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किंशुक गुप्ता की कहानी ‘ज़ी-होश’

युवा लेखकों में किंशुक गुप्ता की कहानियों ने कम समय में ही सबका ध्यान आकर्षित किया है। वे नई संवेदनशीलता के साथ आये हैं और हिन्दी कहानी में एक नई लकीर खींच रहे हैं। आज पढ़िए उनकी कहानी जो वैसे तो ‘हंस’ पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है लेकिन अधिक पाठकों तक पहुँचाने के लिए इस कहानी को हम फिर से प्रकाशित कर रहे हैं। आप भी पढ़ सकते हैं-

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यह छठी बार था जब विवेक ने झुंझलाकर डॉक्टर के कमरे के बाहर बैठे गार्ड से बड़की को जल्दी दिखाने की बात कही थी। गार्ड ने उसकी तरफ़ देखा नहीं था। कैंडी क्रश खेलते हुए उसी लहज़े में दोहराया था—अगर ज्यादा जल्दी है तो प्राइवेट में जाकर दिखा। यहां तो मरीजों को लाइन से ही देखा जाएगा।

विवेक का मन था कि वह उस गार्ड का कॉलर पकड़ ले। पर कर क्या सकता था। बड़ा हस्पताल दस किलोमीटर दूर था और प्राइवेट दिखाने की उसकी हैंसियत नहीं थी। वह फिर से एल्यूमीनियम की कुर्सी पर आकर बैठ गया। डॉक्टर के कमरे के आगे लगा भूरे फ्रेम में जड़ा सुनहरे पट्टी वाले रामदरबार का चित्र देखकर उसे हिम्मत मिली। साथ ही बहुत सारी औरतें बैठी थीं। ढीले-ढाले सूट पहने। कागज़ों का पुलिंदा पकड़े। सबके पेट ऑटो के पहिए की तरह फूले हुए।

दर्द से कराहतीं। इमरजेंसी वाले डॉक्टर ने एक सफेद डंडी देखी और उसे महिला विभाग में भेज दिया। उसने तो कहा भी था कि बड़की पेट से नहीं है। उनसे कोई गलती हुई है। पर भीड़, शोर और धक्कामुक्की में उसकी आवाज़ दब गई।

अबकी बार जैसे ही कोई डॉक्टर आएगा, वह सीधा उससे बात करेगा। उसने बड़की पर बोतल में बची पानी की बूंदें छिड़की। बड़की को फिर होश आया। वह फिर चाय…चाय… बुदबुदाई। विवेक मन ही मन खुश हुआ। बड़की उसकी कितनी परवाह करती है।

तभी जूड़े में दो रुपए वाला पेन खोंसे डॉक्टर कमरे से बाहर निकली। ऑफ़ व्हाइट रंग के सैंडल ठकठकाती। हाथों ने बेतरेतीब कागजों को देखकर कुछ बोलती हुई। उसके पीछे-पीछे एक सफेद कोट पहने जूनियर डॉक्टर भी निकला जिसकी जींस फटी थी, पैरों में स्नीकर्स थे और आंखों पर मोटे फ्रेम का काला चश्मा था। विवेक डॉक्टर के पीछे हो लिया।

“डॉक्टर साहब…डॉक्टर साहब…” वह फुसफुसाया।  दोनों डॉक्टरों ने उसे अनसुना कर दिया।

डॉक्टर साहब…डॉक्टर साहब…उसने हिम्मत कर आवाज़ बढ़ाई। अब भी वे रुके नहीं।

डॉक्टर साहब…डॉक्टर साहब…अबकी बार वह अपनी सामान्य आवाज़ में बोला। दोनों डॉक्टर रुक गए। वह उनकी ओर लपका। हांफता हुआ बोला, “बड़की तब से बेहोश पड़ी है। आप देख क्यों नहीं रहे?”

डॉक्टर पीछे मुड़े। उसे तीखी आंखों से तरेरा। “आप देख लेंगे…तो अच्छा होगा।”

“पहले क्यों नहीं बताया? मरीज़ तुम्हारा, तो ध्यान भी तुम ही रखोगे। हमारे पास तो छत्तीसों ऐसे मरीज़ पड़े रहते हैं,” डॉक्टर ने तुनक कर कहा। “तुरंत मरीज़ को यहां लेकर आओ। सिस्टर जी इनके पेशेंट को एन. एस. लगाओ। इंटर्न को भेजकर बी. पी. करवा दो। मैं अभी लेबर रूम से आकर चेक करता हूं।” विवेक को राहत महसूस होनी चाहिए थी पर डॉक्टर का यूं बिना देखे बोलते जाना उसे ऐसा लगा जैसे किसी ने अचानक उसके कपड़े फाड़ दिए हैं।

क्या हुआ अगर वह बैटरी रिक्शा चलाता है? खुद कमाकर खाता है। रिंकू और बड़की को किसी चीज़ की कमी नहीं होने देता। रिंकू को अच्छे स्कूल में पढ़ाता है। बड़की का मनचाहा ऑटो खरीदने के लिए रुपए इकट्ठे कर रहा है। वह वो सब कुछ करता है जो एक अच्छे पति को करना चाहिए। राम भगवान जैसे पति को करना चाहिए। फिर भी…

तभी बड़की की चाय…चाय की रट उसके कानों में पड़ी जिसे उसने अपने नंगे बदन पर गमछे की तरह ओढ़ लिया।

जूनियर डॉक्टर ने जब पहली बार उसकी तरफ देखा तो उसे ऐसा लगा जैसे बोहनी वाली सवारी बिना झिकझिक किए मुंहमांगा किराया दे जाए।

“क्या हुआ था…ढंग से बताओ…” जूनियर डॉक्टर ने माथे पर आए पसीने को पोंछते हुए पूछा।

“सुबह से बेहोश पड़ी है। मैक्सी पर खून की लकीर है…यह देखिए…दो-चार धब्बे भी हैं। नहीं तो सुबह छह बजे से उठ जाती है। मैं तुरंत यहां ले आया।”

“क्या नाम है इसका…बड़की उठो। उठो बड़की…आंखें खोलो…बताओ क्या हुआ?” जूनियर डॉक्टर छाती के बीच की हड्डी को मुट्ठी से दबाता बोला।

बड़की को होश आया। विवेक को लगा था कि बड़की फिर चाय-चाय दोहराने लगेगी। जैसे ही ऐसा होगा वह डॉक्टर को धक्का देकर तुरंत बड़की के पास जाएगा। माथे को सहलाता हुआ कहेगा—बड़की…तू फिकर मत कर। मैंने कब की चाय पी ली है। एक गर्व-भरी नज़र सामने बैठे आदमियों पर डालेगा जो अपनी बीवियों के साथ बैठे हैं। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। इस बार उसके मुंह से रघुबीर निकला। फिर ऑटो-ऑटो-ऑटो। वह सकपका गया। सामान्य से दोगुनी आवाज़ कर वह चिल्लाने लगा—बड़की आंखें खोले रखो…सोना नहीं…आंखें खोलकर रखो…

पर आंखें मिचमिचाती बड़की अपना सिर लट्टू की तरह इधर-उधर घुमाती फिर बेहोश होने लगी थी। डॉक्टर ने उसकी आंखों को नीचे करके देखा। फिर विवेक को घूरा, “सारे रुपए दारू-सुट्टे में उड़ाएगा तो बीवी तो बेहोश होगी ही। कितना कम खून है।”

“बीड़ी…दारू…मैं…नहीं…स्कूटर…डॉक्टर के शब्द पहली बार मुंह में दबाई खैनी की तरह उसके होंठ पर घाव कर गए।

“पहले टेस्ट करवाओ। एक बोतल खून भी चढ़ेगा। वैसे

कितने महीने हो गए?” डॉक्टर कागज़ पर कुछ लिखने लगा।

“मतलब?”

“कितने महीने का बच्चा है?”

“हैं…नहीं…नहीं…सर बच्चा कहां से आया?”

“पी-वी रखी है क्या?” डॉक्टर ने बड़की के पेट की ओर देखते हुए कहा।

उसने लाल मैक्सी के पतले कपड़े के नीचे के पेट के उस हल्के उभार को देखा जिसकी डॉक्टर बात कर रहा था। उसे लगा जैसे वह बड़की मे पेट को कितने दिनों बाद देख रहा है। क्या ये मोटापा नहीं…हो सकता है गैस हो गई हो? लेकिन बच्चा…कॉपर-टी…कंडोम…रघुबीर…जब तक वह आगे बोल पाता, डॉक्टर ने अल्ट्रासाउंड का पर्चा उसके हाथ में थमा दिया था। “जाओ ये जांच करवाकर आओ।”

उससे कुछ जवाब देते नहीं बना। सफेद सूट पहने नर्स को, जिसकी रुक्षता को गाल का काला मस्सा जतला रहा था, पर्चा दिखाते हुए उसने पूछा, “टेस्ट के लिए बोला है।”

“हां तो मैं क्या करूं? जाओ बाहर से करवा कर आओ।” वह दस्ताने उतार रही थी।

“यहां नहीं होते?”

“थोड़े पैसे खर्च कर लोगे तो कुछ बिगड़ नहीं जाएगा।”

“जी जी…” वह गिड़गिड़ाता बच्चा उसकी आवाज़ में लौट आया था।

एल्यूमीनियम का गोल हैंडल खींचकर जब वह बाहर निकला, उसके दिमाग में महिला का चेहरा था। साथ ही बड़की का। बेचारा उसका पति। कैसे झेलता होगा ऐसी जबर औरत को। उसके पति की बेचारगी और अपनी खुशनसीबी का मरहम उसने अपने घायल आत्मविश्वास पर लगा लिया।

बाहर काला डंडा पकड़े मुच्छड़ गार्ड से बात करते हुए उसे लगा जैसे वह अपने पाले में वापिस आ गया है। “यहां किसी को बोलने की तमीज़ ही नहीं। खैर छोड़ो…एल्ट्रासोंड इस अस्पताल में नहीं होता?”

