Home / Featured / मैं शहर में नहीं शहर मुझमें बस गए!

मैं शहर में नहीं शहर मुझमें बस गए!

पूनम दुबे दुनिया के अलग अलग शहरों पर लिखती रही हैं। डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन पर पहले भी लिख चुकी हैं। इस बार वहाँ के समर यानी गर्मियों पर लिखा है। पढ़िएगा-

===============

जून के साथ-साथ कोपनहेगन में समर का आगमन हो गया है। महीनों से फ़िज़ा में लिपटी उलझी पसीजती नम, गहरी, सर्दियाँ, समर की आहटों से सुलझने लगी हैं।  डेनिश समर ने लोगों के मन पर अपने जादू को बिखेरना शुरू कर दिया है। बर्फीली सघन हवांए सूरज की उष्मा में पिघलने लगी हैं। जिंदगी फिर से खुलकर सांस लेने लगी है यहाँ।

रॉयल लिली, लाइलैक, मैगनोलिया के गुलाबी और सफेद रंग के गुच्छेदार फूल, पार्क्स की हरी-हरी घासों पर बिखरी चांदी सी चमचमाती डेज़ी और डैफोडिल्स कोपन्हागन की फ़िज़ा में रोमांस करने लगे हैं.  शहर की ग्रे-ब्लैक तस्वीर में कुदरत ने रंग भरने शुरू कर दिए हैं.  एलिशिया ने सच ही कहा है “अ ब्यूटीफुल माइंड” में, “गॉड मस्ट बी अ पेंटर व्हाई एल्स वुड वी हैव सो मेनी कलर्स!”  (ईश्वर जरूर ही एक चित्रकार है वरना दुनिया में हमारे पास इतने रंग क्यों होते!)

सौग़ात में मिले लम्बे दिन और छोटी रातों ने फिर से मेरा दिल जीत लिया है। ग्यारह बजे तक नीला आसमान ऐसे आंखें खोले जागता है मानो अनिद्रा रोग हो गया हो उसे। आसमान के रतजगे हर साल मेरा दिल चुरा लेते हैं। सवेरा भी इतनी जल्दी आ धमकाता कि अनमनी रात ठीक से आ ही नहीं पाती। तीन बजे भोर से ही चिड़ियों की टी पार्टी शुरू हो जाती है बालकनियों में। उनकी चहचाहट कमरें में गुंजने लगती । इरिटेशन भी होती है लेकिन प्यार भी आता है मुझे उन पर। सर्दियों के महीनों में मैं इनका ही तो इंतजार करती हूँ। रोशनी की ये इफ़रात मुझे पसंद है। सड़कों पर लोग ही नहीं अनगिनत स्लगस, स्नेल (घोंघे) भी नज़र आने लगे हैं। न जाने कहाँ जाना होता है इन्हें!  कुछ कहीं पहुँच जाते हैं, कुछ रास्तों में स्वाहा हो जाते हैं।

देर शाम तक पार्कों में लोग वाक करते, साइकल चलाते, पिकनिक करते, ड्रिंकिंग गेम्स खेलते, नाचते गाते नज़र आते हैं. घरों के बाहर अपने बैकयार्ड, गार्डन और बालकनियों में बारबेक्यू के साथ बियर, वाइन के घूंट लगाते, बतियाते, खिलखिलाते लोगों का मजमा जमने लगा है। परसों जेन को भी देखा बालकनी में धूप सेंकते हुए, विंटर में भूले से भी नहीं नज़र आती। दोपहर को ट्रिंग ट्रिंग की घंटी के आवाज़ के साथ गुजरती आइसक्रीम वाली साइकल मुझे अपने गांव के कुल्फ़ी वाले की याद दिलाती है। आइसक्रीमवाले अंकल के झुर्रियों से सिकुड़े चेहरे पर बिखरी मुस्कान में बचपना झलकता हैं। बगीचों और लानों में कटते हुए नरम-नरम घासों की खुशबु मुझे पलक झपकते ही अपने गांव के खेतों मे ले जाती है।

सर्दियों में रूठी-रूठी सी मैं, अब मुस्कुराने लगी हूँ।  हर साल मेरा मन सर्दियों में इस शहर से ऊब जाता है। समर में हुई इस शहर से मोहब्बत सर्दियों में घट जाती है और बेरुखी में तब्दील होने लगती है। चिढ़ होती हैं ग़हरी लंबी नम विंटर से। इस शहर को छोड़ने का पूरा मन बनाती हूँ कि चुपके से फिर एक बार समर आ जाता है मुझे फिर से मनाने मेरा दिल जीतने। इसी तरह लूप में चलती हैं जिंदगी यहाँ।  यहाँ रहकर ही मैंने जाना है कि आख़िर इन देशों के लिए वसंत और समर इतना ख़ास क्यों हैं। इतना ख़ास की कोरोना काल में भी यहाँ लोग समर सेलिब्रेशन से नहीं चुके।

