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शिक्षा के नज़रिए से फ़िल्म’सुपर थर्टी’ का एक विश्लेषण

‘सुपर थर्टी’ फ़िल्म का शिक्षा की दृष्टि से बहुत अच्छा विश्लेषण किया है शिक्षा एवं भाषाशास्त्र के विशेषज्ञ कौशलेंद्र प्रपन्न ने- मॉडरेटर

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संघर्ष व दुख जिन्हें मांजती है उन्हें आनंद कुमार बना देती है। यही एक पंक्ति कही जा सकती है जिसमें आनंद कुमार की पूरी संघर्ष यात्रा को पिरो देती है। दूसरे शब्दों में, आनंद कुमार तभी आनंद कुमार बनते हैं जब उन्हें समाज, शिक्षा-संस्थान, व्यक्ति चुनौती देते हैं। पुस्तकालय उनके लिए आंखें खोलने वाली घटना थी। यही वह प्रस्थान बिन्दु है जहां से आनंद कुमार की जिंदगी में परिवर्तन घटित होते हैं। एक आलेख के छपने और लिखने के पीछे की कहानी का मूल सूत्र एक चतुर्थ श्रेणी का व्यक्ति तो देता है किन्तु उसकी बात को आनंद कुमार शिद्दत से अमल में लाते हैं और उस व्यक्ति को जिसने लाइब्रेरी से बाहर किया था उसको भी जवाब देते हैं मगर शब्दों में नहीं, बल्कि एक्शन में जब उसका आलेख प्रकाशित होता है। शायद शिक्षा यही सिखाती है कि शब्दों से ज्यादा प्रभावी हमारे कार्य व क्रियाएं होती हैं जिसमें बात की जाए तो वह न केवल मारक होती हैं बल्कि दूरगामी प्रभाव छोड़ती हैं। शिक्षा में फन, ज्वायफुल एक्टिविटी पर खूब ज़ोर दिया जाता है। आनंद कुमार नब्बे के दशक में ही इसका इस्तेमाल कर रहे थे। सीधे सीधे सिद्धांत समझाने की बजाए रोज़मर्रे की जिंदगी के उदाहरणों का सहारा लेकर बच्चों को गणित के मसले हल करने की तालीम दे रहे थे। कबा़ड़ से जुगाड़ यानी लो कॉस्ट के ज़रिए कैसे चीजें बनाई जाएं इस पर ख़ासा ध्यान था। इसका परिणाम यह निकला कि जब बच्चों को किताबें पूरी नहीं मिलीं तो बच्चों ने कबाड़ से  प्रोजेक्टर का निर्माण किया और प्रोजेक्टर पर किताबों के पन्ने पढ़ रहे थे। संकट की घड़ी में बच्चों ने आनंद कुमार की दी तालीम का प्रयोग अस्पताल में अपने टीचर आनंद कुमार की जान बचाने में करते हैं। इस पूरी घटना में बच्चे स्पीड, प्रकाश, आवाज़ आदि के सैद्धांतिकी का प्रयोग व्यावहारिक तौर पर संकट के समय में करते हैं।

सुपर 30 फिल्मांकन में जो कहानियां दिखाई गईं व जो छूट गईं उसे पकड़ने के लिए हमें आनंद कुमार के नवाचारी प्रयोग और स्थानीय संसाधनों को प्रयोग कैसे शिक्षा में किए जाएँ इस पर विशेष जोर था। इसमें गणित पढ़ाने की बजाए उन्हें खेल खेल में कैसे स्पीड, प्रकाश, गति, घनत्व, जोड़-घटाव की अवधारणा को समझाना है इसमें आम जिंदगी के उदाहरणों का इस्तेमाल किया गया। वह चाहे मुर्गी चुराने, गेंदबाजी, क्रिकेट आदि के खेल हों या फिर हाथ मिलाने की गतिविधियां ये तमाम उदाहरण शिक्षा में आज जोरों पर है। सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को कैसे रोचक और आनंदपूर्ण बनाई जाए इस पर आनंद कुमार की पकड़ की तारीफ करनी होगी। बच्चों की परिवेशीय समझ का प्रयोग आनंद कुमार कक्षा में करते हैं। शिक्षा में व्याप्त डर को दूर करने  का भी तरीका इन्होंने निकाला। वह है आंखें बंद करो और देखने की कोशिश करो कि तुम लोग आईआईटी की कक्षा में हो। और बताओ क्या देख रहे हो? इसपर सभी ने वही बताया जो जो देख पा रहे थे। शिक्षा में गहरे पैठे डर को भी देख और बता पा रहे थे। बालों की सिल्कीपन, कपड़े, बोलचाल सभी को याद किया। यानी जिसे नई शिक्षा नीति 2019 का मसौदा कहती है कि बच्चों को बोलने और संवाद करने का अवसर प्रदान करना। इस फिल्म में तो इसके अवसर भरपूर हैं। जहां संवाद और अभिव्यक्ति को पूरा अवसर प्रदान किया गया है। बच्चे अपनी देखी और कल्पना को शब्द दे पा रहे थे। कहीं न कहीं  आनंद कुमार बच्चों में भाषायी भय और हिचकिचाहट को दूर करने के लिए उन्हें अपनी बात रखने का मौका दे रहे थे। उनकी कक्षा में आए बच्चों की पृष्ठभूमि से अवगत होना एक शिक्षक के लिए बहुत ज़रूरी माना जाता है। इस दृष्टि से भी शिक्षक आनंद कुमार ने सभी बच्चों से एक संवाद कर रहे थे। जैसा कि फिल्म में है और जैसा उन्होंने अपनी जिंदगी में भी किया होगा।