“अल्ट्रासोंड है सामने की बिल्डिंग में…पर एक ही मशीन है और एक ही डॉक्टर साहब हैं…एक महीने की डेट मिलेगी।” गार्ड की आंखों में अचानक कुछ चमका था, “हां, पर डॉक्टर साहब मेरे अच्छे जानकार हैं।”

विवेक सब समझ गया था। मन में खीझ उठी कि एक तरफ़ देश के प्रधानमंत्री हैं जो सिर्फ़ चार घंटे सोकर देश की सूरत बदलने में लगे हैं और दूसरी ओर इतने-पढ़े लिखे डॉक्टर इस तरह से सरकारी हस्पताल में भी पैसे ऐंठना चाह रहे हैं। तब यूनियन के लोगों को क्या गलत ठहराए जो रघु की हर महीने की फीस छोड़ देते हैं।

“पर सरकारी हस्पताल में तो सब कुछ मुफ़्त होना चाहिए।”

“सब फ्री चाहिए तो भाई इंतजार से क्या घबराना…डटे रहो…आज नहीं तो कल कामयाबी ज़रूर मिलेगी।” मसखरी के अंदाज़ में गार्ड बोला।

“पर मेरे मरीज़ को तो अब जरूरत है।” विवेक खिंसिया गया था।

“तुम जानो…तुम्हारा मरीज़ जाने।”

विवेक टका-सा चेहरा लेकर खड़ा रहा। उसने सामने दीवार पर लगा रामदरबार देखा। उसे हिम्मत मिली। सागर में सब ने मिलकर एक-एक पत्थर तैराया था। तभी सेतु का निर्माण हुआ था। क्या हुआ अगर डॉक्टर अच्छे दिनों का सपना साकार होते हुए नहीं देखना चाहता? वह इस महायज्ञ में अपनी आहुति देगा। ज़रूर देगा। वह एल्ट्रासोंड बाहर से करवाएगा।

बड़की की ट्रॉली तक आने में जिस बात ने उसे क्षणिक स्वाभिमान से भर दिया था, रुपयों के ख्याल ने उसे टायर की तरह पिचका दिया। उसने आसपास के लोगों से नज़र बचाकर पैंट के अंदर की चोर जेब से पर्स निकाला। उसकी मोटाई को दो अंगुलियों के बीच दबाकर देखा। इतना पतला था कि लगता ही नहीं था कि अंदर कुछ हो भी सकता है।

उसने पर्स खोला। एक पांच सौ का नोट। बाकी कितने सारे तुड़े-मुड़े दस और बीस के नोट। कहां गया वह दो सौ रुपए का नोट जो कल लाजपत वाली सवारी ने दिया था? याद आया कल रिंकू के लिए सेब लेते वक्त तुड़वा लिया था। सब जोड़ के छह सौ…साढ़े छह सौ होंगे। सारे एल्ट्रासोंड में खर्च कर दिए तो बाद में कैसे काम चलाएगा?

बड़की को धीरे-धीरे होश आने लगा। उसकी पलकें हिलीं। हाथों में हरकत हुई। विवेक को हिम्मत मिली। वह पानी-पानी बुदबुदा रही थी। तुरंत वह सामने लगे वॉटर कूलर से पानी भरने गया।

वहां तीन रंग के बटन थे। सीधी तरफ लाल, बीच में हल्का नीला और सबसे उधर गहरा नीला। उसने पहली बार कुछ ऐसा देखा था। पीने का पानी किसमें आता है? उसने चारों तरफ़ नज़र घुमाई पर कोई नहीं दिखा। कुछ सोचकर उसने लाल वाला बटन दबाकर बोतल नीचे टिका ली।

तेज़ गर्म पानी निकला। बोतल में जाते ही प्लास्टिक सिकुड़ने लगा। उसे डर लगा कि कहीं बोतल पिघल न जाए। उसका हाथ कांपने लगा और पानी की बूंदे उसकी हथेली पर गिर गईं। बोतल उसके हाथ से छूट गई।

उसका हाथ चरमरा रहा था। तभी वहां सफेद सूट में सफाई कर्मचारी दिखाई दिया। नीचे गिरी बोतल से गुड़-गुड़ बहता पानी, विवेक का दयनीय चेहरा, हाथों का काला रंग—सफ़ाई कर्मचारी सब कुछ भांपने के बाद ऊंची आवाज़ में गुर्राया, “कैसे-कैसे लोग आ जाते हैं…अबे हट…अब फिर पोंछा लगाना पड़ेगा…।”

