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रूह संग खिल कर मैत्रेय की, सखि री मैं तो बादल हुई

यात्राएँ सिर्फ़ भौतिक नहीं होती हैं रूह की भी होती हैं। रचना भोला यामिनी को पढ़ते हुए यह अहसास होता है। पढ़िए लेह यात्रा पर उनका संस्मरण- मॉडरेटर

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हे मैत्रेय !…

सफ़र सफ़र मिरे क़दमों से जगमगाया हुआ

तरफ़ तरफ़ है मिरी ख़ाक-ए-जुस्तुजू रौशन

                                             -सुल्तान अख़्तर

यात्राएँ कभी समाप्त नहीं होतीं वे निरंतर हमारे भीतर चलती रहती हैं। कल्पनाओं और यथार्थ के धुंधलके के बीच नए-नए दृश्यों की विरदावली रचते हुए चित्त को परमानंद के उस बिंदु तक ले जाती हैं जहाँ आप उन स्मृतियों के साथ एकात्म होते हुए स्वयं एक मधुर स्मृति बन जाते हैं। मानो यात्रा की मंजूषा से निकली उन स्मृतियों व आपके बीच कोई अंतर ही शेष न रहा हो। जब बाहर की यात्रा संपन्न हो जाए तो उसे अपने भीतर अविराम जारी रखा जाए। किसी स्थान से लौटने के बाद भी उसे किसी पावन धरोहर सा अपने भीतर यूँ संजो लें कि वह मन-मानस का अभिन्न अंग बनी आपके संग चलती रहे। मेरे लिए इन यात्राओं का अर्थ केवल इतना है –

मेरी अपनी तलाश में पढ़ी जा रही पुस्तकों के पन्नों सी, मेरे जीवन के इकलौते गीत की अनाम धुन सी, मुझे घर से दूर, किसी निविड़ एकांत में अपने-आप से मिलाती हैं ये। मेरे और प्रकृति के बीच युगों से चले आ रहे आदिम संतुलन को साधती हैं ये…

आप सब पिछले अंक में मेरी लेह यात्रा संस्मरण के कुछ अंश पढ़ चुके हैं। उसी कड़ी में आगे बढ़ते हुए, लौटती हूँ फिर से उन्हीं रास्तों पर जहाँ ख़ूबसूरत फ़िज़ाओं में बसे उस पुराने गोम्पा की ढलान से उतरते हुए, चुपचाप लहरिया सी बलखाती , उस पहाड़ी सड़क पर गुज़र जाते थे इक्का-दुक्का लामा, कारों में महानगरीय कोलाहल का अंबार लिए देसी-विदेसी पर्यटक और अपनी गरीबी के बोझ को कंधों पर उठाए मुस्कुराते स्थानीय देहाती। सड़क पहाड़ को जोड़ती थी ज़मीन से, वह अपनी छाती पर उठते-गिरते कदमों की धमक सहती, निभा रही थी जाने कितने बरसों से अपना कर्तव्य…

मैं दो घड़ी बैठी उसके संग, दुलराया और बतियाई…

….कि तारकोल से रंगी उस सड़क के सीने भी धकड़ता था इक दिल।

उसके पास भी थे कुछ अफ़साने और नग़्मे, जो कभी किसी ने न सुने!!!

सुनना भी प्रेम है, है न!!

सच, कुछ पाने या लेने की सोच ले कर गई थी, अपना-आप भी गँवा आई। प्रकृति के आंगन से भला क्या ला सकती थी। पर्वतों की चोटियों पर बर्फ़ की सफ़ेदी के बीच चमकती रही। नुब्रा घाटी से भी परे हुंडर रेगिस्तान की रेत संग हवाओं में सरसराती बहती रही। रेतीले मैदानों पर सवारियों का बोझ ढोते दो कूबड़ वाले ऊँटों के पैरों में सफ़ेद डोरियों में बंधे छम-छम करते घुंघरूओं के साथ उनकी आहों के बीच तड़पती रही। श्योक, नुब्रा और सिंधु नदी की गाद में घुलती रही। पहाड़ों की मांदों में बसे सरीसृपों के संग रेंगती रही। गहरी काली सड़कों के नीचे दबी आदिम सभ्यताओं के अवशेषों की गंध सूंघती रही। नदियों पर बने लकड़ी के चरमराते पुलों पर बीते वक्त की आहटें सुनती रही। एक चूल्हे पर स्मृतियों की तीन तार की चाशनी से खदबदाती हांडी में नरम, मुलायम और कानों में पड़ते ही आत्मा के भीतर तक उतर जाने वाले किस्सों का मिष्टान्न पकाती आमा की गुलगुलों जैसी बातों के रस में डूबती रही। सुनसान-वीरान कीच से भरे पहाड़ी रास्तों पर लहराती रंगीन प्रार्थना पताकाओं संग झूलती रही। खारदोंगला दर्रे पर बर्फ़ से सजी पर्वतीय चोटियों के बीच ताज़ी हवा के झोंकों संग तिरती रही। मैंने चखा वहीं और केवल वहीं होने का स्वाद।

