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मौत को नज़र चुरा कर नहीं नज़र मिला कर देखें

लॉकडाउन डायरी आज भेजी है ब्रिटेन से प्रज्ञा मिश्रा ने। मृत्यु और दुनिया भर की क़ब्रों को लेकर लिखा गया यह गद्य इस समय की भयावहता को तो दिखाने वाला है ही भौतिकता की निस्सारता का पाठ भी है- मॉडरेटर।

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कोरोना वायरस के फैलने का जो सबसे बड़ा और गहरा असर है वह है गिनती करते रहना कि आज कितनी जानें गयीं और यह गिनती दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है, अखबारों को एक्स्ट्रा पन्ने छापने पड़ रहे हैं कि आखिर इन खत्म हो चुकी ज़िन्दगियों को एक विदाई दे सकें, इस दौर में जहाँ कोई भी रीति रिवाज कायम नहीं रखा जा सकता ऐसे में इन लोगों को किस तरह से सम्मान  और प्यार के साथ विदाई दी जाए यह सवाल सबके सामने है। टीवी और रेडियो पर भी अलग प्रोग्राम  आ रहे हैं जहाँ लोग अपने घरों से ही अपनी यादें बाँट सकते हैं। जब हम न्यू यॉर्क में mass burial देखते हैं तो उन लोगों की तकलीफ का अंदाज़ा लगाना  नामुमकिन हो जाता है जिनका कोई अपना यहाँ दफ़न होगा।

प्राग शहर में यहूदियों का कब्रिस्तान है, यह शायद दुनिया का सबसे ज्यादा भरापूरा कब्रिस्तान है जहाँ कहा जाता है कि एक लाख से भी ज्यादा लोग दफन हैं। इस कब्रिस्तान में पंद्रहवीं सदी की भी कब्रें हैं और कहा जाता है करीब १२ सतहों में लोग दफन हैं, और इतने बरसों बाद भी वहां आज भी १२ हजार कब्र पर लगे हुए पत्थर मौजूद हैं। वहां उन कब्रों के बीच चलते हुए एक अजीब सा एहसास होता है , ऐसी शान्ति जो किसी बुरे होने की आशंका के सच हो जाने के बाद मिलती है। क्योंकि तब वो सब हो चुका है जिससे आप डर रहे थे, जो नहीं होना चाहिए था वो भी हो चुका है, यह जानते ही जो कुछ पल को दिमाग सुन्न सा हो जाता है, ऐसा ही कुछ एहसास होता है। उन लोगों की यातनाओं की कहानी रेडियो पर आपके कान में बज रही होती है और आप यह १३१० की कब्र है और इनकी कहानी यह है यह सुनते हुए वहां. खो जाते हैं।

वैसे तो दुनिया में खूबसूरत कब्रिस्तान या ग्रेवयार्ड की लिस्ट बहुत लम्बी है लेकिन मास्को शहर में जो रईसों या नामचीन लोगों का कब्रिस्तान है उसकी बात ही कुछ अलग है, वहां न सिर्फ बड़े बड़े मकबरे बल्कि मूर्तियां और आर्ट पीस भी देखने को मिल जाते हैं। यह ऐसी जगह है जहाँ दफन होने के लिए इंसान को कुछ न कुछ हासिल करना होता  है। यहाँ गोगोल, और चेखव की कब्रें ढूंढने के लिए बड़ी मेहनत लगी क्योंकि रूसी भाषा बोली अलग ढंग से जाती और उसकी लिखावट बिलकुल ही अलग है और इंग्लिश में पूछो या हिंदी में वहां सबका मतलब एक सा ही था। लेकिन यह देख कर अच्छा भी लगा कि इन कब्रों को इतने बरसों बाद भी यूँ सम्मान के साथ सहेजा गया है।

यहीं घूमते  हुए कुछ लोग मिले जिनके पास एक लोकल दोस्त था, और उन्हीं ने हमें बोरिस येल्तसिन की कब्र भी दिखाई जो एक sculpture का रूप लिए हुए है।

