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‘हिन्दी को नहीं, फ़र्क़ हमें पड़ता है’

कल दिनांक 12 सितम्बर को इंडिया हैबिटेट सेंटर में ‘सभा’ का आयोजन हुआ जिसमें ‘हिंदी को फ़र्क़ पड़ता है’ विषय पर चर्चा का आयोजन किया गया। ‘सभा’ राजकमल प्रकाशन समूह और इंडिया हैबिटेट सेंटर की साझा पहल के तहत विचार-बैठकी की मासिक शृंखला है। इसके तहत हर महीने साहित्य, संस्कृति, कला, पर्यावरण आदि क्षेत्रों के ज़रूरी  मसलों पर गम्भीर और सार्थक चर्चा आयोजित की जाएगी। यह ‘सभा’ का पहला आयोजन था। प्रस्तुत है इसकी एक रपट-

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नई दिल्ली. हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में राजकमल प्रकाशन समूह द्वारा इंडिया हैबिटेट सेंटर के गुलमोहर सभागार में ‘हिन्दी को फ़र्क़ पड़ता है!’ विषय पर केन्द्रित परिचर्चा ‘सभा’ का आयोजन किया गया। इस परिचर्चा में सम्पादक व भाषा विशेषज्ञ राहुल देव, इतिहासकार व सिनेमा विशेषज्ञ रविकान्त, स्त्री विमर्शकार सुजाता, आरजे सायमा तथा सम्पादक-प्रकाशक शैलेश भारतवासी से मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार ने बातचीत की।

राजस्व के सिरे से बेहतर हुई है हिन्दी की स्थिति

परिचर्चा की शुरुआत करते हुए विनीत कुमार ने कहा कि पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी को लेकर जश्न का माहौल है. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि यह बहुमत की भाषा हो चली है, हिन्दी विजेता भाषा हो चली है. दूसरा कारण यह भी कि बैलेंस शीट पर इसकी स्थिति बेहतर हुई है तो जश्न मनाया जा रहा है. तीसरी बात यह कि इसके भीतर ओटीटी प्लेटफॉर्म और स्क्रिप्ट लेखन आदि की नयी खिड़कियाँ खुली हैं. लेकिन इन सबके बीच सवाल है कि क्या यह उत्सवधर्मिता सबके लिए है ? सब इस जश्न में शामिल होने की स्थिति में हैं ? जो नहीं हैं, उनकी अभिव्यक्ति की भाषा क्या होगी ? सवालों को अपदस्थ करके जश्न बनाया जा सकता है ?

हिन्दी को बचाने के लिये पूरे समाज को लगना होगा

हिन्दी-उर्दू को लेकर आए दिन देखे जाने वाले तनाव को देखते हुए राहुल देव ने कहा कि हिन्दी बहुमत की भाषा है, इसलिये यह उत्सव की भाषा है। जिसके भी मन यह भाव है तो उसके दिमाग में केवल सांप्रदायिक द्वेष है। हम तो बहुत पहले से हिन्दी को अंग्रेजी से भाषा से बचाना चाहते थे लेकिन आज के समय यह अभियान चलाया जा रहा है कि हिन्दी को उर्दू से मुक्त किया जाय। यह अभियान केवल एक विशेष धर्म की भाषा है, यह कहकर चलाया जा रहा है। मैं नहीं मानता कि हिन्दी को किसी उत्सव की जरूरत है। हम सब हिन्दी पढ़ने-लिखने और बोलने वालों को यह अहसास होना चाहिये कि भारत की 99 फीसदी भाषाओं को उनके अस्तित्व का खतरा है, उन पर विचार होना चाहिये।

आज़ादी के बाद हमारे नीति निर्माताओं ने देश को एक बनाए रखने के लिए परिस्थितियों को देखते हुए भाषा के मसले को छोड़ दिया था। हिन्दी को राजभाषा बना दिए जाने के बाद भी हमारी निजी जिंदगी में हिन्दी की जो भूमिका है उस पर कभी व्यापक स्तर पर विमर्श नहीं हुआ। अब हिन्दी जैसी विराट भाषा भी सुरक्षित नहीं है। साहित्य अब हिन्दी को बचाने की स्थिति में नहीं है। भाषा का संकट बहुत बड़ा संकट है। हिन्दी को बचाने के लिये हमारे पूरे समाज को लगना पड़ेगा।

