
अंकिता जैन को हम सब ‘ऐसी वैसी औरत’ की लेखिका के रूप में जानते हैं. वह एक संवेदनशील कवयित्री भी हैं. आज उनकी कुछ कविताएँ- मॉडरेटर
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क्यों सूख गई नदियाँ
नदियाँ, जो सूख गईं सदा के लिए
वे इसलिए नहीं
कि गर्मी लील गई उन्हें
बल्कि इसलिए
कि हो गया उनका मोह भंग
बहाव से
कि क्या करेंगी बहकर
उस गंदगी के साथ जो रास्ते में बैठी है
धाक जमाए
पैर फैलाए
जो लील जाती है उनकी निर्मलता
उनका पाक शुद्ध चरित्र
और उनकी कोमलता भी
जो बना देती है उनको दूषित
कसैला और कड़वा
वो नहीं जीना चाहती जीवन
मैली होकर
बस इसलिए
डूब गई हैं विरक्ति में
और सूख गई हैं उस मोह में
जो है उन्हें, अपने सच्चे अस्तित्व से,
क्या कोई फ़र्क है?
इन नदियों और उन स्त्रियों में
जो अपने अस्तित्व के मोह में
चुन लेती हैं विरक्ति
या आत्म-मुक्ति।।
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~ कौन हैं ये स्त्रियाँ~
स्त्रियाँ,
जो पढ़ना चाहती हैं राजनीति
और अर्थशास्त्र भी
मगर सिमट जाती हैं
सुशील मसालों से पेट,
सुंदर आलेपों से तन,
और सभ्य आचरण से घरों को भरने की किताबों में,
स्त्रियाँ,
जो बनना चाहती हैं सोलो-ट्रैवलर
या महज़ टूरिस्ट भी
मगर सिमट जाती हैं
सासरे से मायके तक की रेल में
और छुट्टियों में, जो मिलती हैं
बतौर रिश्तेदारों या फैमिली वेकेशन्स के नाम पर,
स्त्रियाँ,
जो बोलना चाहती हैं
हर मज़हबी-ग़ैर मज़हबी लड़ाई,
और दंगे-फसादों पर भी
उठाना चाहती हैं सवाल संस्कारों और धर्म ग्रंथों पर,
मगर सिमट जाती हैं
छठ, करवाचौथ और वट वृक्षों से लिपटी लाल डोरियों में,
स्त्रियाँ,
जो लेना चाहती हैं अवकाश
सिर्फ सोचने, समझने और लिखने के लिए
जीना चाहती हैं उस एकांत को
जिसे महज़ पढ़ती हैं काल्पनिक किताबों में,
मगर सिमट जाती हैं,
माहवारी की छुआ-छूत में
पूजाघर और रसोई की देहरी तक,
कमरे में पति से अलग मिले बिस्तर
और बर्तनों पर लपेटी जा रही राख तक,
स्त्रियाँ,
जो मिटाना चाहती हैं
अपने माथे पर लिखी मूर्खता,
किताबों में उनके नाम दर्ज चुटकुलों,
और इस चलन को भी जो कहता है,
“यह तुम्हारे मतलब की बात नहीं”
मगर सिमट जाती हैं
मिटाने में
कपड़ों पर लगे दाग,
चेहरों पर लगे दाग,
और चुनरी में लगे दागों को,
स्त्रियाँ,
जो होना चाहती हैं खड़ी
चौपालों, पान ठेलों और चाय की गुमटियों पर
करना चाहती हैं बहसें
और निकालना चाहती हैं निष्कर्ष
मगर सिमट जाती हैं
निकालने में
लाली-लिपस्टिक-कपड़ों और ज़ेवरों के दोष,
कौन हैं ये स्त्रियाँ?
क्या ये सदियों से ऐसी ही थीं?
या बना दी गईं?
अगर बना दी गईं तो बदलेंगी कैसे?
बदलेंगी… मगर सिर्फ तब
जब वे ख़ुद चाहेंगी बदलना
सिमटना छोड़कर।
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~ क्या देखा है तुमने कभी? ~
क्या देखा है तुमने कभी?
एक जोड़ा
उड़ता हुआ हवा में
भिगोते हुए पंख
करते हुए अठखेलियाँ
बहता हुआ लहर के साथ,
जो उठती है बिन मौसम,
युहीं कभी,
क्योंकि करता है मन उसका मचलने का
और बहा ले जाने का
संग अपने उन जोड़ों को
जो निकले हैं
बहने और मचलने।
क्या देखा है तुमने कभी?
एक रूठा हुआ प्रेमी
बैठा है किसी डाल पर
इंतज़ार में प्रेमिका के
जो ला रही हो
उसका पसंदीदा दाना, चोंच में दबाए
लड़ते हुए उस तूफान से
जो निकला है मिटाने को घरौंदे
बिन अनुमान
युहीं कभी
क्योंकि करता है मन उसका तड़पने का
और उखाड़ देने का
उन सारे पेड़ों को
जिनकी टहनियों पर बैठे हैं
रूठे हुए प्रेमी।
क्या देखा है तुमने कभी?
एक भटका हुआ बादल
जो बिछड़ गया है, अपनी माँ से
किसी मोड़ पर आसमान में,
जो चला था समंदर से
लेकर उसका गुस्सा
और फट पड़ने कहीं,
बिन सावन
युहीं कभी
क्योंकि करता है मन उसका बरसने का
और डुबो देने का
धरती का हर एक कोना
जो छीन रहा है,
समंदर से उसकी जगह।
नहीं देखे तो आओ
दिखाती हूँ तुम्हें
उस जोड़े को, उस प्रेमी को, और उस बादल को भी
तुम बन जाना वो प्रेमी, रूठा हुआ
बैठ जाना उस डगाल पर
मैं लाऊंगी दाना तुम्हारे लिए
लड़ते हुए तूफान से
फिर डूब जाएंगे हम-तुम
उस बादल की बरसात में
धरती के किसी कोने पर
सिमटकर, लिपटकर एक दूजे में
घेरे बिना समंदर की कोई जगह
और बचा लेंगे ख़ुद को
देखने से
इस धरती की सबसे काली सुबह।
सुन्दर कविता।