
एक बार राज कपूर से किसी ने पूछा कि आपकी फिल्मों में से आपकी सबसे अधिक प्रिय फिल्म कौन सी है ? राज कपूर ने जवाब दिया -मेरी फ़िल्में मेरे बच्चों की तरह हैं। माँ -बाप को अपने सभी बच्चे समान रूप से प्यारे होते हैं। फिर भी वे सबसे ज्यादा प्यार उसी को करते हैं जिसका कोई हाथ कमज़ोर रह गया हो या पैर कमज़ोर रह गया हो या जो अपनी अबूझ आंतरिक कमजोरी के कारण वैसा कोई काम न कर पाया हो जिसकी उससे उम्मीद की गयी थी।
हर कहानीकार को लगता है कि उसकी कुछ कहानियां तो बेहद शानदार थीं, बल्कि शाहकार थीं,लेकिन पता नहीं क्यों वे इतनी चर्चित नहीं हो पायीं, शायद वे गलत पत्रिका में छप गयीं या शायद किसी आलोचक की उन पर नज़र नहीं पडी… क्योंकि साहित्य में गुटबंदी है आदि आदि। लेकिन मुझे कभी ऐसा नहीं लगा। मुझे तो उल्टा यही लगा कि पाठकों से प्यार और आलोचकों से शाबाशी मुझे अपने हक से कुछ ज्यादा ही मिल गयी।
कहानी की दुनिया में मैं प्रेमचंद को पढ़कर नहीं,चेखव को पढ़कर आया था। और जिन्होंने मेरी पहली कहानी “प्रभाव” और पहला कहानी संग्रह “मात्रा और भार” देखा है वे आसानी से समझ सकते हैं कि मैं तब से अब तक अपने गुरूजी की ही नक़ल करने की असफल कोशिश करता आ रहा हूँ। हालाँकि बाद में मुझे राजेंद्र सिंह बेदी और मार्क ट्वेन ने भी अपने बेहद खूबसूरत और दिलफरेब दाम में गिरफ्तार किया लेकिन चाँद को छूने की बचपन की चाहत मन के किसी कोने में जस की तस बरकरार रही।
इसलिए दिल से पूछो तो मुझे अपनी वे कहानियां सबसे ज्यादा प्रिय हैं जिन्हें पढ़कर गुरूजी की थोड़ी-बहुत याद आती है। गुरूजी चरित्र चित्रण नहीं करते थे, वह उपदेश नहीं देते थे, दृष्टांत नहीं रचते थे ,उन्हें कहानी के माध्यम से किसी सिद्धांत या विचारधारा का प्रचार नहीं करना था ….वह एक वातावरण निर्मित करते थे …एक लोक सृजित करते थे …एक सृष्टि पैदा करते थे ….जिसमें यदि एक बार आप दाखिल हो जाएँ .तो आप खुद ब खुद सब समझ जाते थे …जिसकी माया में प्रविष्ट होकर आप बगैर कुछ कहे-सुने गुरूजी के मंतव्य को आत्मसात कर लेते थे। चाहे “दुःख” हो ,चाहे” एक क्लर्क की मौत “चाहे “दुल्हन” ..गुरूजी ने कभी भाषण नहीं दिया ..और सिर्फ अपनी कला से सारी दुनिया की कहानी को बदल कर रख दिया।
मुझे लेकिन बहुत सारे काम करने पड़े। संघर्ष भी, आन्दोलन भी, प्रचार भी, बहस भी ….इसलिए मैं उतनी तन्मयता से कहानियां नहीं लिख पाया। यह पाठकों की सदाशयता है कि उन्होंने मेरे जैसे-तैसे ,कच्चे-पक्के लेखन को भी इतने प्रेम से स्वीकार किया और मुझे अपने दिल में जगह दी। प्रस्तुत संकलन पाठकों के साथ इस बात को साझा करने का एक मौका,बहाना और वसीला है कि मैं किस तरह की कहानियां लिखना चाहता था।
