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ब्लू व्हेल’ गेम से भी ज़्यादा खतरनाक है ‘नकारात्मकता’ का खेल

संवेदनशील युवा लेखिका अंकिता जैन की यह बहसतलब टिप्पणी पढ़िए- मॉडरेटर
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हम बढ़ती गर्मी, पिघलती बर्फ़ और बिगड़ते मानसून के ज़रिए प्रकृति का बदलता और क्रूर होता स्वभाव तो देख पा रहे हैं, पर क्या तकनीकि के दुरुपयोग से अपने बदलते और क्रूर होते मिज़ाज़ को समझ पा रहे हैं?
कुछ महीनों पहले बच्चों के जीवन और भविष्य से जुड़े ऐसे मामले आए जिन्होंने हमें सचेत किया। बच्चों के बीच बढ़ते इंटरनेट गेम्स के चलन ने कई जगह उन बच्चों को मौत के मुँह में धकेला। इन गेम्स का असर बच्चों में तेजी से बढ़ते ज़हर की तरह दिखा। लेकिन, क्या आप जानते हैं कि आप पर, मुझ पर, और हमारे आसपास के कई लोगों पर एक धीमे ज़हर का असर बढ़ रहा है।
इस धीमे ज़हर का नाम है राजनैतिक एजेंडों के तहत फैलाई जा रही नकारात्मकता, जिसने हम मनुष्यों को असल और बेहद ज़रूरी मुद्दों से भटकाकर बस कुछेक बातों में बुरी तरह उलझा दिया है। इस उलझन का असर हमारी सोच, व्यवहार और मानसिकता पर पड़ रहा है।
मैं निजी अनुभव बांट रही हूँ, सभवतः आपमें से या आपके आसपास कुछ लोग और हों जो इससे इत्तेफ़ाक़ रखते हों। कोशिश करें कि अपने भीतर घुस रहे इस धीमे ज़हर के द्वार का पता लगा पाएँ और इससे निज़ात पाएँ।
पिछले एक साल में मैंने अपने भीतर कई बदलाव महसूस किए हैं। बदलाव जैसे कि मैं बहुत ज्यादा नकारात्मक हो गई हूँ, जीवन के प्रति भी और समाज-माहौल के प्रति भी। मेरे भीतर डर बढ़ गया, अपने बच्चे के लिए बहुत ज्यादा डर। मेरे भीतर गुस्सा, शोर्ट-टेम्परनेस, शिकायती रवैया और अवसाद बढ़ गया है। मुस्कुराहट कम हो गई है, ज़िन्दगी से शिक़ायतें बढ़ गई हैं।
पिछले वर्ष जब कठुआ बलात्कार की घटना सामने आई तब मैं कुछ ऐसे लोगों से जुड़ी थी जो बहुत अधिक राजनैतिक रूप से एक्टिव, किसी विशेष सोच, पंथ के समर्थक हैं। वे सच्चे हैं या नहीं, मैं नहीं जानती लेकिन जो मैंने अनुभव किया वह यह कि वे हर बात में नकारात्मकता ढूंढ लेते थे, खामियां ढूँढ लेते थे। मैं भी उनके संपर्क में रहकर वैसी ही होने लगी। वैसा ही लिखने लगी, सोचने लगी। हर बात में हाय-हाय चिल्लाना या राजनैतिक सोचना मेरे भीतर घूमने लगा। उन लोगों से कुछ ही महीनों बाद मेरा संपर्क टूट गया। लेकिन, मेरे भीतर वह बातें घूमती रहीं। इसी बीच देश का माहौल चुनावों की वजह से एक अलग रंग में रंगा दिखा। हर तरफ से सिर्फ नकारात्मक खबरें ही सुनाई पड़ती-दिखाई पड़तीं। दोनों ही पक्ष के लोग एक-दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। प्रोफाइल में भी जाने कहाँ से अचानक से दोनों ही पार्टियों के समर्थक कुकुरमुत्तों की तरह उग आए थे। ये वे लोग थे जो पहले सामान्य रूप से पोस्ट आदि करते थे, लेकिन चुनाव नज़दीक आते ही अपने असली रंग में दिखाने लगे। दो प्रोफाइल जिनमें से एक लाल-कृष्ण आडवानी की बन गई, एक राहुल गाँधी की। ढूंढ-ढूंढकर मैंने सभी को बाहर निकाला। पर मित्रगण भी उसी तर्ज पर गाने गा रहे थे। अधिकांश लोगों के पास एजेंडे हैं यहाँ। सभी किसी ना किसी धागे को पकड़कर आगे बढ़ रहे हैं।
इसी बीच बच्चों से सम्बन्धित कई नकारात्मक खबरें आती रहीं। कहीं किडनैप के बाद क़त्ल हो रहा था कहीं बलात्कार। और अब किसी बुख़ार की वजह से मृत्यु। ये सभी अपराध या मौतें जातिवाद के खेमों में बंट जाती हैं। समस्या का समाधान ढूँढने की जगह सब जगह बस दो दिन हाय-हाय, दोषारोपण करके हम संतुष्ट हो जाते हैं। मसलन यह दोषारोपण हमारे लिए इन्हेलर बन गया है और साँस फूलते ही हम इससे थोड़ी साँस भर लेते हैं। पर यही हाय-हाय, दोषारोपण कुछ लोगों की मानसिकता पर असर डालते हैं। कुछ मेरे जैसे लोग जिनके पास निजी एजेंडे नहीं हैं और जो स्क्रीन से हटते ही फौरन एक अलग दुनिया में नहीं जा पाते।
