ट्रेन से बिहार जाने की मेरी यादों में यह भी है कि ट्रेन जब सुबह के समय यूपी बिहार की सीमा के आसपास होती थी तो खेतों में नीलगायें दिखाई देती थीं. पिछले कई दशकों में मैंने खेतों में उन नीलगायों का कम होते जाना देखा है. प्रतिष्ठा सिंह ने नीलगायों की कम होती संख्या के ऊपर ही लिखा है. प्रतिष्ठा सिंह इन दिनों अपनी किताब ‘वोटर माता की जय’ के कारण चर्चा में हैं. बिहार चुनावों में महिलाओं के वोटिंग पैटर्न को लेकर एक अनूठी किताब लिखने वाली प्रतिष्ठा बहुत अलग तरह से चीजों को देखती हैं. ऐसे विषयों को उठाती हैं जिनके ऊपर लोगों का ध्यान कम जाता है. जैसे उनका यह लेख- मॉडरेटर
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गए साल कुछ हंगामा हुआ था कि बिहार में नीलगायों पर दनादन गोली चलाने के केंद्र के आदेश को वापस लिया जाए। तब तक, ग़ैरसरकारी आकंडों के अनुसार लगभग 500 नीलगायों को गोली से भूना जा चुका था। उनकी ग़लती इतनी थी कि जिस इलाक़े पर मनुष्य क़ब्ज़ा कर चुका है, वो आज भी उसे अपना समझ रही थी। तर्क कई हैं लेकिन मैं एक अहम सवाल से शुरुआत करूँगी। कहा गया था कि चूँकि नीलगाय की संख्या बड़ गई है, इसलिए उन्हें मार देना ही इकलौता विकल्प है। सवाल ये है कि नीलगाय की गिनती कब हुई और किस सरकारी अथवा ग़ैरसरकारी संस्था ने इसे अंजाम दिया। इसी सवाल को पूछने की प्रबल इच्छा लिए हम 10 जून को सुप्रीम कोर्ट पहुँच गए। संविधान में जो लिखा है वैसा ही वास्तविकता में होता होगा, ये सोचने की भारी भूल हम कर बैठे थे। लिखा है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय के किसी जज का ध्यान स्वयं ही किसी सामाजिक अन्याय पर पड़ जाये, तो वो ख़ुद ही केस बना सकता है। हमने सोचा, कोर्ट के ग्रीष्मावकाश का समय है, क्यों न हम किसी जज से मिलने की कोशिश करें और उनका ध्यान इस अन्याय की ओर खींचें। कोई भी संवेदनशील व्यक्ति जानवरों के इस संहार को देख कर बौखला जाएगा, न? यानी अगर नीलगायों ने खेतों में विचरण करने का महापाप किया भी है तो उन्हे एक अवसर तो मिलना ही चाहिए, न? अजमल कसाब को भी तो अवसर दिया गया था, न? ख़ैर, जैसे-तैसे रजिस्ट्रार से मुलाक़ात हुई। उन्होंने अपनी हँसी छिपाने की कोशिश भी नहीं की! हमारी और संविधान की हमारी समझ की उपयुक्त मात्रा में खिल्ली उठाई गई “कोई जज सुओ मोटो नहीं लेता! और यदि चिट्ठी लिखिएगा तो जवाब भी नहीं आएगा!” हम रात ही में इ-मेल लिख चुके थे। रजिस्ट्रार साहब सही थे, जवाब आज तक भी नहीं आया है।
हमने केस करने की ठान ली। किसी बड़े वक़ील की मदद से पी.आई.एल. ड्राफ़्ट कर ली गई। उन्होंने सत्तर हज़ार रुपये माँगें। फिर शायद हमारी सूरत देख कर पैंतीस तक पहुँच गए। हमने एक पाई भी देने से इनकार कर दिया “पब्लिक इंट्रस्ट” है! ये हम सब के लिए है!” उन्हें शायद हमारी दलील पसंद आ गई और उन्होंने कुछ नहीं लिया, बल्कि शुभकामनाएँ देकर हमें विदा किया। हमने अगले ही दिन सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी डाल दी। वो दिन है और आज का दिन है, न्यायपालिका से हमारा विश्वास निरंतर उठता रहा।
जब आप कोई पेटिशन करने जाइयेगा (भगवान न करे! यानी अल्लाह, जीजस, वाहेगुरु इत्यादि भी न करें!) तो आपको कुछ चौंकाने वाले तथ्यों का ज्ञान होगा। अर्ज़ी की इतनी सारी फ़ोटोकॉपी करनी पड़ती हैं कि सामूहिक रुप से दुनियाभर के पेड़ पहले ही आप पर हाय लगा देंगे! काग़ज़ की बर्बादी जितनी यूनिवर्सिटी के चुनावों में पायेंगे, उससे कहीं ज़्यादा न्यायालयों में होती है। बहरहाल, एक डिपार्टमेंट का नाम है “डिफैक्टस डिपार्टमेंट”। इनका काम ही है आपकी अर्ज़ी में नुखताचीनी कर के कमियाँ निकालना। हमें पूरे बीस दिन लग गए डिफैक्टस सुलझाते। “मैडम, काली स्याही से लिखना है!”
