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रेणु के ‘लोकल’ का फलक दरअसल ‘ग्लोबल’ है

फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यासों, कहानियों में आंचलिकता कोई सीमा नहीं थी बल्कि वह आज़ाद भारत के ग्रामीण समाज के विराट स्वप्न के लेखक थे, जो शहरीकरण को विकास का एकमात्र पैमाना नहीं मानते थे न ही गाँवों को पिछड़ेपन का प्रतीक। उनके लेखन पर हिमाचल में रहने वाली लेखिका, अनुवादिका पल्लवी प्रसाद का यह लेख पढ़िए- मॉडरेटर

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फणीश्वरनाथ रेणु भारतीय साहित्य के एक प्रतिनिधि लेखक हैं। रेणु का लेखन निजी पठन-पाठन अथवा विचारकों के चिंतन के आयातीत प्रभावों के बनिस्बत उनके जन्मज परिवेश में अपनी जड़ें जमाये हुए है। उसी जन्मज जनजीवन से वह जैविक खाद व ऊर्जा पा कर स्फूर्त होता है, कुछ इस तरह कि रेणु का साहित्य कालजयी है। रेणु की कलम की स्थानीयता ही उसकी ताकत है। उनका लेखन अपने मिजाज में जितना अधिक स्थानीय है उतना ही अधिक वैश्विक है। रेणु के ‘लोकल’ का फलक दरअसल ‘ग्लोबल’ है।

देश भर में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षण बोर्ड के अलावा राज्य स्तर पर अनेक माध्यमिक शिक्षण बोर्ड हैं जिनके अपने-अपने पाठ्यक्रम हैं। अधिकांश राज्य बोर्ड स्कूल के पाठ्यक्रम में फणीश्वरनाथ रेणु को नहीं पढ़ाते हैं। केंद्रीय बोर्ड ने अपनी बड़ी कक्षाओं के पाठ्यक्रम में रेणु के रिपोर्ताज सम्मिलित किए हैं, कहानियाँ नहीं। एक आम विद्यार्थी जब तक हिंदी विषय में उच्च शिक्षा नहीं प्राप्त करता है तब तक इस बात की संभावना कम है कि उसका अकादमिक परिचय फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्य से होगा। प्रेमचंद स्कूलों में हर जगह पढ़ाये जाते हैं। इस तरह सभी प्रेमचंद को जानते हैं परंतु हिंदी पट्टी के बाहर रेणु को जानने वाले कम लोग मिलते हैं। वहां पुस्तकालयों में भी उनके साहित्य की उपलब्धता दुर्लभ है। यदि इसके पीछे यह कारण है कि स्कूल पाठ्यक्रम में भाषा की शुद्धता पर आग्रह दिया जाये तो यह आग्रह अँग्रेजी भाषा के स्कूल पाठ्यक्रम के लिये क्यों नहीं है? स्कूलों में पढ़ाये जाने वाले अँग्रेजी साहित्य में पुरातन से लेकर नवीनतम भाषा-प्रयोग, उनके प्रकार व शैलियाँ हैं। पाठ्यक्रमों की अँग्रेजी भाषा में, भाषा अपने स्थानीय एवँ अपभ्रंशित रूपों में भी मौजूद है अर्थात ‘कोलोक्यिल’ और ‘स्लैंग’ प्रयुक्तियों से भरी हुई। अतिशुद्धता का दुराग्रह सिर्फ हिंदी भाषा साहित्य के लिये ही क्यों? इस तरह स्कूल में सबको फणीश्वरनाथ रेणु नहीं पढ़ाये जाते हैं और कॉलेज में हर कोई हिन्दी नहीं पढ़ता है।

