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      कोरोना के समय में ताइवान : एक मेधावी चिंतक, मुस्तैद रक्षक

देवेश पथ सारिया ताइवान के एक विश्वविद्यालय में शोध छात्र हैं। वे हिंदी में कविताएँ लिखते हैं और सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं। उनका यह लेख ताइवान में कोरोनाकाल के अनुभवों को लेकर है। बहुत विस्तार से उन्होंने बताया है कि किस तरह ताइवान ने कोरोना महामरी का मुक़ाबला किया और उस संकट से उबर पाई- मॉडरेटर

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यदि मनुष्य पर यह विषाणु निष्प्रभावी होता तो इसके छोटे से आकार के बारे में जानकर कोई उत्साही सोशल मीडिआ पर लिख देता, ‘व्हाट क्यूट वाइटैलिटी दिस अर्थ हैज़’। पर अब जब यह आँखों से ना दिखने वाला विषाणु मनुष्य की नाक में दम किये हुए है, दुनिया की अर्थव्यवस्था ठप्प पड़ गयी है, महाशक्ति कहे जाने वाले देश त्रस्त हैं तो लगता है कि यह वायरस ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ के फैज़ल की तरह मनुष्य से प्रकृति पर किये ज़ुल्मों का बदला लेने आया है। वैसे ट्रॉलिंग के इस दौर में इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि कोई उपद्रवी आत्मा मोबाइल की स्क्रीन पर अब भी इसे क्यूट कह चुकी हो। आलम यह है कि 2020 का साल एक चौथाई बीत चुका है, लाखों लोग जो साल के शुरू में नववर्ष के स्वागत गीत गा रहे थे, इस फ़ानी दुनिया से कूच कर गए हैं। जाना तो सबको है, जाना कोई नहीं चाहता। कोई किसी महामारी से जाए, यह कोई भी नहीं चाहता। वे भी नहीं जो दिन रात मृत्यु की शाश्वतता पर दर्शन पेलते है। हम उस बुरे दौर में हैं, जहां यह जानते हुए भी हम इससे पार पा लेंगे, अभी यह बीमारी ही शाश्वत लग रही है।

शुरुआत में जब यह महामारी सिर्फ चीन की सीमाओं के भीतर थी, बाक़ी दुनिया के लोग मनोविज्ञान की उस खुशफहमी में जी रहे थे कि दुर्घटना सिर्फ दूसरों के साथ होती है। प्रकट में नहीं पर कुछ लोग मन-ही-मन सोचते थे कि अपने राम मज़े में हैं, थोड़ी प्रार्थना कर देंगे ताकि मानव कहते रह सकें ख़ुद को और चैन से सोयेंगे। पर जैसे-जैसे यह रोग चीन के बाहर पैर पसारने लगा, एक झुरझुरी सी दुनिया भर में शुरू हुई। प्रार्थना में शामिल लोगों का दायरा बढ़ने लगा। दुनिया के देशों में अलग-अलग रहा मनोविज्ञान की खुशफहमी से बाहर निकलने का वक़्त। मौतों के बढ़ते आंकड़े, घुटने टेकते बड़े देशों के नाम और वैक्सीन ना होने जैसी बातों ने झुरझुरी को बदहवासी में तब्दील किया। सावधानी बरतने के क़दम शुरू हुए। पेंच यह रहा कि जिस देश ने जितनी जल्दी और जितने सटीक क़दम उठाये, वह उतना ही महफूज़ रह पाया। अब कौनसा तरीक़ा सटीक था, इसकी विवेचना परिणाम से ही संभव है।

यदि निकटतम कोस्टल दूरी देखें तो ताइवान चीन से दो सौ किलोमीटर से भी कम दूरी पर स्थित है। लाखों ताइवानी चीन में काम करते हैं। ताइवान ने बहुत आरम्भ में ही चीन में ऐसी किसी महामारी की आशंका को भांप लिया था पर तब किसी ने ताइवान की बात पर कुछ ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। ताइवान किसी मेधावी चिंतक की तरह अकेले मुस्तैद तैयारी में जुट चुका था। इस तैयारी के सूत्र ताइवान में 2003 में सार्स की बीमारी में अपने कुछ लोगों को गंवाकर हासिल किये थे। एक अच्छा देश इसलिए अच्छा देश होता है क्योंकि वह अपने हर नागरिक की जान और सुरक्षा की चिंता करता है। और सिर्फ नागरिकों की ही नहीं, वरन उन लोगों की भी जो अपना घर-वतन छोड़कर उस देश में काम कर कर रहे होते हैं। ताइवान में कोरोनावायरस का प्रवेश वुहान में काम करने वाली एक महिला के साथ 21 जनवरी 2020 को हो गया था। मेधावी चिंतक का तैयारियां आजमाने का समय आया। दुनिया भर के हालात के बरक़्स ताइवान की परिस्थितियों की समीक्षा की जाये तो यह ‘सेकंड वेव ऑफ़ कोरोना पॉजिटिव केसेज़’ को भी गच्चा देकर सुरक्षित बना रहा है। जी हाँ, वही लहर जिसकी चपेट में शुरुआत में सुरक्षित माना गया सिंगापुर भी आ गया। ताइवान राहुल द्रविड़ की तरह क्रीज़ पर टिका हुआ है।