“जबान संभाल के… पता है मैं कौन हूं…शर्मा…शर्मा…” उसने शर्मा इतनी बार दोहराया जैसे दोनों हथेलियों के बीच चपटा होने से पहले मक्खी दलील दे कि मारने वाला का खून भी उसकी धमनियों में है।

“क्या करेगा? अभी गार्ड से बाहर धकियाता हूं।” सफाई कर्मचारी की आवाज़ जैसे रघुबीर के ऑटो का हॉर्न। जब कभी सुबह उसके हॉर्न की आवाज़ सुनाई पड़ती, उसकी ऐड़ियों में दर्द चींसें मारने लगता। बिल्कुल वैसा ही दर्द उसे अपनी छाती के बीचोंबीच महसूस हुआ। कितनी आसानी से समाज की तलवार उसके सारे कवच को भेदती जा रही थी। सामने की दीवार पर सी.सी.टी.वी. कैमरा लगा था। नीचे चिपके पोस्टर में प्रधानमंत्री की आदमकद तस्वीर थी। उनके चेहरे पर मुस्कान थी। नीचे मुफ़्त इलाज़ का कोई जुमला था। अचानक उसके गले में रुलाई का गोला बन गया। कैसे लोग…कैसे लोग…कैसे लोग…शायद वैसे लोग जिनका कोई दिन न अच्छा है…न हो सकता है।

सामने देखा तो बड़की ट्रॉली के किनारे पर झूल रही थी। “बड़की…बड़की…” उसने भागकर बड़की को संभाला। बड़की को गले लगाकर उसने अजीब-सी राहत महसूस की।

सिलबट्टे-सी निष्ठुर बड़की उसी स्थिति में बैठी रही। कुछ महीनों के लिए उसका जीवन एक खेत था। रघु लहलहाती फसल था। विवेक भूरी, स्थिर, उपजाऊ मिट्टी। यह बच्चा उसके पेट में उसी तरह आया था जैसे सूरज के उदात्त चुम्बन से बाली में गेंहू का दाना उपजता है।

“मैं कितना डर गया था…रिंकू ने रो-रोकर सारा घर सिर पर उठा रखा है।” विवेक उसे कसकर भींचे हुआ था। विवेक का हर शब्द हकीकत था। चिंगारी था। खेत ने आग पकड़ ली थी। आग धधक रही थी। सब कुछ राख हो रहा था। ऑटो जा चुका था। रघु जा चुका था। विवेक कुछ घंटों में जाने वाला था। जिसे वह बचा सकती थी। पर जिसे वह बचा नहीं पा रही थी।

4.

विवेक गार्ड के पास दोबारा गया। सिर तराजू की तरह झुका हुआ। ढुलमुल शरीर। मुंह में शब्द बनते रहे। मरते रहे।

“यहां क्यों खड़ा है? ट्रॉली जल्दी वापिस लाकर दे…बाकी मरीजों को भी चाहिए।”

“गरीब हूं…रिक्शा चलाता हूं। आपकी बड़ी मेहरबानी होगी…”

“आ गई अकल ठिकाने…”

वह वैसे ही खड़ा रहा।

“नीचे गार्डन में एक लाल शर्ट वाला आदमी मिलेगा।” फिर पांच अंगुलियां दिखाते हुए, “उसे इतने दियो। वो अपने आप पर्चा बनवा देगा।”

“देख लो…गरीब आदमी हूं।”

“तुम लोगों की यही दिक्कत है…चल साढ़े चार दे दियो…चार से एक रुपया कम नहीं होगा…समझ क्या रखा है…इससे कम…सवाल ही पैदा नहीं होता…नहीं तो बाहर से करवा ले।”

5.

लिफ्ट में विवेक बड़की का हाथ पकड़े खड़ा रहा। बड़की के सीधे हाथ पर अंग्रेजी में लिखा शाहरुख के नाम का टैटू काले से हरा पड़ने लगा था। उसका ध्यान बिछिया पर गया। बड़की और बिछिया…यह कब हुआ? जिस बड़की को वह जानता था उसे तो बिछिया से सख़्त ऐतराज था। “एकदम जकड़ा हुआ महसूस करती हूं।” उसने शादी के अगले ही दिन कहा था। एक आदर्शवादी पति की तरह उसने समझाया था, “मेरे सामने कोई ज़रूरत नहीं…जा दी तुझे छूट…पर मेरे परिवार वालों के सामने कोई कोताही नहीं…”

वह उससे बच्चे के बारे में पूछना चाहता था पर ऐसी नाज़ुक हालत में सीधा पूछना भी उसे ठीक नहीं लग रहा था। “कल रात तक तो तुम ठीक थीं…फिर अचानक…?” उसने बड़की के बाल सहलाते हुए पूछा।

“पता नहीं…दो तीन दिन से जी खूब कच्चा है। परसों उल्टी भी लगी थी।” बड़की बमुश्किल जवाब दे पाई। “ठंड लग गई होगी। ड्रिप तो चढ़ गई है। थोड़ा आराम करूंगी तो ठीक हो जाऊंगी।”

