प्रतिष्ठा सिंह इटैलियन भाषा पढ़ाती हैं लेकिन अपने समाज से गहरा जुड़ाव रखती हैं. बिहार की महिला मतदाताओं के बीच कम करके उन्होंने ‘वोटर माता की जय’ किताब लिखी जो अपने ढंग की अनूठी किताब है. उनका यह लेख भारत-नेपाल सीमा पर होने वाले स्त्रियों के खरीद फरोख्त का पर है. लोमहर्षक लेकिन क्रूर सत्य- मॉडरेटर
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बिहार का सीमांचल इलाक़ा नेपाल के बॉर्डर को छूता है। बॉर्डर का अर्थ यहाँ वो क़तई नहीं है जो पाकिस्तान की तरफ़ के इलाक़ों में है। ट्रेनों और बसों में भर-भर के ढेरों लोग रोज़ाना जोगमनी और बिराटनगर आते-जाते रहते हैं। फारबिसगंज शहर की मेन रोड पर बसों, टेम्पुओं की क़तारें लगी हैं। गाड़ियों को पीट-पीटकर आपको उनमें बैठने के लिए बुलाया जाता है। सब कुछ एक ग़ज़ब की तेज़ी से किया जाता है। आप यहाँ आइएगा तो नेपाल शब्द तक सुनने को नहीं मिलेगा। बिराटनगर मानो बिहार-बंगाल का ही एक हिस्सा बन गए हों। दोनो ही ओर जन जीवन एक समान है। हाँ, इस तरफ़ शायद मुसलमानों के कुछ बड़े टोले बस्ते हैं। ये सरहद के उस पार भी जाते हैं। बड़े बड़े हाट बाज़ार उस पार हैं। वहाँ से लोग यहाँ भी आते हैं। कभी ख़रीदार, कभी मज़दूर बनकर। लेकिन यहाँ एक और ख़ास क़िस्म की बाज़ारू गतिविधि भी होती है: लड़कियों की। ठीक भी तो है, लड़की कहीं की भी हो, एक वस्तु ही तो होती है। उसे ख़रीद-फ़रोख़्त का सामान बनाने वाले हर धर्म-जाती के होते हैं। लड़की एक अदना वस्तु है। गर बिक गयी तो समझो अच्छी क़िस्मत लिखवा के लायी थी। क्या फ़र्क़ पड़ता है की यह क़िस्मत भगवान ने लिखी हो या अल्लाह ने?
बॉर्डर पर कुछ महीनों पहले एक और लड़की मिली। दलाल उसे बेचने नेपाल जा रहा था। क़िस्मत बुरी थी उस सामान की, बिक नहीं पायी। पकड़ ली गयी। थाने में सब जानते हैं कि यहाँ यह एक आम घटना है। पुलिस वालों ने लड़की पर तरस तो खाया लेकिन, हमेशा की तरह, एक सवाल खड़ा हो गया: कहाँ रखें इस अभागन को? तेरह वर्षीय लड़की या तो सामान बन सकती है या बोझ। यह लड़की पहले सामान थी अब बोझ बन गयी थी। ‘अपने आप फ़ॉर विमेन’ एक ऐसी संस्था है जो ख़रीदी-बेची जाने वाली इन लड़कियों को नया जीवन देती है। उस दिन सुबह ‘अपने आप’ के दफ़्तर में फ़ोन की घंटी एक बार फिर बज उठी। लड़की को उनके सेंटर पर लाया गया। अब कुछ महीनों ये ही उसका घर होगा। यहाँ के सायकॉलिजस्ट ने बच्ची से बातचीत शुरू कर दी। वह बांगला बोलती थी लेकिन अपने घर का पता बताने में नाकाम रही। लेकिन इतना बता पायी कि वह अपने घर के बाहर खेल रही थी और उसे किसी ने कुछ सूँघा दिया। बेहोशी खुली तो वह आदमी उसे बस में कहीं ले जा रहा था। चार महीने बाद उसे अपने घर का एक फ़ोन नम्बर याद आया। माँ-बाप बंगाल से फारबिसगंज आ गए अपनी खोई हुई बेटी को घर ले जाने। ऐसी कहानियों की यहाँ कमी नहीं। कई छापे तो यह लोग ख़ुद ही मारते हैं। कई बार पुलिस