कभी ताइवान के बारे में कोई भी ख़बर टीवी पर आती है तो मेरी बहन अचानक फोन कर देती है। कभी ये ख़बरें भूकंप की होती हैं, कभी समुद्री तूफ़ान (टायफून) की। ताइवान चारों ओर समुद्र से घिरा है तो टायफून आ जाते हैं कभी-कभी यहां। जब वे आते हैं, उससे पहले उनके आने की चेतावनी आती है। हर टायफून का नाम बड़ा रोचक होता है जैसे बैलू, नेपार्टक, मिताग, हाइतांग । फिर सैटेलाइट से प्राप्त चित्रों का अपडेट देखते रहो कि इतने बड़े समुद्र में टायफून इस द्वीपीय देश से गुज़रेगा या रास्ते में दिशा बदल लेगा या बस दूर से छूकर गुज़र जाएगा। टायफून तो फिर भी कम दस्तक देते हैं, भूकंप आये दिन हमारा मेहमान बनता है। भूगर्भ वैज्ञानिकों के मुताबिक़ ताइवान सीस्मिक एक्टिव जोन में आता है । कभी आप बैठे हो और अचानक पाते हो कि आप झूम उठे हो। ओह, आपने तो शराब भी नहीं पी है। दरअसल, धरती हिल रही है। एक बार ऐसा हुआ कि मैं टैक्सी में सवार था और ट्रैफिक की वजह से टैक्सी एक ओवरब्रिज पर रुकी हुई थी। ज़मीन से ऊपर लटके हुए ही अचानक टैक्सी हिलने लगी। सामने काफी दूरी पर समुद्र था जो दूर से भी नज़र आ रहा था। ऐसा लगा कि मैं किसी फिसल-पट्टी पर हूँ और धरती मुझे धकेल कर समुद्र में गिरा देगी। मेरा पुराना कमरा ग्यारहवीं मंज़िल पर था, छोटा सा कमरा था तो वहाँ कमरे की चीज़ों का हिलना ज़्यादा महसूस होता था। तब डर भी ज़्यादा लगता था कि इतनी ऊपर से लिफ्ट लेकर नीचे पहुँचने तक तो मैं रास्ते में ही मर जाऊँगा। कभी-कभी कमरे की बड़ी सी मेज़ के नीचे चुप जाता था। मेरे अब वाले कमरे में मैं तीसरी मंज़िल पर रहता हूँ (भारत के हिसाब से दूसरी मंज़िल, क्योंकि भारत में पहले फ्लोर को ग्राउंड फ्लोर कहते हैं जबकि यहां उसे पहला ही मानते हैं )। यह कमरा बड़ा है और पता नहीं क्यों इसमें भूकंप महसूस बहुत कम होता है। जब कोई ज़्यादा ही तीव्रता वाला भूकंप आया हो, जिसकी ख़बर भारत में मेरी बहन तक पहुँची हो, तभी वह मुझे भी इत्तला करता है। टीवी पर नहीं, सच में। मेरा कमरा हिलाकर। किसी नवागत भारतीय की तरह अब मेरी कपकंपी नहीं छूट जाती। अब यहां के लोगों की तरह मुझे भी भूकंप के झटकों की आदत हो गयी है, ‘मेरो नैहर छूटो जाये’।

जनवरी में एक दिन अचानक मेरी बहन का फ़ोन आया। उसने टीवी पर ताइवान में कोरोनावायरस के पहुंचने की बात सुन ली थी और वह फ़िक्रमंद थी। मैंने उसे आश्वस्त किया कि मैं अपना ध्यान रखूंगा। फिर धीरे-धीरे सारे भारतीय रिश्तेदार  मम्मी को फ़ोन करके पूछते कि लड़का ठीक तो है ना। उनमें वे रिश्तेदार भी थे जिनसे मुझे ऐसी कोई उम्म्मीद नहीं थी। तय किया कि अगली बार कुछ पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर मिलूंगा उनसे।

ऐसा भी नहीं कि सभी भारतीयों से मुझे मिठास ही मिली हो। इस महामारी ने लोगों की मानवीयता की सच्चाई को साफ़ किया। मैं अपना मित्रता का दायरा बहुत बड़ा नहीं रखता। मैं सोशल मीडिआ पर भी उतने ही मित्र रखना पसंद करता हूँ जितने निभा सकूं। इस बीच फेसबुक पर बहुत फ्रेंड रिक्वेस्ट आ रही थीं। इसलिए मैंने फेसबुक पर अपना मैंडरिन भाषा वाला नाम लिख दिया। ताइवान में रेसिडेंट वीसा के लिये एक स्थानीय नाम रखना होता है ताकि यहां के किसी भी दफ़्तर में काम करने वाले अंग्रेज़ी ना जानने वाले कर्मचारी भी आसानी से आपका ऑफिशियल काम कर सकें। वरना विदेशियों के अजीब नाम उनके लिए बोलना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। एक दिन मेरे एक तथाकथित नये फेसबुक मित्र के पोस्ट पर मैंने कोई टिप्पणी की। उस पर जवाब देते हुए एक कोचिंग में हिंदी पढ़ाने वाले किसी महाशय ने मेरे मैंडरिन नाम को देखकर मुझे ही कोरोना की बीमारी कह डाला। एक भाषाविद का दूसरी भाषा के प्रति यह व्यवहार, ऐसा नस्लवाद। मेरे आपत्ति जताने पर वे नस्लवाद को नक्सलवाद समझ बैठे। मैंने उन बच्चों की सलामती की ख़ैर माँगी जो उनसे पढ़ते होंगे। एक दिन मैं अपने स्कूल के दोस्त के साथ वीडियो कॉल पर था, तभी उसके साथ जो दूसरा लड़का बैठा था, उसने फूहड़ता से हँसते हुए पूछा, “और कितना मरगा तेरा ताइवान में ?” । मानो यह कोई सर्कस है जहां करतब की कुशलता मरने वालों की संख्या से आंकी जाएगी। आपके ही जैसा कोई दूसरा इंसान अस्पताल में सांस लेने की भीख मांगता हुआ दम तोड़ रहा है और आपके लिये यह हंसकर चटखारे लेने की बात है। ज़ुकाम में नाक बंद हो जाने पर भी मुंह से सांस लेने का विकल्प खुला होता है। कोरोना, न्युमोनिआ, अस्थमा या दूसरी सांस की बीमारियों में बात इससे भी कहीं पेचीदा हो जाती है। स्वस्थ, सुखी आदमी सांस को ‘फॉर ग्रांटेड’ लेता है क्योंकि वह हर तीन से पांच सैकंड में अपने आप आ जाती है। ‘फॉर ग्रांटेड’ लेने की प्रवृत्ति मनुष्य की प्रकृति और वृक्षों के साथ भी रही है, जिनकी वजह से ऑक्सीजन बनती है। महामारी का अनुभव आदमी की इन्हीं आदतों को बदल पाये, शायद। अच्छा पूरी तरह ना सही, कुछ फीसद?