भाषायी भय को दूर करने की सिफारिश नई शिक्षा नीति से लेकर पूर्व गठित आयोगों की भी संस्तुतियों पर नजर डालें तो ही पाते हैं कि हमारे बच्चों को अंग्रेजी को लेकर एक बड़ा गोला जैसा भय होता है। अंग्रेजी न बोल पाने, न समझ पाने का भय आज से नहीं बल्कि इसका एक लंबा शैक्षिक इतिहास तो रहा ही है। आनंद कुमार ने अंग्रेजी के भय से मुक्ति के लिए एक चुनौती अपने तीस के तीस बच्चों को देते हैं। अवसर भी देखिए कमाल का है होली। होली पर सभी बच्चे अंग्रेजी में बोलेंगे। नाटक करेंगे। और कोई भी बच्चा एक भी शब्द हिन्दी में बोलेगा तो वह घर जाएगा। इसी डर के आगे बच्चे भयभीत थे। लेकिन अगले दिन सारे के सारे बच्चे अपनी पसंदीदा फिल्म शोले को अंग्रेजी में प्रस्तुत करते हैं। शायद भाषा सीखने-सिखाने की बुनियादी समझ और सिद्धांत को पकड़कर यह कोशिश की गई। बच्चों में बोलने और उस पर दूसरी जबान में बोलने पर एक बड़ा भय तो होता ही है। लेकिन इसे भी चुनौती देते हुए बच्चे खुल कर अंग्रेजी बोलते हैं। बोलने के कौशल विकास में व्याकरण की चौहद्दियों को  दरकिनार किया जाता है। तभी भाषा में दक्षता हासिल की जाती है। इस फिल्म में ऐसे भी भाषा के डर को दूर करने का शैक्षणिक दर्शन को आधार बनाया गया।

वास्तव में इस फिल्म और आनंद कुमार के संघर्षों की कहानी इस रूप में शैक्षिक दृष्टि से ख़ास है कि यह एक व्यक्ति के निकाल कर समष्टि की बात और व्यथा को पकड़ने में सफल रही है। संभव है आनंद कुमार के जीवन के और कई सारे संघर्ष इस फिल्म में बयां न हो पाएं हों क्योंकि फिल्म विधा की भी अपनी कुछ सीमाएं हैं। यदि गहराई से देखें तो एक गांव का व्यक्ति अपना गहना जेवर गिरवी रखकर अपने बच्चे को तालीम देने की पूरी कोशिश करता है। इसमें वह बुढ़ापे के संबल पीएफ के पैसे की भी परवाह नहीं करता। यह दीगर बात है कि आनंद कुमार उन संघर्षों की व्यथा को बाजार में भुनाने की बजाए शैक्षणिक निहितार्थों  को पूरा करने में लगाते हैं।

तीसरा और दिलचस्प पहलू है फिल्म की कि वह शिक्षा के समानांतर फल फूल रहे कोचिंग बाजार को भी बखूबी पकड़़ती है। इन कोचिंग के पीछे के राजनीति बल को भी रेखांकित करती है। दूसरी बात यह भी साफ होती है कि जो राजनेता मंच पर घोषणाएं करते हैं वही दूसरे  ही पल भूल भी जाते हैं। राजनीति में आश्वासनों के खेल को भी खोल कर रखती है। हमारे समाज में एक समय के दक्ष और ज्ञान संपन्न व्यक्ति कैसे वर्तमान संघर्षां की गिरफ्त में आकर हौसले की डोर छोड़ देता है। ललित नाम का व्यक्ति आनंद से पूर्व स्वर्ण पदक हासिल कर चुका है। लेकिन अंततः वह कोचिंग के जाल में फंस जाता है। वही राह आनंद को  दिखाता है किन्तु आनंद और ललित में यही अंतर है कि एक ओर ललित बाज़ार और राजनीति की दी गई जिंदगी को छोड़ना नहीं चाहता। लेकिन आनंद उस जाल में रहकर वहां की पीड़ा को समझकर आगे निकल जाता है।

अंत में शिक्षा संघर्षों से निकलने और वैयक्तिक टीस को पीछे छोड़ नई राह के खोजी बनाती है। शिक्षा हमारे  अंदर गहरे बैठी और जमी जड़ता और भय को समझने और तोड़ने का आत्मबल देती है। शिक्षा हमें मुक्ति दिलाती है यदि वह महज किताबी ज्ञान, सूचना आदि तक महदूद नहीं है तो।

 
      

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