..और ली एक भरपूर श्वास।

  नुब्रा घाटी अभी पिछली रात की नींद के खुमार में थी और मैं किसी भुच्च देहातन सी मुँह-सिर लपेटे, जेब में केवल एक प्याला चाय लायक पैसे डाले गलियों की ढलानों व चढ़ाईयों की सैर को निकल पड़ी। बेटा अभी सोया हुआ था और मेरा साथी पहले ही अपने कैमरे के संग नदारद था। किसी भी जगह के दिल में जगह बनानी हो तो यह दूरी पैदल-पैदल ही मापी जा सकती है। गलियों और सूने कोनों में ऊँघते हैं शहरों के पुराने किस्से, चाय की छोटी टपरियों पर कच्चे कांच से बने गिलासों में भरी अदरक-इलायची वाली चाय के धुएँ संग उठती है पुरानी यादों की महक। बंद दुकानों के बाहर द्वार बुहारती औरतों की अधनींदी आँखों से छलकते हैं उनके ख़्वाब, जो कभी उन्हें भी न दिखे। आने वाले दिन के इंतज़ार में अकुलाया सूरज गिनता है पल-पल – कब रोशन करेगा वो भयंकर गहरी उदासी में लिपटी टूटी-फूटी कच्ची पगडंडियों और पक्की गलियों को।

घाटी मानो देर रात अपने ही सन्नाटे को पी कर गहरी धुत्त नींद में सोई थी। क़ुदरत थपकी दे कर जगाने की कोशिश में थी और देह में दौड़ती नसों सी गलियों के इक्का-दुक्का दरवाज़ों पर आमद दिखने लगी थी। सिर पर टोकरी लटकाए, हाथ में दराती थामे एक अधेड़ तिब्बती महिला सामने से आ रही थी। न केवल भुवनमोहिनी मुस्कान से स्वागत किया बल्कि ‘जुले के अभिवादन से मेरा माथा भी खिला दिया। अनजान शहरों की गलियों में अक्सर यूँ ही पिछले जन्मों के साथी मिल जाया करते हैं जो न पहले भी मिले और न कभी जीवन में फिर मिलने वाले हैं पर वे क्षणांश की भेंट ही हमारे जन्मों के वर्तुल को पूरा कर जाते हैं। मैंने भी शहरी औपचारिकता का बासी चोला उतारा और पूरी जीवंतता से प्रत्युत्तर देते हुए आगे बढ़ गई। शहर के एक कोने तक पहुँचते ही पहाड़ों ने शुभ प्रभात कहा और मैं सूरज की चढ़ती-उतरती धूप के साथ रंग बदलते चितेरों को देख ठगी सी खड़ी रह गई।

एक-एक नज़ारा अल्लाह की अनूठी करामात सा दिखता था और कह रहा था मुझसे –

हर ज़र्रा उभर के कह रहा है

आ देख इधर यहाँ ख़ुदा है

                                    -सूफ़ी तब्बसुम

पहाड़ आएगा घर

इस यात्रा में जितने भी दिन इन पहाड़ों का साथ रहा, मैं इनके सम्मोहन में बँधी ही रही और फिर मैंने जाना कि कैसे ला सकते हैं किसी पहाड़ को अपने घर। कैसे जीया जा सकता है इस विराट महाप्राण अनुभव को …