अफवाहों का बाज़ार इस बीच सूरज जितना गर्म हुआ है। जब से भारत में कोरोनावायरस पहुंचा है, मैं ‘दि लल्लनटॉप’ पर सौरभ द्विवेदी का कार्यक्रम देखता हूँ। बाक़ी समाचार चैनलों के हंगामे के बनिस्पत सौरभ द्विवेदी मुझे तर्कसंगत लगते हैं। हर रोज़ उनके कार्यक्रम में कोरोनावायरस से जुड़ी किसी अफ़वाह का ज़िक्र भी होता है। भारतीय आदमी भारत से बाहर भी कुछ संस्कार ले आता है, अच्छे-बुरे दोनों। अफ़वाह वाला भी। जब कोरोनावायरस के ताइवान पहुंचने की पुष्टि हुई, उस दिन मेरी ही तरह ताइवान में शोधरत एक भारतीय मित्र का एक दिन फोन आया। उसने बताया कि ये कोरोना मुआ अपने ही शहर में आया है, मरीज़ भी उसी अस्पताल में भर्ती है जहां मैं हर महीने एसिड रिफ्लक्स की दवा लेने जाता था। यह दीगर बात है कि इंटरनेट पर बहुत ढूंढने पर भी मुझे ऐसी कोई लिंक नहीं मिली।

हर चीनी वर्ष किसी जानवर का वर्ष होता है। इसी मान्यता के अनुसार साल 2020 चूहे का वर्ष है। चीनी साल की दस्तक के साथ ही दुनिया के कुछ देशों में छुट्टियाँ हो जाती हैं। ताइवान में भी। लोग अपनों से जाकर मिलते हैं। मंदिर जाते हैं । लगभग सारा बाज़ार बंद रहता है। टैक्सियां या तो चलती नहीं हैं या महंगी होती हैं। कुछ कन्वीनिएंस स्टोर जैसे सेवन-इलेवन और फैमिली मार्ट ज़रूर खुले होते हैं। ताइवान में हर जगह ये कन्वीनिएंस स्टोर होते हैं । एक सर्वे के मुताबिक़ यहां के लोगों में सेवन-इलेवन ज़्यादा पॉपुलर है, पर मेरे मन के क़रीब फैमिली मार्ट है। मुझे हरी-सफ़ेद धारियों वाला फैमिली मार्ट का लोगो भाता है और मेरे दोनों कमरों के पास भी यही रहा है। मेरी यूनिवर्सिटी की छुट्टियां 23 जनवरी से शुरू हो गयी थीं। मैंने छुट्टियों से पहले ही लगभग सब ज़रूरी समान और सब्ज़ियां कमरे में स्टॉक कर ली थीं। अब तक हर साल इन छुट्टियों में मैं भारत जाता रहा हूँ। इस बार तबियत की वजह से मैंने यहीं रहने का निर्णय लिया। जब छुट्टियां गिनकर मिलती हों तो बेहतर है उन्हें बेहतर सेहत के दिनों में घर बिताया जाये। वरना बीमार आदमी को घर, परिवार कुछ नहीं सुहाता। बड़े-बुज़ुर्ग सही कह गये हैं, “पहला सुख निरोगी काया” ।

पृथ्वी पर महामारियों का इतिहास खंगालें तो पता चलता है कि चूहे से फैलने वाला प्लेग एक बड़ा विलेन रहा है। अलग-अलग सदियों में वापस आ-आकर तबाही फैलाता रहा । यह कोरोनावायरस भी उस साल में फैल रहा है जो चूहे का चीनी वर्ष है। यह बात पढ़कर कहीं लोगों को अगली अफ़वाह का मसाला ना मिल जाये। पता चला कि लॉक डाउन ख़त्म होते ही सारा काम छोड़कर लोग चूहे मारने पर पिल पड़े। जिस तरह की बातें इस बीच फैली हैं, उसे देखते हुए यह महज मज़ाक नहीं लग रहा। तो दोस्तों, इस बार चूहा निर्दोष है। चूहे का काम हमारी लापरवाही कर रही है। चूहा खाद्य श्रंखला की एक कड़ी है, जो वह हमेशा से रहता आया है।

चीनी नववर्ष की छुट्टियां बीतते, मेरे कमरे में सामन का स्टॉक भी कुछ बीतने लगा था। बाज़ार खुलते ही मैं सुबह-सुबह निकल लिया । वहाँ मार्ट में प्रवेश करते ही एक कविता दिमाग़ में कौंधी। कितने समय से मुझसे दूर भाग रही थी कविता और अब आयी थी जब मैं जल्दी-जल्दी सामान लेकर लौट जाना चाहता था। उसे रूठकर छिटकने थोड़ी ना देता। मैंने अपनी शॉपिंग कार्ट को मार्ट के सुनसान से कपड़ों वाले सेक्शन में रखा और कविता लिखने लगा। वह कविता पेश-ए-ख़िदमत है :