“डॉक्टर साहब ने तुम्हारा खून भी कम बताया है। फिर जब आज की ध्याड़ी खराब हो ही गई तो जांच भी करवा लेते हैं।”

“ये जांच-वांच का क्या फायदा? यूं ही रुपए खराब होंगे।” फिर बड़की ने लचड़ाते हुए कहा, “अगर मेरे ऊपर ज्यादा रुपए लुटाने का ही शौक है तो मुझे एक नई साड़ी दिलवा दो।”

“नहीं…बात कुछ और भी हो सकती है। ये खून देखो…”

बड़की सकपका गई। उसने अपने हाथ में मैक्सी का खूब सारा कपड़ा खोंस लिया ताकि वह दाग किसी तरह छिप जाए। कल शाम जब रघुबीर ने माफ़ी मांगी उसके घंटे बाद ही पेट में मरोड़ उठने लगे। जैसे कोई तौलिए की तरह निचोड़ रहा हो। ऐसा रिंकू के समय हुआ था। फिर जांघों के बीच से खून रिसने लगा। पहले टप-टप-टप। फिर लकीर बनाता। तभी एक टुकड़ा गिरा। उसने पागल कुत्ते के पंजों की तरह हाथ बढ़ाकर उसे थामना चाहा। उसके हाथ आया भी, उसने मुट्ठी में दबोचना चाहा भी, पर चिपचिपा होने के कारण छूट गया। नाली की तरफ़ घिसटता देख उसका सिर घूमने लगा। कान में टन-टन-टन घंटी बजने लगी। घुटने रबड़ के हो गए। उसने चीखकर विवेक को बुलाना चाहा पर जानती थी पूरी ताकत के बावजूद उसकी आवाज़ टी.वी. पर चलते रियलिटी शो से ज्यादा नहीं हो सकती। टोंटी को पकड़ने के लिए जैसे ही वह बढ़ी, बेहोश हो गई।

वह मरना चाहती थी। मर सकती थी। पर उसकी इच्छा मूली के मुरझाए पत्तों-सी थी। इसलिए बच गई। होश आया तो देखा साड़ी ने दायित्व अनुसार उसकी इज्ज़त बचानी चाही थी, खून सोंखा था, पर कपास की अपनी क्षमता थी। पानी और खून। खून और पानी। तीखी गंध। जगह-जगह छितराए गोल बेढब टुकड़े। कत्थई लाल। खुरंट जैसे काले और चपटे। बेहोशी की सफेद झिल्ली से वह सारे टुकड़े देखती। ये शायद पैर बनता…ये हाथ…ये मुंह में बदल सकता था। उसने हत्या की है। एक नहीं, डेढ़ हत्या। उसने इंसान नहीं, इंसान होने की संभावनाओं को खत्म कर दिया है। कोई कैसे इतना ज़ालिम हो सकता है कि अपने बच्चे को जान से मार दे। सामने पड़ गया तो उसका सिर फोड़ दूंगी…थापी से मार-मारकर भरता बना दूंगी…

“ये देखो…कपड़ा छोड़ो। देखो…ये रहा।”

“क्या कर रहे हो…लोग देख रहे हैं…शायद महीना है…”

महीने की बात सुनते ही विवेक ने मैक्सी का सिरा ऐसे छोड़ा जैसे कोई छिपकली की पूंछ। विवेक को बड़की की बातों पर विश्वास हो रहा था लेकिन उसके शक का समाधान केवल जांच में था। “तुम्हें क्या चिंता है जब मेरे पैसे खर्च हो रहे हैं?”

“सारिका भाभी जी कह रही थीं इस बार की मेरी तनख्वाह तुमने ले ली।”

“और क्या…नहीं तो तुम पिछले बार की तरह उड़ा नहीं देती…वैसे तुमने अब तक नहीं बताया तुमने इतने रुपयों का क्या किया? पिछले महीने क्या तुम सिर्फ पंद्रह दिन काम पर गईं थीं? भाभी जी कह रही थीं पिछले दो-तीन महीने से तुम ज्यादा छुट्टियां करने लगी हो…”

“मैं दो तीन महीने से कितनी बीमार हूं। मैं तुम्हें नहीं बताती क्योंकि तुम परेशान होंगे…”

“मुझे क्यों बताओगी जब रघुबीर है…”

विवेक की आवाज़ में निराशा से बड़की का दिल पसीज गया। विवेक शाहरुख की तरह रोमांटिक न भी हो पर उससे सच्चा प्यार करता है। ट्रू लव। कितनी परवाह करता है। उसके ईलाज पर कितना पैसा खर्च कर रहा है। क्या वह उसके सामने रघु को दो-चार गाली देकर उसे खुश नहीं कर सकती? पर मुंह से तो कुछ और ही निकला। “अरे नहीं…रघु से….मेरा मतलब है रघुबीर भाई साहब से कहां ही बात होती है…दिन-भर तो बाहर ही रहते हैं…परसों कह रहे थे अब रात में भी ऑटो चलाएंगे।”

“ये रात को चलने वाले तो लोगों को ठगते हैं।”

“तुम्हारा फटफटिया रिक्शा तो रात में चल भी नहीं सकता।” बड़की ने मन में सोचा पर अपना चेहरा सम बनाए रखा।

उसके चेहरे पर प्रतिक्रिया न देखकर विवेक बौखला गया। “मैं तो सोच रहा हूं मकान मालिक से बात करूं। दो दिन पहले कूड़े में हड्डियां पड़ी थीं। बेशर्मी की हद है…”

“तो क्या हुआ…उन्हें ताकत चाहिए। पैरों में दर्द होता है। बारी-बारी से दोनों पैर सीट पर रखकर चलाते हैं। कह रहे थे नसें फूलने लगी हैं।”

“जैसे मेरे पैर तो लोहे के हैं। उसकी तो नई सीट भी लैदर की है। मेरी सीट का रेक्सीन तक घिस गया है। मैं तो फिर भी नहीं खाता…जिसे खाना है वह खाए…मैं मना नहीं करता…लेकिन मंगलवार को तो छोड़ भी सकता है…”

बड़की ने फिर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। कुछ देर की चुप्पी के बाद वाह अचानक बोला, “बस…ज्यादा बहस नहीं…जांच तो करवानी ही है।” विवेक नहीं जानता कि वह खुद बोल रहा था या उसका शक।

लिफ्ट से निकलकर दोनों अल्ट्रासाउंड सेंटर की बिल्डिंग की तरफ़ गए। आमने-सामने की दीवार पर ए.सी. में हरे रंग से लिखा पच्चीस चमक रहा था। सामने की नीली तख़्ती पर सूचना लिखी थी—जन्म से पहले गर्भ निर्धारण दंडनीय अपराध है। बड़की को बेंच पर बिठाकर विवेक पार्क की तरफ़ हो लिया।

विवेक चोर कदमों से पार्क की तरफ़ बढ़ने लगा। हर सी.सी.टी.वी. कैमरे से बचता। हर रामदरबार से आंख चुराता। उस बड़े-बड़े पोस्टर को अनदेखा करता जिस पर प्रधानमंत्री की आदमकद तस्वीर लगी थी। वह यही दोहराता जा रहा था कि बड़की के पेट में बच्चा नहीं हो सकता। नहीं हो सकता। नहीं हो सकता। नहीं हो सकता। डॉक्टर से ही कोई गलती हुई है। बड़की अपनी मर्यादा जानती है। उसे रामदरबार में कमल पर खड़ी, लाल साड़ी वाली सीता याद आई।

रिंकू के पैदा होते ही उसने कॉपर-टी लगवा दी थी। उसकी इजाज़त नहीं ली तो क्या हुआ। उसी ने तो बिछिया-लौंग न पहनने की छूट दी थी। क्या वह उसके लिए ज़रा-सा दर्द नहीं सहन कर सकती। वैसे भी हर महीने खून बहता ही है थोड़ा बहुत और बह गया तो क्या? फिर ज्यादा फायदा तो उसका ही है। पहले लड़के के बाद कौन-सा पति सोचता है कि एक ही बच्चा काफ़ी है। उल्टा सरकार तक हम दो, हमारे दो की सलाह देती है। कैसे उसके सारे दोस्त दहाड़ मारकर हंसे थे।जोरू का गुलाम कहकर चिढ़ा रहे थे। फिर भी वह बड़की के साथ खड़ा रहा…तब क्या बड़की ने उससे बिना पूछे कॉपर-टी निकाल दी…कहीं इसी में तो पिछले महीने की तनख्वाह उड़ा दी…नहीं…ऐसा मुमकिन नहीं…

लाल शर्ट में पेंसिल मूंछ वाले आदमी ने उसे दूर से ही देखकर हाथ हिलाया। वह विवेक की तरफ़ बढ़ने लगा। विवेक का दिल जिब्राल्टर हो गया। हथेलियां भीग गईं। मन किया की पार्क में सीधा जाने की बजाए कहीं दांए-बांए मुड़ जाए। फिर वह आदमी उसका नाम पुकारने लगा। खिसियानी हंसी हंसता वह वहीं जम गया।

लाल शर्ट वाले आदमी के चेहरे पर डर का लेशमात्र तक नहीं था। तुरंत हंसकर पूछने लगा, “भाभीजी कहां हैं?”

उससे कुछ बोलते नहीं बना। उसने सेंटर की तरफ़ इशारा कर दिया।

कुछ क्षण दोनों एक-दूसरे की आंखों में देखते रहे। विवेक ने अपनी जेब में हाथ डाले रखा और बोगनविला की घनी झाड़ी के पीछे सरकता चला गया।

जब उसे विश्वास हो गया कि कोई नहीं देख रहा, उसने पर्स खोला। पांच सौ का नोट उस आदमी की तरफ़ बढ़ाया। फिर तुरंत हाथ पीछे खींच लिया। “तुरंत तो हो तो जाएगा न?”

“ये पर्चा गार्ड को दिखा देना और डॉक्टर साहब को यह नीला टोकन।” उसने विवेक के हाथ से नोट ऐसे खींचा जैसे बिजली का हाईवोल्ट करंट।

सेंटर की तरफ़ जाते हुए विवेक के मन में संशय की उद्धत आवाज़ का कोलाहल था। उसे जांच नहीं करवानी चाहिए। फ़ज़ूल के खर्च का क्या फायदा। जांच में वैसे भी कुछ नहीं निकलने वाला। नहीं…नहीं…नहीं…पर निकल गया तो? तब क्या करेगा? किस गड्ढे में अपना चेहरा छिपाएगा? हर तरफ़ खिल्ली नहीं उड़ जाएगी? बड़ा बन रहा था राम जैसा आदर्श पति…पत्नी पर कोई रोक नहीं…बाहर काम करने की पूरी छूट…जन्मदिन और सालगिरह पर नए-से-नए तोहफ़े, साड़ियां, गहने…सब कुछ तो वह करता है…क्या उसका इतना प्यार बड़की के काफ़ी नहीं पड़ा होगा…नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।

सड़क की सफेद पट्टियों में उसे रघुबीर दिखाई दिया। उसके घने बाल। उंगली में पुखराज। कानों में गूंजती भारी आवाज़। उसने कभी उसका चेहरा ढंग से नहीं देखा। कभी उसके बाज़ू की मछलियां देखीं। कभी कसी जांघें। कभी रघुबीर वह ऑटो था जिसके पीछे अंबेडकर का चित्र चिपका था। कभी केवल एक मुट्ठी जो उसे चुनौती देती।

उसने देखा था किस तरह ऑटो आने के बाद बड़की हर रोज़ कुछ-न-कुछ मीठा बनाती। सबसे पहले एक डिब्बे में अलग से निकालती जो रघु के लिए ऊपर लेकर जाती। जब उसने एक दिन देख लिया था तो कितनी लड़ाई हुई थी। राम भगवान के भोग से पहले…और वह भी उस आदमी के लिए…धर्म भ्रष्ट करने का इरादा था क्या… कितना रगड़-रगड़ कर उसने बर्तन धोया था और उसमें बिल्ली को दूध दिया था। उसे कितना सुकून महसूस हुआ था।

पर बड़की नहीं मानी। जब दूसरी बार उसने यह चोरी पकड़ी, वह तमतमा गया। मुझसे बिना पूछे…माना तुम्हें छूट दे रखी है…पर इसका ये मतलब नहीं कि तुम बेवजह लिफ्ट लिए जाओ…एक-आध बार की बात अलग होती है…तुम जानती हो मैं जाति-वाती में बिल्कुल विश्वास नहीं करता…लेकिन हर रोज़…वो भी उन्हीं बर्तनों में जिनमें हम खाते हैं…

तीसरी बार फिर वही गलती…सटाक…जब कह दिया तो कह दिया…अब से घी का डिब्बा ताले में रहेगा…हर रोज़ आधा चम्मच मिलेगा…मैं तुम्हारी बात ऊपर रखता हूं क्योंकि मैं तुम्हें प्यार करता हूं…तुम्हारी इज़्जत करता हूं…सीता माता को देखो राम भगवान ने कह दिया वन में चली जाओ तो उनका हुक्म सिर आंखों पर…क्या कहा सीता कमाती नहीं थीं…पहली बात तो मां कहो…और यह कमाने की धौंस मुझे मत दिखाओ। मैं नहीं चाहता कि तुम काम करो तो ठेंगा तुम काम कर पातीं…वैसे भी तुम कितना ही कमाती हो? बस सात हज़ार रुपल्ली, तुमसे दुगुगा लाता हूं मैं…इस कायदे से भी मेरी ही चलेगी, समझी?

एक महीने में यह तीसरी बार था। उस रघुबीर ने ऐसा क्या जादू किया कि मुर्गी जैसी उसकी घरघुस्सू बीवी पर कि उसके बिल्ली जैसे पंजे उग आए थे। क्या ये बस ऑटो का जादू था या कुछ और…

सेंटर के अंदर जाते हुए उसने डेट डलवाने के लिए लगी लाइन देखी। बेतहाशा लंबी। सड़क तक जाती हुई।

उसने मुट्ठी में बंद नीले टोकन को घूरा। धूप की रोशनी में उसके सुनहरे अक्षर झिलमिलाए। यही थी रुपए की कीमत।

7.

