशोर बाबू से मिलना तो बहुत लोग चाहते थे। यही लेखन की उपलब्धि  है कि पात्र सौ प्रतिशत असली लगने लगते हैं। मुझे बहुत मज़ा आता है। मैं जवाब में कहती हूँ, मैं भी इन्हें खोज रही हूँ, जो कि एक सच है। खीझ तब होती है जब परिचित लोग पूछते हैं, फ़लाना पात्र फलाने शख़्स पर बनाया ना?

  1. भाषा को पढ़ते हुए जिस तरह की अपेक्षाएँ आप दूसरों लेखकों से करती हैं, भाषा को स्वयं बरतते हुए आपका लेखक आपके पाठक की अपेक्षाओं पर कितना खरा उतर पाता है? भाषा में अपने तईं छेड़छाड़, भाषा के परंपराबद्ध रूप में कुछ नया जोड़ना भी है। इसपर भी कुछ कहें।

मुझे लगता है कि भाषा के बारे में इतनी सचेतनता रचते समय नहीं होती। कथा कहने की भाषा आपके अंदर से अपने आप निकलती है। नयापन तो होता है क्योंकि भाषा लगातार नई होती रहती है। हम उस नवीनता को जाने-अनजाने आत्मसात् करते रहते हैं। कहीं कुछ नया पढ़ने मिले तो उमंग होती है। उससे आप भी नवीन होते चलते हैं।

  1. कोलकाता में रहने के कारण विभिन्न संस्कृतियों के आपपर जाने-अनजाने प्रभाव पड़ते रहे हैं। कोलकाता अपने विविध बदलावों सहित कई-कई रूपों में आपकी कृतियों में दर्ज़ है। इस कोलकाता को लेकर कुछ ऐसी बातें बताएँ, जो अब तक आपकी कृतियों में नहीं आ पाए हैं और जिन्हें रचनात्मक रूप से दर्ज़ करने की छटपटाहट आपमें अभी ज़ारी है।

मेरी परिधि इतनी व्यापक कहाँ है कि कलकत्ते का सब कुछ आ जाए! यह शहर, इसकी गलियाँ, पुराने मोहल्ले और मकान न जाने कितने रहस्य समेटे हैं, जिन तक मैं पहुँची नहीं हूँ। एक अंग्रेजों का बनाया मकान था जिसमें पचास साल पहले एक हत्या हुई थी। बाद में उसे तोड़कर बीस साल पहले मकान बना, जिसमें फिर एक जवान लड़की की हत्या हुई। मुझे लगता है कि मैं इस पर लिखूँ तो यह अंधविश्वास जैसा लगेगा। पर उस मकान के सामने से गुज़रते बार-बार मैं इस पर सोचती हूँ। क्या पता, एक मर्डर-मिस्टरी कभी लिखी जाए जो अंग्रेजों के ज़माने में हुए सवा सौ साल पहले के क़िस्से तक जाए!

  1. समकालीन साहित्यिक परिदृश्य पर, ख़ासतौर से हिंदी साहित्य के परिदृश्य पर आपके क्या विचार हैं? आजकल के लेखन की प्रवृत्ति पर कुछ कहें। इसकी ख़ूबियाँ और सीमाएँ आपकी नज़र में?

जैसा कि मैंने कहा, हम सब एक साथ एक पानी में तैर रहे हैं। खूबियाँ और सीमाएँ तो किनारे पर बैठ हमें देखते पाठक और आलोचक बताएँगे। प्रवृत्ति तो पुराना शब्द है। स्कूल कॉलेज में हिंदी साहित्य के इतिहास में पढ़ाया जाता है। किसी प्रवृत्ति में मेरे लेखन की गिनती न हो पाए, यही तमन्ना है।

  1. आपने बाल साहित्य भी रचा है। कभी शैतानी न करने वाला लड़काकहानी का गोलू हमें जब-तब याद आता है। उसमें भी क्रमवार हम चरित्र-विकास पाते हैं। ख़ासकर जब उसकी चाची को बेटा होता है तो न सिर्फ़ गोलू के नाम की तर्ज़ पर उसका नाम गुलगुल रखा जाता है, बल्कि अप्रत्याशित ढंग से गोलू उस बच्चे के नज़दीक आता है। अपने स्वभाव को पीछे छोड़ते हुए। यह एक अच्छी कहानी है। सवाल यह कि हिंदी साहित्य में अमूमन उपेक्षित बाल-किशोर साहित्य के पीछे के क्या कारण हैं?