कोरोनावायरस फैला रहा है अपने अदृश्य पांव

और आदमी, आदमी को संदेह की दृष्टि से देखता है

इन दिनों दुनिया के इस हिस्से में

चीनी नववर्ष की शुरुआत थी

छुट्टियां थीं

लोग यात्राएं कर रहे थे

रिश्तेदारों से मिलने जा रहे थे

देवताओं और पूर्वजों के लिए भेंट

अर्पित कर रहे थे

मंदिरों की चिमनियों में जलाकर

इक्का-दुक्का दुकानों को छोड़कर

बंद था सारा बाज़ार

इसी बीच जोर पकड़ा

कोरोनावायरस के फैलने की सरगर्मी ने

और अचानक कोरोना वायरस की वजह से

सब जल्दी-जल्दी जानने लगे रोकथाम के उपाय

पहला उपाय था

मास्क लगाकर बाहर निकलना

जितनी दुकानें खुली थीं

और जो खुलती जा रही हैं

चीनी नववर्ष की छुट्टियां खत्म होने के बाद

सब जगह से खत्म हो चुके हैं फेस मास्क

जैसे कि हर इंसान एक चलता फिरता चाकू है

आदमी, कोरोनावायरस का संदेहास्पद वाहक

जो सांस छोड़ेगा और धंसा देगा चाकू

चूंकि हवा आदमी को छूकर गुज़रती है

संदेहास्पद है हवा भी

क्या पता कब कोई छींक कर गुज़रा हो वहां से

और अभी तक मौजूद हों छींक की छींटें

संदेह मिटाने के तमाम संदेशों के बावजूद

अफवाहों वाले वीडियो ज्यादा कारगर साबित हुए हैं

इन अफवाहों से अछूता नहीं है मेरा अपना देश

मेरे मित्रों, रिश्तेदारों की चिंताएं मुझसे बड़ी हैं

मैं धोता हूं बार-बार साबुन से‌ हाथ

कमरे में रखी चीजों पर भी शक़ होता है

कि कहीं से उड़कर वायरस चिपक कर आ बैठा हो

हर चीज़ छूने के बाद

कुछ भी खाने से पहले

बार-बार धोता हूं हाथ

और फिर संदेह से देखता हूं हैंडवॉश की बोतल को भी

एक हाथ को संदेह है दूसरे हाथ पर

एक रेस्त्रां में देखा

कि लोग मुंह पर मास्क लगाए खाना खा रहे हैं

सिर्फ मुंह में चॉपस्टिक डालने के समय

होठों से मास्क सरका देते हुए

मुझे फिक्र होती है

उन लोगों की जो पब्लिक सर्विस में है

बसों के ड्राइवर

सेवन इलेवन पर काम करने वाले लड़के-लड़कियां

जो पूरे दिन अनजान लोगों के संपर्क में आते हैं

अनजान लोग जो चीनी नववर्ष की छुट्टियां बिताकर

ना जाने कहां-कहां से आए हों

जाने कौन सी बीमारियां साथ ले आए हों

पब्लिक सर्विस में लगे ये लोग

जिनके कमरे में मेरी तरह घुग्घु बनकर बैठ जाने से

ठप्प पड़ जाएगा यह शहर, यह देश

मुझे फ़िक्र है अस्पतालों के डॉक्टरों और नर्सों की

जो ‘चाकू की धार’ को सहलाकर दुरुस्त कर रहे हैं

चीनी नववर्ष के दौरान दुकानें बंद रहने से

खत्म हो गया है कमरे का बहुत सा सामान

इसे खरीदने मुझे वापस जाना था मार्ट

और मैं सुबह-सुबह ही निकल जाता हूं

ताकि बचा जा सके भीड़ से

जितनी कम भीड़, उतने कम खुले चाकू

उतना कम वायरस का खतरा

पर मार्ट पहुंचकर देखता हूं

मेरी ही तरह बहुत से सयाने लोगों की भीड़

सुबह-सुबह ही चली आई है मार्ट

मार्ट के दरवाजे पर खड़े गार्ड को देखता हूं

और अंदाज़ा लगाता हूं उसके काम की कठिनता का

यह भी कि साल भर की सबसे बड़ी छुट्टियों के बाद

काम पर वापस लौटकर

वह भी इस खतरे के बीच

कैसा लग रहा होगा उसे

मैं उसके लिए कुछ नहीं कर सकता

इसलिए मैं मास्क लगाए हुए ही उसकी तरफ देख मुस्कुराता हूं

मास्क के पीछे छुपी मेरी मुस्कुराहट की मंशा

पहचान जाता है वह

और बदले में अपने मास्क के पीछे से मुस्कुराता है

माना कि कोरोनावायरस मुख्य खबर है

पर इस देश में चूहे का नववर्ष भी तो है

इसलिए ‘शिन्निन क्वायलो*’ मेरे दोस्तों

हम जल्द वापसी करेंगे

संदेह से भरोसे की ओर

हम सिर्फ मनुष्य होंगे

खुले चाकू नहीं

*मेंड्रिन भाषा में नववर्ष की शुभकामनाएं देने हेतु प्रयुक्त अभिवादन

जब ताइवान से बाहर गए हुए लोग छुट्टियां बीतने के बाद लौटने लगे तो उनके कोरोना संक्रमण ले आने का ख़तरा मंडराने लगा । कोई पहले से संक्रमित ना भी रहा हो तो भी विमान में या जहां से उड़ान ली हो, वहाँ से भी संक्रमण हो सकता था। ताइवान ने अपनी तैयारियों की योजना में इन सब बातों का ध्यान रखा था। ताइवान में प्रवेश से पहले ही यात्रियों की मेडिकल जानकारी ले ली गयी। थर्मल स्क्रीनिंग इत्यादि की गयी। जो विदेशी ताइवान में काम करते हैं या कुछ अन्य महत्वपूर्ण कामों से ताइवान आ रहे हों, उन्हें ज़रूरी सावधानी बरतने को कहा गया। इनके अतिरिक्त किसी भी विदेशी का प्रवेश ताइवान ने मार्च में बंद कर दिया थ। मेरी एक मित्र ज्योति घर से लौटते हुए हॉन्गकॉन्ग अवाई अड्डे से ट्रांज़िट उड़ान लेकर आयी थी। उसने भी ज़रूरी एहतियात बरती।

