गणतन्त्र दिवस की सुबह जलेबी खाकर अच्छी-अच्छी रचनाएँ पढ़ने का अपना सुख है। आज सुबह दुनिया के सबसे पुराने कहे जाने वाले गणतन्त्र वैशाली जनपद के जाने-माने युवा कवि राकेश रंजन की गजलें पढ़ी। आप भी पढ़िये आजाद देश के जीवंत गणतन्त्र के नागरिक की तरह- प्रभात रंजन
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1.
पटरियों से कुचलते मुफ़लिसों के ख़्वाब जाते हैं
कभी दिल्ली, कभी बंबे,कभी पंजाब जाते हैं
परिंदों को पता क्या,चीज़ क्या होती है ये सरहद
इधर सारस पहुँचते हैं,उधर सुरख़ाब जाते हैं
फँसा मँझधार में इंसाँ,बचे कैसे, बचाए क्या
इधर ख़ुद डूबता है और उधर असबाब जाते हैं
फ़क़ीरों के सफ़र में आँसुओं के गुल बिछाता हूँ
उधर से मुझको क्या लेना जिधर नव्वाब जाते हैं
दिसंबर,बच्चियों के सुर्ख चेहरे, स्कूल का रस्ता
ज़मीं से आसमाँ तक राह दो,महताब जाते हैं।
2.
वो अपना रस्केजिनाँ गुलिस्ताँ नहीं मिलता
जो एक मुल्क था हिंदोस्ताँ नहीं मिलता
इश्क करने के लिए क्यों तेरे शहर आएँ
यहाँ भी ठीक है धोखा कहाँ नहीं मिलता
शायरी में उसे ढूँढ़ो तो कहीं मिल जाए
वरना इस दर कहाँ, शायर यहाँ नहीं मिलता
तेरी गली में भटकता हूँ कबसे तेरे लिए
तेरी दुकान मिली पर मकाँ नहीं मिलता
कभी तो रोइए अपने हुनर को ऐ रंजन
न रोइए कि कहीं क़द्रदाँ नहीं मिलता।
3.
इधर चाटते दूध-मलाई,उधर चाभते हलवा
रंजन क्या विद्रोही होंगे,ख़ाक करेंगे बलवा
सोच रहे थे जग बदलेंगे,लाएँगे परिवर्तन
मगर देख बरकते-दलाली चकरा गई अकलवा
जाने कौन दिशा से आए नए दमकते कीड़े
चाट गए वे धीरे-धीरे हमरी हरी फसलवा
एक पैर को बेच,लिया दूसरे पैर का जूता
चमड़ा जिसका चमचम चमके,पर ग़ायब है तलवा
पता नहीं कब शाम हो गई,कैसे ढला उजाला
कैसा दिलकश था इंसान जि़बह करने का जलवा!
4.
सारी दुनिया में दर-ब-दर भटका
ख़ुद से बिछड़ा तो किस क़दर भटका
तेरी ख़्वाहिश तेरी पुकार लिए
ख़्वाब में भी मैं तर-ब-तर भटका
शहर में हर क़दम पे फ़ंदे थे
वन में भटका तो बेहतर भटका
तू समंदर है मैं लहर हूँ ख़ुदा
तू ही थामे रहा जिधर भटका
वो फ़रेबी था वो ज़ालिम था मगर
उसकी सूरत मैं देखकर भटका
मेरे लफ़्ज़ों में झिलमिलाने को
चाँद अंबर में रात भर भटका
ख़्वाब शाइर के सितारों में चले
गर्दो-गर्दिश में उसका घर भटका
वहाँ तू अर्श पे बैठा है यहाँ
तेरा निज़ाम सरासर भटका।
5.
कभी नरम जैसा तो कभी गरम जैसा
अजीब यार हमारा किसी भरम जैसा
किसी से जुड़के तेरे दिल का यों बिखर जाना
ये हश्र कुछ नहीं तूने किया करम जैसा
बड़ी दरिंदगी से आदमी चबाता है
सँभल के रहना कि आता है वो धरम जैसा
तू अपनी ज़ीस्त से सत्यम-शिवम को खो करके
बचा भी तो क्या बचा सिर्फ सुंदरम जैसा
भला तो होता कि लड़ता हुआ मैं मर जाता
बुरा हुआ कि जिया और बेशरम जैसा।
6.
(बतर्ज: दौर कितना ख़राब है साहब। शायर: प्रेमकिरण। शायर के प्रति साभार)
शायरी क्या शबाब है साहब
बदनसीबी का ख़्वाब है साहब
वो पूछते हैं आशिक़ी का मज़ा
इसका कोई ज़वाब है साहब
उसकी सूरत की एक छाया है
और क्या माहताब है साहब
इसमें एक फूल छिपा रक्खा है
ये हमारी किताब है साहब
जितना जोड़ोगे घटेगा उतना
जि़ंदगी का हिसाब है साहब
उधर न जाइए कि दौलत का
अजीब रोब-दाब है साहब
जिसका ईमान यहाँ अच्छा है
उसकी कि़स्मत ख़राब है साहब
झंडियाँ तख्तियाँ जुलूस तो हैं
कहाँ पे इनक़लाब है साहब
हाथ में गुल कि आब आँखों में
आप सभी को धन्यवाद ! आप सभी का आशीर्वाद मेरी इन गजलों को मिला। गजलों में कोई कसर हो तो सुझाव भी दें।
-राकेश रंजन
इसे कहते हैं लेखन . भाई बहुत शानदार गज़लें . आपको बधाई और हार्दिक धन्यवाद !!
adbhut lekan badhayee sweekarein 🙂 (y)
शानदार गज़लें …………सुन्दर प्रस्तुति …………भ्रष्टाचार मिटाना चाहते हो तो पहले खुद को बदलो
अपने धर्म ईमान की इक कसम लो
रिश्वत ना देने ना लेने की इक पहल करो
सारे जहान में छवि फिर बदल जायेगी
हिन्दुस्तान की तकदीर निखर जायेगी
किस्मत तुम्हारी भी संवर जायेगी
हर थाली में रोटी नज़र आएगी
हर मकान पर इक छत नज़र आएगी
बस इक पहल तुम स्वयं से करके तो देखो
जब हर चेहरे पर खुशियों का कँवल खिल जाएगा
हर आँगन सुरक्षित जब नज़र आएगा
बेटियों बहनों का सम्मान जब सुरक्षित हो जायेगा
फिर गणतंत्र दिवस वास्तव में मन जाएगा
झंडियाँ तख्तियाँ जुलूस तो हैं
कहाँ पे इनक़लाब है साहब
गेंदें रुकती हैं बच्चों की
ये ऊँची मेहराब हटा ले
गेंदें रुकती हैं बच्चों की
ये ऊँची मेहराब हटा ले
बेहतरीन ग़ज़लें – बधाई