‘दर्रा दर्रा हिमालय’ वाले डॉक्टर-लेखक अजय सोडानी ने नोटबंदी के दौर में यह स्मरण कथा लिखी है- मॉडरेटर ===========================================
माँ तू झूठी थी
जैसे-जैसे सर पर चाँदी बढ़ती है और खुपड़िया पर पूर्णिमा का चाँद उभरने लगता है, बरसों से शान्त भीतर का बच्चा अपने अनुत्तरित सवालों से अंतर में बवाल मचाने लगता है। सालों पूर्व ऐसा एक प्रश्न औचक ही सामने आ खड़ा हुआ और तब से अडिग है, जहाँ का तहाँ।
बात कई पचास एक साल पहले की होगी, जब मौसम अपने ‘मौसम’ में ही आया करते थे, गरमी-सर्दी के अवकाश अक्षुण्ण थे, माँ के पास वक्त की कमी न थी और रेहड़ी वाले सड़कों को अतिक्रमित नहीं वरन् आबाद किया करते थे। जहाँ हमारा घर था उसके पास से गुजरने वाली गली, सुबह से शाम तक, अनेक काका-भैयाओं के अपने सीने से होकर गुजरने देती थी। सुबह ब्रेड, क्रीमरोल से भरी पेटी सिर पर लादे बुक्का फाड़ चीख़ते ‘केकु‘ काका से शुरु हुआ दिन दोपहर ढलते-ढलते पूरे शबाब पर आ जाता। डुगडुगी बजाते चुस्की वाले, चूरन-आमड़ा-घुघनी लिए टुनटुनिया वाले, चूड़ी वाले, घण्टी के मधुर स्वर बिखेरते बुढ़िया के बाल वालों से होते हुए रात को आईसक्रीम वाले अथवा गन्ने के रस वाले भैया के गुजरने के बाद ही गली कुछ आराम पाती। हर आवाज़ पर तितर-बितर बच्चे और घरों में घुसी भाभियाँ गली में उतर आतीं, और ‘भद्र’ बच्चे अपनी-अपनी बालकनियों में। आज़ाद बच्चे रेहड़ी वालों को घेरते तथा चटखारे भरते हुए पत्तों पर परोसी चाट चट करते। भद्र बच्चे ललचाई नजरों से उन्हें देखा करते। मैं भी देखता, कुढ़ता तथा सोचता, ’कितनी निष्ठुर है मेरी माँ, जो ऐसे बेहतरीन पकवानों से मुझे महरूम रख लौकी-बैंगन की भाजी में स्वाद तलाशने को कहती है…।’’ ऐसी ही एक ढलती दोपहर को मेरी सोई क़िस्मत ने पलटा मारा। माँ को तरस आया और उसने मेरी हथेली पर चवन्नी धर, सिर पर हाथ फेरते हुए, गली में जा मनपसंद आईसक्रीम खाने को कहा। पैरों में पंख लग गए, हिया नाच उठा। दूसरे मालों से उड़ा और डुगडुगी बजाते आईसक्रीम वालों के समीप पहुँच गया। नज़र टेढ़े मेढ़े अक्षरों से लिखी ‘रेट लिस्ट’ पर फिरने लगी। टूटी-फ्रूटी, चौकलेट, वेनिला – डेढ़ रुपये, बाकि कुछ एक रुपये, बारह आने या फिर आठ आने का। चार बार बोर्ड पढ़ डाला किन्तु चार आने के आँकड़े में कोई माल फँसता न दिखा, सिवा एक ऑरेंज बार के। इर्द-गिर्द देखा, किसी के हाथ में रेला छोड़ने वाली बेहूदा ऑरेंज बार न थी। अब? चवन्नी चोंच में दबाए उड़ रहा मन भरभरा कर गिरने लगा। पडोसी के हम उम्र बच्चे ने मेरा मन ताड़ा, मेरी चवन्नी में सवा रुपये मिला मुझे मेरी पसंदीदा टूटी-फ्रूटी बार दिलवा दी। मन की मुराद पुरी हुई। लाल,हरे,पीले टुकड़ों से सजी आईसक्रीम हाथ में थी। नाक के नजदीक ला उसकी महक चखी, लबों से सटा उसकी ठंडक महसूस की, जीभ फेर उसका मलमलीपन परखा। भीतर से निकली डंडी को चूस कर फेंकने बाद ही घर का रूख़ किया। अभी ड्योढ़ी बमुश्किल पार की ही थी कि गालों पर माँ का हमला हो गया। अपनी दी चवन्नी कैसे खर्च की जा रही थी , उसका आकलन माँ बालकनी से कर रही होगी। यह साधारण सी बात कलुषरहित बालमन में क्यों न आयी कि भद्र बच्चे अपनी माँ की आँखों से कतई ओझल नहीं हो सकते! चीख़ा, ’तुमने मुझे दो रुपये क्यों न दिए? तुम्हारे चार आने में मेरी मनपसंद आईसक्रीम न आई तो क्या करता?’
