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रेणु, आज़ादी के स्वप्न और मैला आँचल:हृषीकेश सुलभ

आज फणीश्वरनाथ रेणु जयंती है। आज से उनकी जन्म शताब्दी का साल भी शुरू हो रहा है। वे एक बड़े विजन के लेखक थे। उनकी अमर कृति ‘मेला आँचल’ की चर्चा के बिना आधुनिक हिंदी साहित्य की कोई भी चर्चा अधूरी ही मानी जाएगी। आज उनकी इस कृति का सम्यक् मूल्यांकन कर रहे हैं जाने माने लेखक हृषीकेश सुलभ, जिनके उपन्यास ‘अग्निलीक’ की चर्चा करते हुए कई लोगों ने रेणु जी को याद किया। वे उसी परम्परा के लेखक हैं। एक नए तरह का विश्लेषण पढ़िए- मॉडरेटर

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मैं अपनी पीढ़ी के उन सौभाग्यशाली लेखकों में हूँ, जिन्होंने फणीश्‍वर नाथ रेणु को सत्ता की अराजकता, क्रूरता और हिंसा के विरुद्ध लड़ते हुए देखा है। बाद में जिसे दूसरी आज़ादी का नाम दिया गया, उस आंदोलन में जयप्रकाश नारायण के शामिल होने के बाद पटना में जो पहला जुलूस निकला था, उसमें पीछे चल रहे थे रेणु,  मुँह पर काली पट्टी बाँधे। इस जुलूस के पीछे-पीछे पन्द्रह से बीस वर्ष की उम्रवाले कई अनाम युवा चल रहे थे। इस मौन जुलूस की मुखरता ने सत्ता के गलियारों में हड़कम्प मचा दी थी। फिर शुरु हुए संघर्ष के उथल-पुथल भरे दिन।

     यह रेणु की तीसरी लड़ाई थी। आज़ादी के तीन दशक भी पूरे नहीं हुए थे और एक बार फिर गुलामी का अहसास घना हो गया था। इतना घना कि रेणु सन् 42 के अपने नायक जयप्रकाश नारायण के साथ हो गए। 8 अप्रैल सन् 74 के उस मौन जुलूस के बाद उन्होंने एक बार फिर से अपने को संघर्ष में झोंक दिया था। वह पुलिस से लुकते-छिपते फिर रहे थे। गिरफ़्तार हुए। जेल से भूमिगत गतिविधियाँ चलाते रहे। फिर जेल से छूटे। अपनी रचना के शब्दों को और व्यापक बनाते हुए उन्होंने सत्ता के विरुद्ध जो अंतिम संघर्ष किया, उसके बारे में ये संक्षिप्त सूचनाएँ हैं।