स्कूल और यूनिवर्सिटी की छुट्टियां आगे बढ़ा दी गयीं। इस दौरान मैं भी अपने कमरे से ही काम करता रहा। अच्छी बात यह है कि यहां लॉक डाउन नहीं किया गया। यहां की सरकार ने शुरूआत से ही इस तरह योजना बनायी थी कि ऐसी नौबत ना आये। आम जनता से भी सरकार को पूरा सहयोग मिला। जगह-जगह माथे का तापमान जांचने के इंतज़ाम किये गए। मेरी यूनिवर्सिटी जब स्टूडेंट्स के लिए खुल गयी तो वहाँ भी यूनिवर्सिटी में भीतर जाने के हर रास्ते पर छोटे टैंट जैसे बनाये गए । वहां बैठे यूनिवर्सिटी स्टाफ के सदस्य गेट पर ही सबका तापमान नापते और कमीज़ पर एक स्टिकर चिपकाने को देते। जिसका मतलब था कि अमुक बन्दे की तापमान सुरक्षा जांच हो चुकी है और वह आज के लिए स्वस्थ घोषित किया गया है। हर दिन अलग रंग और चिन्ह वाला स्टिकर। ऐसा भी नहीं कि हर किसी को स्टिकर मिला हो। इस शुरुआती दर्ज़े की स्क्रीनिंग से ही सैकड़ों छात्रों को यूनिवर्सिटी के भीतर घुसने से रोक दिया गया। यूनिवर्सिटी के इन टैंटों से ले जाकर कई व्यक्तियों को हॉस्पिटल में आइसोलेशन में रखा गया और कइयों को होम आइसोलेशन में रखा गया। यूनिवर्सिटी जैसी जांच की फुर्ती यहां हर जगह है। मार्ट हो या रेस्त्रां।

कभी-कभी ये चैक-पॉइंट मुझे फ़ौज जैसे लगते हैं। लगता है कि दुनिया एक युद्ध में है और आगे की पंक्ति में इस वायरस का सामना कर रहे ये कर्मनिष्ठ व्यक्ति हमारे योद्धा हैं।

जब कोरोनावायरस की वजह से दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से भारतीयों को वापस ले जाया जाने लगा तो यहां कार्यरत कुछ भारतीय सोचने लगे कि कहीं यहां भी हालात इतने न बिगड़ जाएँ कि हमें भी ले जाने के लिए भारत से विशेष वाहन बुलाना पड़े। पर ना तो बात इतनी बिगड़ी और ना ही ताइवान ने किसी से पल्ला झाड़ा। इस वजह से भी इस देश पर प्यार आता है। कई बार यूनिवर्सिटी ने हम सबकी ट्रैवल और मेडिकल हिस्ट्री की जानकारी माँगी। पूछा गया कि आने वाले दिनों में भी कहीं ताइवान से बाहर जाने का इरादा तो नहीं। यह भी हिदायत दी गयी कि ताइवान में भी कुछ भीड़ भरी जगहों पर जाने से परहेज करें। बाक़ायदा ऐसी सब जगहों की सूची हमें भेजी गयी। हमारी यूनिवर्सिटी में काम करने वाले एक फ्रेंच पोस्टडॉक को अपने किसी यूरोपीय दोस्त से कोरोनावायरस संक्रमण हो गया था। तुरंत ही उसका इलाज शुरू हुआ और वह जिनके सीधे संपर्क में आया था, उन सबकी जांच हुई। सबको क्वारंटाइन किया गया। उसके संपर्क में आये छात्र जिन कक्षाओं में गए थे, वहाँ के सैकड़ों विद्यार्थियों को ऑनलाइन क्लास अटैंड करने को बोला गया।

ताइवान की सरकार ने मास्क के निर्यात पर रोक लगाकर भारी संख्या में मास्क का उत्पादन शुरू किया। हेल्थ इंश्योरेंस कार्ड दिखाकर एक तय संख्या में फार्मेसी से मास्क लिए जा सकते हैं, जिनका दाम बहुत वाजिब रखा गया है। मैंडरिन भाषा में ऐसी मोबाइल एप भी है जो गूगल मैप पर दर्शा देती है कि शहर में किस दुकान पर कितने मास्क बचे हैं।

जनसंख्या और ग़रीबी ने हम भारतीयों में असुरक्षा भर दी है। हमारे दिमाग़ में बचपन से एक सपना रोपा जाता है, बाक़ी लोगों से बेहतर बनने का। गोया कि एक दौड़ है जिसमें आपकी श्रेष्ठता दूसरों को रौंदकर या पछाड़कर ही प्रमाणित होगी। अमूमन भारतीय परिवारों में स्टेटस सिंबल मानी जाने वाली नौकरियां पाने की ललक रहती है। बच्चों को भी इसी के लिए तैयार किया जाता है कि कलेक्टर, अफसर या डॉक्टर बनना है । कुछ मां-बाप जन सेवा जैसी भावना के चलते बच्चों को डॉक्टर बनाना चाहते होंगे और कुछ इस स्टेटस सिम्बल वाली बात की वजह से । हम भारतीय बच्चे भी अफ़लातून। हममें से कुछ समझते थे कि डॉक्टर मास्क इसलिए लगाते हैं ताकि ऑपरेशन करते हुए बदबू ना आये। हमारे छोटे कस्बे के कुछ बच्चे बचपन से ही छंटे हुए बदमाश थे। वे कहते कि डॉक्टर को उल्टी भी आ सकती है, भाई सामने इंसान का शरीर खुला हुआ पड़ा है। मास्क रोक लेगा उबकाई को। ऐसे ही बच्चों के लिए “बीज” शब्द ईजाद किया है मेरे कस्बे के बड़े लोगों ने। बहरहाल, अब शायद मास्क के उपयोग की सही कहानी हर गाँव-कस्बे तक पहुँच गयी होगी।

इंसान जब पहली बार मास्क लगाता है तो उसके भीतर एक डर होता है कि सांस कैसे आएगी। मास्क के भीतर की ही सांस को बार-बार खींचते रहो। फिर मास्क लगा लेने पर मन में गूंजता है- “माइक टैस्टिंग, वन, टू, थ्री.. आ रही है सांस, बराबर!” इसी क्रम में अगली बारी आती है मास्क वाली सेल्फी खींचकर फेसबुक पर डालने की। इस बार मन में यह चल रहा होता है,  “आज पिताजी का अधूरा सपना आधा-अधूरा पूरा किया, डॉक्टर जैसा दिखने का”। वैसे बचपन में भी मेरी डॉक्टर बनने की कोई इच्छा नहीं थी। मैं हमेशा उस जगह फंसने से बचता हूँ, जहां ज़्यादा कम्पटीशन हो। ग्यारहवीं में स्कूल के सब लड़के जिस लड़की के पीछे थे, मैंने उस तरफ़ नज़र ही नहीं डाली। एक दूसरी लड़की को मन-ही-मन पसंद किया। शायद कविता एक अपवाद है जहां इतने सारे कवि मौजूद होने के बावजूद मैं सहज महसूस करता हूँ। कविता मेरे दर्शन की ज़ुबान है। मेरी रुममेट। मेरी कविता मेरी है, उसमें कोई हिस्सेदारी नहीं। बचपन में मेरे तीन लक्ष्य थे – पहला तारों को समझना, जो मैं जान पा रहा हूँ , दूसरा दार्शनिक बनना जिसे थोड़ा बहुत साहित्य पढ़-लिख कर पूरा कर रहा हूँ और तीसरा पुरातत्ववेत्ता बनना। यह तीसरा सपना पूरा नहीं हो पाया। पर कभी-कभी यह मुझ पर तारी हो जाता है। कभी कोई अजीब सा पत्थर देखता हूँ तो उसे किसी सभ्यता का अंश समझकर या उसके जीवाश्म होने का संदेह करके आसपास वालों से उसके बारे में जानकारी मांग लेता हूँ। वे मुझे झक्की समझकर पल्ला झाड़ लेते हैं। ख़ैर। मैं इस अधूरे सपने को पूरा करवाने की कोशिश भविष्य में होने वाली किसी औलाद से नहीं करने वाला हूँ। मेरे हिस्से का झक्कीपन मैं ख़ुद जी लूँ, वे अपनी कोई अलग सनक चुनें।

ताइवान में लॉक डाउन बेशक़ ना रहा हो, पर रहे हम सब सींखचों में बंद ही हैं। अपने ही भीतर के भय से आक्रांत। शरीर में कमज़ोरी सी होती, तो लगता कि बुखार तो नहीं, कोरोना ना हो। सब्ज़ी के छौंक से भी खांसी आ जाती, तो लगता कि कोरोना तो नहीं हो जाएगा। मुझे पिछले कुछ महीनों से एसिड रिफ्लक्स बीमारी की वजह से बीच-बीच में सांस लेने की दिक्कत होती रही है। यह जानते हुए भी इन दिनों सांस लेने में दिक्कत होती तो लगता कि यह भी कोरोना का लक्षण तो नहीं। मानो कोरोना घोड़े पर सवार होकर आया एक काउबॉय है जिसने अपनी बंदूक से बाक़ी सब बीमारियों को गोली मार दी हो, अब भय का सारा साम्राज्य अकेले उसी का है।

शहर में जगह-जगह तापमान मापा जा रहा था, तो लगा कि कहीं किसी दिन बाहर निकला और शरीर का ताप ज़्यादा हुआ तो सीधा ही हॉस्पिटल तड़ीपार ना कर दिया जाऊं। एक थर्मामीटर खरीद लाया, लगभग साढ़े चार सौ रूपये का। भौतिक शास्त्र का वह पाठ धूल की परतें हटाकर सामने आया जो स्वस्थ व्यक्ति के शरीर का तापमान बताता था। अब जैसे ही कमज़ोरी लगती, या माथा गर्म लगता, तुरंत थर्मामीटर निकल आता। मेरा सस्ता थर्मामीटर जो तापमान दिखाता है, यूनिवर्सिटी के महंगे ऑटोमेटिक थर्मामीटर में उससे लगभग 0.8 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान कम आता था, यानी अब घर में तापमान मापने पर इस त्रुटि का करेक्शन भी लगाना था। हम फिजिक्स के विद्यार्थियों को बताया जाता है कि बिना मात्रक के कोई चीज़ आलू, सेब कुछ भी मानी जा सकती है, इसलिए तापमान में सेंटीग्रेड, केल्विन या फॉरेनहाइट लगाना बहुत ज़रूरी है।

एक दिन ज़ुकाम की शुरुआत सी लगी तो एक ईएनटी विशेषज्ञ को दिखाने गया, बहुत डरते-डरते। उन्होंने मेरी ट्रैवल हिस्ट्री पूछी, ताप देखा, बाक़ी लक्षणों की जांच की। ग़नीमत कि बस ज़ुकाम ही था। डॉक्टर ने बहुत हैवी दवा दे दी, एक दिन में बीस गोलियां लेनी थीं। गोली लेने के बाद मैं शराबी की तरह झूम-झूमकर चल रहा था। शराब पीने का अनुभव है नहीं तो नशेबाज़ जैसा महसूस अब हो रहा था। एक रात झूमने के बाद अगली सुबह से मैंने गोलियों की मात्रा घटा दी और गोलियों की गर्मी झेलने के लिए दूध भी पीने लगा। मुझे दूध कुछ ज़्यादा पसंद नहीं वरना।

