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‘चाहे हमें कारतूस से मार दिया जाए लेकिन हम समाज की बुराई को लगातार उठाते रहेंगे’

सुरेश कुमार लखनऊ विश्वविद्यालय के शोधार्थी हैं. उन्होंने नवजागरणकालीन पत्रकारिता पर लिखते हुए इस लेख में यह बताया है कि किस तरह पत्रकारिता के कारण उस ज़माने में हिंदी के बड़े बड़े लेखकों-संपादकों को धमकियाँ मिलती रहती थीं लेकिन वे डरते नहीं थे बल्कि अड़े रहते थे. समाज की बुराइयों को सामने लाते रहते थे- मॉडरेटर

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सन् 1884 की बात हैं। ‘हिन्दी प्रदीप’ पत्रिका के संपादक पत्रिका के संपादक पंडित बालकृष्ण भट्ट को कुछ गुंडों ने पीट दिया था। इन शरारती तत्वों ने यह भी चेतावानी दी थी कि जल्द ही और संपादकों की खबर ली जाएगी। इस घटना से तमाम पत्र-पत्रिकाओं के संपादक सकते में आ गए थे। बालकृष्ण भट्ट हिन्दी नवजागरणकाल के महत्वपूर्ण संपादक और लेखक थे। हिन्दी प्रदीप पत्रिका की पुरानी फाइलें देखने से पता चलता है कि बालकृष्ण भट्ट अपनी  पत्रकारिता के जरिए सामाजिक कुरीतियों पर लगातार प्रहार कर रहे थे। ‘हिन्दी प्रदीप’ के जारिए इन्होंने स्त्री प्रश्नों पर बड़ी गंभीरता से विचार किया था। स्त्री समस्या पर इन्होंने अपनी पत्रिका हिन्दी प्रदीप में कई लेख लिखे। उस दौर में स्त्रियों की प्रमुख समस्या विधवा विवाह, बाल विवाह और पुनर्विवाह की थी। बालकृष्ण भट्ट पर जो हमला हुआ था उस समय की तमाम पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों ने इस हमले का जबरदस्त विरोध किया था। लखनऊ से निकलने वाली ‘दिनकर प्रकाश’ पत्रिका के संपादक ने इस हमले के निंदा करते हुए अंग्रेज गर्वमेन्ट से पूछा था कि क्या प्रयाग में अंग्रेजी राज्य नहीं है ? दरअसल जो पत्रकार सामाजिक सरोकारों से जुड़ी पत्रकरिता करते आए हैं उनके लिए कोई भी समय अनुकूल नहीं रहा है। ऐसे पत्रकारों को सामाजिक प्रश्नों को उठाने की कीमत चुकानी पड़ती है,उन पर कभी हमले किए जाते है तो कभी मालिक के कोपभाजन का शिकार होना पड़ता है। इसके बावजूद भी निर्भीक पत्रकार और संपादक विचलित नहीं होते है बल्कि अपनी पत्रिकारिता को धार देकर समाज के अछूते प्रश्नों को उठाते रहते हैं।

मुझे एक घटना और याद आ रही है। सन् 1929 की बात है। हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘चांद’ ने मारवाड़ियों की समस्या पर केन्द्रित करके मारवाड़ी विशेषांक निकाला था। इस विशेषांक से मारवाडी समाज सहित हिन्दी क्षेत्र में काफी उथल पुथल मच गई थी। इस विशेषांक को लेकर हिन्दी की तमााम पत्रिकाओं में एक साल तक बहस चली थी। तमाम संपादकों ने इस विशेषांक का जबरदस्त विरोध किया था। लिखित विरोध तो अपनी जगह पर था लेकिन चांद के संपादक पर कई बार शरारती तत्वों ने हमला किया था। इस हमले को लेकर तब चांद के  संपादक ने एक बड़ी बात कही थी। हम पर चाहे जितना हमला किया जाए या फिर हमें कारतूस से मार दिया जाए लेकिन हम समाज की बुराई को लगातार उठाते रहेंगे।