ये कहानियां चीखती-चिल्लाती नहीं ,फुसफुसाती हैं। और अक्सर तो वह भी नहीं, वे सिर्फ एक वातारण निर्मित करती हैं और आप समझ जाते हैं कि वे क्या कहना चाहती थीं। मसलन – बच्चे हिंसा कहाँ से सीखते हैं ? और हिंसा में आनंद लेना ? क्या फिल्मों से ? वीडियो गेम्स से ? कॉमिक्स से ? मैं कुछ नहीं कहूँगा ..आप इस संकलन की पहली कहानी “स्वाद” पढ़ लीजिये ,आप खुद समझ जायेंगे और बगैर मेरे कुछ कहे परिस्थिति की भयानकता से परिचित हो जायेंगे।
जो लोग सोचते हैं कि अच्छी -अच्छी बातों से कोई इंसान बदल सकता है उन्हें “मूलचंद,बाप तथा अन्य ” कहानी ज़रूर पढना चाहिए। मैंने हमेशा अच्छे आदमियों की कहानी लिखी और हर आदमी में अच्छाई ढूँढने की कोशिश की,”तीसरी चिट्ठी” शायद मेरी अकेली कहानी है जो बुरे आदमियों के बारे में है ,हालाँकि अंत में वहां भी अच्छाई फूट पड़ती है। मेरा विश्वास है कि मनुष्य ईश्वर का सबसे बड़ा स्वप्न है। खुद ईश्वर बार-बार मनुष्य बनने की कोशिश करता है। “तीसरी चिट्ठी” मनुष्यों में मनुष्यता के प्रगट होने की कहानी है,और इसीलिये वह मुझे प्रिय है।
बगैर कुछ कहे बहुत कुछ कह देने वाली दो और कहानियां है “ढलान पर” और “एक यूं ही मौत”.आप देखिये अकेलापन क्या होता है और वह आदमी को क्या से क्या बना देता है ! यहाँ कोई उपदेश नहीं है। एक अफ़सोस ज़रूर है कि ऐसा होने की बजाय कुछ और होता तो शायद अच्छा होता ! सामान्य आदमी के जीवन में ट्रेजेडी क्या इसी तरह बेआवाज़ नहीं घटती ? मेरी अधिकांश कहानियों में कहानीकार का सक्रिय हस्तक्षेप रहता है ,और यह बात कुछ लोगों को अच्छी नहीं लगती।तो वे देखें कि “उल्टा पहाड़” और ” कहाँ जाओगे बाबा “ही नहीं ,इस संग्रह की लगभग सभी कहानियां-अपवादों को छोड़कर -लेखकीय हस्तक्षेप से मुक्त हैं।
मैं नहीं जानता हिंदी में पर्यावरण पर कितनी कहानियां हैं लेकिन मेरे पास दो -तीन ही हैं -और वे मुझे बेहद प्रिय हैं। उनमें एक रुला देने वाली बेबसी और लाचारी है। मैं खुद को रोक नहीं सका और उनमें से दो कहानियां मैंने इस संकलन के लिए चुन लीं। ये हैं – “ताज़ा खबर “और “बिछुड़ने से पहले”। वैसे “कहाँ जाओगे बाबा” का दर्द भी इससे ज्यादा भिन्न नहीं। “कहाँ जाओगे बाबा” यह सवाल मानो रिक्शावाला नायक से नहीं ,यह सदी हमसे पूछ रही है।
“उस तरफ” जैसलमेर के दिनों की याद दिलानेवाली कहानी है जहाँ मैंने अपनी जवानी के छह खूबसूरत साल गुज़ारे और जहाँ मैंने “चौथा हादसा”,एक ज़रा-सी बात”,”जो हो रहा है” और “हमला” जैसी कहानियां लिखीं। यहाँ “उस तरफ” को रखना शायद उन दिनों और दोस्तों के प्रति आभार प्रदर्शन ही है जिन्हों ने मुझे रेत के अद्भुत तिलस्म से परिचित करवाया।
लेकिन इसमें एक बारीक बात भी छिपी हुई है जिसका खुलासा अब कर ही देना चाहिए।
प्रतियोगिता और पुरस्कार को पूंजीवाद अच्छी चीज़ समझता है। सच तो यह है कि पूंजीवाद की बुनियाद ही मुक्त प्रतियोगिता पर टिकी हुई है। लेकिन मार्क्सवाद पुरस्कार और तिरस्कार दोनों को गैरज़रूरी समझता है। वह मनुष्य और मनुष्य के बीच प्रतियोगिता के विचार को ठीक नहीं समझता। उसके अनुसार यदि कोई अच्छा काम करता है तो अच्छा काम तो सबको करना ही चाहिए। और यदि कोई अच्छा काम नहीं कर पाया तो इसका मतलब यह नहीं कि वह अच्छा काम कभी कर ही नहीं पायेगा। आज हम स्कूली प्रतियोगिताओ में और रियलिटी शोज़ में छोटे-छोटे बच्चों को प्रतियोगिताओं में उलझते,जीतने पर ख़ुशी से कूदते और हारने पर बिलखते देखते हैं। हमें लगता है यह बच्चों के साथ क्रूरता है,लेकिन हम चुप रहते हैं।
