क्रिस्तोफ ज़ाफ़्रलो लिखित ‘भीमराव अम्बेडकर: एक जीवनी’ का हिंदी अनुवाद हाल में ही राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। हिंदी अनुवाद योगेन्द्र दत्त ने किया है। आज बाबासाहेब की जयंती पर उस किताब का एक चुनिंदा अंश पढ़िए- मॉडरेटर
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इस किताब का मक़सद आम्बेडकर के जीवन की घटनाओं को गिनवाना नहीं है जिसकी कुछ महत्वपूर्ण कड़ियों का मैंने अभी ज़िक्र किया है। इस किताब का मक़सद इस बात पर रोशनी डालना है कि अस्पृश्यता की मुक्ति में और सामान्य रूप से भारत के सामाजिक एवं राजनीतिक रूपांतरण में आम्बेडकर का क्या योगदान रहा है।
आम्बेडकर ने जातिगत उत्पीड़न का विश्लेषण कैसे किया और मुक्ति की अपनी रणनीति कैसे गढ़ी? आम्बेडकर के बारे में एक रूमानी नज़रिया अपनाने के बजाय मैं इस सवाल पर एक रणनीति–केंद्रित पद्धति से विचार करने का प्रयास करूँगा। उनके करियर का विश्लेषण करने के लिए यह पद्धति ही ज़्यादा उपयुक्त है।31 जनवरी 1920 के मूक नायक के पहले ही अंक में जब वे सार्वजनिक पटल पर प्रवेश ही कर रहे थे,उन्होंने एक ऐसे मंच की ज़रूरत पर ज़ोर दिया था ‘जहाँ हम अपने ऊपर और दूसरे दबे–कुचले लोगों के साथ हो रहे बेतहाशा अन्याय या सम्भावित अन्याय पर विचार कर सकें और उनके भावी विकास के लिए उचित रणनीतियों पर विवेचनात्मक ढंग से चिंतन किया जा सके।‘ मगर, इससे पहले कि मैं उनकी रणनीतियों पर चर्चा करूँ, मैं यह समझने की कोशिश करूँगा कि आम्बेडकर ‘आम्बेडकर‘ कैसे बने। इसके लिए सबसे पहले मैं उनको महाराष्ट्र और उनके पारिवारिक व सामाजिक परिवेश के संदर्भ में देखने का प्रयास करूँगा।तत्पश्चात मैं इस बात का विश्लेषण करूँगा कि जाति व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए शुरू से ही वह उसके बारे में किस तरह सोचने लगे थे। राजनेता आम्बेडकर और कार्यकर्ता आम्बेडकर की छवियों के पीछे एक चिंतक आम्बेडकर की छवि प्रायः छिपी रह जाती है और यह अफ़सोस की बात है कि क्योंकि उनकी बहुत सारी रचनाएँ बहुत अव्वल दर्जे की बौद्धिक कृतियाँ हैं।फिर भी, दूसरे चिंतकों के विपरीत उनका अपना लालन–पालन और हालात ऐसे रहे कि वह समाजशास्त्री के रूप में अपनी प्रतिभा का प्रयोग अपने सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्य के लिए कर पाए: उन्होंने जाति की संरचना की चीर–फाड़ इसलिए कि ताकि वह ऊँच–नीच पर आधारित इस सामाजिक व्यवस्था को जड़ से ख़त्म कर सकें और मिश्रित पद्धति की वजह से ही उन्हें एक विशुद्ध समाज वैज्ञानिक के रूप में मान्यता नहीं मिल पाई।एक पथप्रदर्शक के रूप में आम्बेडकर एक उद्देश्य से दूसरे उद्देश्य की ओर बड़ी एहतियात से क़दम बढ़ाते हुए दिखाई पड़ते हैं। सबसे पहले उन्होंने अस्पर्शयों को सुधारने कबोरयास किया ताकि उन्हें वृहत्तर हिन्दू समाज के भीतर तरक़्क़ी के मार्ग पर ले जा सकें (मुख्य रूप से शिक्षा के माध्यम से)।बाद में तीस के दशक में वे राजनीतिक में दाख़िल हो गए।उन्होंने जिन पार्टियों की स्थापना की वे कभी अस्पृशयों के संगठन दिखाई पड़ती थीं तो कभी उत्पीडितों की गोलबंदी का आधार दिखाई देती थीं। मगर उन्होंने अपनी राजनीतिक कार्रवाईयों को सिर्फ़ दलगत राजनीति तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने सरकारों के साथ दोस्ती बनाने और तोड़ने में भी कभी गुरेज़ नहीं किया।चाहे अंग्रेज़ हों या कांग्रेस की सरकारें हों, सत्ता में बैठे लोगों पर भीतर से अपने उद्देश्य के हित में दबाव पैदा करने के लिए वह सरकारों में जाते रहे और उनको छोड़ते भी रहे। अपनी इसी पद्धति के बदौलत वह भारतीय संविधान की ड्राफ़्टिंग कमेटी के अध्यक्ष के रूप में अस्पृश्यों के हित में आवाज़ उठा पाए और गांधी के कुछ विचारों को हाशिए पर रखने में कामयाब हुए।मगर आम्बेडकर इस तरह की राजनीतिक सक्रियता से संतुष्ट नहीं थे। अंतत: वह इसे निरर्थक मानने लगे थे। नियमित अंतराल पर वह रह–रह कर एक ज़्यादा रेडिकल रास्ता अपनाते रहे, एक ऐसा रास्ता जो आख़िरकार एक अन्य धर्म को अपनाने तक जा पहुँचा।यह परिणति जाति व्यवस्था के उनके विश्लेषण और इस निष्कर्ष की स्वाभाविक उत्पत्ति थी कि जाति व्यवस्था हिन्दू धर्म के मूलाधार का अंग है।वह 1920 के दशक से ही इस निष्कर्ष पर पहुँचने लगे थे मगर अपने जीवन के अंतिम साल तक धर्मांतरण के इस साहसिक फ़ैसले को लागू करने से बचते रहे।
इस तरह आम्बेडकर दो छोरों के बीच झूलते दिखाई देते हैं।एक तरफ़ तो वह हिन्दू समाज या समूचे भारतीय राष्ट्र में अस्पृश्यों की उन्नति चाहते हैं और दूसरी तरफ़ वे पृथक निर्वाचन मंडल या पृथक दलित पार्टी या हिन्दू धर्म को छोड़ कर कोई अन्य धर्म अपनाने जैसी विच्छेद की रणनीतियों पर भी काम करते रहे।उन्होंने समाधानों की तलाश की, नई–नई रणनीतियाँ आज़माईं और ऐसा करते हुए दलितों को मुक्ति के एक कठिन मार्ग पर ले चले।
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Thankyou for dr. Br ambedkar biography very helpful knowledge☺️☺️👍