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संजीव के उपन्यास ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’ पर यतीश कुमार की काव्यात्मक टिप्पणी

यतीश कुमार ने काव्यात्मक समीक्षा की अपनी विशिष्ट शैली विकसित की। उसी शैली में उन्होंने संजीव के उपन्यास ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’ पर यह ख़ास टिप्पणी लिखी है। आप भी पढ़िए-
====================

1.

संवलाया-सा समय
खिलती हुई शाम
अन्हरिया में फुदकता मन
सपनों को छूने के न जाने कितने बहाने

मायाविनी रात में
सच और झूठ
अपने प्रतिबिंब बदल रहें हैं

अजगर और आदमी का फ़र्क़ मिट रहा है
घिसते जा रहे हैं लोग
सिमटती जा रही है सभ्यता
अपनों के बीच की दूरी को बढ़ाते हुए

इन सबके बीच
घसीट की लंबी लकीर
और लंबी हो रही है

2.

ग़लत और सही की घड़ी
दृष्टि की चाबी से चलती है

सब का अपना सच,
अपना प्रकाश
और अपना अंधेरा होता है
समझ में आते ही रोशनी मुट्ठी में मिलती हैं

सूरज और चाँद
मन के खिलौने हैं
मनरंगा द्वाभा मचल रही है
अबूझ रात से मिलने

इस बीच चुपके से अंधेरे में
अपलक दो आँखें सुराख़ बना रही हैं

रात का अंधेरा ज़्यादा गहरा है
या कि नींद का
कहना मुश्किल है

पेट्रोमैक्स आँखें जुगनू जैसी लगती हैं
दरअसल जुगनुओं की पूरी बारात है
पर अंधेरा यहाँ जीवन है
और माचिस एक आतंक

क्या करना है
और क्या नहीं करना है के बीच
सिसकता मनुष्य
अपने ही संस्मरण से ख़ारिज है

जिदगी कुछ ऐसी हो गई है
जूते हैं तस्मे नहीं
सपने हैं नींद नहीं

और यहाँ तक कि
खेत और बीज दोनों बंधक हैं

3.

प्रेम नितांत अकेला लाटा है
रोज़ सपनों में जंग जीत आता है
विस्मित है ख़ुद के प्रश्न से ही
कि नाग कौन है और कौन है विषहरिया

शब्द कितने बारीक अंतर पर खड़े हैं
डाका और डाक में बस अ का फ़ासला है
ऐसा ही अंतर
प्रेम और प्रेम के एकांत में भी होता है

भीतर दरके दीवार से
बिना टेर के रोशनी चिलकती है

निवाला मुँह में है
पर मन बासी है

हर बार लगता है
दर्द अपना चढ़ाव चढ़ चुका है
पर उसे एक और छलांग भरनी होती है
और मन एक कोड़े और खा लेता है

4.

मन को थिरने का जतन
ढूँढ रहें लोग
मन के ओर बढ़ने से ज़्यादा
दुनिया की सैर पर हैं

जंगल और शहर दोनों का डर
अपनी शक्ल बदल रहा है
दिल्ली पहुँचते- पहुँचते
यह विकराल हो जाता है

ये कौन सा कीड़ा है
जो भरे पूरे पेड़ को
फफूंदी में बदल दे रहा है

आशा के बिरवे
अंकुरण के पहले ही
मरे जा रहें हैं

हाशिया इतना फैल गया है
कि देखो
केंद्र बन गया है

5.

खेलना अच्छा होता है
उससे अच्छा होता है गोल मारना
और उससे भी अच्छा है
जीत कर गले लगाना

अस्थिर अवस्था में
भय और धुँध जुड़वा शक्ल के हो जाते हैं
जुड़वा होती है स्मित और फ़ुहार भी
परन्तु भयभीत स्मित इन सब पर भारी है

एक सोटी ही बदल देती है
आदमी को पशु में
निरीहता और निरीह लगती है यह पूछते हुए
कि ‘ युद्ध’ को ‘ महान युद्ध’ क्यों कहते हैं ?

6.

सिद्धि ज़रूरी है साधन नहीं
मंज़िल ज़रूरी है रास्ता नहीं
जंगल की बिसात शहर में बिछ गई है
जबकि मोहरा अपनी चाल भूल चुका है

हतक पहाड़ चढ़ रहा है
आदमी ज़मीन के भीतर धँसता जा रहा है
नज़रें या तो चीर दे रही है
या झुक कर बस बुझे जा रही है

रेत की तपन
चेहरे के पसीने में है
आना था फुहार को
जबकि छालों से पानी बहे जा रहा है

बर्तन से ज़्यादा माँजा जा रहा है दर्द
चोट देह के बजाय रूह पर है
चोटिल मन भटकते हुए सोचता है
राहत अब मृगतृष्णा है ?

7.

पंचतत्व में प्रबल
अग्नि ही अब सबकी आस है
जबकि देह से रक्त
और आँख से लोर ग़ायब है

आसमान नीला नहीं लाल है
पृथ्वी दूब नहीं काँटे उगा रही है

साँप और नेवला
दोनों भागते हुए ताकने लगते हैं
इंसान की फ़ितरत कौन सी है
भागते हुए पूछ रहे हैं

हाशिए की हालत
छाने हुए चायपत्ती जैसी है
गमले की मिट्टी के बदले
उन्हें नाली में बहाया जा रहा है

8.

अन्न हो या आदमी
पकने के लिए सीझना ही पड़ता है

ज्वालामुखी तो ज्वालामुखी है
चाहे सुप्त हो या जागृत
बस भीतर का लावा
अपनी स्थिति बदलता रहता है

हबकना और पचाना
दरअसल अलग- अलग मसला है

नादानी में उसने एक गलती कर दी
जंगल को बगीचा बनाना चाहा
अब वह ख़ुद
पूरा का पूरा जंगल है

9.

आँचल से लंबी होती जाती है
लाज़ का घूंघट
इस खराबे में
अंततः उसे भी उघड़ना ही पड़ता है

विपरीत छोर की अति भी
सीधी लकीर को वृत्त में बदल देती है
फिर वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं

आँख एक, चमकना अनेक
मौत का बासुकी हज़ारों फ़न लिए घूमता है
मूल्यों की भावमूर्ति बनाता है
और फिर तोड़ देता है

चाँद की तरह
रोज़ शक्ल बदल रहे हैं लोग
और साथ में चेहरे की रोशनी भी
पर अंधेरा सबको आकर्षित कर रहा है

सबकी आँख की चमक
पानी के साथ कम हो रही है

पर्दा अभी आधा गिरा या उठा हुआ है
किसी को पता नहीं
पुलिस और डाकू में अंतर घटता जा रहा है
आदम प्रयाग की तरह रंग बदल रहा है

10.

नदी कहीं ज़मीन काटती है
तो कहीं निर्माण भी करती है
भावना का बहाव
मन की ज़मीन दोनों ओर से काटता है

लगता है
सबकुछ हम स्वयं कर रहे हैं
पर डोर कोई और खींच रहा होता है
और भ्रम मतिभ्रम में बदल जाता है

जिस दिन आँख खुलती है
आँख पलटी हुई पायी जाती है …

इन सब के बावजूद

धुँध छटना तय है
दोनों पक्ष के चेहरे एक से हो गए हैं
पुजारी और ईश्वर दोनों
एक दूसरे को ताक रहे हैं
पीछे से सूरज उग रहा है
अंधेरा चाँद के पीछे दौड़ रहा है
इन सबके बीच उसने जाना
सूरज का बारहा उगना ही
शाश्वत सच है…

 
      

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