और क्या मज़े की बात है कि यह बात कहानी में कही नहीं गयी है। यह उसके कथ्य में अन्तर्निहित है।यहाँ तक कि नखतसिंह का अंतिम वक्तव्य भी कल्पित है। यदि नखतसिंह वह बोल देता तो कहानी की खूबसूरती का सत्यानास हो जाता।
“अगले जनम” को आम तौर पर स्त्री होने की पीड़ा की कथा समझा गया जबकि इसका मूल मंतव्य हिंसा के खिलाफ हाथ उठाना है। मैं सिर्फ यह बता रहा हूँ कि एक जीवन का बनना और इस दुनिया मैं आना कितनी जटिल और कष्टकर प्रक्रिया के बाद होता है ….और उसी जीवन को एक झटके में बगैर सोचे-समझे नष्ट कर देना ? कौन पत्थरदिल होगा जो इस कहानी को पढने के बाद जीवन का ,जीवन देनेवाली का और जीवन पानेवाली का मोल नहीं समझेगा !
दोस्तो ! एक लेखक लिखने के अलावा क्या कर सकता है !! उसका लिखा पढ़कर अगर कोई कुछ सार्थक करने की प्रेरणा पाए ….तो बस ,समझो लेखक का जीवन सफल हो गया !
……..एक समय था जब यह माना जाता था कि साहित्यकार अपनी रचनाओं द्वारा समाज को रास्ता दिखायेगा,उसका पथ प्रशस्त करेगा। साहित्य की भूमिका मनोरंजन भी थी और जनशिक्षण भी। तब कहानियां दृष्टांत की तरह होती थीं जिनके अंत में अच्छाई की विजय और बुरे का नाश होता था और अंत में यह भी पूछा जाता था कि बताओ इस कहानी से हमको क्या शिक्षा मिलती है ?साहित्यकार को सरस्वती का वरद पुत्र माना जाता था और उसके आदर्श आचरण को लेकर किसी को कोई शंका नहीं थी।
लेकिन आज से लगभग चालीस साल पहले हुई सूचना क्रांति ने सब कुछ बदल दिया। वैसे तो ज्ञानोदय के साथ ही शिक्षा और ज्ञान पर एक विशेष वर्ग का एकाधिकार समाप्त हो गया था और वेद सुनने पर कान में पिघला सीसा डाल देने जैसी बातें इतिहास के अँधेरे अतल गव्हर में गुम हो चुकी थीं। लेकिन सूचना क्रांति ने तो साहित्य से मनोरंजन और लोकशिक्षण -ये दोनों भूमिकाएं मानो हमेशा के लिए छीन लीं। और सरस्वती को तो धीरे-धीरे लोग जैसे भूल ही गए। पहले सारे साहित्यिक कार्यक्रम सरस्वती वंदना से या सरस्वती के चित्र पर फूल माला चढाने से आरम्भ होते थे। यहाँ तक कि स्कूलों में सुबह की शुरुआत भी सरस्वती वंदना या प्रार्थना से होती थी। अब तो बहुत कम लोगों को इस बात की प्रतीति होती होगी कि सरस्वती को विद्या की देवी माना जाता है। बहुत दिन हुए निराला की प्रसिद्द सरस्वती वंदना “वीणा वादिनी वर दे “के स्वर भी कान में नहीं पड़े।