हिन्दी को कभी किसी से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा

परिचर्चा के दौरान रविकान्त ने कहा “हिन्दी को किस बात का फ़र्क पड़ता है? हिन्दी को लेकर हम लोग ही उत्तर-दक्षिण करते रहते हैं। हिन्दी तो कुछ करती नहीं है। हिन्दी को कभी किसी से बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ा।”  आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (AI) को चर्चा में शामिल करते हुए उन्होंने आगे कहा “जब तक एआई को हिन्दी नहीं आती तब तक हिन्दी अनुवादक और लेखकों रोजी-रोटी चल रही है। यह एक दिलचस्प वक्त है। जो जनजातीय भाषा लिपि में नहीं थी वे आज तकनीक की मदद से मौखिक भाषा में उपलब्ध हो रही हैं। यह तय है कि आगे भी तकनीक भाषा की दुनिया में अहम भूमिका निभाने वाली है। लेकिन दूसरी तरफ हमें इस बात भी ध्यान देना चाहिए कि अगर हमारी जबान के लिए तकनीक सक्षम नहीं है तो यह भी चिन्ता की बात है।” आगे उन्होंने पत्रकारिता में भाषा के इस्तेमाल पर बात करते हुए कहा “हम अगर पहले की पत्रिकाओं की भाषा को देखें तो उसमें एक अनुशासन दिखता है। वहीं आज के हमारे टीवी चैनलों की भाषा अकल्पनीय है। दुनिया की किसी भी भाषा में पत्रकारिता की ऐसी भाषा नहीं है।”

तकनीक ने हमें बहुत सहूलियत दी है

शैलेश भारतवासी ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा, “मैं जब ब्लॉगिंग में आया था तो भाषा की सेवा भावना से नहीं आया था। इसमें मुझे अवसर दिख दिख रहा था। आज के समय में तकनीक ने बहुत सहूलियत दे दी है जिससे भाषा दौड़ रही है। आज तकनीक के माध्यम से अपनी ही भाषा में लिख और बोल रहे हैं। आज हम हिन्दी में जितना कुछ कर पा रहे हैं, उसकी बहुत बड़ी वजह तकनीक है। इसी के मदद से हम लोगों से जुड़ पा रहे हैं। आने वाले समय में भाषा का बेरियर यही तकनीक दूर करेगी।”

भाषा का सवालउसका नहीं समाज का सवाल होता है 

सुजाता ने विभिन्न अस्मिताओं को लेकर हिन्दी में शब्दों के अभाव पर प्रकाश डालते हुए कहा, “हिन्दी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता है, हमें फ़र्क पड़ता है। जब मैंने ब्लॉगिंग शुरू की थी तो अपने लिए की थी, न कि हिन्दी के लिए। मेरे पास एक ही ऐसी भाषा थी, जिसमें मैं जीती हूँ, जिसमें सोचती हूँ, जिसमें मैं लिखती हूँ। मेरे पास किसी दूसरी भाषा का विकल्प नहीं था। हम हिन्दी में कुछ भी करते हैं तो उसे सेवा का नाम देते हैं। हिन्दी को सेवा नहीं चाहिए। आप उसके दोस्त बन सकते हैं, उससे प्यार कर सकते हैं। लेकिन यह दुर्भाग्य है कि मैं जिस भाषा में पढ़ती और लिखती हूँ, उसी भाषा में सबसे ज्यादा घृणित शब्दों का उपयोग किया जाता है। और यह दुःखद है कि यह मेरी भाषा में हो रहा है। यह भाषा की समस्या नहीं है, यह समाज की समस्या है। कितनी ही अस्मिताएँ है जिनके लिए हमारे पास शब्द ही नहीं है। यह भाषा की नहीं बल्कि हमारे समाज की समस्या है। भाषा का सवाल केवल भाषा का सवाल नहीं होता, वो समाज का सवाल होता है। आज सिर्फ भाषा ही नहीं बल्कि हाशिए पर खड़ी सभी अस्मिताएँ खतरे में हैं।”