बचपन में नानी के घर जाते समय रास्ते में श्मशान घाट पड़ता था और सभी बड़ों की तरह हम भी वहां से सर झुका कर ही निकलते थे, उसके नजदीक जाने के बारे में तो कभी सोचा ही नहीं। लेकिन यूके में चर्च के आँगन में इन कब्रों को देख कर कभी डर नहीं लगा, और यह जानकर आश्चर्य भी हुआ कि इन्हीं चर्च में शादियाँ भी होती हैं, यहीं आखिरी संस्कार भी होता है और यहीं बच्चों का baptism यानी नामकरण संस्कार भी। कहने का मतलब है ज़िन्दगी का कोई भी पड़ाव हो चर्च उसका हिस्सा बना ही रहता है।

खैर बात तो हम कर रहे थे कब्रों की और उनके बीच मिलने वाले सुकून की। ज्यादातर कब्रगाह सुकून देने वाली जगह होते हैं, लंदन जैसे भीड़ भाड़ वाले शहर में highgate cemetery और एब्ने पार्क cemetery इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। यहाँ शहर के बीचोबीच ऐसा खामोशी भरा जंगल सा इलाका है कि आपको जापान के माउंट फूजी के सी ऑफ़ ट्रीज या aokigahara जंगल याद आने लगे।

इंसान की फितरत ही है कि मौत से यूँ दूरी बना कर रखी जाती है जैसे इसकी बात ही नहीं करेंगे तो यह होगा ही नहीं। और यही वजह है कि कितने ही लोग हैं जिन्होंने इस pandemic महामारी से पहले मौत को नजदीक से देखा भी नहीं था। आज कल हम सिर्फ अपनी बेहतरी और टेक्नोलॉजी की मदद से अमरत्व हासिल करने की होड़ में हैं। लेकिन इस महामारी ने यह बता दिया है कि हम प्रकृति के सामने सिर्फ एक और जीवित जंतु हैं।

अब जब कि यह जाहिर सी बात है कि यह वायरस न तो इतनी जल्दी हमारे बीच से उठ कर कहीं जाने वाला है और न ही इसकी वजह से मरने वालों की गिनती अचानक से रुक जायेगी, हाँ इन आंकड़ों में कमी आयी है और धीरे धीरे यह नंबर कम से कम होते जाएंगे लेकिन उसे हासिल करने में तो सभी लगे ही हुए हैं। लेकिन शायद यही वक़्त है कि जब हम मौत को नज़र चुरा कर नहीं नज़र मिला कर देखें। क्योंकि हम तब ही यह मान पाएंगे कि  प्रकृति के नियम की वजह से ही इंसान अभी तक बरक़रार है।

मुझे पार्क में लगी बेंच पर मैसेज पढ़ना अच्छा लगता है “जीन और जॉन 1930 से 2012, क्योंकि उन्हें बैठना बहुत पसंद था”, “मेरी बीवी ग्रेस के लिए 2000, जिसकी वजह से मुझे भी यहाँ आना पड़ता था”, “हमें इस धरती पर रहना बहुत अच्छा लगा पर इससे ज्यादा रुक नहीं सकते” क्योंकि यही तो ज़िन्दगी है जो यहाँ नहीं होने के बावजूद भी किसी न किसी तरीके से बरक़रार है।  जैसा ग़ालिब ने कहा “मौत का एक दिन मुअय्यन है नींद क्यों रात भर नहीं आती” …बहुत मुमकिन है जब तक यह महामारी ख़त्म हो दुनिया के ज्यादातर लोग ऐसे होंगे जिन्होंने किसी  न किसी अपने को खोया होगा। लेकिन यही एक सबब भी है लोगों को बेहतरी से याद करने का और आज को जीने का। क्योंकि भले ही उनकी ज़िन्दगी खत्म हो गयी है लेकिन की यादें लम्बे समय तक हमारी ज़िन्दगी को खाद पानी देती रहेंगी।

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लेखिका संपर्क:pragya1717@gmail.com

 
      