सूचना क्रांति ने न सिर्फ ज्ञान प्राप्ति के अनुष्ठान में पारलौकिक शक्तियों के हस्तक्षेप को समाप्त कर दिया बल्कि ज्ञान और सूचना के बीच के बारीक अंतर को भी धुंधला कर दिया। कौन बनेगा करोडपति नुमा सामान्य ज्ञान की प्रतियोगिताओँ में कठिन से कठिन सवालों के जवाब फटाफट देने वाले प्रतिभागी अपने जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय लेते समय दुविधा में पड़ जाते हैं और अक्सर सही निर्णय नहीं ले पाते । इनकी तुलना में इनके माँ -बाप कम सूचनासंपन्न थे ,लेकिन वे अपने अनुभव और समझ के आधार पर जो निर्णय लेते थे वे अक्सर सही साबित होते थे।
इस बदले हुए परिदृश्य में साहित्य की और विशेषकर कहानी की भूमिका बिलकुल बदल गयी है। अब पाठक अधिकतर मामलों में कहानीकार के बराबर ही या कुछ मामलों में तो उससे भी ज्यादा जानते हैं। इसलिए कहानीकार का काम कोरी सूचनाओं से नहीं चल सकता। या तो उसे ज्ञान के ऐसे क्षेत्र ढूँढने होंगे जो पाठक के लिए अछूते हों या उसे लोगों के अंतर्मन की उलझनों की और ध्यान देना होगा और मन की उलझनों का कुछ ऐसा विश्लेषण करके दिखाना होगा जो पाठक नहीं कर सकता। काम कठिन और चुनौतीपूर्ण है,लेकिन ज़रूरी है।
दुनिया भर में लेखकों ने इसी तरह इस चुनौती का सामना किया है। या तो वे इतिहास की शरण में चले गए या वे अज्ञात और अल्पज्ञात जनजातियों की बस्तियों की तरफ निकल गए या उन्होंने साइंस फिक्शन के माध्यम से भविष्य के काल्पनिक चित्र बनाने शुरू कर दिए। लेकिन इस चक्कर में वर्तमान के ज्वलंत अन्तर्विरोध अनदेखे होते गए और दुनिया को बेहतर बनाने के संकल्प को अत्यंत सुविधापूर्वक भूल जाया गया।
एक बात और है। सब जानते हैं कि ज़माने की रफ़्तार बहुत तेज़ हो गयी है और लोगों के पास किताब पढने के लिए पहले जैसी फुर्सत और इत्मीनान नहीं बचा है। इस एक तथ्य ने साहित्य के विधागत कला रूपों को बदलने में जबरदस्त भूमिका निभाई। मेगानरेटिव्स का ज़माना बीत गया – चाहे वे महाकाव्य हों या बृहद उपन्यास। अन्य माध्यमों यथा फिल्म और टेलिविज़न के विकास ने वर्णन की कला को भी फालतू और गैरज़रूरी बना दिया। विवरण हमारे चाक्षुष अनुभव का हिस्सा बन गए। बड़ी-बड़ी और जीवन के लिए महत्वपूर्ण बातें साहित्य की सीमा से बाहर निकलती गयीं और साहित्य मात्र अनुभूतियों का पुंज बनता गया। विश्लेषण गायब हो गया तो चरित्र भी गायब हो गए और साहित्यकार का काम महज़ टिप्पणियाँ करना रह गया। पढ़ने में कौतुहल और रहस्य-रोमांच का जो आनंद हुआ करता था वह धीरे-धीरे गायब होता गया और इसके साथ ही साथ पाठक साहित्य से छिटककर अन्य विधाओं की तरफ-मसलन सिनेमा की तरफ जाने लगे।
लेकिन इसका एक लाभ भी हुआ। फिक्शन के महत्त्व और उसमें रूचि के घटने के साथ ही नॉन फिक्शन का महत्त्व और उसमें रूचि बढ़ने लगी। लोग यात्रा वृत्तान्त,जीवनी,मुकदमों की दास्तान ,स्वीकारोक्तियां और पत्र-डायरी वगैरह पढना ज्यादा पसंद करने लगे। यहाँ तक कि कहानी-उपन्यास लेखन भी इससे अछूता नहीं रहा। वह भी वास्तविक घटनाओं पर आधारित होकर क्रोनिकल का रूप ग्रहण करने लगा। चीज़ें पलटवार कैसे करती हैं इसे देखना हो तो इस तथ्य की तरफ ध्यान जाना चाहिए कि फिक्शन का चलन कमज़ोर पड़ते ही इतिहास को भी फिक्शन के रूप में लिखा जाने लगा …और वह पाठकों में आसानी से स्वीकृत भी हो गया। यहाँ तक कि कुछ उत्साही विश्लेषकों ने इतिहास के अंत की ही घोषणा कर दी।