कारणों का अध्ययन तो मैंने नहीं किया। अपनी बात कहूँ तो संयुक्त परिवार में इतने बच्चों के साथ रहते भी कभी मेरे मन में उनके लिए कहानियाँ लिखने का मन नहीं हुआ। जाने क्यों? अब भी मैं नानी की भूमिका में पाँच साल की समिका को पंचतंत्र, ईसप की कथाएँ, अलिबाबा चालीस चोर, सुदर्शन और प्रेमचंद की कहानियाँ कुछ अदल-बदल कर सुनाती हूँ। कोई नई कथा बनती ही नहीं।

  1. आप वेनिस विश्वविद्यालय में एक कोर्स का अध्यापन करती रही हैं। उसके बारे में और वहाँ से जुड़े अपने अनुभवों के बारे में सविस्तार बताएँ।

मैंने वेनिस में हिंदी पढ़नेवाले वरिष्ठ छात्रों को बांग्ला और हिंदी साहित्य का सम्बंध और बांग्ला का ककहरा पढ़ाया। वे छात्र हमसे ज़्यादा शुद्ध हिंदी बोलते हैं, जिसमें अँग्रेज़ी के शब्द बिल्कुल नहीं होते। एक इतालवी लड़के को मैं कलकत्ता में ख़रीदारी करवाने ले गयी। उसने दुकानदार को चकित कर दिया , यह कहकर कि मुझे यह शर्ट कत्थई रंग में चाहिए! वहाँ छात्र सरल दिखते हैं, पर उनकी दुनिया सरल नहीं है। वे चर्च दिखाने ले जाएँगे, पर चर्च के अंदर नहीं जाएँगे क्योंकि वे अक्सर  नास्तिक हैं। अठारह साल का होते ही उन्हें अपना घर अलग बसाना है जिसके लिए उनके पास साधन नहीं होते। अगर कम पैसों के कारण वे दूर न जाना चाहें, तो उनका मज़ाक़ बनता है। उनके  माँ-बाप हिंदुस्तानियों की तरह काफ़ी व्यग्र रहते हैं कि बच्चों के लिए कुछ कर सकें। लड़कियाँ शादी करना चाहती हैं, पर लड़के नहीं चाहते क्योंकि तलाक़ होने पर क़ानूनन उन्हें ही घर ख़ाली करना होगा। कुल मिलाकर एक भिन्न मानस और भिन्न संस्कृति का आधुनिकता के साथ द्वंद्वात्मक संबंध देखने का मौक़ा  था।

  1. आपके कुछ उपन्यास इतालवी भाषा में अनूदित-प्रकाशित हुए हैं। आपको इटली की सरकार द्वारा आर्डर ऑफ़ द स्टार ऑफ़ इटली-कैवेलियर सम्मान प्राप्त हुआ। अंतर्राष्ट्रीय पहचान और सम्मान से जुड़े अपने इस अनुभव के बारे में कुछ साझा करें।

यह सब सपना था जो कभी देखा नहीं गया था, पर पूरा हो गया। वहाँ देखा कि लाइन लगाकर विद्यार्थियों ने पचास किताबें साइन करवा कर ख़रीदीं। मिलान शहर में कदम कदम पर किताबों की दुकानें हैं। पैदल जाकर बीसियों दुकानों में किताबें साइन कीं। हर रीडिंग में जितनी किताबें प्रकाशक ने रखीं, सब बिक गयीं। ट्रेन में दस लेखकीय प्रतियाँ मिनटों में आधे दाम में बेच दीं, क्योंकि उन्हें ढोकर भारत लाने का कोई तुक नहीं था। लोग उत्साह से ख़रीद रहे थे। कोई हिंदी का लेखक भारत में ऐसा होने की कल्पना कर सकता है?

  1. आपके अनुवाद में तेरह हलफ़नामे’ (2022) नामक पुस्तक आई। इसमें आपने ग्यारह भारतीय भाषाओं से तेरह भारतीय स्त्री रचनाकारों की कहानियों को शामिल किया। उनके चयन का आधार क्या रहा? अनुवाद करते हुए आपके कैसे अनुभव रहे? अँग्रेज़ी में अलग-अलग समय पर कुछ परिवर्तनों के साथ आए संग्रह सेपरेट जर्नीसे यह संग्रह किस तरह भिन्न है?

