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हजारों वर्ष बाद भी स्त्रियों की स्थिति में बहुत बदलाव नहीं आया है

आशा प्रभात मेरे गृह नगर सीतामढ़ी में रहती हैं और अपने लेखन से उन्होंने बड़ी पहचान बनाई है। सीता पर उनका उपन्यास ‘जनकनंदिनी’ हो या ‘साहिर समग्र’ का संपादन आशा जी के लेखन-संपादन से हिंदी समाज अच्छी तरह परिचित है,उर्मिला पर उनका उपन्यास जल्द ही आने वाला है उनसे बातचीत की है युवा लेखक सुशील कुमार भारद्वाज ने- प्रभात रंजन

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बिहार के सीतामढ़ी में रहनेवाली उपन्यासकार आशा प्रभात हिन्दी और उर्दू में समान रूप से लिखती हैं। पद्य के साथ-साथ गद्य भी खूब लिखती हैं। हिन्दुस्तान के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के अलावे वे पाकिस्तान में भी छपती हैं। सामाजिक मुद्दों के साथ-साथ धार्मिक मुद्दों पर भी कलम चलाती हैं। सीता पर केंद्रित चर्चित उपन्यास “मैं जनकनंदिनी” के बाद अब उर्मिला पर उपन्यास जल्द ही आने वाला है। प्रस्तुत है आशा प्रभात के साथ सुशील कुमार भारद्वाज की एक बातचीत:-

प्र- साहित्य के प्रति लगाव कब और किन परिस्थितियों में हुआ?

उ-साहित्य के प्रति लगाव या लेखन का बीज मेरे पिता श्री जगरनाथ प्रसाद जी ने बोये थे मेरे मन मस्तिष्क में ।उनका अपना पुस्तकालय था देशी विदेशी साहित्यिक पुस्तकों से समृद्ध ।वे न सिर्फ मेरी जिज्ञासा शांत करते बल्कि पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित किया करते।स्कूली समय में ही प्रसाद, निराला, रवीन्द्र साहित्य, प्रेमचंद, नेपाली, फ़ैज अहमद फ़ैज व साहिर की रचनाओं के अध्ययन ने लेखन की ओर उन्मुख किया जिसे परवान चढ़ाने में मेरे पति श्री जगदीश प्रसाद का विशेष सहयोग रहा ।लेखन संबंधित रिसर्च के सिलसिले में मैं जहां जहां गयी वे अपने व्यवसाय का काम स्थगित कर मेरे साथ गये । उपन्यास मैं जनक नंदिनी के लेखन के दौरान चित्रकूट, भद्राचलम से लेकर रामेश्वरम् तक।

प्र- किस साहित्यकार ने आपको सबसे अधिक प्रभावित या प्रेरित किया?

उ- प्रेरित करने वाले का नाम पूर्व में दे चुकी हूं ।किस साहित्यकार ने अधिक प्रभावित किया—तो प्रथम नाम जयशंकर प्रसाद का लूंगी ।जब मैं सातवीं कक्षा में थी तो उनकी कहानी बिसाती पढ़ी—वह कहानी मेरे जेहन में जड़ सी गयी । प्रसाद शायद हिन्दी साहित्य के प्रथम लेखक हैं जिन्होंने स्त्री स्वतंत्रता की बात की है ।उनका नाटक ‘ ध्रुवस्वामिनी ‘ बहुत सीमाएं तोड़ती है औरतों के हक में । हिन्दी में गोपाल सिंह नेपाली तथा दुष्यंत ने और उर्दू में फ़ैज और साहिर ने।

प्र- कहानी, कविता और उपन्यास किसमें सहजता महसूस करती हैं?

उ- निस्संदेह उपन्यास लेखन में अधिक सहजता का अनुभव होता है क्योंकि कि उसमें अपने भावों एवं विचारों को मनचाहा विस्तार देने की गुंजाइश ख़ूब होती है ।वैसे तो मेरे लेखन की शुरुआत कविता से हुई थी परन्तु पहला काव्य संग्रह ‘ दरीचे’ के बाद मेरा उपन्यास ही फलक पर आया ।तीसरी पुस्तक भी उपन्यास ही थी ।उसके बाद कहानी संग्रह आया था ।और मेरे पुस्तकों के संग्रह में ज्यादा तादाद उपन्यास का ही है ।

प्र- सामाजिक समस्याओं पर लिखते लिखते धार्मिक चरित्रों पर लेखन का विचार कैसे आया?