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6 comments

  1. बेहतरीन

  2. कोरोना और मृत्यु पर बहुत अच्छा लेख। जीवन की समझदारी से भरा हुआ।
    हमारे बनारस में भी कई क़ब्रिस्तान हैं। मुस्लिमों के भी और ईसाइयों के भी। इनके पेड़ बहुत हरे-भरे, स्वस्थ और​ ताज़ादम लगते हैं। ईसाइयों के क़ब्रिस्तान और सुंदर दिखते हैं। उनके पास गुज़रते हुए मन होता है कुछ देर वहां बैठें हरियाली और शांति में। जबकि हिंदुओं के मरघट भयप्रद और मनहूस लगते हैं। हालांकि, वे नदियों के किनारे होते हैं । वहां से गुज़रते हुए यह होता है कि कैसे यहां से जल्दी से निकल जायें। वहां केवल अघोरी और तांत्रिक ही रह सकते हैं। वहां न ठहरने का कारण है श्मशान घाटों के पास स्मृतिवन का न होना। यह बहुत दुखद अभाव है। हर हिंदू मृतक की स्मृति में स्मारक और समाधि संभव नहीं है। उल्टे उसके साथ प्रकृति की नौ मन लकड़ी भी धुआं बन जाती है। लेकिन हर हिंदू मृतक की स्मृति में एक पेड़ लगा सकने की व्यवस्था श्मशान घाटों के आस-पास बहुत आराम से हो सकती है। लेकिन इस बारे में न हिंदू समाज सोचता है , न साधु-संत सोचते हैं और न सरकार सोचती है। काशी का महाश्मशान ही ले लीजिए। कहां-कहां से लोग यहां आकर शवदाह करते हैं कितनी शताब्दियों से। लेकिन आज भी एक स्मृतिवन गंगा के उस पार नहीं बन सका। जबकि कई दशक से यदा-कदा इसकी चर्चा भी उठती थी और फिर सामाजिक वातावरण में विलीन हो जाती थी। पिछले क़रीब छह वर्षों से इसका नाम भी किसी ने नहीं लिया। चर्चाओं में सिर्फ़ यह रहा कि महाश्मशान घाट के सामने गंगा नदी के पार यह बनेगा वह बनेगा। बना कुछ नहीं। बन क्या रहा है बाबा विश्वनाथ कारीडोर ! और बन कैसे रहा है, बनारस की अति प्राचीन गलियों और धरोहरों को मिटाकर ! और यही एक कारीडोर नहीं, कुछ और भी कारीडोर। सबके बनते-बनते विश्वप्रसिद्ध पुराना बनारस कितना बचेगा शायद बाबा विश्वनाथ को भी नहीं मालूम होगा। यह वह सरकार है जो एक बार ठान लेती है करके ही रहती है। इसने ठान लिया है पुराने बनारस को बदलकर रख देगी तो रख देगी। यह अपने को हिंदू संस्कृति का सबसे बड़ा राजनीतिक हितैषी कहती है। संस्कृति से सिर्फ़ न जीवित बल्कि मृतक भी जुड़े होते हैं। मानव संस्कृति की यही विशेषता है। कितना अच्छा हो कि वह महाश्मशान घाट के सामने गंगा नदी के पार एक स्मृति-वन बनवा दे। वहां कुछ बनवाने जा रही हो तो उसे रोककर। अतिशीघ्र। यहीं नहीं बल्कि पूरे भारत में हर श्मशानघाट के साथ एक स्मृतिवन हो। महाश्मशान के पास यदि उसका स्मृति-वन सदियों नहीं तो दशकों पहले भी होता तो वह आज महारमणीक स्थान होता। यहां जीवन-मृत्यु का बोध जितना रूहानी होता उतना ही रूमानी भी। यह तीर्थ भी होता और पर्यटन स्थल भी।
    इस पर अब से काम शुरू हो, बहुत देर हो चुकी। कोरोना काल में इससे बेहतर संजीवनी योजना और कुछ नहीं हो सकती। लाखों लोगों को रोज़गार भी मिलेगा मनरेगा में, जिसकी तत्काल आवश्यकता भी है।

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