कुछ लोग पहाड़ को देखते ही गटक कर पी जाते हैं मानो किसी ठंडे मीठे शरबत की घूंट हो और फिर एक बार ‘वाउ’ कहने के बाद उधर पलट कर भी नहीं देखते।

कुछ लोग पीते हैं घूंट-घूंट, वे थमते हैं, वे पहाड़ की छाती में धड़कते दिल को महसूस करते हुए उसे तकते हैं पर जैसे अगले पड़ाव पर जाने की जल्दी में सामान बाँधता मुसाफिर अपने उस पड़ाव की खू़बसूरती को भी पूरी तरह से नहीं देख पाता, उसी तरह वे भी जल्दी-जल्दी पहाड़ के गले से लग कर उसे विदा कर देते हैं। नज़रें फिर से लौट आती है संसार की ओर।

कुछ लोग चट्टानों पर उतरते- छिपते धूप के सायों को लगातार देखते हुए बोलते चलते हैं। वे कुदरत की आब को महसूस करते हुए भी उसे शब्दां में ढालने के निरर्थक प्रयत्न में उलझ कर रह जाते हैं। उन्हें समझाने वाला कोई नहीं कि जो भी दैवीय, सहज और सुंदरम है, वह शब्दातीत है। शब्दों से ही सौंदर्य बँध पाता तो शायद बंद बैठकों में सोफों पर अधलेटे यात्री कॉफी टेबल बुक्स के आर्ट पेपर से झाँकते पर्वतों की मनोहारी तस्वीरों को देख कर अभिभूत होने की बजाए धूल-माटी काहे फाँकते, काहे रूपया-धेला ख़र्च कर, घर की तमाम सुख-सुविधाओं को त्याग, सुदूर वीरानों में बसी प्रकृति निरखने आते। जो भी लिखा गया, वह तत्क्षण अपने अर्थों को, उन शब्दों में स्थानांतरित करता रहा, जो न कभी लिखे गए और न ही लिखे जाएँगे। अलौकिक को लौकिकता के आवरण में संजोना नश्वर मनुष्य का मिथ्या अभिमान रहा है!

कुछ लोग पहाड़ तकते हैं और फिर उनकी बोलती बंद हो जाती है। वे धीरे-धीरे  पहाड़ को भीतर उतारते हैं। कुछ पलों के लिए ही सही, अपने संसार के व्यापार से दूर छितरा जाते हैं और उस अभूतपूर्व, अद्भुत दर्शन को पा कर धन्य हो जाते हैं पर सच कहें तो वे भी पहाड़ को अपने साथ घर नहीं ले जा पाते क्योंकि वे उस क्षणिक संतोष से संतुष्ट हो जाते हैं। उनके भीतर उस दृश्य को अपने साथ एकात्म करने की अदम्य लालसा नहीं होती। घर लौटते-लौटते मायाजगत के भ्रम और कुहासे के बीच उनके मानस पटल पर बसे छाया-चित्र बिला जाते हैं।

यदि सच में पहाड़ को अपने साथ घर लाने की इच्छा रखते हों तो दृश्य को भीतर उतार कर हजम कर लें। अपनी बंद आँखों से भीतर ही भीतर तब तक देखें, जब तक वह आपके अवचेतन का अंग न बन जाए। अजपे जप सा सिमट जाए पहाड़ चेतना के पटल पर। बस, ठीक इसी तरह जी लेंगे पूरा पहाड़। घर लौटेंगे तो अंग-संग रहेगा सदा।

रूह संग खिल कर मैत्रेय की, सखि री मैं तो बादल हुई

दिस्कित नुब्रा घाटी का मुख्यालय कहलाता है। यह जगह अपनी अप्रतिम प्राकृतिक सुंदरता के अतिरिक्त मैत्रेय बुद्ध की विशाल और भव्य प्रतिमा के लिए भी जानी जाती है। बत्तीस मीटर ऊँची इस प्रतिमा को तैयार होने में काफी समय लगा था। हमारी कार मैत्रेय प्रतिमा की ओर बढ़ी चली जा रही थी। आड़ी-तिरछी सड़कों पर दौड़ती गाड़ी के शीशे से बार-बार मैत्रेय की झलक दिखती और फिर ओझल हो जाती। मैं बलखाती सड़क के मोह में पड़ कर गाड़ी से उतरी और मैत्रेय की ओर पैदल ही चल दी।

मेरी चाल अब पहले सी तेज़ नहीं रही.