अधिकांश कहानियाँ ‘सेपरेट जर्नी’ में गीता धर्मराजन के द्वारा चयनित कहानियां ही हैं। मैंने सिर्फ़ हिंदी में एक कहानी जोड़ी और गुजराती की कहानी बदली। अनुवाद इस तरह भिन्न ज़रूर है कि अंग्रेज़ी में इन कहानियों के अलग-अलग अनुवादक हैं। किंतु अंग्रेज़ी से हिन्दी में सारी कहानियाँ एक अनुवादक ने की हैं। इसलिए एक ख़ास भाषिक सूत्र उन्हें जोड़ता है।

  1. इतिहास से प्राप्त किसी कथा में भी कथाकार कई तरह की छूटें लेता है। इतिहास से भिन्न तभी उसका महत्त्व है। गांधी और सरलादेवी चौधरानी : बारह अध्यायउपन्यास के संदर्भ में आपने क्या छूटें लीं? कई बार स्थापित और महान व्यक्तित्वों के अंतरंग पक्षों पर लिखते हुए हम कुछ दबाव में आ जाते हैं। क्या आप भी ऐसे किसी दबाव में रहीं? और हाँ, एक सवाल यह भी कि इसके बारह अध्याय ही क्यों और उसपर बल भी क्यों?

गाँधी का जीवन इतना खुला और डॉक्युमेंटेड है कि उस पर अधिक छूट नहीं ली जा सकती। ज़्यादा औपन्यासिक छूट सरलादेवी पर ही संभव थी। फिर भी, उपन्यास की कथा बुनना अपने आप में कल्पना के बिना संभव नहीं है। मसलन गाँधी ने सरलादेवी को यह कहा था कि आपकी हँसी इस देश की संपदा है, यह बात मुझे सरलादेवी की आत्मकथा से मिली। किंतु उपन्यास की शुरुआत में यह बात गाँधी लाहौर में सरलादेवी को उनके दरवाज़े पर पहुँचते ही कहते हैं- यह कल्पना है।

मैंने किसी तरह का दबाव महसूस नहीं किया क्योंकि उनकी अंतरंगता के चित्र गाँधी के पत्रों में बिखरे हुए हैं। गाँधी उसे communion कहते हैं। प्रेम की उस ऊँचाई को शरीर के धरातल पर लाकर चटखारेदार उपन्यास लिखना मेरा उद्देश्य भी नहीं था।

बारह अध्याय इसलिए कि यह प्रेम बारह मास ही टिक पाया था। इसमें ‘बारहमासा’ की ध्वनि भी है।

  1. गांधी और सरलादेवी चौधरानी:बारह अध्यायउपन्यास के लिए आपने काफ़ी अनुसंधान-कार्य किया। इस पुस्तक पर दिए गए आपके कुछ वक्तव्यों को सुनते हुए यह महसूस होता है। ज़ाहिर है कि वह सब कुछ इस कृति में समाहित नहीं किया जा सका होगा। क्या ऐसी कुछ घटनाएँ हैं, जिन्हें पुस्तक में शामिल न कर पाने का आपको मलाल हो?

ऐसी तो कोई बात नहीं।

  1. सरला देवी के व्यक्तित्व के किस कोण ने आपको ज़्यादा प्रभावित किया? एक राजनैतिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ सरला देवी एक रचनाकार और संपादक भी रही हैं। उनके लेखक को आप किस तरह देखती हैं? गाँधी और सरलादेवी चौधरानी के संबंधों पर लिखते हुए किन ख़ास जगहों पर आपको रुक-रुक कर/बार-बार संशोधित करते हुए लिखना पड़ा?

गाँधी जिस तरह सरलादेवी के व्यक्तित्व, उनकी बौद्धिकता, संगीत की प्रतिभा, उनकी हँसी पर मुग्ध हुए होंगे, उसी तरह मैं भी उनसे प्रभावित हुई। एक लेखक के तौर पर सरलादेवी को कोई मान्यता बांग्ला भाषा में भी नहीं मिली हुई है। मैंने उनकी आत्मकथा और समग्र लेखन को पढ़ उनकी वाणी के ओज को ज़रूर महसूस किया।