प्रेमचंद ‘माधुरी’, ‘जागरण’, और ‘हंस’ जैसी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं के संपादक भी रहे थे। संपादक होने के नाते इन्हे भी कड़वे अनुभव से गुजरना पड़ा था। प्रेमचन्द ने फरवरी 1933 के हंस में अपने अनुभवों को लेकर ‘संपादकों के पुरुस्कार’ शीर्षक से एक संपादकीय लिखा था।  इस अपने संपादकीय में प्रेमचन्द ने एक युवा के पत्र का उल्लेख किया था। इस पत्र में प्रेमचन्द को लेकर तमाम भद्दी भद्दी बातें थीं और खरी-खोटी सुनाई गई थी। सन् 1904 में महावीरप्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती पत्रिका में सन् 1901 की नागरी प्रचारिणी सभा की पुस्तक खोज की रिपोर्ट की कड़ी निंदा छाप दी। जिसको लेकर सभा के सभी सदस्य महावीरप्रसाद द्विवेदी से काफी नाराज हुए। महावीरप्रसाद द्विवेदी के लेख को लेकर सन् 1905 में नागरी प्रचारिणी के सभापतियों के बीच एक बैठक हुई जिसमें यह प्रस्ताव पारित किया गया कि ‘सरस्वती’ पत्रिका से नागरी प्रचारिणी सभा अपना अनुमोदन वापस लेती है। इस प्रस्ताव की कापी इन्डियन प्रेस के मालिक चिंतामणि घोष के पास भेज दी गई। इधर, सरस्वती का जनवरी 1905 का अंक छप चुका था। जब यह बात चिंतामणि घोष को पता चला कि सभा ने अपना अनुमोदन हटा लिया है तो जनवरी 1905 के सरस्वती पत्रिका का कवर पेज फाड़कर, नागरी प्रचारिणी के बिना अनुमोदित वाला सरस्वती पत्रिका का कवर पृष्ठ बनाया गया। थी। इस घटना के बाद बाबू श्यामसुन्दर दास और द्विवेदी जी की आपस में कभी नहीं बनी।  समालोचक पत्र हिन्दी नवजागरण काल का महत्वपूर्ण माना जाता है। इसके संपादक चन्द्रधर शर्मा गुलेरी थे। यह पत्र जयपुर से निकलता था। सन् 1904 की बात है चन्द्रशर्मा गुलेरी ने ‘समालोचक’ के मार्च-अप्रैल 1904 के अंक में हिन्दी के ग्रन्थकार शीर्षक से एक प्रवासिनी बंगमहिला का लेख छाप दिया। यह हिन्दी की लेखिका बंग महिला का  ही लेख था। बंग महिला का यह लेख छपते ही हिन्दी के लेखकों और संपादकों के बीच तहलका मच गया था। दरअसल, इस लेख में बंगमहिला ने हिन्दी के तमाम नामी गिरामी लेखकों की रचनाओं पर बांगला साहित्य से चोरी करने का अरोप लगाया था। इस लेख में बंग महिला ने सरस्वती पत्रिका में छपी तमाम रचनाओं को बांगला साहित्य से चोरी की करार दी थी। इस लेख के छपने के बाद बंग महिला के साथ साथ गुलेरी जी पर प्रहार किया गया था। एक तरह से हिन्दी के तमाम लेखक और संपादक गुलेरी जी के खिलाफ मुहिम छेड़ दी थी लेकिन गुलेरी जी निर्भिकता से बंग महिला के पक्ष में खड़े रह थे। नवजागरण काल की पत्रकारिता ऐसी थी। नवजागरण कालीन ऐसी सभी घटनाएं इस बात की गवाह है कि संपादक को किन किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता रहा है। हम देखते है कि वर्तमान में जहां पत्रकारिता राजनेताओं और उद्योगपतियों के पक्ष में माहौल तैयार करना हो गया है वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे पत्रकार और संपादक भी हैं जो पत्रकारिता के मूल्यों को बचाए रखते हुए सामाजिक मुद्दों को उठा भी रहे हैं।

 
      

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2 comments

  1. सुजीत कुमार सिंह

    बढ़िया।

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