मैं धरती से बतियाते हुए, उस पर कदम रखने लगी हूँ।

मैं अब पहले सी चुस्त, आग उगलती, हवा से बातें करती,

आंधियों सी उमड़ती, वेगवती नदी सी नहीं हरहराती।

मैंने धरती, जल, वायु, आकाश और अग्नि से कर ली है मित्रता,

एक दिन इनके संग ही तो होना है!

मैत्रेय की रंगीन पताकाएँ धूसर पहाड़ों के बीच अपने रेशमी लाल, नीले, हरे, पीले और सफ़ेद रंगों के बीच कठोर जलवायु में भी सदा सरल व तरल रहने का संदेसा देती जान पड़ रही थीं। ऐसा लगता था जैसे अपनी मानस संतान का माथा सहलाने को हौले-हौले हिल रही हों। स्नेह से मुंदती आँखों में भर रही हों मानवता के कल्याण का कोई अभूतपूर्व स्वप्न!

 वैसे मुझे तो बेढब ज़िन्दगी में रबजी की ओर से खु़शियों के नोट्स सरीख़ी लगती हैं ये पताकाएँ। जैसे कोई प्रेमी जाते-जाते प्यार से लिख कर छोड़ गया हो –

‘रखना अपना ख़्याल!’

एक ओर दिख रहा था हुंडर का रेगिस्तान और उस ओर से आती तेज़ हवाओं के आगे झुकी मेरी क्षीण काया ने मस्तक नवा दिया मैत्रेय प्रतिमा के आगे।

मैत्रेय को पालि भाषा में ‘मेत्तेय’ कहा जाता है। बौद्ध मान्यता के अनुसार ये भविष्य के बुद्ध हैं। बौद्ध ग्रंथों में इन्हें ‘अजित’ भी कहा गया है। कहते हैं कि मैत्रेय एक बोधिसत्व हैं जो भविष्य में पृथ्वी पर अवतरित होने के बाद बुद्धत्व प्राप्त करेंगे और विशुद्ध धर्म की शिक्षा देंगे। बौद्ध परंपरा की इस अवधारणा ने कई अन्य मतावलंबियों की कथाओं में भी स्थान पाया है।

थियोसोफिकल परंपरा में मैत्रेय को केवल भविष्य बुद्ध ही नहीं माना जाता, इसमें अन्य पराभौतिक संकल्पनाएँ भी शामिल हैं। वे मानते हैं कि मैत्रेय बुद्ध का आगमन एक वैश्विक गुरु के रूप में होगा।

पर्यटकों की चहल-पहल शांत होते ही एक कोने में जा बैठी ताकि मैत्रेय संग, भले ही पल भर को एकात्म हो जाऊँ परंतु घर लौटूँ तो मैत्रेय बुद्ध के मुस्कुराते नयन मेरे हृदय में अवस्थित हों।

आँखें मूंदी और मन ने कहा :

धन-मान, पद व प्रतिष्ठा से मिले यथेष्ट सुख व आनंद,

आभार तेरा, ईश्वर

अब केवल अकारण और अहैतुक प्रसन्नता व चिर आनंद की आकांक्षी हूँ

द्वार से अयाचित न लौटाना, हे मैत्रेय!

हवाओं का प्रकोप इतना अधिक था कि मैत्रेय प्रतिमा के संग अधिक समय नहीं बिताया जा सकता था। मैं पहले तल पर थी और पति सबसे ऊपरी तल से तस्वीरें खींच रहे थे। अचानक उनके पास की रेलिंग में बंधा सफेद बौद्ध खादा (स्कार्फ) खुला और नीचे मेरी झोली में आ गिरा। मैंने मुस्कुरा कर उनकी ओर देखा और उसे उठा कर अपने साथ वाली रेलिंग पर बांध दिया। जाने मैत्रेय कौन सा संकेत दे रहे थे परंतु इतना आश्वासन अवश्य था कि उन्होंने हम दोनों के लिए जो भी कहा होगा, वह शुभ ही होगा।