पासपोर्ट की वैधता दस साल होती है। मेरे भारतीय पासपोर्ट की मियाद मई 2020 में ख़त्म हो रही थी। ताइवान की तरफ से मिलने वाला एआरसी कार्ड (रेजिडेंट वीसा) भी मुझे इसी तारीख तक के लिए इशू किया गया। पासपोर्ट नया बनवाने के लिए ताइवान की राजधानी ताइपे जाना होता, जिसमें बस से डेढ़ घंटा लगता है। बस यानी पब्लिक ट्रांसपोर्ट जिसे खतरे की घंटी के तौर पर देखा जा रहा था, संदेह व्याप्त उन दिनों में। पूरी फरवरी मैं डरता रहा, टालता रहा। वैसे मेरे डर की और भी वजहें थीं। मेरा ट्रैक रिकॉर्ड देखकर सब मेरी अकादमिक उपलब्धियां देखते हैं और मेरी कमज़ोरियाँ ढँक जाती हैं। एक कमज़ोरी तो यही है मेरी कि मुझे फॉर्म भरने से एक डर सा लगता है और दूसरी यह कि परफेक्शन तक ना पहुँच पाने का डर हमेशा मुझे किसी काम को शुरू करने से रोकता रहता है। कोरोना के डर के साथ-साथ मेरे ये सब फोबिआ भी थे तो सारा इलज़ाम उस (मासूम तो कतई नहीं) वायरस के माथे कैसे मढ़ दूँ ? आख़िरकार मार्च में ताइपे गया। बस में घुसने से पहले भी तापमान मापा गया। ताइपे के वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर की इंटरनेशनल ट्रेड बिल्डिंग में इंडिया-ताइपे एसोसिएशन का दफ्तर है। वहाँ घुसने से पहले भी ताप लिया गया और हाथों को अल्कोहल से सैनिटाइज़ किया गया। पासपोर्ट अप्लाई करने का काम बड़ी आसानी से हो गया और बताया गया कि एक महीने के भीतर नया पासपोर्ट मिल जाएगा। सारा दिन मेरे पास बच गया था। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के बाहर कितने सारे देशों के झंडे लहरा रहे थे। इन्हीं के बीच जब अपने तिरंगे को लहराता देखा तो कुछ देर बस देखता रहा। आँखें हल्की सी भीग गयीं, देश की याद आ गयी। जब भी ताइपे जाता हूँ, कोशिश करता हूँ कि कहीं घूम लूँ, किसी नये भारतीय रेस्त्रां में चक्कर मार आऊं। अब डायटिंग पर हूँ तो ऐसा कोई प्लान नहीं था। घूमने का भी नहीं क्योंकि भीड़ वाली जगह कम-से-कम जाना था। वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर के नजदीक ही ताइपे 101 (वन ओ वन) झांकती नज़र आ रही थी। वह लगभग पूरे ताइपे से नज़र आती है पर अभी बहुत क़रीब थी। यह बिल्डिंग कभी दुनिया की सबसे ऊंची इमारत थी। जिस देश में इतने भूकंप आते हों वहाँ इतनी ऊंची इमारत बनाना ताइवान की तकनीकी श्रेष्ठता की कहानी बयान करता है। धरती के कांपने की स्थिति में इस बिल्डिंग को यथावत रखने के लिए कुशल यांत्रिकी का प्रयोग किया गया है। ताइपे 101 के भीतर जाकर मैं वहाँ चला गया जहां दुनिया भर की अलग-अलग पाक संस्कृति के रेस्त्रां थे और वहाँ लगी कुर्सियों पर बैठकर घर से बनाकर लाई खिचड़ी खाई। ताइपे 101 ताइवान के सबसे बड़े पर्यटक आकर्षणों में से है। इसके ऊपरी तलों में जहां तक जाने की अनुमति है, वहाँ मैं टिकट लेकर तीन बार गया हूँ। पूरा शहर दीखता है वहाँ से। ताइपे 101 के बाहर आधुनिक शहरी आकर्षण है। यहीं है मॉडर्न आर्ट की एक धातु प्रतिमा, जो सतह पर स्प्रिंग जैसी दिखती है। दरअसल वह एक गर्भवती महिला को दर्शाती है। कभी-कभी मुझे लगता है कि वह गर्भवती पृथ्वी है। कुछ लोग बहती सड़क के सामने ध्यान सा लगाते रहते हैं। कैसे रह पाते हैं इतने शांत? पांच-दस लोगों का समूह होता है वह। कुछ रंग-बिरंगी कांच की दीवारें भी हैं, जहां एक बार मैंने एक बुरक़े वाली औरत की तस्वीर ली थी। मलेशिया या इंडोनेशिया की पर्यटक रही होगी वह। वह पिछले साल की बात थी। फिलहाल तो ये दीवारें सूनी थीं। LOVE लिखा हुआ एक लाल साइन जिसमें O के झरोखे से झांकते लोग तस्वीरें खिंचवाते थे। अपने प्यार के पुख़्ता होने का इज़हार करते थे। फिलहाल प्रेमी घरों में बंद थे। मुझसे यह सूना हाल नहीं देखा गया और मैंने सोचा कि अब मुझे भी अपने शहर लौटना चाहिए। ताइपे 101 के एमआरटी स्टेशन (यहां मेट्रो को एमआरटी कहते हैं) से मैंने ताइपे मेन स्टेशन के लिए एमआरटी पकड़ी। मेन स्टेशन बहुत बड़ा है और तमाम यातायात के माध्यमों के साथ वहाँ बस स्टैंड भी है। पैदल बहुत चलना पड़ता है, स्टेशन के भीतर ही भीतर। कभी पीक आवर्स में ताइपे 101 स्टेशन से चढ़कर मेट्रो में बैठने की जगह मिलना मुश्किल होता था। पर अब पसरकर बैठा था मैं। चाहता तो दो सीट घेरकर भी बैठ सकता था। लोग एक-दूसरे की बगल में बैठने से बच रहे थे। मैंने बस पकड़ी और वापस आ गया, ताइपे से शिनचू शहर। घर आते ही कपडे बदल लिए और यात्रा के वस्त्रों को धुलने में डाल दिया। यह सावधानी रखनी थी ना।

मार्च तक यहां बसे भारतीय ताइवान की व्यवस्थों पर भरोसा कर थोड़ी तसल्ली में आ चुके थे। इसी बीच जब कोरोनावायरस भारत पहुंच गया तो अब फ़िक्र करने की बारी हमारी थी। अब तक मैं ज़्यादा समाचार पढ़ने से बच रहा था पर अब आये दिन व्हाट्सप्प या फेसबुक पर कुछ पढ़ने को मिल जाता। डराने वाली बातें ही ज़्यादा। अपने से ज़्यादा चिंता घर वालों की होती है। कभी लगता कि मेरे घर-परिवार में किसी को डायबिटीज़ भी है, किसी को रक्तचाप की बीमारी और वे संक्रमण का आसान शिकार हो सकते हैं। अब तक जो हिदायतें घरवालों से मुझे मिल रही थीं, अब वही मैं उन्हें दे रहा था – मास्क लगाने की, बाहर ना निकलने की। वे लोग जो कहते आये थे कि भारत क्यों नहीं चला आया, अब वही कहते थे कि अच्छा है, नहीं आया। यह सब सिर्फ भारत ही तक नहीं था। 2009 से मेरी एक मित्र है। जब मेरी दोस्त बनी, तब वह 11वीं में पढ़ती थी और यदि कोरोनावायरस ना आया होता तो जुलाई में उसकी शादी होनी थी। मैं कभी-कभी पाश की पंक्तियाँ उधार लेकर उससे मज़ाक में कहता हूँ, “मैंने तुम्हें पलकों में पालकर जवान किया”। उसका मंगेतर अमेरिका में काम करता है जो अब शायद जुलाई में शादी करने ना आ पाये। उस लड़के को कोरोना का संक्रमण हो गया था। मेरी दोस्त अब हर रोज़ लड़के के टाइम जोन में जागती, दूर से उसका ध्यान रखती और जब थक जाती तो मुझे फोन करती। लड़के का कोई हैल्थ टैस्ट होने पर रिपोर्ट की प्रतीक्षा करते हुए हम दोनों लड़के के लिए दुआ करते। अब लड़का कोरोना मुक्त हो गया है। इस बात की प्रसन्नता है ।