ठीक ही कहती हैं ऐनी ब्रैडस्ट्रीट, यदि हमारे पास सर्दी नहीं होती, तो वसंत इतना सुखद नहीं होता: यदि हम कभी-कभी विपत्ति का स्वाद नहीं चखते, तो समृद्धि का इतना स्वागत नहीं होता।

पिछले एक साल से डेनिश भाषा सीख रही हूँ, हालाँकि सोचा नहीं था कि कभी यहाँ की भाषा सीखूंगी पता था बेहद मुश्किल है डेनिश सीखना। लेकिन फिर मन बदला और हम दोनों ने डेनिश सीखना शुरू किया। बासठ साल की ब्लॉन्ड, ग्रे आँखों वाली, एवरेज कद काठी की हमारी डेनिश टीचर बेहद दिलचस्प है. उसकी ऊर्जा, उत्साह, पैशन, और हंसी हमें खूब लुभाते हैं। कई बार वह गिटार लेकर आती है क्लास में और डेनिश में हमे नर्सरी राइम्स गवाती है। विभिन्न देशों से आये हम लोग इन नर्सरी राइम्स के सुरों का पीछा करते हुए गाते वक्त एक हो जाते हैं। कोई फ्रांस से तो कोई माल्डोवा से कोई ब्राज़ील से तो कोई इटली से कोई स्पेन से तो कोई ज़िम्वॉब्बे से, कोई स्विज़रलैंड से तो कोई एस्टोनिया से। हमारे रंग-रूप बोली, भाषा, कल्चर, विचार सब आपस में घुलमिल जाते हैं नर्सरी राइम्स के साथ। हम सब एक साथ खिलखिलाते मुस्कुराते स्कूल के बच्चे बन जाते हैं। उन कुछ पलों के लिए बचपन की गलियों में खो जाते हैं। शायद इसी बचपने को जीने जाते हैं हम डेनिश क्लास। वरना यह मेरे बस की नहीं थी। हालाकिं बाकायदा परीक्षा भी होती है। बचपन के परीक्षावाले दिन भी याद आते हैं। डेनिश सीखते-सीखते बहुत कुछ सीख रहे हैं हम यहाँ के सभ्यता के बारे में।

क़रीब तीन साल पूरे हो गए हैं इस्तांबुल से कोपेनहेगन शिफ़्ट हुए। रह-रहकर इस्तांबुल की याद मुझे अब भी आती है लेकिन उतनी नहीं जितना मैं चाहती हूँ। इस्तांबुल की ऐतिहासिक संकरी रंग बिरंगी गालियाँ, ओटोमन फैशन की मीनारें, बोस्फोरस के किनारों की छवि अब भी मन में बरकरार है। लेकिन इस शहर ने भी अपनी एक जग़ह बना ली है मन और जीवन में। इस्तांबुल में मैं कोई और थी, और यहाँ कोई और हूँ। मैं बदल रही हूँ। कुछ नया सीख रही हूँ कुछ पुराना भूल रही हूँ।

डेनिश लोगों की तरह अब मैंने भी बेफिक्री से साइकल चलाना सीख लिया है। कड़कती सर्दियों में देर तक जंगलों पार्कों में दौड़ना सुकून देने लगा है। यहाँ की यन्टेलोवन (ईगैलिटेरीयन) लाइफ स्टाइल पर मेरा विश्वास बढ़ने लगा हैं। समाज और लोगों के बीच की इक़्वलिटी स्वाभाविक लगने लगी है। यहाँ का फ्रीडम मुझे सुहाता है। प्रकृति से लगाव बढ़ने लगा है। धीरे-धीरे ही सही लेकिन इस शहर का रंग मुझमें घुल रहा है।

सोचती हूँ दोनों ही शहर अपने आप में कितने जुदा हैं लेकिन फिर भी वे रहते हैं मेरे भीतर साथ-साथ। टर्किश हुज़ून भी डेनिश यन्टेलोवन भी, बास्फोरस के किनारे भी कोपेनहैगेन के कनाल्स भी, इस्तांबुल का इतिहास भी और यहाँ वर्तमान भी, ओज़लेम की झप्पियाँ भी और जेन की कहानियाँ भी।  मैं शहर में नहीं शहर मुझमें बस गए!

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

कहानी ‘जोशी जी’ की बयाँ प्रचंड का

विद्वान लेखक प्रचण्ड प्रवीर की एक सीरिज़ है ‘कल की बात’। इस सीरिज़ की तीन पुस्तकें …

10 comments

  1. बहुत दिनों से इनके आर्टिकल्स पढता हु, जब भी कुछ पढता हु तो एक सुकून मिलता है. इस लेखिका की एक किताब पढ़ी थी ‘ चिड़िया उड़’. गजहब का शब्द भांडार है!! मेरी इच्छा है की कभी इनसे मुलाकात हो !!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *