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‘अफ़ग़ानिस्तान से ‘खत-ओ-खिताबत’ का एक अंश

राकेश तिवारी का यह दूसरा यात्रा वृत्तांत है- ‘अफ़ग़ानिस्तान से ‘खत-ओ-खिताबत’राजकमल प्रकाशन समूह से प्रकाशित इस किताब का अंश पढ़िए-

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उत्तर दिशा में शहर से ऊपर उठते पहाड़ों के पीछे बैकग्राउंड पर छाया बर्फ़ीला दमवंद पहाड़। दोनों बगल सतर दरख़्तों की क़तारों वाली चौड़ी सड़कों के फूल-पौधों वाले गोल चौराहों पर घूमते-उमड़ते ट्रै‍फ़ि‍क में धीरे-धीरे बढ़ती कारों और बसों की क़तारें, और जिधर से भी जगह मिले घुसकर बेतहाशा दौड़ती स्कूटर-मोटरसाइकिलों पर सवार मौज़ूँ लड़के फुटपाथ पर चढ़कर बेधड़क निकल जाते, और फुटपाथ पर चल रहे हम जैसे लोग अचानक उन्हें अपने सामने या पीछे से आते देख चौंक-चौंककर सँभलते-हिचकते चलते।

जींस-शर्ट, हाफ़ शर्ट जैसी वेस्टर्न ड्रेस में बड़े-बड़े बालों वाले कमसिन सजीले लड़के। एक ही स्कूटी पर सवारी करते मर्द-औरत और बच्चे। लटके-झटके वाली ड्रेस्ड हेयर स्टाइल, स्कर्ट-ब्लाउज़, जींस और ब्रा-लेस सफ़ेद क़मीज़ या टी-शर्ट में हाई-हील पर ठसकती चलतीं काले चश्मे वाली हसीनाओं के लरजते रेले। मानो गली-कूचों से रह-रह कर फूटते दिलकश आबशार मचलते चल रहे हों। बस अपलक उन्हें ही देखते रहने का मन करता लेकिन इंडियन ज़ेहनियत आँखें झुका देती। अन्दर से ‘गिल्ट का ख़याल’ (अपराधबोध) भी उभरता कि ऐसी देखा-देखी तेरे साथ दग़ा तो नहीं। लेकिन करता भी क्या, बार-बार उन्हें देखने की चाहत बनी रहती…

श्याम की छोटी आँखें भी फैलकर खुली रह गईं।

सूट-बूट, पैंट-क़मीज़ टाई या ‘बो’ और कोट जैसी ‘वेस्टर्न ड्रेस’ में सजे ‘क्लीन शेव्ड’ ईरानियों के बीच चलते शलवार-जामा पहने, कमर पर चौड़े कमरबंध और सिर पर सफ़ेद सरबन्द या मुड़बन्द वाली रवायती लिबास में, सलीके से छँटी-सँवरी दाढ़ी वाले इक्का-दुक्का, अधेड़ों के चेहरों में मुझे ‘रूमी’, ‘फ़िरदौसी’ और ‘अलबरूनी’ की शक्लों की झलक मिलती। टखनों तक लटकते लम्बे कपड़े, ढीली क़मीज़ जैसे पहनावे पहने कुछ आदमी और मोहतरमाएँ। कहीं-कहीं सिर पर बँधे रूसरी (स्कार्फ) से लटकते चाँदी के सिक्के, सोने के लॉकेट और हिजाब। मतलब पुरानी रवायत की कुछ धुँधली-सी लकीरें जहाँ-तहाँ दिख जातीं, लेकिन पूरे कैनवस पर ‘वेस्टर्न कल्चर’ का रंग कहीं ज़्यादा पुरज़ोर। ‘वेस्टर्न कन्ट्रीज’ की तरह ‘मिस ईरान’ और ‘मिस टीन एज इंटरनेशनल’ कम्पटीशन्स जीतने वाली, तेरे जैसी परकटी परियों, 1975 की ‘मिस टीन एज इंटरनेशनल टाइटिल’ जीतने वाली ‘शोहरेह निकपोर’ या 1968 और 1977 की ‘मिस ईरान’ की ‘टाइटिल विनर’ ‘रीटा जब्बेली’ और ‘अफसानः बनी अर्दलान’ की पत्रिकाओं के कवर और अन्दर के पन्नों पर दिलकश अन्दाज़ में छपी तसवीरें बड़े चाव से पलट-पलटकर देखी जाती हैं। तुमने तो कई ‘वेस्टर्न कन्ट्रीज’ भी देखे हैं लेकिन लगता है तेहरान के फ़ैशन और हुस्न के आगे शायद ही ठहर पाएँ।