भाषाओं के विकास के बिना हमारा विकास भी संभव नहीं

हमारी बोलचाल और व्यवहार की भाषा पर बात करते हुए आरजे सायमा ने कहा, “हम कहीं खो गये हैं। हमने कोई भी भाषा ठीक तरह से सीखी नहीं है। यह हमारे माता-पिता और हमारे स्कूलों की कमी रही है। बहुत सारी अच्छी चीजें भी हमारे इर्दगिर्द हो रही हैं, आज जो किताबें हमें नहीं मिलती हैं उन्हें हम ऑनलाइन भी पढ़ सकते हैं, जो भाषा के लिये अच्छा है। लेकिन अब किसी के हाथ में हिन्दी की किताब नज़र आती है तो लोग उसको घूरते हैं। लोग ताज्जुब करते हैं कि आप आज तक हिन्दी पढ़ते हैं। हम शॉर्टकट की दुनिया में खो गए हैं। हमारे पास सीखने के लिए बहुत कुछ हैं, बहुत आसान है अब कुछ भी सीखना। हिन्दी को इन सबसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, फ़र्क़ हमें पड़ता है। अगर भाषाओं का विकास नहीं हुआ तो हमारा भी विकास संभव नहीं है। ऐसी कोई भाषा नहीं होती जिससे कोई और भाषा नहीं जुड़ी होती, हमें परहेज नहीं करना चाहिये। शब्दकोश से कभी कोई शब्द निकाला नहीं जाता, हमेशा नए शब्द जोड़े जाते हैं।”

जरूरत के मुताबिक गढ़े जाएँ नए शब्द

‘सभा’ परिचर्चा में शामिल होने वाले सभी श्रोताओं और वक्ताओं का आभार व्यक्त करते हुए राजकमल प्रकाशन समूह के सम्पादकीय निदेशक सत्यानन्द निरुपम ने कहा, “जब हम अपने शब्दों को लापता होने से नहीं बचा पाते, बल्कि खुद लापता करने लगते हैं; समाज और समय की नई ज़रूरत के मुताबिक नए शब्द नहीं गढ़ पाते, उस दिशा में जोखिम उठाने के बजाय अंग्रेजी से काम चला लेते हैं; जब हम अपनी भाषा की परंपरा और उसके विकास को ठीक से जानना ज़रूरी नहीं समझते, जब हम अपनी भाषा को असंवेदनशील होते, आक्रामक और हिंसक होते बेबसी में देखते रह जाते हैं, जब हम अपनी भाषा को नए विषयों के नए मिज़ाज के लेखन से समृद्ध नहीं करते, जब हम अपनी भाषा को एक सुविधा का मामला बना लेते हैं और उसे निहायत सुविधाजनक तरीके से इस्तेमाल करते हैं तो फ़र्क़ पड़ता है, हिंदी को फ़र्क़ पड़ता है। यह मैं नहीं कह रहा हूँ। मंच ने जो कुछ कहा गया, उसके निहितार्थ यही हैं।”

आगे उन्होंने कहा, “आज हमें लग रहा है कि हिंदी को नहीं, हमें फ़र्क़ पड़ रहा है। मैं कह रहा हूँ, आज आप पर मुझ पर फ़र्क़ पड़ रहा है, कल हमारे बच्चों पर पड़ेगा और परसों हमारी भाषा पर बन आएगी। क्यों, क्योंकि जो भाषा हमारी संवेदना और हमारी अभिव्यक्ति के लिए नाकाफी पड़ जाएगी वह हमारे इस्तेमाल में किस हद तक रह सकेगी?  मैं समझता हूँ कि भाषा का चरित्र और भविष्य, भाषा की दुनिया उसमें रहने वाले, उसे बरतने वाले लोग ही बनाते हैं। हम क्या बना रहे हैं? मुझे लगता है, हम कुछ नहीं बना रहे हैं। वे शब्द जो हमारी भाषा में नहीं हैं, वे अभिव्यक्तियाँ जिनके लिए हम अब तक कोई शब्द गढ़ नहीं कर पाए हैं, तय नहीं कर सके हैं, वह काम कौन करेगा? उसे कैसे तय किया जाएगा? क्या इस पर हम बात कर सकेंगे? हम कोई रास्ता निकालेंगे? इस पर बातचीत को आगे बढ़ाएं हम सब, आप सब इसे अपने-अपने मंच से आगे बढ़ाइए। कोई राय बने, एक राय बने। शॉर्टकट से काम कब तक चलेगा?”

 
      

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