मैं यह सब देखते हुए आगे बढ़ रही थी लेकिन यह सब धीमे-धीमे मेरी मानसिक स्थिति को कहीं-न-कहीं ज़ख्मी कर रहा था। इसका आभास उस दिन हुआ जब किसी नकारात्मक/उत्तेजित/क्रन्तिकारी पोस्ट को पढ़ने के कुछ समय बाद मेरा शोर्ट-टेम्पर मेरे दो साल के बेटे पर निकला। जबकि वह एक बहुत समझदार और सभ्य बच्चा है फिर भी मैं अचानक ही उस पर इतना गुस्सा क्यों करने लगी हूँ? मेरा धैर्य बहुत कमज़ोर हो गया है और सहनशीलता भी।
मैं आजकल उस पर ज़रा-ज़रा सी बात पर गुस्सा करने लगी हूँ। वह घर से बाहर जाता है तो डर जाती हूँ। दिल्ली में पढ़ाई कर रही बहन के लिए हर समय चिंताग्रस्त रहती हूँ। बेटे को सकारात्मक माहौल देने की जगह मैं सोशल-मीडिया पर उपजी फेक-क्रांति का ग्रास बनती जा रही हूँ। मैं किसी अवसाद में घिरती जा रही हूँ और हर समय चिंता में रहती हूँ। मुझे हर समय हर किसी से शिकायतें रहने लगी हैं। यह मेरा स्वाभाव नहीं था। शांति से बैठकर सोचने और ऑनलाइन मनोरोग विशेषज्ञ से मदद लेने के बाद मुझे अपने भीतर के इन आक्रामक बदलावों की वजह समझ आईं। जो है मेरे आस-पास बिखरी नकारात्मकता।
यह सच है कि हम सभी एक ज़िम्मेदार नागरिक हैं। ग़लत के ख़िलाफ़ लिखना, बोलना, सचेत रहना, आवाज़ उठाना हमारी जिम्मेदारी है। पर, इस सबमें कहीं हम अपने आसपास का, अपने भीतर का कोई सुकून तो नहीं खोते जा रहे हैं? कहीं हमारे स्वभाव में बिना वजह की उत्तेजना तो नहीं बढ़ती जा रही? कहीं हम हर समय नकारात्मक तो नहीं रहते? हर समस्या को एक ही सिरे से तो नहीं पकड़ते? क्या हम निजी या आसपास के माहौल में सुधार की जमीनी कोशिशें कर रहे हैं?
यह सच है कि सोशल मीडिया पर लिखकर बोलकर आप-हम किसी दबी आवाज़ को ऊपर उठा सकते हैं। पर, उससे भी बड़ा सच यह है लिखते हुए आप जो लिख रहे हैं उसका गहरा असर आप पर पड़ता है यदि आप डूबकर लिख रहे हैं। और यह भी कि मेरी तरह आप नन्हे भविष्य के माता-पिता, दादा-दादी, बुआ-चाचा-मौसी हैं।
हमारा पहला कर्तव्य उस नन्हे भविष्य को एक सुन्दर सकारात्मक माहौल देना है। उसे सभ्य और सुसंस्कृत बनाना है। उसे ज़िम्मेदार बनाना है। उसे समस्याओं से लड़ना, उनके हल ढूंढना सिखाना है न कि उनके लिए सिर्फ चिल्लाना और दूसरों पर दोषारोपण करना। उसे एक बेहतर इंसान बनाना है। सोशल मीडिया पर ही क्रांति लिखकर आप-हम शायद अपने समय और जीवन दोनों को ग़लत दिशा में मोड़ देंगे।
निष्कर्षतः हम समस्याओं को लिखें पर उससे पहले उनके कारण खोजें, उन्हें समझें। और यकीन मानिए हर समस्या पर आपका लिखना उतना ज़रूरी नहीं जितना ज़रूरी आपके बच्चे के हर सवाल का जवाब देना या उसके लिए हर समय मौज़ूद होना है।
सोशल मीडिया से भागना इलाज नहीं है, वरन वहां कम से कम अपने द्वारा एक सकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश करना इलाज है ताकि मैं या मेरी तरह जो लोग अनजाने में ही जिस अवसाद/नकारात्मकता/गुस्से में डूब रहे हैं, उससे उबर पाएँ। साथ ही उन लोगों/मित्रों से भी दूरी बनाएं जिन्हें अपने निजी एजेंडों के तहत सिर्फ जातिवाद-धर्मवाद-पार्टीवाद लिखना-बोलना है।
किसी भी पोस्ट को पढ़ते समय ध्यान दें कि क्या वह उत्तेजक/नकारात्मक/राजनैतिक उद्देश्यों/जातिवादी/धर्मवादी इनमें से आपके भीतर की किसी भी भावना को ट्रिगर कर रही है। यदि हाँ तो वह उसी ख़तरनाक खेल का हिस्सा है। उससे जितना हो सके बचकर रहिए और समस्याओं के हल ढूँढिए, उसका इतिहास खोजिए, उसकी पैदाइश कब और कैसी हुई। खोजिए। सिर्फ दोषारोपण किसी समस्या, किसी अपराध, किसी बीमारी का इलाज नहीं है। इलाज उसकी गहराइयों में जाकर उसका हल ढूँढना है।
यदि आपको अपने या अपने आसपास किसी के भी भीतर गुस्सा, शोर्ट-टेम्परनेस, शिकायती रवैया और अवसाद के लक्षण बढ़ते नज़र आएं तो जागरूकता बढ़ाइए, सोचिए, आत्ममंथन कीजिए और खुशियों के रास्ते ढूँढिए 😊
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अंकिता जैन की पुस्तक ‘मैं से माँ तक’ इन दिनों विशेष चर्चा में है। 
 
      

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