आज अमृता प्रीतम के जन्मदिवस पर हिंदुस्तान टाइम्स में गुलज़ार साहब का यह संस्मरण छपा है जो पंजाबी लेखिका निरुपमा दत्त से बातचीत पर आधारित है। मैंने झटपट अनुवाद किया है। पढ़िएगा। दिलचस्प है- प्रभात रंजन
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मैंने पहली बार अमृता प्रीतम की प्रसिद्ध कविता ‘अज्ज अक्खा वारिस शाह नू’ की कविता पहली बार तब सुनी थी जब मुंबई में पंजाबी साहित्य सभा की बैठक में जाने माने लेखक-अभिनेता बलराज साहनी ने उसका पाठ किया था। 1950 के दशक के उत्तरार्ध और 1960 के दशक के पूर्वार्ध में तब अमृता प्रीतम की पंजाबी कविता से मेरा पहली बार परिचय हुआ था जो तब और आज भी बहुत लोकप्रिय कविता है और इसको सुनकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं; खासकर उन लोगों के जो नए देश पाकिस्तान के पंजाब से विस्थापित होकर आए थे। विस्थापितों के लिए वह दौर उदासी और भटकाव भरा था, बहुत से नौजवान बेरोजगार थे और नौकरी की तलाश में भटक रहे थे।
इस प्रसिद्ध लेखिका से मेरी मुलाक़ात बहुत बाद में हुई जब बसु भट्टाचार्य अमृता और उनके संगी इमरोज के ऊपर वृत्तचित्र का निर्माण कर रहे थे। बासु दा ने मेरा परिचय उनसे करवाया तो उन्होने मुझसे पूछा, ‘आप क्या करते हैं?’ मैंने उनसे बताया कि मैं निर्देशन में सहायक था और कवितायें भी लिखता था।
उन्होने मुझसे कविता पढ़ने के लिए कहा और मैंने ‘दस्तक’ नामक कविता का पाठ किया, जो सरहद पार से आने वाले दोस्त के बारे में है, जो हमारे घर आता है और आँगन में चटाई बिछाई जाती है, खाना पकाया जाता है, लेकिन अफसोस कि यह सपना ही साबित होता है। लांच के समय उन्होने मुझे फिर से वह कविता सुनाने के लिए कहा और शूटिंग के पैक अप हो जाने के बाद उन्होने बासु दा के साथ मुझे भी रुक जाने के लिए कहा।
इसी के साथ उस प्रसिद्ध कवयित्री के साथ मेरा साहित्यिक परिचय हुआ और मेरे लेखन तथा मेरे गीतों में उन्होने भी दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी। उन्होने उस पत्रिका में मेरी बहुत सी कवितायें प्रकाशित भी की जो वह इमरोज के साथ निकालती थीं।
कुछ साल के संघर्ष के बाद मैं निर्देशक बन गया और मैंने मुंबई के पाली हिल में कोज़ी होम्स में एक कमरे का दफ्तर बनाया। एक दिन वहाँ अमृता और इमरोज मुझसे मिलने के लिए आए। मैंने उनका स्वागत किया और एक वरिष्ठ कवयित्री के सम्मान में मैंने उनको बैठने के लिए अपनी कुर्सी दी, जबकि मैं और इमरोज दूसरी तरफ की कुर्सी पर बैठ गए जो आगंतुकों के लिए थी। उन्होने मुझसे आग्रह किया कि मैं ‘पिंजर’ के ऊपर फिल्म बनाऊँ। वह अपने साथ उस फिल्म की स्क्रिप्ट लेकर आई थीं और मैंने उनसे कहा कि वे उसे मेरे पास छोड़ जाएँ। मैंने स्क्रिप्ट पढ़ी और उर्दू में उस उपन्यास की प्रति मँगवाई और रात में उसको पढ़ा: अगले दिन वे मुझसे फिर मिलने वाले थे। अगले दिन मुलाक़ात के दौरान मैंने उनसे कहा कि मैं इस उपन्यास के पहले तीन अध्यायों पर ही फिल्म बनाना चाहता हूँ, जिसमें पारो की कहानी थी, लेकिन इसके लिए पटकथा मैं लिखूंगा। अमृता इस बात के ऊपर ज़ोर देती रहीं कि फिल्म उनकी लिखी पटकथा पर ही बनाई जाये। जब मैंने यह कहते हुए मना कर दिया कि ऐसा कर पाना संभव नहीं था तो जाते वक्त उनके चेहरे पर मुझे खिन्नता का भाव दिखाई दिया।
हालांकि, इस घटना के कारण हमारे रिश्ते में किसी तरह की कड़वाहट नहीं आई। मैं जब भी दिल्ली गया तो मैं उनसे मिलने गया।अंतिम बार मैं उनसे मिलने साहित्य अकादेमी के तत्कालीन अध्यक्ष गोपीचन्द नारंग के साथ गया, साहित्य अकादेमी का प्रतिष्ठित लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड देने।
दुख की बात यह रही कि न तो उन्होने किसी को पहचाना न ही कुछ कहा।
इमरोज ने कहा, ‘इस तरह के पुरस्कार किसी को तब दिये जाने चाहिए जब वह उसका महत्व समझ सके।‘ नारंग का जवाब था कि वह चाहते थे कि यह सम्मान उनको जीते जी मिले।
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फ़िर फ़िल्म बनी या नहीं?
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