     मैला आँचल पर बात करने से पहले रेणु के रचनाकार और क्रांतिकारी व्यक्तित्व की निर्मिति पर थोड़ा ग़ौर करना होगा। इस निर्मिति के केन्द्र में रहे हैं उस समय के गहन भावनात्मक और सामाजिक अंतर्विरोध। ये अंतर्विरोध इतने तीखे और बेचैन कर देनेवाले थे कि रेणु का लेखक, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता और क्रांतिकारी बनना सहज संभाव्य था। उनकी छोटी बहन महथी देवी ने एक संस्मरण सुनाया था। मैं यह संस्मरण सप्रयोजन सुना रहा हूँ ताकि हमसब उनके प्राणों में पलते उन सपनों की आरम्भिक छवियों को महसूस कर सकें, जिनके टूटने की अनुगूँज मैला आँचल के शब्दों से निकलती है और लोकलय की तरह टीसती है। महथी देवी ने बताया था कि कैसे  रेणु ने सन् 42 से पहले पहली पत्नी का गहना बेचकर हैंडबिल छपवाया था। पत्नी गहना देने को तैयार नहीं थीं। रेणु ने कुआँ में डूबने का नाट्य किया। कुछ कपड़े उतारकर कुआँ के पास रखा। एक बड़ा-सा पत्थर कुआँ में फेंका और स्‍वयं झाड़ी में छिप गए। रात के अँधेरे में कुआँ में कुछ गिरने की आवाज़ सुनकर और उतरे हुए कपड़ों को देखकर सबने समझा, उन्होंने जान दे दी। गहने की निरर्थकता का बखान करते हुए जब पत्नी ने रोना शुरु किया, तो रेणु झाड़ी से बाहर निकले। पत्नी ने गहना सौंप दिया। दूसरे दिन उसे बेचकर स्वतंत्रता आंदोलन की प्रचार-सामग्री छपी। ये थे सपनों की फ़सल को रोपने और पालने-पोसने के  उनके दिन। ……..पढ़ाई छोड़कर भागे। स्वतंत्रता संग्राम उफान पर था। सन् 42 ने उन पर गहरा प्रभाव डाला। हज़ारीबाग़ जेल से जयप्रकाश नारायण की फरारी ने उन्हें चमत्कृत किया था। यह घटना रेणु की स्मृति का अंत तक हिस्सा बनी रही। देश आज़ाद हुआ, पर वह नेपाल की राजशाही के ख़िलाफ़ लड़ते रहे। उनके काँधे पर बंदूक भी थी। सन् 50 के आसपास नेपाल की राजशाही का दमनचक्र तेज़ हुआ। थका देनेवाली इस जुनून भरी सक्रियता और अनियमित जीवन ने देह को तोड़कर रख दिया। अस्वस्थता का दौर चलता रहा। पटना आए। रेणु तब लेखक के रूप में प्रसिद्ध नहीं थे। इस बीच उन्होंने मैला आँचल लिखा। एक ऐसा भविष्य रचा, जो सपनों के एक छोर से निकलकर दूसरे छोर पर टँगा हुआ था। मन-प्राण के भीतर से निकलकर पंछियों की तरह फुदकने ही वाले थे सपने कि उन्हें राजनीति की चील उठाकर ले भागी। देश समझे-बूझे इसके पहले ही चोरों-बटमारों के हाथ लग गई सपनों की यह गठरी। फि‍र मैला आँचल का प्रकाशन हुआ।  मैला आँचल के प्रकाशि‍त होते ही सपनों और भविष्य के लुट जाने के हाहाकार की अनुगूँज ऐसे पसरी कि हिन्दी का रचना-संसार विस्मित हुआ।