इन्हें साथ में जाने को कहती है। कभी कोई बेचारी भाग कर यहाँ तक पहुँच जाती है और कभी कोई बच्ची किसी के घर की बेस्मेंट में ज़ंजीरों से बंधी पायी जाती है। जो मिल जाती हैं, उन्हें पढ़ाया जाता है। पास के गाँव सिमराहा के कस्तूरबा बाल विद्यालय के हॉस्टल में लड़कियों को बाक़ी की ग़रीब बच्चियों के साथ रखा जाता है। वहीं स्कूल में पढ़ाई होती है। कुछ समय बाद बच्चियाँ एक दूसरे में हिल-मिल जाती हैं। अपने दर्द से ‘अपने आप’ की मदद से उबर आती हैं। मुस्कुराने लगती हैं, गुनगुनाने लगती हैं। इनमें से कई बच्चियों को उच्च शिक्षा भी प्रदान की जाती है। कुछ तो पटना में नौकरी भी करने लगी हैं।
‘अपने आप’ का एक सेंटर लाल बत्ती कॉलोनी में भी है। यहाँ जिस्म का धंधा करने वाली महिलाओं के बच्चों को पढ़ाया जाता है। टिफ़िन का लालच देकर बच्चों को इस दलदल से दूर लाया जाता है। पिछले 13 सालों में इस केंद्र का इतना दबदबा हो गया है कि अब कोई अपनी बेटी को इस धंधे में नहीं लगा पाता। लेकिन सवाल वहीं है: कमाई हो तो कहाँ से? सरकार रोज़गार के नाम पर ठेंगा दिखाती रहेगी और ग्राहक नक़द पैसा लेकर द्वार पर खड़ा रहेगा तो इन्हें इस धंधे से दूर रखना भी मुश्किल ही रहेगा। सिलाई-कढ़ाई सिखाने के साथ ही इन बच्चियों को स्वाभिमान और मशक़्क़त से भरे जीवन का महत्व भी सिखाना पड़ता है। पुलिस और प्रशासन इस धंधे के बारे में ना जानते हों, ऐसा हो ही नहीं सकता। हमारी नज़र में ‘धंधे वाली’ की इज़्ज़त होनी चाहिए या उन अफ़सरों की जो धंधे में हिस्सेदारी माँगते हैं? जवाब बहुत आसान है… सोच के देखिए।
सच है कि अगर ये बच्चियाँ अपने गाँव में ही रह जाती तो शायद इन्हें पढ़ने-लिखने का ऐसा अवसर कभी नहीं मिलता। लेकिन क्या बिकते-बिकते बच जाना काफ़ी है? या बिक जाने पर भी किसी तरह निर्मम बलात्कार से बच जाना काफ़ी है? नहीं! इंसान को इंसान समझा जाए तो काफ़ी होगा। बच्ची ना वस्तु बने, ना ही बोझ तो काफ़ी होगा, पुरुष इस तरह की ख़रीदारी से इंकार कर दें तो काफ़ी होगा और काफ़ी होगा इन बच्चियों को समाज में आदरपूर्वक जगह मिलना, तिरस्कृत ना किया जाना।
जहाँ एक ओर भारत का अंत है और दूसरी ओर नेपाल का, वहाँ ‘अपने आप’ अन्त्योदय की बात करता है: उस आख़िर ग़रीब लड़की का उत्थान हो जो समाज की अंतिम सीढ़ी पर है। एक कम उम्र बच्ची जो परिवार से कमज़ोर है और जिस्म को बेचने पर मजबूर है… गांधी के तलिस्मन का “ग़रीब और कमज़ोर आदमी” भी इस बच्ची से बहुत बलशाली है।
यहाँ आकर बच्चियों से मिल तो लिये, उनकी कहानियाँ भी सुन ली, मानवता की मौत पर दो आँसू भी बहा लिये लेकिन ये नहीं समझ पाये कि आदमी जनम से दरिंदा होता है या दुनिया उसे वहशी बना देती है? काश एक ऐसा समाज होता जहाँ ना ख़रीदार होते, ना लड़कियों के बिकाऊ शरीर, ना पुलिस के डंडे की ज़रूरत होती, ना ‘अपने आप’ की। काश…
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