जवाब आया, करमजले, यह सब त¨ ब्लैक मनीवाले लोग हैं। तेरा बाप तो काली-कौड़ी घर नहीं लाता। व्हाईट वाले लोग अपने बच्चे को यह सब नहीं खिला सकते…।’
यह मेरा रंग भेद से प्रथम परिचय था, और बापों के भिन्न प्रकारों से भी। तब अकसर सोचता कितना निकम्मा बाप है मेरा, सारा दिन खटता है पर काले धन की फूटी कौड़ी भी कमा कर नहीं लाता। निर्णय करता कि मैं सिर्फ काला पैसा ही कमाऊँगा, क्या काम का वह पैसा जिससे सिर्फ बैंगन-लौकी ही खरीदी जा सके? पर काला पैसा दिखता कैसा है, उसे पहचानूं कैसे? अनेक बार उन बच्चों के हाथों से नोट ले उन्हें छू-सूंघ कर देखा, हर दफा अपने बाप के लाए नोटों से उन्हें अलहदा न पा भ्रमित हुआ। बहस करता माँ से कि ’तुम झूठी हो। उनके और हमारे पैसों का रंग और रूप तो हुबहू है।’’
माँ कहती, ’राशन की दुकानों से लोगों की पाँती के चावल और चीनी गरीबों में ईमानदारी से बाँटने के बनिस्बद काला बाजार में बेच कर कमाया धन है उनका। उनका रुपया निर्धन के रक्त से सना है। ऐसे नोट काले दिखते नहीं पर होते हैं, उनके भीतर कालिख़ भरी होती है।’
मन नहीं माना। उनके नोटों को फिर से देखा, एकदम लकदक, ख़ून तो दूर धूल के धब्बे भी नहीं। एक बार तो पडोसी के लड़के के हाथ से नोट झपट बीच से चीर डाला, न ख़ून चुआ ना कालिख़। मैं भौंचक! माँ झूठी है! कहती थी किसी के हाथ से झटका धन काला होता है- हाँ माँएं झूठी होतीं हैं!
माँ से पूछना बंद कर दिया, पर बालकनी न छूटी, न छूटा वहाँ से निहारना गुजरते वक्त को। गलियाँ हायवे में बदल गयीं। सड़कें चमचमाती कारें और दनदनातीं मोटर-साइकिलें सर पर अदब से ढोने लगीं। रेहड़ी वाले, जिनकी आँखों में पहचान की लहर देख मेरा सीना कुप्पा हुआ करता था, गटर के किनारे खड़े होने से भी मोहताज हो गए। आज उसी बालकनी से देख रहा हूँ एक ऐसे देश को जो कतारबद्ध है, बैंकों के द्वार पर। कहते हैं लोग अपने काले नोटों को बदलने के लिए व्यग्र हैं। ढूँढ़ रहा हूँ काले नोट वाले ‘आज़ाद’ बच्चों के वंशजों को, इन कतारों में। वे हैं पर इक्का-दुक्का, बैंक तक क्यँू कर आएं वे जिनके आँगन में बैंक शाखाएं लगाती हैं। वहाँ कुछ नेता अवश्य हैं, जिनके हाथों में बदलवाने वास्ते नोट तो नहीं अपितु नारे लिखी तख़्तियाँ हैं। वहाँ नज़र आ रहे हैं सड़कों के हाशिए पर कै़द किसान, भिखारी, रेहड़ीवाले, मज़दूर – अपने रक्तरंजित, मैले-काले नोट हाथों में थामे। भयभीत, नज़र झुकाए ये लोग शर्म से डूब ही जाते जो घर पर बिलखते बच्चे और रोगग्रस्त बूढ़े न होते। वे आदमी नहीं अपितु ‘रेहड़ियाँ’ हैं। ’आज़ाद’ लोगों के कुछ बच्चे आज भी इन रेहड़ियों को घेरे खड़े हैं आधे भावों में प्रचलन के बाहर धकेले नोटों उनसे लेने को। सुना है वे खरीद चुके हैं दुगने दाम में सोना या फिर विदेश भ्रमण हेतु ’बिजनेस क्लास’ के टिकट- उन्हें अपने विदेशी बैंकों के खाते जो संभालना है। माँ मैंने आज काला धन पहचान लिया। कितनी झूठी थीं तुम जो कहतीं थीं दूसरे के हक़ से मारा धन काला होता है। देखो तो सही जिनका धन काला था वे अपने नोटों का रंग बदलने को बेचैन आज कैसे कतारबद्ध खड़े हैं।
अजय सोडानी
Beautiful
मार्मिक
शुक्रिया
दिल को छू लेने वाली कहानी.