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उपासना झा की कुछ नई नई कविताएँ

कविताओं में संवेदनशीलता जितनी अधिक होती है शब्दों का सौन्दर्य उतना ही बढ़ जाता है. उपासना झा की कविताओं में बहुत गहरी तल्लीनता है जो अपने साथ पढने वाले को लिए जाती है और उदास एकांत में छोड़ जाती है. इस बार उनकी कविताओं का स्वर अलग है लेकिन वही एकाग्र तल्लीनता जो उनके लेखन को आत्मीय बना देता है- मॉडरेटर
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1.
तुम्हारी छाती और कंधों पर
देखती हूँ पिघला हुआ सुवर्ण
होंठो के कोनों से बहकर
गले पर ढुलक आयी
पानी की एक बूंद देखकर
लग आयी है मुझे प्यास
 
उलझे हुए मेरे केशों में
तुम्हारे स्वेद का पराग है
तुमने हाथ बढ़ाकर छू
लिया है मेरा माथा
रूस उठे हैं मेरे गाल
अभिमान से भर उठी हैं बाहें
 
देखती हूँ पृष्ठ पर उग आए
कई प्रेमिल चिन्ह
तुम्हारी ग्रीवा और वक्ष
है मेरे सिंदूर से अरुणाभ
एक सलज्ज मुस्कान
ढांप लेती है मेरा मुख
 
अर्धनिद्रित तुम्हारी आँखों से
झाँकती है एक नई इच्छा
तुमने तकिये को लगाया है वक्ष से
डाह से जल उठती है मेरी देह
अभी सह्य नहीं मुझे
एक करवट भर की दूरी भी
 
2.
 
पारस
———-
 
तुम्हारे छूने भर से
सदियों से सोया हुआ एक गीत
जग आया है मेरी आवाज़ में
अब डोलती है निरापद
बूंदों की बोलियाँ
प्रतीक्षा जो बनाये रखती थी मुझे
अपनी गंध में उन्मत्त हिरण
उसने पा लिया है
कस्तूरी का स्रोत
बहती है एक धार ओजस्विनी
बहा ले जाती हैं
लाज के ऊंचे किले
मुक्त हृदय कब चिंता करता है
दाग लगने की
गाँठ पड़ने की
दिवा-रात्रि अनवरत जलते मन को
मिल गया है मानसरोवर
 
3.
 
मीत तुम्हारी प्रीति
सहज नहीं; कठिन
ज्यों जेठ की दुपहरी में
मीलों लंबी सड़क पर
जलते हैं तलुये
जब कहते हो तुम
मुझे नहीं प्यार
 
धूजती है देह
कँपता है गात
देह जाती है
सिहर-सिहर
रूठते हो तुम
दुनिया बन जाती है
शीत का समुद्र
 
आँखे बंद कर लो तो
दुनिया बन जाती
हिंसक अरण्य
भय और कौतूहल
बचता मेरे लिए
मानो महापूजा का
अंतिम प्रसाद
 
तुमको माँगती हूँ
तुमसे ही
जानती हूँ
अपूर्ण है आयोजन
तबतक कि
मेरी उत्कंठा से स्वयं को
तुम भी न पाना चाहो; पूर्ण
 
4.
 
आदत
—————-
 
जब मैं पढ़ने लगती हूँ दुनिया भर में सिमटते पहाड़-पठार,
और पृथ्वी के तल से कमता पानी
विलुप्त होते जंगल
नष्ट होते वन
साल दर साल कम होती बारिश
सूरज से आता असह्य ताप
तभी अचानक
कहीं दूर से आये
रातरानी की सुगन्धि की तरह याद आते हो तुम
और….
कितने जमे हुए पहाड़ पिघलने लगते हैं
पृथ्वी के तल से पानी जो कम हुआ
वो उतर आता है पक्षाभ मेघ बनकर नयनों में
विलुप्त हुए सब जंगल तुम्हारी पलकों में छिप जाते हैं
मैं सोचती हूँ
नष्ट वनों ने नहीं सुनी थी
तुम्हारी हरियाली सी आवाज़
तुम्हारे रूठने भर से मेघ भूल उठते हैं अपनी पगडंडी
सूरज उगलता है आग
देखा! कहती रही हूँ न
जरा नाराज़ कम हुआ करो।
 