उनके संबंधों पर लिखते हुए मेरे अंदर एक उफान था—भावना का, श्रद्धा का और आश्चर्य का भी। उसी लहर में बिना रुके मैंने लिखा। संशोधन सिर्फ़ इतना किया कि सरलादेवी के प्राप्त चार पत्रों में उनके अंदर की जो कटुता है, उसे मैंने कम कर के लिखा। मुझसे यही हो पाया। आप जिसके प्रति प्रेम या श्रद्धा रखते हों, उसकी आलोचना में मुलायम हो जाते हैं। सरलादेवी के कष्ट का अनुभव करते हुए भी मैं गाँधी के प्रति सहृदय ही बनी रही।

  1. आपके लिए साहित्य का क्या अर्थ है और उसकी इनसाइडर के रूप में आप उसकी सीमाएँ क्या पाती हैं?

साहित्य का अर्थ यह है कि वह आपको संवेदनशील बनाए। दूसरे के दुःख से जोड़कर आपको बेहतर इंसान बनाए। जीवन के यथार्थ को उसके तमाम रंगों के साथ समझने का मौक़ा दे और लोगों की कमज़ोरियों या भिन्नताओं के प्रति असहिष्णु होने और नफ़रत करने से बचाए। कई बार लगता है कि जो लेखक है, क्या वह ख़ुद एक बेहतरीन इंसान बन पाता है? हम शब्द-जाल बुनकर किरदार खड़े करने में बस माहिर हो जाते हैं, पर ख़ुद हम जरा भी नहीं बदलते।

  1. आपके प्रिय कवि, कहानीकार और उपन्यासकार कौन हैं? साहित्येतर किन विषयों में आपकी रुचि है?

जो लिखता है, वह मेरा प्रिय है। काश मैं और पढ़ पाती। अपने लिखने के चक्कर में पढ़ना कम हो जाता है।  पेड़ पौधे देखने और उगाने में रुचि है। चिड़ियों की आवाज़  पहचानने में रुचि है। घंटों तालाब को देखते रहने में रुचि है।

  1. बतौर रचनाकार शुरुआत में आप किस तरह के संघर्ष रहे और अब कैसे संघर्ष हैं?

तक़दीर ही कहिए कि मेरे जीवन में बतौर लेखक संघर्ष नहीं रहे। वर्तमान साहित्य के महाविशेषांक में छपी पहली कहानी से नाम और पहचान मिल गयी। पहले उपन्यास पर साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिल गया। संघर्ष यही है कि और क्या लिखा जाए।

  1. प्रकाशकों और उनके द्वारा लेखकों को दिए-न दिए और कम दिए जानेवाले मानदेय को लेकर जब-तब बहस होती रहती है। इससे जुड़े आपके अनुभव कैसे हैं?

कम तो है ही। मैंने कोई शिकायत की  न पाली।

  1. निरंतर सृजनरत एक रचनाकार के लिए अपने ही दुहराव से बचने की एक बड़ी चुनौती रहती है। यह समस्या, हर रचनाकार के समक्ष आती है। आपके भी सामने आई होगी। इसका मुक़ाबला किस तरह करती हैं और स्वयं को कितना सफल मानती हैं?

हर बार कथा अलग होती है, पात्र अलग होते हैं। भाषा में कहीं दोहराव भले दिख जाए। जीवन इतना विविध है, दोहराव का क्या काम!

  1. आपको ग़ुस्सा किन परिस्थितियों में आता है?

मेरी सास ने कहा था कि भुवनेश्वर जा रही हो, तो नरसिंह मंदिर का दर्शन कर लेना। उससे ग़ुस्सा कम हो जाता है।  ग़ुस्सा मुझे आता है जब मेरे मन के विरुद्ध बात होती है। ग़ुस्सा पिता से विरासत में मिला था, अब समझ के साथ सचमुच कम हो गया है। ग़ुस्सा हमारी ताक़त नहीं, कमजोरी है और अक्सर अपने से कम ताक़त वाले पर ज़ोर चलाना है। लेकिन ग़ुस्सा न आए तो हम अन्याय के खिलाफ़ कैसे लड़ेंगे ? इसलिए ग़ुस्सा ज़रूरी भी है।

  1. आप लेखक नहीं होती तो क्या होती?

