युवा लेखक मिहिर पंड्या की पुस्तक “शहर और सिनेमा:वाया दिल्ली” की काफी चर्चा रही. उसी पुस्तक पर प्रसिद्ध लेखक स्वयंप्रकाश ने यह टिप्पणी लिखी है- जानकी पुल.
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“शहर और सिनेमा:वाया दिल्ली” युवा फिल्म समीक्षक मिहिर पंड्या की पहली किताब है. इसके पीछे विचार यह है की हिंदी सिनेमा में दिखाए गए दिल्ली के विभिन्न और बदलते रूपों के आधार पर भारत गणतंत्र में सत्ता के बदलते स्वरुप की मीमांसा की जाये. आइडिया अच्छा है ,और सरल तथा एकरेखीय भी लगता है लेकिन विषय में प्रवेश करते ही मालूम हो जाता है कि बात इतनी सीधी और सरल नहीं है. फिल्म में किसी शहर या महानगर का चित्रण किस नज़र से और किस तरह किया जाता है यह फिल्म की आन्तारिक ज़रुरत पर निर्भर करता है, ज़रूरी नहीं कि शहर या महानगर का रूप ठीक वैसा ही हो जैसा फिल्म में बताया गया है आखिर तो यह एक फीचर फिल्म है कोई डाक्यूमेंट्री तो नहीं. लेकिन फिर भी यह ज़रूर है कि इस तरह की कोई कोशिश पहले नहीं की गयी इसलिए यह देखना भी दिलचस्प है कि हिंदी सिनेमा में देश की राजधानी दिल्ली का बदलता स्वरुप किस तरह दिखाया गया है और कि वह कथानक की आवश्यकता के अनुरूप ही है या उसके पीछे निर्देशक क़ी विचारधारा या कोई अप्रकट हेतु काम कर रहा है.
समीक्षक मिहिर पंड्या ने दिल्ली को दो भागों में विभाजित किया है. एक नेहरू कालीन दिल्ली और दूसरी उत्तर नेहरू कालीन दिल्ली. उनके अनुसार पहली दिल्ली सपनों का शहर है और दूसरी दिल्ली सत्ता का शहर जो धीरे-धीरे सत्ता के आतंक,बर्बरता और सरफिरी हिंसा का शहर बनता जा रहा है. पहले वाली दिल्ली का चित्रण करने वाली फ़िल्में है राजकपूर की “अब दिल्ली दूर नहीं” और देव आनंद की “तेरे घर के सामने” आदि और दूसरे प्रकार की दिल्ली का चित्रण करती हैं “रंग दे बसंती”,देव डी” और “दो और दो चार” तथा अब इस सब की परिणति हो रही है “नो वन किल्ड जेसिका”,”खोसला का घोंसला” और “डेली बेल्लि” जैसी फिल्मों में.
इसमें कोई शक नहीं कि इस ग्राफ के अनुसार सत्ता के बदलते चरित्र की सही और सटीक पहचान की गयी है, लेकिन इसके कारणों पर पर्याप्त विचार नहीं किया गया है जिसके बगैर यह सारा विश्लेषण काफी अराजक,नकारवादी और एक फेशनेबल सर्व समेटू धिक्कार जैसा लगता है.शायद वह पुस्तक की सीमा में होता भी नहीं. फिर भी यह प्रश्न तो बचा ही रहता है कि कोई भी कलाकृति अपने आप में भी कुछ होती है या मात्र यह या वह बात कहने का माध्यम ? यह प्रश्न पूछना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि सामाजिक दृष्टि या राजनैतिक दृष्टि से किसी भी कलाकृति पर किया गया विचार पाठ प्रदर्शक ,सत्यशोधक या अंतर्दृष्टिपूर्ण तो हो सकता है, संपूर्ण नहीं हो सकता.
लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि यह बदलते हालत पर सिनेमा के साक्ष्य से एक अच्छी टिप्पणी है.
