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सूटकेस में यादें और प्रॉमिस लैंड की तलाश

पूनम दुबे की यात्राओं के किस्से हमने जानकी पुल पर खूब पढ़े हैं। इस बार लम्बे अंतराल के बाद उन्होंने लिखा है। कोपेनहेगन से बर्लिन की यात्रा पर। दिलचस्प है। अपने आपमें बहुत कुछ समेटे। आप भी पढ़िएगा-

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पैंडेमिक को लगभग दो साल हो गए। वैक्सीनेशन का प्रोग्राम दुनिया के इस हिस्से में काफी हद तक पूरा हो चुका है। मास्क और हैंड सैनिटाइजर अब पुरानी बातें लगने लगी हैं। खैर यह कोपेनहेगन का माहौल है। कई देशों और शहरों में अब भी कोरोना को लेकर एहतिहात बरती जा रही है। ईस्टर की छुट्टियाँ नज़दीक आ रही थीं। सोचा कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर घूमने चलें। डेनिश भाषा के थर्ड लेवल का एग्जाम देकर इतना एक्सॉस्ट हो चुके थे कि कुछ दिन इस भाषा से ब्रेक लेना ज़रूरी हो चुका था। हमारा प्लान बना बर्लिन जाने का, बर्लिन से कालसुरे (जो कि मेरे साथी की जन्मभूमि है), इसके अलावा कालसुरे में मेरे लिए कोई ख़ास बात न थी। और फ़िर वहां से कुछ दिनों के लिए ब्लैक फोररेस्ट। जी, यह वही ब्लैक फॉरेस्ट है जिसके नाम का बर्थडे केक हमारे यहाँ बड़ा फेमस है। मजे की बात यह है कि यहाँ के ओरिजिनल ब्लैक फॉरेस्ट केक की रेसिपी उतनी टेस्टी नहीं जितनी हमने अपने यहाँ बना दी। हम हिन्दुस्तानी है हीं ऐसे।  यहाँ जर्मनी का फ़ेमस डिश करीवुर्स्ट भी कुछ अगड़म-बगड़म निकला। करी नाम सुनकर मुझे लगा था हिन्दुस्तानी मसलों का स्वाद होगा। लेकिन जब डिश को देखा तो पता चला टोमेटो सॉस में थोड़ा सा हल्दी और धनिया डालकर सॉसेज के साथ सर्व कर रहे हैं इन लोगों ने करी का नाम बदनाम कर रखा है। मेरे मन में तो यही ख़याल आया।

कोपेनहेगन से फ्लाइट लेकर हम पहुंचे बर्लिन और बर्लिन से ट्रेन की यात्रा करते हुए जाना था कालसुरे। इसलिए हम अपना बैगपैक उठाये एयरपोर्ट से सीधे पहुंचे बर्लिन रेल्वे स्टेशन। जर्मनी के स्टेशन मुझे बेहद पसंद है। वह स्टेशन कम मुझे शॉपिंग माल ज्यादा लगते हैं। हर किस्म की दुकानें। अगर आप अपनी शर्ट पैक करना भूल गए हों या कुछ और तो यहीं से खरीदते हुए चले। खैर शॉपिंग माल जैसा माहौल तो हमारे यहाँ भी होता है स्टेशन के पास, फर्क यह बस यह है कि यहाँ बाकायदा दुकानें हैं हमारे यहाँ ठेले होते हैं. हमारी ट्रेन में अभी समय था इसलिए जैसे शॉपिंग माल में लोग जाकर तफ़री करते हैं हम भी वही कर रहे थे।

कुछ एकाध घंटे बाद हमें टॉयलेट जाने की चाह महसूस हुई। हमने चुपचाप दो यूरो का एक एक सिक्का निकला और टॉयलेट की तरफ चल पड़े। ख़ास इसी मिशन के लिए हमने करीब बीस यूरो के एक-एक के खुल्ले करवाए थे।  हमें पता था यहाँ पब्लिक प्लेसेस में टॉयलेट का इस्तेमाल मुफ्त में नहीं कर सकते, हाँ ब्लैक फारेस्ट की बात अलग है। हैरान तो मैं तब हुई जब बर्लिन में शॉपिंग माल में भी टॉयलेट के इस्तेमाल के लिए पैसे देने पड़े थे। गजब, ऐसा तो किसी देश में न देखा था। ख़ैर मैं आगे बढ़ती हूँ यूरो मशीन में डालने के लिए, देखा वहां पर एक नोट चिपका हुआ था जिसपर लिखा था ‘फ्री’ इससे पहले दो बार जर्मनी आ चुकी हूँ ऐसा चमत्कार तो कभी नहीं देखा। कोविड ने इनके भीतर इंसानियत जगा दी, टॉयलेट मुफ़्त! यहाँ पानी तो मुफ़्त में पी सकते हैं (मेरा मतलब टैप वाटर से है)  लेकिन सुसु मुफ़्त में नहीं कर सकते। खैर पैसे लेते हैं तो सफ़ाई भी रखतें हैं। एक यूरो यानी क़रीब 85 रुपये थोड़ा ज़्यादा नहीं हो गया? मैं खुश हुई चलो एक यूरो बच गए।