     मैला आँचल को हिन्दी में लगभग क्लासिक का दर्ज़ा प्राप्त है। इसे गोदान के बाद हिन्दी का सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है। यथार्थ की नई छवियों, कहन के नए अंदाज़ और भाषा की नई त्वरा के कारण इसने पाठकों को मुग्ध और चमत्कृत किया। इसकी स्थानिकता को रेणु ने अपने रचना-कौशल से महाकाव्यात्मक विस्तार दिया। मैला आँचल जिन स्रोतों से उपजा है यानी जिस यथार्थ के गर्भ से इसका कथ्य जनमता है, उस यथार्थ से इसकी अंतःप्रकृति और रूपरचना मिलकर एक दीर्घ कलात्मक प्रभाव रचती हैं। यह भारत की आज़ादी के संधिकाल की कथा है। हमारे गाँवों के भीतर बसी भारत माता और भारत माता के भीतर बसे बदहाल गाँवों की इस कथा में जीवन का मर्म एक गहन आलाप की तरह उभरता है और हमें भीतर तक मथता है। यहाँ वासनाओं और वृत्तियों की आवाजाही है, ग्रामीण जीवन के सामूहिक शील की अभिव्यक्ति है, परम्परा के नाम पर जीवन को रूढ़ियों में बाँधनेवाले संस्थानों का मिथ्याचार है; और हैं नई राजनीतिक चेतना की आड़ में लूट की संस्कृति का बीज बोते वंचकों की दुरभिसंधियाँ। मैला आँचल में निष्कलुष प्रेम, दुविधा, घृणा, कुंठा, आत्मपीड़न, उत्सव, कोलाहल, संवेदना की आर्द्रता, सम्बन्धों का राग, आंदोलन, संघर्ष, युद्ध, वर्चस्व की राजनीति आदि तमाम रंग हैं, जो अपनी या़त्रा तय करके एक विघटित होते लोक के अवसाद में रूपांतरित हो जाते हैं। यहाँ आंचलिकता का परिदृश्‍य अपने भीतर ऐसी घटनाओं को समेटे हुए है जिनका ऐतिहासिक अर्थ और महत्त्व है। मुक्ति का स्वप्न,  मैला आँचल का प्रमुख स्वप्न है। एक जनमते हुए नए देश की पीड़ा, आकार लेती हुई एक नई ज़िन्दगी की छटपटाहट इन स्वप्नों में गुँथी हुई है। बालदेव साधारण और सामान्य ग्रामीणों का प्रतीक है। बालदेव को राजनीति का अवसरवाद कहीं का नहीं छोड़ता। वह चाहकर भी अवसरवाद की विवशता से मुक्त नहीं हो पाता। वह यह नहीं चाहता कि यह देश और समाज अपना भविष्‍य सामान्य लागों के सपनों की उपेक्षा करते हुए रचे। उसके लिए इतिहास में दर्ज़ होना उतना महत्त्व नहीं रखता। उसे यह बात उतनी नहीं टीसती कि वह इस नए आज़ाद भारत के लिए ज़रूरी नहीं रहा बल्कि, लोगों के टूटे सपनों-आकांक्षाओं की किरचों की चुभन उसे ज़्यादा टीसती हैं। एकांतवास में आत्मसंघर्ष करते हुए असंख्य स्वतंत्रता सेनानियों की पीड़ा, बालदेव की अकथ पीड़ा से मैला आँचल में अभिव्यक्ति पाती है। वह इतिहास के ऐसे स्थलों को अपने चरित्र से आविष्कृत और चिह्नित करता है, जहाँ मुक्ति के स्वप्नों की हत्या होती है। बावनदास स्वप्नों की शक्तिशाली उपस्थिति है। शक्तिशाली, पर हारी हुई, एक करुण उपस्थिति। यही रेणु के कौशल की विशि‍ष्टता है कि बावनदास के व्यक्तित्व की दृढ़ता और उसके पराजय से पैदा हुए शोक को वह एक ऐसी आँख में तब्दील कर देते हैं, जिससे आनेवाले कल की भयावहता को देखा जा  सके। वह यह भरोसा देता है कि यदि गहन अँधेरे में भी विश्‍वास की आँख से कोई देखे तो सच छुप नहीं सकता। जब बावनदास का सहज स्वर ऊपर उठता है और पंचम तक पहुँचता है, स्वप्नों की चीख़ सुनाई पड़ती है। इस चीख़ में शामिल हैं इतिहास के कई प्रसंग। उपन्यास की कथा में नायक की तरह दिखनेवाले प्रशांत की उपस्थिति मुक्ति के स्वप्नों की एक अलग वीथि की तरह दिखती है। पर यह वीथि भी उसी चैराहे पर जाकर खुलती है, जहाँ बालदेव, बावनदास आदि खड़े हैं। प्रशांत बाहर से आया है। वह रेणु की दीर्घ आंचलिकता के विस्तार में समाहित नहीं होता, पर मैला आँचल की कथा की अंतरंगता में उसकी और उसके स्वप्नों की अपनी जगह है। उसके व्यक्तित्व की सांद्रता  उसके स्वप्नों को अलग रंग और आभा देती है। वह मा़त्र शोधार्थी नहीं रह जाता। बथुआ और पाट के साग पर जीवन गुज़ारते, ग़रीबी, बीमारी, अशि‍क्षा, अज्ञानता और अंधविश्‍वास के दलदल में फँसे भोलेभाले लोगों का सुख-दुःख, उसका सुख-दुःख बन जाता है। ममता को लिखे उसके पत्र और उसकी डायरी के अंशों में उसके स्वप्नों की लहलहाती हुई फसल है। वह अपने इन स्वप्नों का मुरझाना देखने के लिए अभिशप्त है। कालीचरण क्रांतिकारिता का नया चेहरा है। अपने ही लोगों द्वारा लहूलुहान कालीचरण  आज भी अपने स्वप्नों की लाश उठाए भटक रहा है। अपने जीवन-काल में मिथक बन चुके जिस नक्षत्र मालाकार को चलित्तर कर्मकार के नाम से रेणु ने रचा था उनके स्वप्नों की परिणति भी कालीचरण के स्वप्नों जैसी ही होती है। लक्ष्मी का स्वप्न आज भी भारतीय समाज के लिए प्रश्‍नचिह्न बना हुआ है। क्या वह  हर काल और हर स्थिति में केवल दूसरों की लालसापूर्ति के लिए बनी है ? क्या वह कभी अपनी पसंद के पुरुष का वरण कर सकेगी ? वह मैला आँचल में परतंत्रता का चरम बनकर उभरती है। उसके स्वप्नों की पीड़ा का अजस्र नाद इतिहास पर लगातार चोट करता है। मैला आँचल में सिर्फ़ मनुष्यों के स्वप्न ही नहीं हैं। उपकथाओं के माध्यम से रेणु माटी-पानी तक के स्वप्न रचते हैं और इनकी काँपती हुई विविधवर्णी छायाओं से यथार्थ की नई छवियों को आविष्कृत करते हैं।

