आज युवा कवयित्री प्रकृति करगेती की कविताएँ. इनको पढ़ते हुए लगता है कि समकालीन कविता की संवेदना ही नहीं भाषा भी कुछ-कुछ बदल रही है-जानकी पुल.
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कंकाल
एक कंकाल लिए
चल देते हैं
हर ऑफिस में।
कंकाल है रिज्यूमे का।
हड्डियों के सफ़ेद पन्नों पे
कुछ ख़ास दर्ज है नहीं
न ख़ून
न धमनियाँ
कुछ भी तो नहीं….
दर्ज है बस खोखली सी खोपड़ी
दो छेदों से
सपने लटकते हैं
नाक नाकारा है
सूंघती नहीं है मौकों को
ज़बान नदारद है
काले जर्जर दांत हैं बस
कपकपाते।
पलट के देखोगे पन्ने
तो नज़र आयेंगे
पसलियों की सलाखों को पकड़े
कुछ कैद ख्याल,
टुकटुकी लगाये, बहार देखते।
ये पन्नों का कंकाल है
इसमें कोई हरकत नहीं
कई दफ़ा मर चुका है ये
पर न जाने क्यूँ, कूड़ेदान के कब्रिस्तान से
बार बार उठ जाता है
जाने क्या उम्मीद लिए?
2.
चोटी
दूर एक चोटी है
खिड़की से उसे
मैं हर रोज़ ताकती हूँ मेरी आँखों की हवा
उसे काटती है धीरे धीरे
मेरे मन के बादल
उसी पे बरसते हैं
मेरी साँसे
उसकी मिट्टी हरी करती है
मेरे रोंगटों से
कलियाँ खिलती हैं उसपे
मेरे ज़हन के कम्पन से
वो थर्रा जाती है
मेरे ज़बान के फावड़े से
वो खुदती जाती हैं दूर एक चोटी है
हर रोज़ उसे मैं
यूँही ताकती हूँ
खिड़की से उसे
मैं हर रोज़ ताकती हूँ मेरी आँखों की हवा
उसे काटती है धीरे धीरे
मेरे मन के बादल
उसी पे बरसते हैं
मेरी साँसे
उसकी मिट्टी हरी करती है
मेरे रोंगटों से
कलियाँ खिलती हैं उसपे
मेरे ज़हन के कम्पन से
वो थर्रा जाती है
मेरे ज़बान के फावड़े से
वो खुदती जाती हैं दूर एक चोटी है
हर रोज़ उसे मैं
यूँही ताकती हूँ
3.
मेरा घर
मेरा घर यहीं बसता है
चाँद के पार नहीं
और न ही चाँद पर।
वह बसता है
इसी धरातल पर
जो दहल जाती है
जब लेता है करवट,
नीचे कोई
और मिट्टी खिसकती जाती है,
जब रोता है
ऊपर कोई
कैद हैं हम सब,
दहलने, खिसकने के सिलसिलों में
मेरा घर यहीं हैं
लटका पड़ा है
ऊपर और नीचे के बीच
इसी धरातल पर
4.
Tags Prakriti Kargeti
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काफ़ी अच्छा लिखती हैं आप।
सारी कविताऐं
बोल रही हैं
इसी पन्ने पर
कुछ ना कुछ
और सुनाई भी
नहीं दे रहा है
कोई भी शोर
कहीं किसी को !
बहुत उम्दा !