
इस बार ‘कविता शुक्रवार’ में अपनी अलग पहचान के कवि शिरीष ढोबले की नई कविताएं और प्रख्यात चित्रकार अखिलेश के रेखांकन।
शिरीष ढोबले का जन्म इंदौर में 1960 में हुआ था। वे पेशे से ह्रदय शल्य चिकित्सक हैं। पूर्वग्रह पत्रिका की अनुषंग पुस्तिका में उनका कविता संग्रह ‘रेत है मेरा नाम’ प्रकाशित हुआ था। सूर्य प्रकाशन मंदिर से ‘उच्चारण’ संग्रह प्रकाशित है। ‘पर यह तो विरह है’ उनका नया प्रकाशित कविता संग्रह है। कविताएं लिखने के साथ वे कहानियां और आलोचना भी लिखते रहे हैं। अनुवाद करने में भी रुचि रखते हैं। उनकी कविताओं का मराठी और अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है। उन्हें रजा पुरस्कार (1987), कथा पुरस्कार (1996) और भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (1997) मिले हैं।
आइए पढ़ते हैं उनकी कुछ नई कविताएं- राकेश श्रीमाल
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इस जन्म तक बह आयी प्रतीक्षा थी
आँखों में उतर आया मोतिया था।
सरोवर के जल पर उतरता था हंस।
आकाश पर तनी डोर टटोलता उड़ता था।
अभी अभी उड़ चुके हंस की स्मृति और जल पर ठहरे उसके आभास के लिए
ओ अन्नपूर्णा ! तुम्हारे पैरों की महावर न छूटे कभी
स्वर्ण मुद्रा सी जगमगाती पीतल की थाल
रसोई में केसर की सुगन्ध हो
चावल सीझने में विलम्ब न हो
उस उच्श्रृंखल ग्वाले का मुँह न जले
गाढ़ी मदिरा मस्तक पर गिरती
यह उस स्वप्न का क्षेत्र है
भारहीन, शाश्वत, उज्जवल स्वप्न
किनारों पर नीला रह गया थोड़ा
(येहूदा अमिखाई को समर्पित)
देह पर घाव पड़े थे। प्रत्येक श्वास का आघात सहते थे।
पीड़ा की लहर मस्तक तक उठती थी।
हर सम्वत्सर पर दूसरा उभरता था।
सूखी त्वचा पर पूरे कुल की आयु गिनी जा सकती थी,
सकल सूर्योदयों की लिखा पढ़त थी।
कथा देवता जानते थे, उनके शस्त्र थे।
पीड़ा पृथ्वी जानती थी, दिठौना भी और हल्दी का लेप भी वह लगाती थी। मुझे गोद में लिए धैर्य से बैठी रहती थी।
नीली किनार के सूती वस्त्र से छाया करती थी।
वह मालकौंस की भाषा में बोलती रहती और मैं बेसुध पड़ा रहता था। सूर्यास्त होता था।
पंच और साक्ष्यदार आते नहीं थे।
ऊँचे आसन से उठ कर जाते देवताओं के मुख पर मंद हास होता था।
आकांक्षा और आशंका से भारी मंथर देह को
एक क्लिष्ट नृत्य भंगिमा का
विलम्बित समय में अलसाया विन्यास
कामना से झुलसता रक्ताभ मुख
थाली में रखे सबसे लाल जास्वंद से
माथे पर उभरते स्वेद कणों से
पास फिरते समीर को करता शिथिल
उसके पैरों से लिथड़ने के लिए बाध्य
अर्चना की शास्त्रोक्त विधि
जो शरविद्ध मृग की करुण विशाल
आँखों में बदल सकती हो किसी क्षण
वह मन्त्र हो सकती थी सदेह
कि ग्रीष्म की मध्य रात्रि का चन्द्र
तुम्हारे माथे पर यह चन्द्रमा
कविता में व्याकरण का गुण दोष
मैं यहाँ अनुपस्थित जैसे चिन्हित होकर
उठ जाना चाहता हूँ सभागार से
अपनी काया में प्रवेश से पहले
ईश्वर जब लिखता था इस का विधान
अपने जग को जानूँ जैसे जल में तेरी छाया।
देह में लगता था भीतर अग्निशिखा का लाल कम्पन
आँख के कोयले पर सौ सूर्य हो एकाग्र।
उलाहना कण्ठ की वीणा पर एक आघात
एक स्वर का मूल जागृत करता था।
इतना गाढ़ा सौंदर्य पसरा था यमुना तट
इस थोड़े कटे फटे अंग- वस्त्र के बंद खोलते
साधो
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अखिलेश : रेखांकनों में अनुभव-स्पर्श