मैत्रेय प्रतिमा के निकट सटी पहाड़ी पर ही एक प्राचीन बौद्ध मठ दिखाई दे रहा था। किसी ने बताया कि वह मठ चौदहवीं सदी में बनाया गया था। दिस्कित के इस प्राचीन बौद्ध मठ के द्वार से लौटने का प्रश्न ही नहीं उठता था। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए बेतरह हांफने लगी परंतु टेक नहीं छोड़ी।

अपने आसपास दिखती चट्टानों व पाषाणों पर खुदे बौद्ध मंत्र, मुझे पिछले जन्मों के अभिशापित देवों से लगने लगे। जाने कितनी सदियों तक इन पर परमात्मा का नाम अंकित होगा, तब कहीं जा कर ये निस्तार पाने वाले हैं। ये अभिशप्त पाषाण! मंत्रों का पावन स्पर्श पाते ही दैवीय स्पर्श से अनुप्राणित हो उठते हैं। या फिर इसके ठीक विपरीत, कहीं ये विधाता के मानस पुत्र तो नहीं? हो सकता है कि स्वयं विधाता ने इनके माथे पर अपने हाथों से बांचा हो इनका भाग्य।

यही सब सोचते-सोचते मठ परिसर तक जा पहुँची। गोम्पा की चटक रंगों में रंगी दीवारों के रंगों से होड़ लेती कुछ पताकाओं पर अंकित थे, प्रार्थनाओं के बीज मंत्र। वे प्रेमपत्र थे, उस ईश्वर के नाम, जो बौद्ध अनुयायियों की नस-नस में दौड़ता है बिजली बन कर दिन-रात। यहाँ प्रेम और प्रार्थना पर्याय हैं एक-दूसरे के!

 एक लामा ने मंदस्मित से स्वागत करते हुए चाय पीने का प्रस्ताव रखा और मना करना मुश्किल था। कुछ अपना कौतूहल और कुछ उनके जीवन के विषय में जानने की बलवती इच्छा ने चलते कदमों को रोक लिया। मृदु व सौम्य मुस्कान संजोए, शब्दों के स्थान पर बोलती आँखों से बातें करने वाले तिब्बती लामा ने मन और पाँव दोनों बाँध लिए। तिब्बती बौद्ध धर्म के गेलुग्पा संप्रदाय के ये लोमा पीले रंग की टोपी (यैलो हैट्स संप्रदाय) पहनते हैं। लेह में इनका प्रमुख केंद्र थिकसे मठ में है, जिसके बारे में हमने पिछले भाग में चर्चा की थी।

उन्हें देख कर यूँ लगा मानो उन्हें भी जीवन के भिक्षापात्र में सुख, दुख, निंदा, बैर, घृणा, करुणा, स्नेह, त्याग, ईर्ष्या जैसे अनन्य भावों का मधुर, अम्लीय, लवणयुक्त, कटु, तिक्त व काषाय भिक्षान्न मिला परंतु वीतरागी मन ने सब कुछ राँधा कर निर्लिप्त भाव से निगल लिया होगा। पंचभौतिक रसों से भला कौन बचा!!!

हम लामा के साथ बात करते-करते ऐसे मग्न हुए कि हुंडर के रेगिस्तान की ओर जाना भी याद नहीं रहा। तय हुआ कि उसे अगले दिन पर टाल दिया जाए और उसी मठ की छत पर कुछ देर और प्रकृति संग मौन संवाद में रमे रहे हम…

तभी मठ के एक छोर से खिलखिलाती ग्रामीण महिलाओं की टोली निकली। सिर पर बंधी टोकरियों में लदी घास लिए कुछ युवतियाँ तिब्बती बोली में लोकगीत गुनगुना रही थीं।

गहन गंभीर बातों की पोटली कंधों पर लिए खिलखिलातीं

अपने लिए मोक्ष पा कर बुद्धत्व पाने का नहीं रखतीं संकल्प।

उमगती स्त्रियाँ सहज पा लेती हैं, समत्व और संतुलन.

जिसे पाने को जाने कितने जन्मों तक तरसते रहे बुद्ध पुरुष

स्त्रियाँ अपनी करुणा व स्नेह के बल पर प्राणीमात्र का चाहती हैं कल्याण

वे सब बोधिसत्व हुई हैं !!!

                                                       क्रमशः

                                                                                                                          -रचना भोला ‘यामिनी’

 
      

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