बोस्टन प्रवासी राजेश प्रधान पेशे से वास्तुकार हैं, राजनीतिशास्त्री हैं. हिंदी में कविताएँ लिखते हैं. उनकी कविताओं में सतह के नीचे की दार्शनिकता, विचार, गहन चिंतन है जो उनकी कविताओं को एक अलग ही स्वर देता है. उनकी दो अलग मिजाज की कविताएँ आज पढ़िए- मॉडरेटर
=======================
1
सृष्टि और संगीत
प्यार की दीवार के पीछे
विश्वास के आभास के ऊपर
कर्मशीलता की अश्लीलता के नीचे
शून्य के धुन के बाहर
एक झिंगुर और झिंगुरानी रहा करते थे
उनके आपस की कलह और झगड़े
की गूँज की आवाज़ को कोई
नाद कहने लगा
कोई ध्रुपद कहने लगा
कोई ओम कहने लगा
हर धर्म के धर्म-ग्रन्थ में वही कलह और मारपीट
पर प्यार से, विश्वास से, कर्म से, शून्य से
अगर दिल बहल जाए
तो मारिये गोली
छोड़िये झंझट
क्यूँ न बस अपने दिल ही की
नाद, ध्रुपद, और ओम की आवाज़ सुन लें
2
डेमोक्रसी और संगीत
लोकतंत्र में तांत्रिकों की महक आती है
वो शक्ति के पुजारी हैं
हिसाब उनका ऊपर से है
लेखा कहीं दिखाते ही नहीं
जम्हूरियत में जमूरों की भनक आती है
वे हुनर मंद हैं अदाकार हैं
नाता उनका तमाशाबीन से है
वहम से पर्दा उठाते ही नहीं
डेमोक्रसी में मुनीमों की बू आती है
वो गिनती हेरा फेरी में माहिर हैं
परवाह उनका संगठन से है
वोट गिनते हैं वोटों का वज़न तौलते ही नहीं
शक्ति, अदाकारी, और गिनती की नीयत एक है
अवाम मुग्ध करो, बनावटी संगठन में बांध लो
और शक्ति का संतुलन बिगड़ने न दो
पर संगीत में संतुलन का इशारा कुछ और से है
एक ताल, लय, एक स्वर में बांधने की जगह
सवाल-जवाब का रिवाज़ भी है
हिसाब का लेना देना ज़रूरी है
घुमावदार अदाकारी से मुग्ध करने की जगह
स्वरों को चुन चुन दर्शन कराने की परंपरा भी है
रसों को एक एक साँस में गिनती करने की जगह
संगीत के तमाम गहनता में डूब जाने की रीत भी है
सवाल-जवाब और अंदरूनी गहराई का हिसाब
नए संकट को नयी आँखों से देखने का मिहराब
लोकतंत्र की फ़ितरत का बस तक़ाज़ा है यही
सच्ची डेमोक्रसी फिर वही होगी
जहाँ बांधने की, एकता घोंटने की
नाज़ुक चोट भुलाने की हवस न होगी
फिर मंत्र से मुक्त, तमाशा से मुक्त, गिनती से मुक्त
बेसब्र जनता बेसब्री की आग लिए
होठों पे लोकतंत्र का राग,
जम्हूरियत की धुन, और डेमोक्रसी का सुर
गुनगुनाते रहेंगे
और शायद न्याय आज़ादी का बंदोबस्त
अलाप-अवरोह-अलाप के धागे में दुरुस्त
गर्दिश की ओर उठते ही रहेंगे
कभी तूफ़ान बन के कभी ख़ामोशी बन के