सबसे पहले हमने ‘शहयाद टावर’ का रुख़ किया। सड़क पर गुज़रती हरी-नीली रंग की डबल-डेकर बसें, लाल-पीली सफ़ेद कारें, इक्का-दुक्का साइकिल सवार, खुले और बन्द डाले वाले ट्रक, स्कूटर। दोनों तरफ़ क़रीने से लगी दरख़्तों की बाड़ के बीच से चलते हुए, पहुँच गए शहर के पश्चिमी सिरे पर ऊँचे शानदार सफ़ेद पत्थरों से चिने टावर के सामने। चौड़ी सड़कों से घिरे बहुत बड़े अहाते में तराशे गए सफ़ेद पत्थरों के फुटपाथ, छोटी नहरें, फव्वारे, उनके किनारे बैठने के लिए चौकोर चौकियाँ, खुली जगहों में घास का फैलाव और फूलों की क्यारियाँ, आगे सीढ़ियों से चढ़कर ऊँचा चबूतरा और उसके ऊपर बुलंद टावर। आते-जाते सैलानियों के ग्रुप, कुछ ईरानी, कुछ हिप्पी, जगह-जगह के लोग। उन्हीं के बीच में टहलते काबुल से हमारी बस में आए पंजाबी जत्थे वालों को देखते ही श्याम का चोला मगन हो गया और वे उन्हीं के साथ गप्पें मारते घूमने लगे। इतनी ज़ोरदार इमारत देखते हुए मेरा मन कुलबुलाने लगा यह जानने के लिए कि किसने, कब और किससे तामीर कराया है इसे। वहीं एक किनारे बैठकर साथ लाई बुकलेट और गाइड-बुक निकालकर पढ़ने लगा।

फ़ारसी में इसे ‘बोर्ज-ए शहयाद’ कहते हैं, इसके तहख़ाने में एक म्यूज़ियम भी है। बुर्ज की ऊँचाई 45 मीटर, पूरी तरह से तराशे गए संगमरमर से बना। ईरान के मौजूदा शाह, मोहम्मद शाह रज़ा पहलवी, ने 1971 में ईरान में शाही राज्य के क़ायम होने के 2500 साल पूरे होने पर, हुसैन अमानत नाम के आर्किटेक्ट से पुराने ईरानी आर्किटेक्चर की डिज़ाइन की बुनियाद पर 1971 में बनवाया। इसे बनाने में ‘इस्फ़हान सूबे’ से लाए गए पत्थर, नई तकनीक, कम्प्यूटर और तेल की भारी कमाई में से क़रीब छह मिलियन डॉलर इस्तेमाल किए गए। इसके लिए सुझाए गए ‘दरवाज़े-ए कुरोस’ (साइरस का दरवाज़ा), ‘दरवाज़े-ए शहंशाही’ (शाही दरवाज़ा), ‘शाहयाद आर्यमेहर’ नामों को नकार कर आख़िर में ‘शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी’ के सम्मान में ‘शहयाद’ (शाह की यादगार) रखा गया। म्यूज़ियम में डिस्प्ले किए गए ‘ईरानी हिस्ट्री’ की नुमाइंदगी करने वाले सोने और एनेमल के टुकड़े, पेंटेड पॉटरी, पेंटिंग्स वग़ैरह। अभी तक शाह को दूसरे राजाओं की तरह एवैं ही ले रहा था लेकिन यह सब जानकर उनके बारे में जितना अब तक लिखा-पढ़ा था उससे ज़्यादा सिलसिलेवार जानने की दिलचस्पी जाग गई।

घूम-टहलकर वापस आने पर सबसे पहले तुम्हारे लेटर्स, बैग से निकालकर, जल्दी-जल्दी पढ़ डाले। अभी उनके बारे में सोच ही रहा था कि श्याम आ धमके और कहने लगे, “अब तो ख़ुश हो ना! उसकी चिट्ठियाँ भी आ गईं, हमें भी कुछ पढ़कर सुनाओ प्रेम-पत्रों में क्या-क्या लिखा है हुज़ूर!” ऐसे में क्या करता, तुम्हारे लेटर्स में लिखा सब कुछ तो उन्हें सुनाता नहीं, संकोचवश पहला लेटर कुछ काट-छाँटकर इस तरह सुनाया।

“डियरेस्ट रॉकी! दिस इज़ माई थर्ड लेटर, हाऊ सैड यू हैव नॉट रिसीव्ड माई लेटर्स सो फार व्हेरियाज़ आई हैव गॉट टू ऑफ़ योर्स ऑलरेडी।”

इतना पढ़ते ही श्याम जी ने टोक दिया, “यार! पूरी चिट्ठी अंग्रेज़ी में ही लिखी है क्या?” जब उनसे बताया कि तीन तो पूरी की पूरी अंग्रेज़ी में ही हैं और एक में अंग्रेज़ी-हिन्दी दोनों की खिचड़ी। तो बोले, “ख़ास-ख़ास बातें हिन्दी में बता दो लेकिन गिटिर-पिटिर वाले हिस्से छुपाना नहीं।” उनके यह कहने से मेरा काम आसान हो गया, जो चाहा वो सुनाया, बकिया गोल कर गया।

“हाँ तो उसने लिखा है कि ये मेरा तीसरा लेटर है। ‘हाऊ सैड’ अभी तक आपको मेरा कोई लेटर नहीं मिला है, जबकि मुझे आपके दो लेटर मिल चुके हैं। नेवर दि लेस, आप जहाँ कहीं भी जाइए वहाँ से लिखना ज़ारी रखिए जिससे मुझे हर तीसरे दिन एक लेटर मिल जाए वरना आपके लेटर का इन्तिज़ार करना बहुत इरिटेटिंग लगता है। मैं भी जवाब दूँगी।

“श्याम को मिल रही इतनी ज़्यादा सक्सेस एक अच्छी ख़बर है। उन्हें हमारी तरफ़ से कांग्रेचुलेट कर दीजिए। आपकी बहुत याद आती है, बनारस जाने से पहले आप हर हाल में मिलकर जाइएगा।

“सभी लोग आपको शुभकामनाएँ और प्यार भेज रहे हैं। कॉलेज की स्ट्राइक में हुए लाठी-चार्ज में लाठियाँ खाकर भाई घर आ गया है, उसके हाथ पर आँसू गैस का एक गोला भी लगा है।

“जल्दी से आइए। आपको प्यारा-सा कोल्ड मिल्क और कस्टर्ड और कद्दू भी खिलाएँगे क्योंकि आप बराबर लिख जो रहे हैं। बहुत बुरा लगता है जब पोस्टमैन बिना कोई चिट्ठी डाले चला जाता है।”

योर्स

इतना सुनाकर श्याम को दूसरी बातों में उलझाने की नीयत से ईरान में जहाँ-जहाँ घूमना है उसकी लिस्ट बनाने की बात शुरू कर दी। वैसे तो शायद ही वो इतनी आसानी से टरक जाते लेकिन उन्हें इतने सीधे-सादे लव लेटर में मज़ा नहीं आया। बोले, “हाँ बिलकुल ठीक कह रहे हो, अपने मतलब की जगहों की मनचाही लिस्ट बना लो, फिर नहीं कहना ये रह गया वो नहीं देखा।”

क्या-क्या देखें, क्या-क्या छोड़ें। इतना कुछ है देखने को, बस देखते रहें, देखते ही रहें महीनों तक। ‘अलबुर्ज़ पहाड़’ तो आते हुए रास्ते में थोड़ा-थोड़ा देख आए, ‘टेपे हिसार’ के लिए एक-दो दिन उधर। उत्तरी कुर्दिस्तान में ‘शानीदार की गुफाएँ’ (शानीदार केव्स) जहाँ से मिले हैं 60-65 हज़ार साल पुराने हंटर-गैदेरर समुदाय के प्रस्तरयुगीन लोगों के कंकाल, पत्थर के हथियार वग़ैरह और खेती से ठीक पहले क़रीब दस हज़ार साल के आसपास पुराने निशानात। तेहरान के पास में ‘सुलोदजी’ और ‘इस्फ़हान’ के नॉर्थ में ‘टेपे सियाक’ के आठ से तीन हज़ार साल पुरानी बस्तियों के साथ कोई पाँच हज़ार साल पुराना ‘ज़िग्गुरात’। वेस्टर्न ईरान में नॉर्थ-साउथ ओरिएंटेशन में फैले ‘जैग्रोस पहाड़’ के दामन में दस हज़ार साल या उसके कुछ बाद के, भेड़-बकरी पालने वाले खेतिहरों के ठिकानों के बारे में कितना तो पढ़ा है, कुर्दिस्तानी हिस्से में केरमनशाह के पास ‘टेपे आसिआब’, ‘सरब’, ‘टेपे गूराँ’, ‘गंज दारेह’ (ख़ज़ाने वाली घाटी), जैग्रोस की तलहटी के मैदान में सुसा जैसी ख़ास-ख़ास जगहें। कहते हैं ऊपर वाला, सच्चे दिल और दिल की गहराई से माँगी गई हर मुराद पूरा करता है और श्याम जी भी कह ही रहे हैं इसलिए जितनी जगहों के बारे में लिखे-पढ़े थे सब के सब विश-लिस्ट में शामिल कर लिए।

जब तक मैं अपनी डायरी और ‘गाइड बुक’ उलट-पलटकर लिखता रहा, उतनी देर श्याम की बेचैनी बढ़ती रही। लिखना रुकते ही मेरी लिस्ट पर बातें करने लगे। सबसे पहले एक-एक कर सब जगहों की लोकेशन, तेहरान से उनकी दूरी और जाने-आने में लगने वाले दिनों का कैलकुलेशन करने पर निकले कई महीने के जोड़ ने उफनाती उमंग पर पानी छिड़क दिया। श्याम बोले, “बहुत मेहनत कर डाली मगर एक बार फिर से सोच लो कौन-सी जगह सचमुच देखने लायक़ है। किताब में पढ़े और मौक़े पर देखने में बड़ा फ़र्क़ होता है।”

श्याम के कहे पर दुबारा सोचकर मैंने कहा—

“तुम्हारे कहने में दम है। पहले जहाँ पुरातत्त्विक खुदाई कराई गई है, इस समय वहाँ टेपे-टप्पे-टीले ही तो बच रहे हैं जिन्हें देखकर लोकेशन समझना कम फ़ायदे वाला नहीं, फिर भी, चलो ऐसी जगहों पर चला जाए जहाँ ज़मीन के ऊपर भी कुछ देखने लायक़ हो। लगे हाथ उनके नज़दीक वाली मशहूर जगहों का फेरा भी लग जाएगा। ऐसा करते हैं कि बकिया फिर कभी देखा जाएगा, अभी एक चक्कर लगा लेते हैं तेहरान से केरमनशाह, टेपे गूराँ होकर सूसा से शीराज़ के पास पर्सिपोलिस, नक़्श-ए-रुस्तम, वहाँ से इस्फ़हान और बरास्ते टेपे सिआक होकर वापस तेहरान।”

रूट-मैप देखकर श्याम बोले, “इतने में भी कई हज़ार किमी. चलना होगा। कुछ और कम नहीं हो सकता क्या? क्यों नहीं सीधे सूसा और आसपास घूमकर लौट आएँ?”

“बहुत काट-छाँटकर बनाई है ये लिस्ट। अब इससे कम क्या होगा। और कहीं जाएँ न जाएँ शीराज़ तक गए बिना दिल नहीं भरने वाला और वहाँ तक जाने में बकिया की जगहें रास्ते के थोड़ा ही दाएँ-बाएँ पड़ेंगी।” सिर हिलाते हुए मैंने उनकी सलाह सिरे से नकार दी।

मगर वे भी ऐसे कैसे मान जाते—“इतना सब जान-पढ़ चुके हो इनके बारे में। फिर, ऐसी भी क्या ख़सूसियत है इन जगहों में जो वहाँ जाने की इतनी ज़िद है आपकी! और ये ‘ज़िग्गुरात’ क्या होता है?” तब उन्हें एक-एक कर बताया :

“इस इलाक़े में मन्दिर के कम्पाउंड में, ऊँची ज़मीन पर नीचे से ऊपर की ओर घटते अनुपात में अंडाकार, चौकोर या आयताकार टेरेस पर टेरेस उठाकर बनाई गई ऊपर से सपाट सतह वाली बड़ी और बुलंद इमारत को ‘ज़िग्गुरात’ कहते हैं। माना जाता है कि धरती से इनके ऊपर चढ़कर स्वर्ग के नज़दीक पहुँचा जा सकता है।

“जहाँ तक ‘शहर-ए-सूसा’ की बात है, जैग्रोस की निचली पहाड़ियों में ‘कारून नदी’ के किनारे बसे नियर-ईस्ट के सबसे मशहूर शहरों में से एक रहा यह शहर, मोटे तौर पर आज से साढ़े चार हज़ार साल पहले से बुलंद पर रहा। इसके पहले भी क़रीब छह हज़ार साल से यहाँ बसावट रही। यहाँ की खुदाई से मिले सुबूतों में शामिल हैं एक बड़ा और ऊँचा चबूतरा या मन्दिर, उस पर चढ़ावे में चढ़ाए गए बर्तन, बसावट को घेरती माटी की छह मीटर मोटी दीवार, ताँबे के उपकरण, वग़ैरह। और भी कई ख़ूबियों से भरा यह तारीख़ी शहर आज भी आबाद है। पेरिस के एक म्यूज़ियम में रखा, यहाँ से मिला कोई 2500 बरस पुराना तीर-कमान साजे योद्धाओं का चित्र-फलक देखने लायक़ है।

“और शायद तुम्हें न मालूम हो कि सिकन्दर महान और अपने चन्द्रगुप्त मौर्य से पहले, आज से 2550 से 2330 साल के बीच, कोई ऐसा फ़ारस-साम्राज्य भी क़ायम रहा है जिसके किसी राजा ने यूरोप तक धावा मारा। पहाड़ी इलाक़े में पुलवर नदी की वादी में उनका बसाया ‘पर्सिपोलिस’ शहर भी ‘सूसा’ की तरह अपने ज़माने के दुनिया के सबसे शानदार शहरों में शुमार रहा। इसे बसाया गया था एक-बीस मीटर ऊँचे एक लाख पचीस हज़ार वर्गमीटर में बनाए गए बहुत बड़े टेरेस या चबूतरे पर। इस पर पचीस सौ अठारह बरस पहले दारा ने एक महल बनवाया। चबूतरे के पश्चिमी हिस्से में उसने शुरू किया ‘अपादन’ नाम की विशाल इमारत का निर्माण जिसे तीस साल बाद पूरा कराया उसके बेटे ने। उन्नीस मीटर (62 फ़ीट) ऊँचे बहत्तर खम्भों पर टिके छाजन वाले, 60×60 मीटर नाप के इस विशाल हॉल के बचे हुए तेरह खम्भों के टॉप पर बैठाई गई बैल, शेर, गाय और हुमा की मूर्तियाँ याद दिलाती हैं तबसे क़रीब सवा दो सौ साल बाद अपने पटनहिया बाबू मौर्य सम्राट अशोक महान जी के बनवाए प्रस्तर-स्तम्भों पर बैठे शेर, हाथी, बैल की। इतना ज़रूर है कि अशोक बाबू के लगवाए पिलर अधिक से अधिक 35 फ़ीट तक ऊँचे लेकिन बनावट, फिनिशिंग, चमकदार पॉलिश व लेप और उनके शीर्ष पर प्रदर्शित हाथी, सिंह, वृषभ और अश्व जैसे मोटिफ़ (अभिप्राय) की वजह से अपनी अलग पहचान रखते हैं।”

आज जुमे की हफ़्तावार छुट्टी होने की वजह से लाइब्रेरी-एम्बेसी सहित सारे सरकारी, ग़ैर-सरकारी काम-काज बन्द हैं। पहले तो पढ़ते-लिखते रहे फिर श्याम से बातें करते-करते कल वाले टॉपिक पर आए तो श्याम ने इधर-उधर देखते हुए कहा, “पहले चलकर कुछ खाने का जुगाड़ कर लिया जाए। रास्ते में तुम्हारी कहानियाँ भी सुनते चलेंगे।” बाहर निकले तो लोग जुमे की नमाज़ के लिए मस्जिदों की ओर जाते दिखे। श्याम ने पूछा—“यार! ये गाय-बैल-शेर तो ठीक हैं, मगर ये ‘हुमा’ क्या बला है? इसके बारे में तो कभी नहीं सुना!”