जब मैं लिखने लगती हूँ मन की साध
तो उग आती है
तुमसे मिलने की इच्छा
जब लिखती हूँ मीत
तो नाम तुम्हारा होता है
जब लिखती हूँ तुम्हारी आँखो का रंग
तो मेरे होंठो की वलय पर
एक अलभ्य लालसा उग आती है
जब लिखती हूँ गंध
देह से आती है लज्जा की धूम
मीत मेरे, एक दिन तुम नहीं होगे
मैं भी नहीं होऊंगी
प्रेम बन जायेगा स्मृति
स्मृति बन जाएगी चिता की अग्नि
अग्नि की जिह्वा पर देह छोड़कर
हम-तुम मिलेंगे किसी और लोक में
लेकिन इन कविताओं में पढ़ा जा सकेगा तुम्हें
 
पृथ्वी घूम जाती है एक दिन में
अपनी धुरी पर
शुक्ल पक्ष से कृष्ण पक्ष में अंतर है आधे महीने का
और चंद्रमा भी
कर लेता है सत्ताईस दिन में एक परिक्रमा पूरी,
हर ढाई महीने में
बदल जाती है मौसम की चाल
हर बारह महीने पर
बदल जायेगा पंचांग
छह साल पर एक बार होगा अर्द्धकुंभ
मीत मेरे, ग्यारह दिन लगते हैं स्पर्श भूलने में
इक्कीस दिन में बदल सकती है
याद की सीढ़ी
छियासठ दिनों में बदल जाती है आदत
उतने दिनों का ही है मेरा जीवन-चक्र।
 
 
      

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9 comments

  1. सन्तोष सिंह

    अभी के समय की उपासना झा हिंदी कविता की एक उभरती सशक्त हस्ताक्षर है. यहाँ लगी ये बेहतरीन कविताएँ इस बात की गवाह हैं.

  2. हमेशा की तरह सुन्दर ।
    बेहतरीन

  3. हमेशा की तरह बेहतरीन

  4. बेहतरीन कविताएँ

  5. हाड़-मांस से बनी हमारी इस काया के रंध्र-रंध्र में प्रेम इस क़दर रचा-बसा हुआ हैं कि दिखता तो नहीं पर रोज़-रोज़ किसी न किसी बहाने सीझता रहता है।
    उपासना की प्रेम में सराबोर कवितायें हमें ऊपर से लेकर नीचे तक आप्लावित कर जाती हैं। प्रेम के सांयोगिक क्रिया में अनायास आते हुए प्रेमी के अंग- छाती, कंधे, होठ, गाल, केश, माथा, ग्रीवा, वक्ष कुछ भी हों प्रेम के समवेत वाहक बन जाते हैं।
    पारस कविता प्रेमी के स्पर्श से अभिभूत प्रेमिका में खिल उठे प्रेम को अनोखे लालित्य से उभारकर सान्द्र कर देती है।

    तीसरी कविता प्रेमी और प्रेमिका के आपस में एकाकार स्वरूप को खोजने की चेष्टाओं ki अत्यंत सुशोभन तस्वीर बना देती है ।
    आदत कविताप्रेम में प्रेमी के हर छोटे-बड़े व्यवहार को आदत तक का मनमोहक विस्तार देती है और हम कविता के आखिर तक पहुंचते-पहुंचते अभिभूत हो जाते हैं ।
    सभी कविताएं ऐसी तरलता से लिखी गयी हैं जैसे उन्हें जिया गया हो । बेहद सरल और सजीव भाषा में।
    मुझे उन्हें पढ़कर काफी देर तक आंखें बंद का चुप रहना पड़ा ।

  6. 
    من برای هویدا کردن این مطلب صفحه های زیادی را جستجو
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    برای وافر از بازدید کنندگان
    مناسب بادا

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    وبلاگ ذایع کند برای اینکه
    جزیل آزگار است

  8. 
    عالی است مطلب گردآوری شده توسط شما
    وافر لثه گردآوری شده است و من مطمئن هستم که
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