आशा थी कि आगे की यात्रा में भी फ्री टोईलेट का इस्तेमाल होगा बहरहाल ऐसा हुआ नहीं। हमारी ट्रेन का समय हो गया। प्लेटफार्म पर लोग हड़बड़ी में इधर उधर जा रहें हैं, पूरी ट्रेन लोगों से भरी हुई थी. इतना कंफ्यूजन यहाँ कभी महसूस नहीं किया।  टीसी बाहर हैरान परेशान खड़ी है। राहुल ने हमारी टिकट दिखाकर उससे जर्मन में सीट के बारे में पूछा, उसने कुछ ज़वाब दिया, मेरे पल्ले कुछ न पड़ा। चेहरा उसका बौखलाया सा था। शायद कुछ ज्यादा ही सवाल पूछा जा रहा था मोहतरमा से। यहाँ लोग खामखा सवाल नहीं पूछते, किसी के प्राइवेट स्पेस में दख़ल नहीं देते। लोग जवाब खुद ही ढूँढ़ते हैं। चाहे जिंदगी के हो चाहे रास्तों का! जितना हो सके उतना ह्यूमन कन्वर्सेशन और कनेक्शन से बचो यही यहाँ के जीवन का मंत्र है। मेरे देश में तो न चाहते हुए भी लोग एक दूसरे को रास्ता बता जाते हैं, (सुकून मिल जाता है किसी की मदद तो की ) चाहे गलत ही क्यों न हो बस सामने वाला बंदा कंफ्यूज दिखना चाहिए। बेमतलब का मशवरा दे जाते हैं चाहे खुद के जिंदगी की लंका क्यों न जल रही हो।

क्या हुआ?

 यह कह रही है कि आपने सीट फिक्स्ड नहीं थी, इसलिए जहाँ जग़ह मिले बैठ जाओ।

क्या  मतलब! चालू डिब्बा थोड़े ही है। मतलब यूरोप की ट्रेन का रुतबा है पूरे जहान में…?  मैं भौचक्का यहाँ भी ऐसा होता है क्या! अचानक से बचपन की वो बातें ताज़ा हो गई जब पापा हैरान परेशान से टिकट कन्फर्म होने का वेट किया करते थे। और तीन टिकट पर सात लोग यात्रा करके गांव से मुंबई आते थे।

तुमने टिकट का पैसा तो ऑनलाइन पे किया था न?

हाँ..लेकिन यह फ्री सीटिंग कोच है, जहाँ जगह मिले बैठ जाओ।

ओह. ओके..

फिर क्या, हम भीतर चले गए पूरा डब्बा लगभग भरा था. यहाँ तो जगह ही नहीं है। मतलब ये लोग सीट से ज्यादा टिकट बेच रहे हैं। कौन कहता है यूरोप में झोल नही होता। यानी टॉयलेट का एक यूरो अब ये लोग ऐसे वसूल करेंगे।  इस तरह की बिन सैरपैर की बातें मेरे मन में चल रही थीं।

तभी सामने दो सीट खाली दिखी। हम झट से अपना बैग वहां रखने लगे, कुल छह सीटें थी आमने सामने की मिलाकर। आयल पर बैठी लड़की ने हमें रोक लिए कुछ सोलह या सत्रह साल की होगी। उसने टूटी फूटी इंग्लिश में पूछा, आर यू फ्राम युक्रेन ?

नो?  देखने में तो मैं पक्की हिन्दुस्तानी लगती हूँ ऐ कैसा सवाल है?

दु यू हैव द टिकेट?

यस वी आर गोइंग तू कालसुरे। व्हाई डू यू आस्क?

वि आर कमिंग फ्राम युक्रेन.. वी हैव द टिकेट! थोड़ी सहमी सी थी ।

तब गुत्थी सुलझी। हमारे सेक्शन में हम दोनों को छोड़कर बाकी चारों लोग उक्रैन से एस रिफ्यूजी ट्रैवल कर रहे थे।  एक माँ बेटी का परिवार और दूसरा माँ बेटे का परिवार। इन दोनों परिवारों के बीच में हम बैठ गए।

उनके लिए यात्रा मुफ़्त थी। शायद टॉयलेट भी इसीलिए फ्री था, मैंने अंदाजा लगा लिया।  आप सोच रहें हैं कि मेरा दिमाग़ वहीँ अटक गया हैं लेकिन ऐसे मुश्किल समय में युक्रेनियन रिफ्यूजी यात्रियों के प्रति इस तरह की छोटी से छोटी व्यवस्था और संवेदनशीलता को देखकर अच्छा लगा।  यह बात न जाने क्यों मेरे मन में रह गई… कहते हैं न, द स्मॉलेस्ट डीड इज़ बेटर दैन ग्रैंडेस्ट इंटेंशन।

सेटल होने के कुछ देर बाद हमनें उनसे बातें शुरू करी। उनमे से केवल उस लड़की को टूटी फूटी अंग्रेजी आती थी। हमने गूगल बाबा की मदद भी ली।

उस लड़की ने बताया कि उसके नाना नानी उनके साथ आने के लिए नहीं राज़ी हुए। उन्होंने अपना पूरा जीवन वहीं उस छोटे से शहर में बिताया था, उन्हें उम्मीद थी कि एक दिन वार जरूर ख़त्म होगा और सब कुछ पहले सा हो जाएगा।

मैंने उनके सूटकेस पर एक नज़र डालती हूँ, अपने जीवन भर का पूरा सामान और यादें दो सूटकेस में बटोरे ये लोग प्रॉमिस लैंड की तलाश में निकल पड़े थे।

 
      

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