उ- बहुधा भारतीय वाङ्ममय के विभिन्न ग्रंथों की प्रासंगिकता के प्रश्न आज भी निरंतरता से पूछे जाते हैं और प्रासंगिकता अधर में नहीं होती , यह परिवेश में व्याप्त प्रवाह है । सुविख्यात विद्वान कृष्णदत पालीवाल जी कहते हैं-” सांस्कृतिक परम्परा से उत्पन्न गति है।इस गति को नया जीवन देने के लिए जरूरी है कि हम अपना संस्कार करते चलें ।हमें गत्यात्मकता तभी मिल सकती है, जब हम इसे आत्मसात करें ।” मेरे कहानी संग्रह ‘कैसा सच ‘ का विमोचन पुस्तक मेला दिल्ली में राजकमल प्रकाशन के स्टाल पर हो रहा था। उस अवसर पर आदरणीय नामवरजी तथा विश्वनाथ त्रिपाठी जी के अलावा मैत्रेयी पुष्पा जी भी उपस्थित थीं । उसी अवसर पर श्री नामवरजी ने कहा था-तुम सीतामढी की हो तो सीता जी पर कुछ लिखा कि नहीं ? उसके बाद श्री अशोक माहेश्वरी जी ने भी सुझाव रखा सीता जी पर उपन्यास लिखने का । बहुत दिनों तक इस विषय पर लिखने की बात टालती रही क्योंकि मैं जहां से आती हूं वहां सीता जी पुत्री, बहन तथा इष्ट के रूप मे मानी जाती हैं । उस काल की श्रद्धा, समर्पण कहां से लाऊंगी । तब मित्र अवधेश प्रीत जी ने हौसला बढ़ाते हुए कहा था आप लिख सकती हैं । मुझे भी लगा आज की पीढ़ी जो पौराणिक काल को जानना चाहती है परन्तु कुछ रचनाएँ उन्हें भ्रमित कर रही हैं ऐसे में सही तथ्य उनके सम्मुख आना चाहिए और इस तरह ” मैं जनक नंदिनी ” का लेखन हुआ ।आज तो पौराणिक पात्रों पर बहुत लेखन हो रहा है । मेरा एक और उपन्यास ‘उर्मिला ‘ आ रहा है ।

प्र- उर्मिला पर किताब कब तक आने की संभावना है?

उ- बहुत शीघ्र आने की उम्मीद है । उसे दिल्ली पुस्तक मेला में ही आ जाना चाहिए था परन्तु मेरी ओर से ही पांडुलिपि भेजने मे देर हो गई । मार्च अप्रेल तक आ जानी चाहिए । इस पुस्तक के आने की मुझे भी शिद्दत से इंतजार है ।क्योंकि एक नितांत अदृश्य पात्रा को अपने शब्दों द्वारा जीवंत करना— असंभव नहीं तो कठिन अवश्य था।

प्र- इन दिनों पौराणिक या धार्मिक विषयों पर अंग्रेजी के साथ – साथ हिन्दी ( अनुवाद समेत ) में भी खूब उपन्यास छप रहे हैं । कुछ लेखक तो गैर साहित्यिक होने के बावजूद काफी चर्चित हो रहे हैं । इसे आप किस रूप में देखती हैं?

उ- लेखक के साथ-साथ मैं एक पाठक भी हूं । मेरा मानना है कि पौराणिक पात्रों पर क़लम उठाने से पहले संबंधित विषयों के गहन अध्ययन करना अनिवार्य है । वरना पाठक भ्रमित हो जाता है । पौराणिक पात्रों के देश काल के साथ भौगोलिक स्थिति पर भी दृष्टि रखने की आवश्यकता होती है क्योंकि समय के साथ संबंधों की गरिमा, श्रद्धा,भक्ति व समर्पण में भी बदलाव आता है । लेखन के लिए बहुत बड़ा फलक होता है लेखक के लिए जहां वह अपनी कल्पना को विस्तार दे सकता है परन्तु पौराणिक या स्थापित पात्रों के साथ मनचाहा व्यवहार—कभी-कभी अनुचित होता है ।मूल तथ्यों को बरकरार रखते हुए भी लेखन किया जा सकता है ।

प्र- सीता और उर्मिला के बाद अब किस पर लिखने की योजना है?

उ- अब पुनः सामाजिक विसंगतियों पर लिख रही हूँ ।वैसे भी सीता और उर्मिला हमारे समाज का ही अंग रही हैं और वे भी सामाजिक विसंगतियों का शिकार हुई हैं ।उन पुस्तकों में हमारा पूर्ववर्ती समाज बहुत मुखर होकर सम्मुख आया है अपने तमामतर खूबियों और खामियों के साथ ।और वे परिस्थितियां आज से अधिक बदतर नहीं थीं । आश्चर्य तो है कि हजारों वर्ष बाद भी स्त्रियों की स्थिति में बहुत बदलाव नहीं आया है । वे कल भी दोयम दर्जे की थीं और आज भी दोयम स्थान पर हैं ।

प्र- हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में समान रूप से लिखने में क्या समस्याएँ आती हैं और क्या सुविधाएँ महसूस करती हैं?

उ- सुविधाएं बहुत हैं समस्या कोई नहीं क्योंकि आम बोलचाल में हिन्दी और उर्दू के शब्दों का मिश्रण है ।मेरे इस मिश्रित भाषा को बाहरी मुल्कों में बेहद पसंद भी किया गया ।मेरी कोशिश रही है कि दोनों भाषाओं के पाठक दोनों भाषाओं के शब्दों से परिचित हो—।आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि पाकिस्तानी अदब में हिन्दी के उन शब्दों का बहुतायत से इस्तेमाल होता है जिन्हें हिन्दी के लेखक भूल से गये हैं ।

प्र- प्रेमचंद ने उर्दू से लेखन की शुरुआत की और हिन्दी में लिखने लगे और आपने?

उ- मैंने एक साथ ही दोनों भाषाओं में लिखना आरंभ किया परन्तु पुस्तकें पहले हिन्दी में प्रकाशित हुईं ।फिर उर्दू में छपी।इस प्रकार हिन्दी-उर्दू का सिलसिला चलता रहा—चल रहा है ।अभी तक ग्यारह पुस्तकें हिन्दी में तथा छह पुस्तकें उर्दू में प्रकाशित हो चुकी है ।तीन प्रकाशनाधिन हैं ।हा यह सच है कि हिन्दी से पहले उर्दू ने मुझे अपनाया, विस्तार दिया और विशेष अवसर भी दिया कि अनुवाद के द्वारा मैं दोनों भाषाओं के पाठकों को परस्पर अदब को जानने, समझने का अवसर प्रदान करूं ।और मेरे द्वारा अनुदित रचनाओं को काफी सराहना भी मिली है ।

प्र- पाकिस्तान की पत्रिका में आपकी रचनाएँ कैसे छपी और छपने के बाद कैसा महसूस हुआ?

उ- यह एक संयोग ही था,मुम्बई से निकलने वाली उर्दू पत्रिका’शायर’ में मेरी रचना छपी थी उस पर डेरा गाजी खान ,पाकिस्तान के भी एक प्रशंसक का पत्र आया ।मैंने उसका जबाब दिया और उनसे पाकिस्तान की कुछ साहित्यिक पत्रिकाओ का पता मांगा। अगले पत्र में उन्होंने आठ पत्रिकाओ का पता भेजा जिससे पाकिस्तान में मेरी रचनाओं के छपने का मार्ग प्रशस्त हुआ।सर्वप्रथम लाहौर से निकलने वाली उर्दू पत्रिका ‘ तख्लीक’ में मेरी रचना प्रकाशित हुई थी फिर चौदह पत्रिकाओ से संबंध बना।रचनाएँ छपने के बाद बेहद प्रसन्नता होती थी कि मेरी रचनाएँ भारत की सीमा से बाहर भी प्रकाशित और प्रशंसित हो रही हैं ।परन्तु सबसे अधिक खुशी उस वक्त हुई जब मेरा उपन्यास ‘ धुंध में उगा पेड़ ‘ कराची पाकिस्तान से निकलने वाली उर्दू पत्रिका ‘ मंजूर ‘ में धारावाहिक के रूप मे प्रकाशित हुआ था ।

प्र- वर्तमान परिदृश्य साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं की स्थिति पर आपका क्या विचार है?

उ- अभी के समय में किसी व्यवसाय पर सर्वाधिक चोट हो रहा है तो वह है साहित्यिक पत्र-पत्रिकाए ।पुस्तक मेला में पुस्तकों की विक्रय अवश्य होती हैं पर उस अनुपात में नहीं जितनी दरकार है और जब खरीदार ही नहीं होंगे तो उत्पाद पर असर तो पड़ेगा ही । सीतामढी क्षेत्र में पिछले 2003 से मै पुस्तक मेला का आयोजन इस मंशा से कर रही हूँ कि लोगों में पुस्तक के प्रति आकर्षण जंगे ।पुस्तक पढ़ने की प्रवृति बढ़े।कुछ हद तक सफलता मिली है परन्तु आधी आबादी कहे जाने वाली महिलाओं की सहभागिता अभी आशा जनक नहीं कही जा सकती है जो अफसोसनाक है ।

प्र- साहित्यिक मेला-उत्सव साहित्य के लिए वरदान बन रहा है या अभिशाप?

उ- साहित्यिक मेला-उत्सव का मुझे कोई अनुभव नहीं है क्योंकि ऐसे किसी आयोजन में शिरकत करने मौका नहीं मिला है अभी तक । इसलिए इस पर टिप्पणी करना बेमानी होगा ।

प्र- इन दिनों क्या लिख रही हैं?

उ- यथार्थ पर आधारित एक उपन्यास जिसका कथानक बिल्कुल अछूता है ।काम आगे बढ़ रहा है परन्तु उसके लिए मुझे उससे संबंधित स्थानों का भ्रमण करना और वहां की परिस्थितियों से गहराई से अवगत होना आवश्यक है । मैं अपने लेखन में मात्र कल्पना के सहारे यथार्थ के साथ अन्याय नहीं करना चाहती। कल्पना के सहारे आप फूल, पहाड़, बर्फ आदि का चित्रण कर सकते हैं परन्तु वहां के बाशिन्दों की जरूरतों की नहीं और ना ही उनकी संस्कृति तथा संस्कार से रू ब रू हो सकते हैं ऐसे में सारा लेखन ही भ्रमित करने वाला होकर रह जायेगा ।

 
      

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  1. At this moment I am going to do my breakfast, when having my
    breakfast coming over again to read further news.

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