“क्या यार! लखनऊ में रहने वाला ‘हुमा’ से नावाक़िफ़ हो ये तो बड़ा जुलुम है। फ़ारस और उसके पड़ोसी मुल्कों की लोक-परम्परा में ‘हुमा’ या ‘होमा’ नाम के एक ऐसे मिथकीय परिन्दे का ज़िक्र मिलता है जो अपने बड़े-बड़े डैने फैलाकर हमेशा आसमान में इतने ऊपर उड़ता रहता है कि किसी को दिखाई नहीं देता। उसके पंजे/ पैर नहीं होते, वह धरती पर कभी नहीं उतरता। एक जिस्म दो जान, अर्धनारीश्वर की तरह नर-मादा एक ही जिस्म में। एक वक़्त में दुनिया में एक ही का वजूद रहता है। हड्डियाँ खाकर जीता है और जब मरता है तो अपने जिस्म से निकली आग में जलकर ख़ाक हो जाता है, और फिर उसी राख से दूसरा जिस्म पैदा करके फिर से ऊँचे आसमान में उड़ने लगता है। दिल से बड़ा मेहरबान होता है यह परिंदा, जिस इनसान पर उसकी छाया पड़ जाए, उसके सिर पर बादशाही ताज सजना तय मानिए। फ़ारसी-उर्दू अदब भरा पड़ा है उसके मेटाफोरिकल (लाक्षणिक) ज़िक्र से।”

यह सुनकर श्याम ने एक वाजिब सवाल उठाया—“अच्छा! लेकिन जब किसी ने देखा नहीं तो इसकी मूर्ति कैसे बनाई गई?” “वैसे ही जैसे हम बिना देखे भूत-प्रेत और भगवान् की मूर्तियाँ बना लेते हैं।” इस जवाब पर वे चुप रह गए। तब मैंने पर्सिपोलिस के बारे में लाइब्रेरी में चल रही चर्चा का छूटा सिरा थाम लिया :

“दारा के बेटे क्षयार्षा (ज़रक्सीज; Xerxes) के दौर में (519-465 ईसा पूर्व; आज से 2500 साल के आसपास) टेरेस पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनकर तैयार हुईं और ‘गेट ऑफ़ नेशन्स’ जैसी शानदार इमारत के अलावा, शेर, बैल और फूलों की सजावट वाली टाइल से और सीढ़ि‍यों के फलकों पर राजा सहित आम लोगों को उनके पारम्परिक लिबास में दर्शाया गया। इमारतें बनने का यह सिलसिला बाद में भी चलता रहा। समय-समय की बात है। ऐसे राजाओं के इतने बड़े साम्राज्य के इतने नामी शहर के इस मशहूर महल को लगभग तेईस सौ तीस बरस पहले सिकन्दर की सेना ने तहस-नहस कर दिया। कुछ लोग मानते हैं कि इस तरह क़रीब डेढ़ सौ साल बाद सिकन्दर ने ग्रीस पर फ़ारस के हमले का बदला ले लिया।

“पर्सिपोलिस से दस-बारह किमी. उत्तर में है ‘नक़्श-ए-रोस्तम’ या ‘नक़्श-ए-रुस्तम’ मतलब ‘महान वीर या पहलवान की शक्ल’। यहाँ एक चट्टान पर नक़्श है तीन हज़ार बरस से भी पुरानी एक आकृति। इसके बाद चट्टान की खड़ी कगार को भीतर तक काटकर बनाए गए फ़ारस राजघराने के राजाओं के चार बड़े-बड़े मक़बरे हैं जिनके बीच में कटा दरवाज़ा उस कक्ष में ले जाता है जहाँ पत्थर के ताबूतों में सो रहे हैं महान राजाओं के माटी में तब्दील हो चुके शरीर। दारा (प्रथम) के मक़बरे की पहचान उस पर लिखे अभिलेख से की गई है। बाक़ी उसके उत्तराधिकारियों के होने चाहिए।