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उसे दुनिया भर के ऐसे किस्से याद रहते हैं, जो समय विशेष पर सुनते हुए चुटकुले की माफिक लगते हैं। लेकिन उनमें जीवन, कला और महत्वाकांक्षा को लेकर कई सारे तर्क और सवाल भी मौजूद रहते हैं। मसलन वह युवा चित्रकारों के समक्ष वरिष्ठतम कलाकारों के ऐसे वास्तविक मजाकिया किस्से सुनाता रहता है, जिनसे उन्हें कुछ नया जानने या सीखने को मिले। किस्सागोई की उसकी इस लय को उसके निकटवर्ती ही पकड़ पाते हैं। यह सब करते हुए उसके भीतर की खिलखिलाहट अखिल न रहते हुए, वास्तव में उसके हाव-भाव और चेहरे पर खिलखिलाने लगती है। ऐसे क्षणों में ही मुझे लगता कि अखिलेश सचमुच नहीं खिलने को नकारते हुए खिल रहा है।
ठीक इसके विपरीत मुझे कई मर्तबा लगता रहा है कि अखिल ने कुछ बोलना चाहा था, लेकिन अगले ही पल वह ऐसे बैठे रहता, गोया वह वहाँ चुप बैठने के लिए ही बैठा है। मैं सोचता कि आखिर ऐसा क्या था, जो उसने बोलना उचित नहीं समझा। दरअसल अपने बोले जाने की तात्कालिक निरर्थकता को वह पहचानने लगा था और उसे लगता होगा कि यह समय वह सब बोलने के लिए नहीं है, जो उसने उसी वक्त सोचा था।
उसे ऐसा गुस्सा करते हुए मैंने कभी नहीं देखा, जैसा गुस्सा करते हुए या नाराज होते हुए लोग अपने को ढाल लेते हैं। कैसी भी दुरूह या विरोधी स्थिति हो, वह गुस्से को अपने ऊपर हावी होने नहीं देता। शायद वह गुस्से में आकर अपना अपव्यय नहीं करना चाहता। या फिर सम्भवतः वह समय को इतना प्रेम करता है कि वह इस सहज मानवीय भाव को थोड़ा भी दिखाना नहीं चाहता।
यह सब अनुभव-दृश्य इसलिए, कि इन्हीं से गुजरते हुए एक चित्रकार की कला-यात्रा और उसका ‘बनना’ निज दृष्टि से समझा जा सकता है। बहुत वर्षो तक अखिल के अंतर्मन में छिपी रचनात्मक बेचैनी को मैंने अनुभव किया है। पर वह यह अपने व्यवहार और बातों से किसी पर जाहिर नहीं होने देता था। उसने लंबे समय तक अपने उत्कृष्ट सृजन को केवल अपने भीतर ही रखा। जीवन में बिना विचलित हुए ऐसा धैर्य अमूमन सम्भव नहीं हो पाता। अब अखिल अपने मौन के पीछे छिपे असम्भव को बेहद सलीके से सबके समक्ष सम्भव कर रहा है। अब वह वही कर रहा है, जो उसकी इच्छा थी और जो वह कर सकता है। वह चित्र बना रहा है और हम सब उसे देख रहे हैं।
वह प्रागेतिहासिक समय में जाकर चित्र बनाता है। वह भूल जाता है कि उसने चित्र बनाते हुए बीसवीं शताब्दी से इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर लिया है। हालांकि वह बीती शताब्दियों के कुछेक चित्रकारों का मुरीद है। अपनी विदेश यात्राओं में वह संग्रहालयों में जाकर, या जैसे भी सम्भव हो, उनके ‘ओरिजनल वर्क’ देखना नहीं भूलता। लेकिन खुद वह एक आदिम चित्रकार है। अपने ही द्वारा बार-बार वापरे गए रंगों से फिर-फिर परिचित होता। उन रंगों की काया, गंध, उपस्थिति और उनकी भाषा उसे हर बार अपरिचित लगती। इसलिए उसका बनाया हर नया चित्र खुद उसके लिए भी अपरिचित रहता। वह अपने ही चित्रों के अपरिचय में, अपने ही चित्रों का परिचय खोजने वाला चित्रकार है।
वह अपने स्टूडियो में मित्रों से बतियाते हुए भी चित्र बना सकता है। उसके बने सभी चित्र कैनवास पर भरे हुए नहीं लगते। वह अपनी पूर्णता के खालीपन में कैनवास पर उभरे होते हैं। अखिल अपने चित्रों की पूर्णता में रिक्त होते रहता है। उसके लिए स्टूडियो में जाने का अर्थ ही अपने को रिक्त करते रहना है। फिर भी वह हमेशा भरा-पूरा शेष रहता है। वह अपनी रिक्तता में ही अपने को भर पाता है।
