कवि-लेखक यतीश कुमार की किताब आई ‘बोरसी भर आँच: अतीत का सैरबीन’। संस्मरण विधा की यह पुस्तक राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। उसी पुस्तक से एक अंश पढ़िए-
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मन के भीतर मस्तिष्क है या मस्तिष्क के भीतर मन यह तो पता नहीं;पर मस्तिष्क के भीतर शिराओं में जो अजब सर्पीली बारीक नसें हैं जिनके घूमने का कोई निश्चित रूप नहीं,वहीं कुलबुलाती हैं, वे कोकून के लार्वा सी यादें।कभी-कभी वह सिहरन में बदल जाती हैं और उसी सिहरन में थम-थम कर दृश्यों का रेला चमकता है।ऐसा ही बादल 2009 में एक बार चमका था। 1974 बैच के आईपीएस डी. एन. गौतम को बिहार का पुलिस महानिदेशक बनाए जाने की खबर मेरी स्मृतियों से कैसे जुड़ी,समझ से परे है।स्मृतियाँ तरल होती हैं पर कभी-कभी उसका कुछ हिस्सा पत्थर-सा हो जाता है,असल में वे ठोस स्मृतियाँ होती हैं और आप जानते हैं कि ठोस और द्रव्य के घर्षण से कुछ नहीं निकलता पर कुछ ही देर में पाया कि स्मृतियाँ ठोस विस्मृतियों से लड़ रही हैं और हर भिड़ंत एक चिंगारी पैदा कर रही है और हर चिंगारी के फ़्लैश में कुछ फ्लैशबैक उभर रहा है।
एक-एक धागा फ्लैश बैक का पूरा परिदृश्य रचने को व्याकुल है।मैं इसकी पुष्टि करने माँ के पास जाता हूँ।कुछ भी बोलने से पहले माँ की आँखें डबडबा जाती हैं पर उनके मुँह से अधिकारी गौतम नहीं, प्रकाश सिंह का नाम निकलता है।मुझे यह नाम मंत्र की जगह याद है- डर निवारण मंत्र!
रात में या पौ फटने से पहले जब भी हम किऊल स्टेशन और लखीसराय को जोड़ने वाली लोहे की रेल पुल से गुजरते,यह नाम बुदबुदाते रहते।उन दिनों छिनतई इस पुल पर बहुत आम बात थी और यह नाम डर से जीतने का नाम था हमारे बाल मन के लिए। ऐसा अक्सर ननिहाल(मुंगेर)से लौटते समय होता जब आदत से मजबूर जमालपुर-किऊल लोकल देर से ही पहुँचती और हमें उस थरथराते पुल से देर रात गुजरना होता।अब यह प्रश्न उठता है कि कौन हैं ये प्रकाश सिंह और क्यों उनके नाम की याद आ रही है मुझे, तो चलिए इस कस्बे के परिदृश्य का किस्सा आगे बढ़ाते हैं।
औपनिवेशिक शक्तियाँ जब अपने मकड़जाल बुनती हैं तब शुरू होता है उत्कर्ष और अपकर्ष के बीच का खूनी खेल।यह बात उस समय की है जब जातीय संघर्ष के समीकरण में भयंकर उलट फेर हो रहे थे।यही नहीं,आपसी सामंजस्य भी प्रश्नों के घेरे में थे।यहाँ तक कि कौन सी जाति किस जाति पर जुल्म ढा रही है यह भी पता नहीं चलता।अधिक यादव,कैलू यादव(पिपहरा),रामजी ढाँढी और प्रकाश सिंह इनमें से कौन सच है कौन झूठ,कुछ पता नहीं चलता। यह उस दशक का बहुत मुश्किल समय था।खुटहा-लखीसराय के इर्द गिर्द की अजीबोगरीब विचलित करने वाली कहानियां।बड़हिया से लखीसराय और फिर बेगूसराय के बीच की कहानी लिखने कोई बैठे तो कई उपन्यास ही लिख डाले।दिलीप सिंह यानी बड़े सरकार, सूर्यभान सिंह,बरमेश्वर मुखिया,अशोक सम्राट,कामदेव सिंह, किशोर पहलवान,देवन सिंह,टिक्कर सिंह जैसे एक-से-एक दिग्गजों की अनगिनत कहानियाँ।पूरे इलाके में भय और स्वयं को बचाने की लड़ाई से लेकर आधिपत्य के सिंहासन पर विराजमान होने तक की जद्दोजहद रही।इस सिंहासन को किऊल नदी का पानी लाल करके ही हासिल किया जा सकता था ।इस घमासान के बीच बचपन बिताना अभिशाप है या वरदान पता नहीं चला।लेकिन,अब लगता है कितने अनूठे अनुभव हैं जो शायद ही बिहार के किसी अन्य भाग में रहने वालों को नसीब हुए हों।मोकामा,बेगूसराय, लखीसराय,सूर्यगढ़ा और इनके बीच का दियारा क्षेत्र चम्बल के समकक्ष ही रहा होगा।अराजकता अपने चरम पर थी।जीवन को पूरी तरह नेस्तनाबूद करने के लिए किसी की ज़िंदगी में ऐसी एक ही घटना काफ़ी थी।