अस्सी का दशक अपने साथ दूरदर्शन का व्यापक प्रसारण ले कर आया था। इस दशक के पूर्वार्ध में दिखाये गये कहानियों पर आधारित एक सीरियल में फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘पंचलैट’ का प्रसारण हुआ था। वह कहानी गैर हिंदीभाषी दर्शकों में भी इतनी ज्यादा लोकप्रिय हुई थी कि लोग मौज में सिनेमा को ‘सलीमा’ कहते। उन्हें शहर में ‘पंचलैट’ कहाँ देखने को मिलता सो वे टॉर्च को ही पंचलैट पुकार कर खुश हो लेते और हँसा करते। फिर रेणु के उपन्यास ‘मैला आँचल’ पर लंबा सीरियल प्रसारित हुआ। वह लेखक की मानिंद ही कहता “इसमें फूल भी है शूल भी…।” जो लोग रेणु को कभी नहीं पढ़ पाये थे उन्होंने रेणु को सर्वप्रथम ‘देखा’। उन दिनों इंटरनेट, मोबाइल, ऑनलाईन शॉपिंग इत्यादि जैसी सुविधाएँ तो थी नहीं कि कोई भी किताब कहीं भी मँगवाई जा सके। स्थानीय बाजारों में प्रेमचंद की किताबें मिला करती थीं, रेणु की नहीं। ऐसे में हिंदी प्रदेशों में रहने वाले मित्रों द्वारा डाक से भेजी गई साहित्य सामग्री ही रेणु को पढ़ पाने का एकमात्र जरिया साबित हुई। उन दिनों पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि हिंदी साहित्य, सागर है, असीम और गहरा। जो दरअसल हमारे पाठ्यक्रम से बाहर हमारा इंतजार कर रहा है। यह बात मालूम पड़ी कि ‘क’ से कमल अथवा कुमुदिनी ही नहीं, वह फूल ‘प’ से पुरईन भी हो सकता है; कि आसमान में दिन के चढ़ते हुए सूरज को बाँस से भी नापा जा सकता है और सर्दी की किसी सुबह जूता-मोजा पहन कर स्कूल जाने के इंतजार में चौकी पर बैठा हुआ बच्चा जरूर हम में से ही कोई एक है।

फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्य को आंचलिक माना जाता है। स्वयं रेणु यह मानते थे। हमारे सामने वृहद प्रश्न यह है कि क्या किसी भी भाषा साहित्य में यह भेद करना उचित है? सामान्य रूप से हर कथ्य की कोई स्थानीयता होती है। वह किसी न किसी परिवेश के अनुकूल होता है। फिर हिंदी भाषा का राष्ट्र भाषा होना उसकी राजनीतिक स्थिति है, व्यवहारिक स्थिति नहीं। हिंदी, देश के कुल 28 राज्यों और 8  संघ राज्यक्षेत्रों में से सिर्फ 12 की प्रमुख भाषा है। हिंदी उत्तर भारतीय प्रदेशों में ही बोली जाती है। इस अर्थ में हिंदी स्वयं आंचलिक भाषा है। हिंदी भाषा में अनेक बोलियाँ समाहित हैं परन्तु हिंदी शब्दकोश व साहित्य में उन्हें कोई स्थान प्राप्त नहीं है। यही कारण है कि कुछ बोलियाँ अपना वजूद हिंदी से अलहदा घोषित करने के लिए संघर्षरत हैं। तब क्या कथा के विषय के अनुसार आंचलिकता तय होनी चाहिये? क्या किसी महानगर के पेय-जल की समस्या पर लिखी कहानी मुख्यधारा का साहित्य होगा और किसी गाँव के पेय-जल की समस्या पर लिखी गई कहानी आंचलिक कथा कहलायेगी? परंतु इस प्रकार के भेद का साहित्य में कोई तार्किक आधार नजर नहीं आता। अँग्रेजी भाषा विश्व भर में प्रयोग की जाती है। दुनिया भर के लेखकों ने अपने रचनात्मक योगदान से अँग्रेजी साहित्य को समृद्ध किया है। अँग्रेजी साहित्य देश, संस्कृति, स्थानीयता, बोली की भिन्नताओं के आधार पर अपने आप में कोई भेद नहीं करता है। अँग्रेजी शब्दकोश में शुद्ध, अशुद्ध, अपभ्रंश, बोलियाँ तथा अन्य भाषाओं से लिए गये शब्दों की भरमार है। वे सभी अँग्रेजी को बल देते हैं। हिन्दी को भी चाहिए कि ऐसे तुच्छ भेद मिटाये और एकजुट हो कर प्रगति करे। शायद आंचलिकता के खाँचे में डाले जाना भी एक कारण है कि रेणु गैर हिंदीभाषी पाठकों के लिए दुर्लभ बने रहे हैं। यह जरूरी है कि उनके साहित्य का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हो। रेणु के साहित्य पर देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में स्थित विश्वविद्यालयों में भी शोध हो रहे हैं। परंतु क्या रेणु का साहित्य विश्वविद्यालयों तक सीमित रहना चाहिए? नहीं, वह आम जनमानस की कथाएँ हैं जो आम जनमानस के लिए लिखी गई हैं। वे सर्वसाधारण पाठकों को उपलब्ध हों इसलिए उनके स्तरीय अनुवादों का प्रकाशित होना बहुत जरूरी है।

फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्य का किसी भी भाषा में अनुवाद किया जाना सरल नहीं है। लेकिन किसी भी लेखक या कवि को अन्य भाषाओं में अनूदित करना असंभव भी नहीं है। नि:संदेह, रेणु की मूल अभिव्यक्तियों का आस्वाद, अनुवाद की भाषा में बनाये रखना बेहद चुनौतीपूर्ण काम है। रेणु का गद्य पढ़ते हुए पाठक शब्दों को सिर्फ पढ़ता नहीं है, उन्हें जीता भी है। उनके शब्द मन में दृश्य-श्रव्य चलचित्र चलाते हैं और पाठक भावनाओं की ‘चकरी’ पर चढ़ जाता है। क्या यह जीवंत प्रभाव अन्य भाषा में उपजाया जा सकता है? यह प्रयास हमें करना ही होगा और हम अपने प्रयासों में अवश्य सफल होंगे।

बेहतरीन अनुवाद करने के लिये किसी भी अनुवादक के लिये यह महत्वपूर्ण है कि वह मूल भाषा का सहज जानकार हो।  भाषा में सिर्फ कथन का ही नहीं बनिस्बत अ-कथन तथा अन्य-कथन के गूढ़ अर्थों का समावेश भी हो सकता है। विदेशी अनुवादकों के सामने यह अतिरिक्त समस्या उपस्थित होने की आशंका बनी रहती है। भारतीय भाषाओं का समूह संबद्ध है। साथ ही विविध प्रांतों की सांस्कृतिक चेतना भी कमोबेशी साझी अथवा संबद्ध पाई जाती है। परंतु जब किसी भारतीय साहित्य का अनुवाद किसी यूरोपीय अथवा अन्य भाषा, जो मूल भाषा से असंबद्ध हो में किया जाता है तो जाहिर है अनुवादक के समक्ष चुनौतियाँ बढ़ जाती हैं। उदाहरण स्वरूप, रेणु के कथा साहित्य का अँग्रेजी में अनुवाद ऐसा हो कि वह किसी विदेशी/अजनबी पाठक के मस्तिष्क में वही श्रव्य-दृश्य चलचित्र का निर्माण करे, उसके नथुनों में उसी मिट्टी की गंध भर दे और उस पाठक की भावनाएँ वैसी ही सजीव हो उठें जैसा कि रेणु का मूल साहित्य पढ़ने पर होती हैं। मूल साहित्य का यह प्रभाव अँग्रेजी में प्रस्तुत करना कठिन तो है ही। हिंदी की तुलना में अँग्रेजी के व्याकरण के नियम कम लचीले अथवा कठोर हैं। रेणु की भाषा बहुत आजाद है। वे किसी एक बात से संबंधित लिखे गए वाक्यों में विविध कालों की सैर कर आते हैं। जाहिर है अँग्रेजी व्याकरण में यह ‘काल-सैर’ वर्जित है। उनकी यह विशेषता है कि वे लंबे-लच्छेदार वाक्यों का उपयोग नहीं करते हैं। वे अधूरे वाक्य व कथनों का भी खूब प्रयोग करते हैं। इस तरह तीन बिंदियाँ लगा कर उनके द्वारा अधूरे छोड़े गए वाक्य उनके पाठकों के मन पर देर तक दस्तक देते रहते हैं। उनकी कहानी ‘रसप्रिया’ कम शब्दों में कही बेहद भावप्रवण कहानी है। दरअसल, किसी अनुवादक के लिये अधिक शब्दों के बनिस्बत कम शब्दों में दर्ज की गई किसी गहन अभिव्यक्ति का अनुवाद कर पाना अधिक जोखिम भरा काम है। रेणु ‘ओनोमोटोपिया’ अर्थात अर्थानुरणन के अलंकार का भी खूब प्रयोग करते हैं – ऐसे शब्द जो स्वर/ध्वनि का अनुसरण करते हों। अँग्रेजी में ऐसे शब्दों की अनुरूप अभिव्यक्ति ढूँढ़ कर उनका प्रयोग करना होता है। हिंदी, अँग्रेजी के मुकाबले कहीं ज्यादा मुहावरेदार भाषा है। और जब लेखक रेणु हों तो कहने ही क्या! उनका गद्य स्थानीय मुहावरों से लबरेज है। अँग्रेजी में इन मुहावरों का शाब्दिक अनुवाद हास्यास्पद होगा। परंतु दुनिया में ऐसी कोई भाषा नहीं है जिसके अपने मुहावरे न हों। ऐसे में समान परिस्थिति में उपयोग होने वाले अँग्रेजी मुहावरों का उस अनुवाद में उपयोग किया जाना चाहिए। मूल मुहावरे के शब्दों की जगह उसके भावों को अनूदित करने पर जोर दिया जाना चाहिये। इस प्रकार मूल साहित्य के समान ही अनूदित साहित्य भी स्पंदित और अर्थवान हो उठेगा।