मिहिर ने एक और चीज़ की तरफ हमारा ध्यान दिलाया है. वह कहते हैं कि आज़ादी मिलने के बाद सत्ता तंत्र द्वारा हमारी एक नयी पहचान, नयी अस्मिता बनाने की कोशिश की गयी -और वह थी एक भारतीय के रूप में हमारी पहचान. और अस्मिता के इस समरूपी करण ने”अनेकता में एकता” जैसे लुभावने नारों को जन्म दिया और हमारी अलग-अलग पहचानों को नष्ट कर दिया. और लोकप्रिय या प्रचारवादी सिनेमा ने भी इस सरकारी कोशिश का समर्थन किया और साथ दिया. इसके साक्ष्य स्वरुप मिहिर “”सात हिन्दुस्तानी” और “चक दे इण्डिया” जैसी फिल्मों का नाम लेते हैं. लेकिन प्रश्न यह है कि यदि हिन्दुस्तानी को हिन्दुस्तानी कहना उसकी निजी अस्मिता को नष्ट करना है तो फिर क्या हमें उन लोगों का आभारी होना चाहिए जो हमें हिन्दुस्तानी होने से पहले हिन्दू या मुस्लिम बताना चाहते हैं और चाहते हैं कि हम भी ऐसा ही मानें ?
पूरी पुस्तक में मिहिर ने सिनेमा के तकनीकी पहलुओं की या एक कलाकृति के रूप में उसकी गुणवत्ता क़ी बहुत कम चर्चा की है .सिनेमा में सिर्फ पटकथा और संवाद ही नहीं होते फोटोग्राफी ,संपादन,ध्वनि और प्रकाश व्यवस्था पार्श्व संगीत आदि भी होतेहैं और फिल्म के अच्छे या बुरे होने में इनका भी बहुत बड़ा हाथ होता है. केमेरा की जहाँ चर्चा हुई भी है, बड़ी अजीब तरह से हुई है. मसलन लॉन्ग शोट और टॉप शोट को मिहिर सत्ता और शक्ति का आतंक पैदा करनेवाला मानते हैं. यह व्याख्या कुछ हजम नहीं होती. हम याद करें फिल्म “मुगले आज़म” में “अय मोहब्बत जिंदाबाद” का फिल्मांकन और उसमें प्रयुक्त के मेरा कोण!! मिहिर ने “नो वन किल्ड जेसिका” में इण्डिया गेट पर लाठी चार्ज का उदहारण एक से अधिक बार दिया है लेकिन इसी फिल्म में इसी स्थान पर केंडल मार्च के दृश्य भी इसी कोण से फिल्माए गए हैं.
पूरी पुस्तक में मिहिर फिल्म को “पढ़ते” हैं और पढने की सलाह देते हैं “देखते” नहीं . न देखने की सलाह देते हैं . एक अध्येता के लिए यह उचित या ज़रूरी हो सकता है लेकिन हमें कभी नहीं भूलना चाहिए कि फिल्म अंततः देखने के लिए ही बनायीं जाती है और देखना पढने की अपेक्षा अधिक गहरा,मार्मिक और अव्याख्येय प्रभाव डालता है.
पुस्तक के अंत में आज के हिंदी सिनेमा के बारे में रविकांत,महमूद फारुकी,अक्षत वर्मा, रविश कुमार और मिहिर पंड्या की एक अत्यंत रोचक बातचीत है जो छत्तीस पृष्ठों में फैली है और जिससे भिन्न अनुभवों और विचारों के अनेक रोचक गवाक्ष खुलते हैं।
अगले अध्याय “पुचल्ला ” में 66 ऐसी फिल्मों के बारे में बताया गया है जिनका घटना क्षेत्र दिल्ली है और 40 ऐसी फिल्मों की सूची है जिनमें दिल्ली का उल्लेख है।
कुल मिलकर यह हिंदी फिल्म समीक्षा के क्षेत्र में एक नयी शुरूआत का तुमुल नाद है। प्रचलित फिल्म समीक्षा का प्रमुख लक्ष्य जहाँ फिल्म का मूल्यांकन करना और उसे तीन-चार-पांच सितारे देना रहता था ..अर्थात एक तरह से दर्शकों को सलाह देना होता था कि वे इस फिल्म को देखें या न देखे ,वहीँ ये समीक्षा ऐसा कुछ नहीं करती। यह सिर्फ यह करती है की फिल्म के कथ्य को व्यापक सामाजिक-आर्थिक सन्दर्भों से जोड़ देती है जो कि इस हलके की नयी समझदारी है। इसलिए फिल्म समीक्षा के क्षेत्र में मिहिर पंड्या का स्वागत है। आशा है वह फिल्मों को सिर्फ पढेंगे ही नहीं,देखेंगे भी.
समीक्षा की अत्यंत महत्वपूर्ण समीक्षा…
दिल्ली वाया सिनेमा वाया शब्दों की जालसाजी.ललित निबंध अच्छा लिख सकते थे पर आलोचकीय हवाबाजी के मोहपोश में पडकर गलत विधा का चयन कर लिया.