इसी बीच बाज़ार की शक्तियां इतनी शक्तिशाली हो गयीं कि उन्होंने भी साहित्य पर और साहित्य की रचना पर अपना प्रभाव डालना शुरू कर दिया। साहित्यिक रचनाओं को प्रकाशित करनेवाली व्यावसायिक पत्रिकाएं एक-एक करके बंद होती गयीं। पत्रकारिता के लिए पहले जहाँ साहित्यिक अभिरुचि को एक गुण माना जाता था , अब उसे दोष माना जाने लगा। अख़बारों में से न सिर्फ साहित्य गायब हुआ बल्कि साहित्यिक और शुद्ध भाषा भी गायब हो गयी। भाषा पर तो दोहरा अत्याचार हुआ -एक पत्रकारिता की तरफ से और दूसरा इंटरनेट की तरफ से जो भारत में अंग्रेजी का प्रचार करने वाले मेकाले से सौ गुना बड़ा मेकाले था। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को अपना माल भारत के बाज़ार में बेचना था। इसके लिए या तो उनका प्रचार हिंदी में करना पड़ता- जो काफी महंगा पड़ता या हिंदी को ही ऐसा बना दिया जाता कि वह अंग्रेजी के अंतर्राष्ट्रीय प्रचार तंत्र से परिचित हो सके और उसे हज़म-बल्कि आत्मसात कर सके। उन्होंने ठीक यही किया और देवनागरी में अंग्रेजी की ठूंसठांस आरम्भ कर दी। नतीजा यह निकला कि हमारी नयी पीढ़ी को प्रसाद और पन्त की ही नहीं प्रेमचंद की भाषा भी दुर्बोध लगने लगी। पहले हिंदी की रोटी खाने वाली बम्बइया फिल्म की अभिनेत्री अंग्रेजी बोलने में और हिंदी नहीं जानने में गर्व का अनुभव करती थी ,अब अभिनेत्रियाँ ही आयात होने लगीं। हिंदुस्तानी आदमी गोरी चमड़ी और नीली आँखों का हमेशा से गुलाम रहा है – यह मैं नहीं कह रहा हूँ – भीष्म साहनी ने कहा था।
अब एक और सितम देखिये। देश के आज़ाद होने के बाद हिंदी में पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण की ज़रुरत को महसूस किया गया। ताकि उसके लिए अंग्रेजी पर निर्भर न रहना पड़े। और पारिभाषिक शब्दावली बनाने का काम जिन विद्वानों को सौंपा गया था उन्होंने क्या किया ? उन्होंने उर्दू के आमफहम शब्दों को भी चुटिया पकड़-पकड़कर बाहर फेंकना शुरू किया। जबकि उर्दू कचहरी की भाषा थी और उसके पारिभाषिक शब्द न सिर्फ हिंदी के देहाती-अनपढ़ नागरिकों तक को आसानी से समझ में आते थे बल्कि मराठी,गुजराती ,उड़िया और बंगाली भाषा तक में उनकी रसाई थी। इससे जहाँ एक तरफ हिंदी लूली-लंगड़ी हुई वहीँ दूसरी तरफ वह अन्य देसी भाषाओँ की भी दुश्मन नंबर एक हो गयी-जोकि वह आज़ादी से पहले हरगिज़ नहीं थी। इसका दूसरा भयानक परिणाम यह हुआ कि भाषा भी साम्प्रदायिकता का एक हथियार और बहाना बन गयी। इसने देश के दूसरे सबसे बड़े बहुसंख्यक वर्ग – यानी मुसलमानों को मुख्य धारा से हाशिये पर धकेल दिया।
० ०
तो क्या हमें मान लेना चाहिए कि हम एक गुलाम देश की गुलाम भाषा के गुलाम रचनाकार हैं ?