     स्वतंत्रता के सात दशक पूरे हो चुके हैं। हम स्‍वतंत्रता के आठवें दशक में हैं और विकास तथा समृद्धि का एक नकली चेहरा लगाए पूरी दुनिया के सामने सीना तानकर घूमने का अभिनय कर रहे हैं। हमारे जीवन की निर्णायक शक्ति आज सिर्फ़ राजनीति है। और यह राजनीति ठीक उसी तरह फूल-फल रही है, जिस तरह मैला आँचल में चित्रित है। जातिवाद आज भी हमारे देश में राजनीति की धुरी है। संथालों और उनकी भूमि पर जबरन कब्ज़ा करनवालों के बीच हुए जिस संघर्ष का चित्रण मैला आँचल में है, वह संघर्ष आज भी अपना रूप बदलकर देश भर में उपस्थित है। नन्दीग्राम, सिंगुर से लेकर बस्तर तक यह संघर्ष देखा जा सकता। देश के कोने-कोने में फैले असंख्य अनाम स्वतंत्रता सेनानियों ने बावनदास की पीड़ा को झेला है। गाँधी के विचारों को विभ्रम में बदलने का षड़यंत्र आज भी जारी है। डाइन कोशी नदी की प्रलय-लीला ने लगातार बथुआ और पाट का साग खाकर जीने के लिए विवश किया है।

     मैला आँचल सिर्फ़ यथार्थ का प्रस्तुतीकरण नहीं है। रेणु भारतीय ग्रामीण जीवन के बाह्य और आंतरिक यथार्थ की जटिलता के भीतर एक सजग सर्जक की तरह उतरते हैं और भविष्य के संकेतों और पूर्वाभासों को उद्घाटित करते हैं। यहाँ परम्पराएँ हैं, पर जड़ रूप में नहीं हैं। सतत नए अर्थों और प्रयोजनों की तलाश करती हुई परम्पराओं के बीच रेणु कभी कमली के माध्यम से, तो कभी लक्ष्मी या फुलिया के माध्यम से स्त्री-जीवन की नई व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। यहाँ सब कुछ कथ्य के भीतर तरलता के साथ घुला-मिला है और पाठक की विचार-प्रक्रिया को नया आधार देता है। मैला आँचल भारतीय गाँवों के उस सांस्कृतिक विघटन की महागाथा है, जो आज़ादी के साथ-साथ आरम्भ होती है। सत्ता और प्रभुता के खेल की अभिव्यक्ति करते हुए भी मैला आँचल  की रसमयता का प्रवाह बना रहता है।

     बदहवास जीते समकालीन भारतीय समाज में प्रशांत के स्वप्न बहुत पीछे छूट चुके हैं। मैला आँचल का यह स्वप्न आज मृतप्राय है। कमली और प्रशांत की प्रणय कथा आज रूढ़ि बन चुकी है। ……फिर भी, स्वप्न साकार हों या नहीं, उन्हें देखना ही रचनाधर्मिता की पहली शर्त है। मैला आँचल  एक यथार्थपरक स्वप्न है, जो अपनी उर्वरा माटी का उल्लास, शोक कही जानेवाली कोशी का हाहाकार और मरते हुए स्वप्नों का अवसाद समेटे हुए है। मैला आँचल जागती आँखों से देखा गया स्वप्न है, जो निर्विवाद रूप से भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ साहित्य-सम्पदा है।

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