रेणु अपनी कथा-कहानियों में गालियों का उपयोग करने से परहेज नहीं बरतते। वे गालियाँ गजब मौलिक और कल्पनाशील होती हैं, जिन्हें उनके पात्र मौके की गर्मी और तात्कालिक संदर्भों के अनुरूप देते हैं। मजेदार बात यह है कि रेणु के पुरुष पात्र नहीं बल्कि स्त्री पात्र गालियों का सर्वाधिक प्रयोग करते हैं। और यह बात गौरतलब है कि ऐसे प्रयोग करते हुए भी वे सुसंस्कृत रहते हैं। रेणु की स्त्रियाँ जब लड़ती हैं तब उनके द्वारा बोली गई अश्लील गालियों के निशाने पर गाँव की सास और ननद की श्रेणी में आने वाली स्त्रियाँ नहीं होती हैं। वे गाली-गलौज करने में बराबरी का पूरा ध्यान रखती हैं। उनकी जद में अक्सर देवरानी/जेठानी की श्रेणी में आने वाली स्त्रियाँ और उनके पति ही होते हैं। गालियों में रेणु द्वारा प्रयुक्त चरित्रहीनता के द्योतक शब्दों के इतने सारे पर्यायवाची शब्द भला अँग्रेजी में कहाँ से लाये जा सकते हैं? ‘भतार-खौकनी’, ‘सतबेटा-घिनौनी’, सादी पतुरिया नहीं ‘नथिया वाली पतुरिया’ और न जाने क्या-क्या! रेणु की कहानी ‘तीर्थोदक’ में एक जगह यह गाली है – ‘खलीफा की दाढ़ी में मेंहदी लगाने वाली’। किसी विधर्मी की दाढ़ी को रँगना नि:संदेह गाली होगी परंतु इस बात में अश्लीलता की जगह मानो प्रेम की अंतरंगता का बोध होता है। रेणु का साहित्य जिन चुनौतियों को प्रस्तुत करता है वे ही अनुवादक का पारितोषिक हैं। उसे यह विजयबोध अन्यत्र हासिल नहीं।

यह विडंबना है कि फणीश्वरनाथ रेणु जैसा विश्व लेखक अपने ही देशवासियों के लिए दुर्लभ हैं। और कुछ नहीं तो सिर्फ देश भर के पुस्तकालयों का सर्वे कराये जाने पर ही उपरोक्त बात प्रमाणित हो जायेगी। भारत सरकार और उसके संस्कृति मंत्रालय को बड़े पैमाने पर अनुवाद परियोजनाएँ नियोजित करनी चाहिए, जिनके तहत देश के महत्वपूर्ण लेखकों के साहित्य को देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं में आम पाठकों के लिये विपुलता व सुगमता से उपलब्ध कराया जाये। विशेष कर रेणु की चुनिंदा कहानियाँ व प्रेरक उपन्यास-अंशों का बच्चों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किये जाने पर अवश्य विचार किया जाना चाहिये। इन बातों के बावजूद, फणीश्वरनाथ रेणु या अन्य कोई भी लेखक अपनी लोकप्रियता के लिये किसी का मुहताज नहीं होता।
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पल्लवी प्रसाद –
कथाकार, उपन्यासकार,
अनुवादक।
ऊना, हिमाचल प्रदेश।
मो.: 8221048752

 
      

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