क्या होती! कुछ नहीं होती। अच्छी गृहस्थन तो न अब हूँ न तब होती। बचपन में दादी ने माँ-बाप से छिपकर कहा था, यह सब घर-गृहस्थी करने के लिए ऊपरवाले ने तुम्हें नहीं भेजा है। इसलिए मैंने न खाना बनाना सीखा, न होम साइंस लिया। स्कूल में टॉपर रहने से कोई कुछ कहता भी न था। माँ ज़रूर कहती थी, पढ़-पढ़ कर आँखें ख़राब हो जाएँगी, कोई शादी नहीं करेगा। मुझे लगता है दादी को पता होगा कि ऊपरवाले ने मुझे लेखक बनने के लिए भेजा है। मेरी माँ बढ़िया  जलेबी बनाती थी, मैं कहानियों की जलेबियाँ उतारती हूँ।

  • तद्भव के 45वें अंक में प्रकाशित इस बातचीत में जानकी पुल के लिए कुछ नए प्रश्न जोड़े गए हैं। कहीं-कहीं कुछ परिवर्धन/संशोधन भी हुए हैं।

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मो   : 0-9413396755

ई-मेल : kumararpan1977@gmail.com

संप्रति गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में।

अर्पण कुमार के पाँच कविता-संग्रह ‘नदी के पार नदी, ‘मैं सड़क हूँ, ‘पोले झुनझुने, ‘सह-अस्तित्व’, ‘नदी अविराम क्रमशः सन् 2002, 2011, 2018, 2020 और 2022 में प्रकाशित हुए। सन् 2017 में उनका उपन्यास पच्चीस वर्ग गज़ प्रकाशित हुआ। उनके संपादन में आलोचना की पुस्तक आत्मकथा का आलोक : मैंने जो जिया‘ (उद्भ्रांत) पर चतुर्दिक विमर्श सन् 2020 में प्रकाशित हुई। आलोचना विधा में दूसरी पुस्तक सर्जना के आयाम, सर्जक : उदयभानु पांडेय 2022 में आई। विभिन्न पत्रिकाओं/अख़बारों में, वेबसाइट्स पर और साझा संकलनों में उनकी कई कहानियाँ प्रकाशित हैं। कुछेक यात्रा-संस्मरण/व्यक्ति-चित्र प्रकाशित हैं। वे ‘जनसुलभ पुस्तकालय’ (फ़िलहाल हैक्ड), ‘जनसुलभ पुस्तकालय कहन कोश’, ‘रवि वार्ता’ जैसे फ़ेसबुक पृष्ठों और यू ट्यूब चैनलों से विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक महत्त्व के कार्यक्रमों का संचालन–संपादन करते हैं। कई महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों में उनकी भागीदारी रही, जहाँ उन्होंने कविताएँ, कहानियाँ, आलेख आदि पढ़े। कुछेक लेखकों से बातचीत की। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं :

* हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा आयोजित निराला साहित्य पर्व,प्रथम में कविता-पाठ।

* सार्क सूफ़ी महोत्सव,जयपुर में एकाधिक बार कविता-पाठ।

* भारत भवन, भोपाल में कहानी और आलेख-पाठ।

* रज़ा फ़ाउण्डेशन और कृष्णा सोबती-शिवनाथ निधि द्वारा आयोजित युवा 2022, मंडला में आलेख-पाठ।

* भोपाल में आयोजित विश्वरंग 2022, 2023 में भागीदारी।

* ‘साहित्य आज तक’, लखनऊ में भागीदारी।

उनकी कई रचनाओं का रेडियो एवं टीवी से प्रसारण हुआ। मसलन, उनकी कई कविताएँ/कहानियाँ आकाशवाणी के दिल्ली,जयपुर,बिलासपुर एवं गोरखपुर केंद्रों से प्रसारित हुईं। दूरदर्शन के जयपुर और जगदलपुर केंद्रों से उनकी कविताओं का प्रसारण हुआ। उनसे हुई बातचीत का प्रसारण ‘दूरदर्शन’ के जगदलपुर केंद्र एवं ‘पत्रिका टीवी’, जयपुर से हुआ। वे हिंदी अकादमी, दिल्ली से पुरस्कृत हैं। फ़ोटोग्राफ़ी और पर्यटन के शौकीन अर्पण कुमार के कई छायाचित्र पुस्तको और पत्रिकाओं के आवरण पर प्रयुक्त हुए हैं। मूलतः पटना के रहनेवाले अर्पण कुमार की उच्चतर शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली एवं भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली में हुई।

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6 comments

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