“मैडम, यहाँ एक ‘स्पेस’ ज़्यादा है!”
“मैडम, इस पन्ने पर आपको दस्तखत नहीं करना था!”
“मैडम, आप दुनिया में आई ही क्यों!”
आदि इत्यादि।
महिना भर बीत गया था और अब नीलगाय पुरानी ख़बर हो गई थीं। हमें “इंटरैक्शन” के लिए रजिस्ट्रार के दफ़्तर जाना था। इसके लिए हमें इ-मेल से सूचित किया गया। हमें रजिस्ट्रार साहब को ये यक़ीन दिलाना था कि हम दिमाग़ी रुप से स्थिर हैं और अंग्रेज़ी में बहस कर सकते हैं। हमने ये भी कर दिखाया। उस दिन जब हम घर वापस आए तो इंटरैक्शन का नोटिस भी घर पहुँच गया था। भारतीय डाक पर फिर कभी बात होगी। अभी के लिए हमें कहा गया कि जब पहली तारीख़ लग जायेगी तो हमें बता दिया जायेगा। हमने जल्द से जल्द तारीख़ लगवाने की गुहार की थी। एक महीने बाद की तारीख़ लगवाई गई। हम बुझ चुके थे पर “पेटिशनर इन परसन” होने के नाते हमें स्वयं अपने केस की जिरह करने जाना था। हम गए थे। कोर्ट नम्बर एक चीफ़ जस्टिस का होता है। वे बीच में बैठे थे एवं उनकी दोनों ओर एक-एक जज और बैठे थे। हमारा नम्बर १८ था। बुलाया गया। हमनें “मी लार्ड” सीख रखा था। “मी लार्ड, नीलगायों की संख्या का कोई सर्वे नहीं हुआ है। और किसी भी अन्य तरीके से उनकी संख्या को रोकने की कोई पहल सरकार ने पिछले दशक में नहीं करी है!”
बाईं तरफ़ वाले लार्ड चीफ़ जस्टिस के कान में कुछ बुदबुदाए। “पहले भी किसी ने नीलगाय के लिए केस किया था। कितने लोग खड़े होंगे नीलगाय के लिए?” उन्होंने अट्टहास करते हुए पूछा। “आई होप, बहुत सारे!” ख़ून तो खौल ही रहा था लेकिन साथ ही लाचारी का अहसास भी हो रहा था। उन्होंने मेरी एक न सुनी। केस डिसमिस कर दिया। वे सर्वोत्तम न्यायाधीश हैं। नीलगाय कुछ भी नहीं हैं। स्वयं के लिए न्याय की माँग तक नहीं कर सकती। आप फ़ेसबुक पर व्यस्त हैं और वहाँ फ़िलहाल चुनावी रैलियाँ छायी हुई हैं। सरस्वती पूजा के दिन फिर बिहार गयी थी। जहाँ कुछ बेचारी नीलगाय दिख जाती थीं, वहाँ अब फ़सल चुपचाप खड़ी है। दोस्ती तो गेहूँ की बालियों की भी थी उन नीलगायों से। बहरहाल, मूक होने का क़र्ज़ दोनो ही दे रहीं हैं। दुखद है।
संपर्क: iampratisingh
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