प्रतिबद्ध रचनाकार ऐसा नहीं मानते। उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी मूल प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ा। उनकी नज़र में साहित्य सोद्देश्य होना चाहिए। साहित्य का लक्ष्य जनता को एक नए और समतापूर्ण समाज के निर्माण के लिए तैयार करना होना चाहिए। उसे जनता के हमदर्द,दोस्त और हमसफ़र की भूमिका निभाना चाहिए और वर्ग विभाजित समाज में उसे हर हाल में मेहनतकश जनता के पक्ष में होना चाहिए।
हिंदी के पक्षधर और प्रतिबद्ध साहित्य की भूमिका उल्लेखनीय और स्मरण योग्य रही है। पहले उसने अमरीका की युद्धप्रियता के विरुद्ध भारतीय जनता को योजनाबद्ध विकास और समाजवाद का पक्षधर बनाया। फिर उसने आतंकवाद के विरोध में अपने पाठकों को युद्धोन्मादी होने से बचाया। फिर हिन्दू पुनरुथान के दौर में उसने साम्प्रदायिकता के खिलाफ ज़ोरदार मुहिम छेड़ी और आज वह वस्तुमोह और उपभोक्तावाद के वर्तमान दौर में साम्राज्यवाद और बाज़ार के विरोध में हिंदी प्रदेश की जनता को सजग-सचेत करने की कोशिश में जुटा है।
साहित्यिक आन्दोलनों का इतिहास देखें तो अस्तित्ववाद,एब्सर्ड और अमूर्तन का प्रवेश जब आधुनिकता के नाम पर हुआ ,उसके विरुद्ध प्रगतिवाद खड़ा हो गया,व्यक्तिवाद और रूपवाद को जब युग् भाषा बनाने का प्रयास किया गया, उसके मुकाबले यथार्थवाद और जनवाद खड़ा हो गया और इतना ही नहीं जनवाद-प्रगतिवाद हिंदी साहित्य की मुख्य धारा की तरह स्थापित हो गया।
साहित्य की लड़ाई मूल्यों के स्तर पर होती है। जिन मूल्यों का आप जीवन के लिए वरण करते हैं उनसे आपके संस्कार बनते हैं और जिन संस्कारों को लेकर आप बड़े होते हैं उनसे ही आपका आचरण बनता है। और संस्कार सिर्फ परिवार तथा सोहबत से ही नहीं पठन -पाठन से भी बनते हैं। लिखने से पहले साहित्यकार को पता होना चाहिए कि कौन से संस्कार सामंतवादी हैं ,कौन से पूंजीवादी और कौन से समाजवादी। मसलन स्वामिभक्ति सामंती संस्कार है,स्पर्धा पूंजीवादी और सहकार समाजवादी। जन्मगत श्रेष्ठता सामंती भाव है, क्षणवाद पूंजीवादी भाव और समता समाजवादी भाव। अब हमें देखना चाहिए कि अपनी रचनाओं के माध्यम से लेखक किन मूल्यों का समर्थन कर रहा है और किनका विरोध ,और तदनुसार ही रचना का मूल्यांकन करना चाहिए।
इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो “स्वाद” समाज की जड़ों तक पहुँच गयी हिंसा की तरफ ध्यान दिलाती है, “एक यूं ही मौत” विद्वानों की अकर्मण्यता की निंदा करती है,”ताज़ा खबर”,और “बिछुड़ने से पहले” मुनाफे के लिए धरती के पर्यावरण को नष्ट करने की प्रवृत्ति की आलोचना करती है और “कहाँ जाओगे बाबा” पूंजीवादी विकास की असंगतियों को उजागर करती है। “तीसरी चिट्ठी” महिलाओं के प्रति अमानवीय और असभ्य व्यवहार का कच्चा चिटठा सामने रखती है ,”उल्टा पहाड़” साम्प्रदायिकता और मुसलमानों के घेट्टोकरण को एक बिलकुल ही अलग कोण से देखती है और “अगले जनम” लैंगिक असमानता और तज्जन्य हिंसा को बिलकुल जड़ से पकडती है। “ढलान पर” समाज के वरिष्ठ नागरिकों के साथ किये जानेवाले अवज्ञापूर्ण व्यवहार की शिकायत दर्ज करती है और “उस तरफ” पुरस्कार तथा तिरस्कार की मूल्यहीनता पर प्रकाश डालती है।
एक बेहतर समाज बेहतर मनुष्यों से ही बन सकता है और एक बेहतर मनुष्य वही हो सकता है जिसकी सोच आधुनिक,वैज्ञानिक और मानवीय होगी।
यह किताब इसी दिशा में एक निहायत मामूली-सा प्रयास है।
=====================================
दुर्लभ किताबों के PDF के लिए जानकी पुल को telegram पर सब्सक्राइब करें
wah…behad sarthak
शानदार