“दरवाज़ों के ऊपर सतह पर उभारकर की गई नक़्क़ाशी में सबसे ऊपर नक़्श हैं एक के ऊपर एक क़तार में साम्राज्य के अलग-अलग देशों के अलग-अलग वेशभूषा वाले सैनिकों द्वारा दोनों हाथों से ऊपर उठाए गए मंच पर, पेडस्टल पर खड़े तीरन्दाज़ राजा के ऊपर आसमान से रहमत बरसाते देवता और उनके नीचे चौकोर लकड़ी की धरनों या बड़ेरों जैसे मोटिफ़ की क़तार। मक़बरों के नीचे बाद के फ़ारसी-सासानी राजाओं की रिलीफ में सबसे मशहूर है सत्रह सौ बरस से कुछ पुरानी वह नक़्क़ाशी जिसमें घुड़सवार शापुर-प्रथम के सामने रोम के राजा वेलेरियन को घुटने टेककर सरेंडर करते दिखाया गया है।”

इन जगहों के बारे में समझकर श्याम अनख गए, “मतलब ये कि तुम एक बार फिर खँडहरों में घूमने का प्लान बना रहे हो। मैं नहीं आने वाला तुम्हारे चक्कर में। चला-चलाकर थका दोगे और देखने को मिलेगा बस यही सब टूटा-फूटा वीराना। पता नहीं कहाँ से पता लगाए रहते हो ऐसी जगहों का। कहानी सुनने तक तो ठीक है लेकिन ऐसी जगहों पर ि‍सर मारने में मुझे कोई इंट्रेस्ट नहीं। नहीं कुछ सूझा तो जलालाबाद से उजाड़ वीरान हड्डा दिखाने लिवा ले गए, अब यहाँ भी वही सब, मुझे नहीं देखना अब और कोई हड्डा-गड्ढा। तुम्हारा इन्तिज़ाम करा देंगे तुम्हीं चले जाना।”

श्याम की ओर से इतना करारा झटका खाने की उम्मीद नहीं की थी। बाक़ी रास्ते में उनसे कुछ नहीं बोला। ग़नीमत यह रही कि दुकान में दिखी कल वाली लड़की फिर दिखाई दे गई तो मन बदल गया। लौटते रास्ते एक बार फिर से उन्हें समझाने की कोशिश की, दारा और अशोक के लेखों, शीराज़ शहर की ख़ूबसूरती, वहाँ के दिलकश बाग़-बग़ीचों और शीराज़ी कबूतरों का ज़िक्र करके, लेकिन वे नहीं माने तो नहीं ही माने। लाइब्रेरी में आकर यह प्रोग्राम बना कि वे तो पहले जाएँगे एम्बेसी, फिर दोपहर बाद शहर देखा जाएगा, तब तक मुझे जो पढ़ना-लिखना है निपटा लूँ। उनके जाने के बाद यह ख़त पूरा करने में लगा हूँ। पूरा हो जाए तो कल पोस्ट करने का इरादा है।

श्याम को इस सब्जेक्ट में कोई इंट्रेस्ट हो या नहीं, मुझे लगता है इंडिया की अर्ली रॉक कट-आर्ट पढ़ने वालों को यहाँ से अपने पुराने रिश्तों की पड़ताल कई पहलुओं से करनी चाहिए। जैसे, इंडिया में चट्टान को काटकर बनाई गई ‘बराबर की गुफाएँ’ सबसे पुरानी क़रीब 273-232 ई. पूर्व के बीच (आज से 2373 से 2332 साल के आसपास) बनी मानी जाती हैं जबकि यहाँ फ़ारस में इस कला की शुरुआत उससे कहीं पहले से दिखाई देती है। और पर्सिपोलिस की महल की बुनियाद से पत्थर के बक्से में मिले सोने-चाँदी के पत्तरों पर लिखे और नक़्श-ए-रुस्तम के मक़बरे पर लिखे दारा के अभिलेख एक बार फिर सम्राट अशोक की याद दिला देते हैं। अशोक के अभिलेखों में उसे ‘देवानाम पिय पियदसी राजा अशोक’ (देवताओं को प्रिय प्रियदर्शी राजा अशोक) और बौद्ध-धर्म के बारे में लिखा गया है और यहाँ उससे दो सौ वर्षों से भी पहले दारा को ‘राजाओं का राजा’ और ‘देवताओं के देवता अहुरमज़्दा’ और उसके साम्राज्य के बारे में इस तरह लिखा गया है :