इस दौरान घुमक्कड़ी पर रोक लग गयी। मैं रोज़ पैदल चलने जाता रहा पर उन्हीं चुनिंदा रास्तों पर। ताइपे गया था तो वह भी काम से। भीड़ वाली जगह जाने से पूरा परहेज किया। इस बीच एक दिन मेरे दोस्तों शाश्वत और ज्योति ने कहा कि कहीं घूमने चलते हैं। मैंने थोड़ी हिचक के साथ हामी भरी। साथ ही इस बात से भी आगाह किया कि किसी भीड़ वाली जगह नहीं जाना है। मैं यहां पैदल या साइकिल पर चलता हूँ। उन लोगों के पास स्कूटर हैं जिनके पीछे टंगकर शहर से बाहर घूमने जाना था। हम पहाड़ी रास्तों से होते हुए निकले, यहां पहाड़ के बीचोंबीच इतना वीरान नहीं है। रास्ते में ताइवान के ग्राम्य जीवन के भी दर्शन हुए। कहीं किसी खेत में सफ़ेद-पीली तितलियों का झुंड उड़ता जाता था। लोगों के घर के बाहर चेन से बंधे कुत्ते थे, कहीं लकड़ियों का गट्ठर रखा था। चूल्हा जलता हुआ तो नहीं दिखा पर छुएं की गंध अवश्य आती थी। बुद्ध की बड़ी सी प्रतिमा वाला एक भवन हमारा मुख्य गंतव्य था। वह अभी बंद था। पहले लगा कि अभी द्वार खुलने का समय नहीं हुआ होगा पर भीतर जो वीरानगी थी, उससे साफ़ था कि यह जगह आजकल बंद है। ज्योति ने बताया कि भीतर बुद्ध की अलग-अलग मुद्राओं में प्रतिमाएं हैं। कुछ कार्यक्रम भी वहाँ आये दिन होता रहता है। यह सुनकर कि वहां कुछ आर्ट पीस भी हैं, मैंने निश्चय किया कि कभी भविष्य में दोबारा आऊंगा। हमारी तरह जो और लोग घूमने आ गए थे, वो बुद्ध के द्वार से मुरझाये हुए लौट रहे थे। चालीस साल के आसपास उम्र की एक औरत अपनी किशोरवय बेटी के साथ संतरे का एकदम ताज़ा रस बेच रही थी। तीन बोतल सौ ताइवान डॉलर की। इतना शुद्ध संतरे का रस मैंने कभी नहीं पिया। मैंने खाली बोतल उन्हें ही लौटा दीं ताकि वे दोबारा उपयोग सकें। मैंने सोचा कि वह लड़की स्कूल जाती होगी या नहीं। पर जब बोतल वापस लेते समय उसने मुझे अंग्रेज़ी में जवाब दिया तो मैं थोड़ा आश्वस्त हुआ कि पढ़ती होगी वह। आज रविवार को माँ के साथ आ गयी होगी। उस समय उसके चेहरे पर वही चमक थी जो हमारे गाँव के बच्चों को परदेसी से हेलो बोलने पर होती है। हम किसी को वह चमक दे पा रहे थे। वहाँ आसपास ही एक सस्पेंशन ब्रिज भी था। ब्रिज के नीचे बड़ी सी झील थी। चुपचाप सी प्रकृति । जो इक्का-दुक्का लोग ब्रिज पर घूमने आये थे, उनमें से एक ने मुझसे उसके परिवार की एक तस्वीर लेने का आग्रह किया। दोस्तों के सामने झूठ-मूठ इतराने का मौक़ा मिल गया कि देखो इन्हें भी हममें से ठीक-ठाक फोटोग्राफर मैं ही लगा होऊंगा। जहां स्कूटर पार्क किया था वहाँ आम के पेड़ थे, जिनमें लगी कैरियों को पक्षियों से बचने के लिए कपडे से ढँक दिया गया था। और कुछ अमरुद के पेड़ थे, जिनमें बस बड़े-बड़े पत्ते थे, कोई अमरूद नहीं। कुल मिलाकर हम बिना कहीं घूमे वापस आ गए। घूमने का सबका उद्देश्य अलग होता है। इस यात्रा से हासिल आनंद मेरे लिए पर्याप्त था।

कोरोनावायरस को ताइवान पहुंचे तीन महीने से ऊपर हो चुके हैं। 2.3 करोड़ की आबादी वाले ताइवान में अप्रेल महीने के अंत तक महज 429 कोरोना पॉजिटिव केसेज मिले हैं और छह मौत हुई हैं। जनजीवन को अस्त-व्यस्त किए बिना ताइवान ने बड़ी सूझबूझ से आपदा प्रबंधन किया है। मेरा एक भारतीय दोस्त ताइवान से इतना प्रभावित है कि वह यहां किसी कम्पनी में नौकरी पाना चाहता है। सारा जीवन यहीं बिताना चाहता है। उसकी पृष्ठभूमि इंजीनियरिंग की है। तकनीकी से अपनी अर्थव्यवस्था चमकाने वाले ताइवान में उसे नौकरी मिलने की सम्भावना मेरी तुलना में कहीं अधिक है।

~ देवेश पथ सारिया

 
      

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4 comments

  1. A. Charumati Ramdas

    रोमांचक और बहुत दिलचस्प!

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