अखिलेश की पहली प्रदर्शनी रेखांकन की ही थी। इंदौर ललित कला संस्थान में तीसरे वर्ष में पढ़ते हुए यह हुई थी। यह एक सौ दस फ़ीट का रेखांकन था। जिसकी शीट गैलरी में पहले लगा दी गई थी, बाद में उस पर रेखांकन किया गया था। अखिल के लिए रेखांकन करना चित्र की तैयारी या पूर्व रंग की तरह कभी नहीं रहा। वे रेखांकन को अपने में सम्पूर्ण विधा मानते हैं। जैसे नसरीन के रेखाचित्र किसी चित्र के लिए नहीं हैं। वे स्वतंत्र हैं और अपने आप में चित्र हैं। वे रेखांकन को चित्र बनाने के अभ्यास के तरीके को पश्चिमी विचार मानते हैं। वे कहते हैं- “चित्रकला की पढ़ाई के दौरान भी पोट्रेट या लाइफ स्टडी के लिए भी रेखांकन का अभ्यास नहीं किया। में सीधे रंग और ब्रश से बनाता था। यह अभ्यास या आधार उनके लिए जरूरी है, जो ‘देखना’ सीख रहे हैं। जिन्हें दिखता है, उन्हें इसका सहारा नहीं लेना पड़ता।”
उनकी पहली प्रदर्शनी में दैनिक जीवन के रेखाचित्र थे। यानी उनके इर्द-गिर्द का संसार ही उनके विषय थे। बाद में वे अमूर्त रेखांकन करने लगे। किसी भी तरह की आकृति के बिना। वे इसके लिए काली स्याही का प्रयोग करते। काले में छिपे सफेद को जानने की यह उनकी प्रक्रिया रही। इससे उन्हें रंग के टोन समझने में मदद मिली। लेकिन वे इस बात को नकारते हैं कि रंग-स्वभाव समझने के लिए वे काला रंग लगा रहे थे। उनके अनुसार हर चित्रकार अपनी राह चुनता है, जिस पर वह आगे अपने सृजन को जारी रखता है।
मुझे अखिल के चित्र अगर गद्य की तरह लगते रहे हैं, तो उनके रेखांकन सौम्य पद्य की तरह। अखिल के रेखांकन उनके कला संसार मे कविता की तरह है। शमशेर बहादुर सिंह की कविता “टूटी हुई बिखरी हुई” की तरह इन रेखांकनों का अनुभव-स्पर्श करने के लिए आँखों का अभ्यस्त होना आवश्यक है। ये रेखांकन अपने कहने में अपने को छिपाते हैं और अपने अदृश्य में अपनी कविता सुनाते हैं। यह संयोग मात्र नहीं है कि वे कविता से प्रेम करते हैं और कई सारे कवियों से उनके आत्मीय रिश्ते हैं। तीन दशक पहले श्रीकांत वर्मा के कविता संग्रह “मगध” की एक प्रयोगात्मक नाट्य प्रस्तुति अलखनन्दन ने अपने निर्देशन में भारत भवन के बहिरंग में की थी। जिसे श्रीकांत वर्मा ने निर्मल वर्मा के साथ बैठकर देखा था। अखिल के साथ यह प्रस्तुति देख कर हम दोनों ने कविताओं के नाट्य ट्रीटमेंट के बारे में कई दिनों तक बातें की थीं। अपने प्रिय कवियों को अखिल बार-बार पढ़ते हैं। मुझे हमेशा लगता रहा कि रेखांकन करते समय इन कविताओं की पाठ-स्मृति उनके मन-मस्तिष्क में जरूर रहती होगी।
इस टिप्पणी का अंत एक शाम से। अखिल के दूसरे बेटे का जन्म क्रिटिकल अवस्था में हुआ था। डॉक्टरों ने 72 घन्टे का समय दिया था। उसके जन्म के तत्काल बाद उसे किसी प्रदर्शनी के सिलसिले में मुंबई आना पड़ा। मुंबई से जब भोपाल फोन लगाया, तब उसे पता चला कि अब सब ठीक है। बारिश हो रही थी। हमने छोटा सा जश्न मनाया। उस शाम अखिल भीगते हुए अतिरिक्त खुश था। एक नई जिम्मेदारी का अहसास उसे लबालब कर रहा था। हमने उस बच्चे के लिए चीयर्स किया था, जिसका नामकरण होना अभी बाकी था। वह खुश था, आखिर वह अपने नए बेटे का नया पिता था। उस शाम हमने क्या बातें की, यह तो याद नहीं, इतना जरूर याद है कि बारिश की उस शाम को मैं अखिल से नहीं, दूसरे बेटे के पिता से बातें कर रहा था। ठीक वैसे ही, जैसे जब भी अखिल से बात होती है, हमेशा यही लगता है कि नए चित्र के नए चित्रकार से बात कर रहा हूँ– राकेश श्रीमाल
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राकेश श्रीमाल (सम्पादक, कविता शुक्रवार)
कवि और कला समीक्षक। कई कला-पत्रिकाओं का सम्पादन, जिनमें ‘कलावार्ता’, ‘क’ और ‘ताना-बाना’ प्रमुख हैं। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ के संस्थापक सम्पादक।
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