महान राजा दारा, राजाओं का राजा, कई मुल्कों का राजा, हिस्टास्प्स का पुत्र, फ़ारस का राजा, राजा डेरियस कहते हैं, “देवताओं में महानतम देवता अहुरमज़्दा का बख़्शा मेरा यह साम्राज्य शक प्रदेश से सोगदिया, वहाँ से कुश और सिंध से लीडिया तक क़ायम है। अहुरमज़्दा मेरी और मेरे राजघराने की हिफ़ाज़त करें।

‘महान देवता अहुरमज़्दा, जिसने इस धरती को बनाया, जिसने विस्तृत आसमान की रचना की, जिसने आदमी को बनाया, जिसने आदमी के लिए प्रसन्नता बनाई, जिसने डेरियस को राजा, अनेक राजाओं का राजा, बहुतों का मालिक बनाया। मैं महान राजा डेरियस हूँ, राजाओं का राजा, सभी तरह के आदमियों वाले देशों का राजा, दूर-दूर तक विस्तृत इस धरती का राजा, हिस्टास्प्स का पुत्र, एक पारसी, एक पारसी का पुत्र, एक आर्य, आर्यों का वंशज।” राजा डेरियस कहते हैं, “अहुरमज़्दा की मदद से मैंने परसिआ (फ़ारस) के बाहर जिन देशों पर क़ब्ज़ा किया और राज किया, जो मुझे भेंट देते हैं, मैं जो कहता हूँ करते हैं, जो मेरे नियमों का कड़ाई से पालन करते हैं वे इस प्रकार हैं : मेडिआ, एलम, पार्थीआ, आरिआ, सोगदिआ, कोरसामिआ, ड्रंगिआना, अराकोसिआ, सत्तागदिआ, गांदार (गांधार), इन्दुस (हिन्दुस), होमा पीने वाले सीथियन, नुकीली टोपी वाले सीथियन, बेबीलोनिआ, असीरिआ, अरबिआ, मिस्र, अर्मेनिया, कप्पादोसिआ, लीडिआ, यवन (ग्रीक), समंदर के पार के सीथियन (शक), थ्रेस, पेटासोस पहनने वाले गयवन, लीबिया, न्यूबिआ, मका और कॅरिआ।”

राजा डेरियस कहते हैं, “जब अहुरमज़्दा ने धरती का तहलका देखा, तो उसका भार मेरे ऊपर रखकर मुझे राजा बनाया। मैं राजा हूँ। अहुरमज़्दा की कृपा से मैंने इसे इसकी जगह पर शान्त कर दिया है। यहाँ के लोगों से जैसा मैं कहता हूँ वैसा वे मेरी अपेक्षा के अनुसार करते हैं।”

अब आप सोचेंगे कि राजा डेरियस कितने मुल्कों पर राज करता था? ताज पहने हुए उन लोगों के बुतों को देखो तो तुम्हें पता चल जाएगा कि एक फ़ारसी मर्द का भाला कितनी दूर तक गया, तब तुम्हें पता चल जाएगा कि एक फ़ारसी मर्द ने यक़ीनन फ़ारस से बहुत दूर तक जंग लड़ी।

राजा डेरियस कहता है, “यह सब जो कुछ हो सका, वह सब मैंने अहुरमज़्दा की ख़्वाहिश से किया है। जब तक मैंने यह सब किया अहुरमज़्दा ने मेरी मदद की है। अहुरमज़्दा मुझे, मेरे राजघराने और इस ज़मीन को दुश्वारियों से बचाए रखने की मेहरबानी करें, मैं अहुरमज़्दा से दुआ माँगता हूँ कि वे मुझ पर यह मेहरबानी बख़्श दें। ऐ इनसानो, अहुरमज़्दा का जो हुक्म है उसे आपको अपनी बेइज़्ज़ती नहीं मानना चाहिए, सच्चाई का रास्ता मत छोड़ो, बग़ावत मत करो।

ये तो रहीं हिस्ट्री और आर्कियोलॉजी की बातें लेकिन शीराज़ शहर में मेरी दिलचस्पी का सबब, उसकी तारीख़, बाग़-बग़ीचों या गली-कूचों से क़तई अलहदा, निजी और जज़्बाती, मगर श्याम ने उन्हें सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इस ख़त के लिए इतना ही काफ़ी है। आगे का हाल अगले ख़त में।

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