कुर्सी पर बैठते ही बड़की का पेट दोबारा ऐंठने लगा। चेहरा विकृत हो गया। उसने विवेक को पुकारना चाहा पर जीभ को रघु कहने की उतावली थी। रह-रहकर गन्ने का जूस याद आता। रघु ने ज़रूर उसमें कुछ मिलाया था। बार-बार गले में उंगली डालकर उबकाई लेने का मन होता। पर रघु…उसका रघु…उसका अपना रघु… कैसे?

वह बाहर जाते हुए विवेक को घूरने लगी। उसका गेंहुआ रंग। हल्की दाढ़ी। तनी हुई मूंछ। चेहरे पर गोभी के फूल जैसी कोमलता। वह रिंकू और उसका कितना ध्यान रखता है। मुंह से बाद में निकलता है, चीज़ पहले हाज़िर कर देता है। जब से रिंकू स्कूल जाने लगा है, तब से सुबह कितनी जल्दी निकल जाता है और देर रात तक रिक्शा दौड़ाता रहता है।

और वह? शिकायतों का पिटारा। न जाने कितने सालों से ऑटो खरीदने का दबाव बना रही थी। लगभग हर रोज़ उलाहना देती कि तुम्हारा बैटरी वाला रिक्शा तो इतना धीरे चलता है कि कोई पैदल चलकर भी तेज़ पहुंच जाए। और धचके तो इतने की पीठ का तख्ता बन जाए।

विवेक को कभी ‘पंजड़ी’ बुलाती, कभी दस कुमार कहकर चिढ़ाती। किसी भी शहर से बैटरी रिक्शा बंद होने की बात सुन लेती तो खुश हो जाती। आंख नचाकर कहती देख लेना कभी भी बंद हो जाएगा। फिर बेचने पर भी ठेंगा मिलेगा। रिंकू से बार-बार पूछती—तुम्हारे पापा क्या करते हैं? रिक्शा…नहीं बेटा…रिक्शा तो वो पैडल मारने वाला होता है…नहीं ऑटो…ऑटो।

मोहल्ले की शादी में ऑटोवाले ग्रुप की औरतों का पीछा न छोड़ती (जिन्हें उसकी गोरी त्वचा की ज़रूरत थी) और अपने जूड़े को बार-बार ठीक करती रिक्शे वाले ग्रुप को चेहरा सिकोड़कर देखती। ज़ोर-ज़ोर से बोलती—इन्होंने सारी सड़कों का कबाड़खाना कर रखा है…कहीं भी मोड़ देंगे, कहीं भी रोक लेंगे…इनके चक्कर में कितने एक्सीडेंट होते हैं। जैसे ही बात की सुई उसकी तरफ़ घूमती तुरंत जोड़ देती—अरे बस शोरूम में मॉडल पसंद कर आए हैं। बस लाने की देर है।

देर होते-होते इतनी हो गई कि घर के ऊपर किराए पर रहता रघुबीर रिक्शा बेचकर ऑटो ले आया। चटक हरा और पीला ऑटो। जब रघुबीर ने ऑटो की पूजा के लिए बुलाया तो उसे लगा जैसे आसमान से वाशिंग मशीन टपकी है। सतिया बनाते हुए उसने पीले रेक्सीन को इस तरह छुआ जैसे रिंकू की मुलायम त्वचा हो। उसके लिए रघुबीर का मतलब ऑटो था। वह अपनी एक अकेली जींस पहनकर, काला चश्मा लगाकर, कानों में लश-लश चमकते टॉप्स पहनकर, अपने दोनों हाथ खोलकर पूरी सीट पर फैलकर बैठती। कांच के शीशे से दिखती सड़क धुंधली होती जाती। ऑटो ज़मीन से ऊपर उठने लगता। वह चारों तरफ़ कपास के दूधिया सफेद, गुदगुदे बादलों से घिरती जाती। कानों में गाना बजने लगता तुझे देखा तो ये जाना सनम…उसे लगता रघुबीर अभी मुड़ेगा और दोनों साटन के सफेद चमकते कपड़ों में होंगें और रोमांटिक वाला डांस करेंगे। जिसके अंत में किस होगा। लंबा-सा। उत्तेजना-भरा। जो उसका हक है। जैसा शाहरुख ने मनीषा को किया था। जैसे विवेक ने उसे कभी नहीं किया।

समझ ही नहीं पाई कब इच्छाओं की तेज़ आंच ने उसकी धीमी आंच पर पकती गृहस्थी को राख कर दिया। वह ऊपर ज्यादा जाने लगी। हर रोज़ कुछ मीठा बनाती और स्टील का डिब्बा भर उसके लिए लेकर जाती। जिसके बदले उसे रघुबीर के सामने ज़िद करने की छूट मिलती कि उसे शंकर मार्केट की मशहूर चाट खिला लाए। विवेक को न तो घूमने का कोई शौक था, न ही उसका रिक्शा सी.पी जा सकता था। रघुबीर भी उसे टालता रहा था। पर बड़की भी ठहरी जिद्दी…हर हफ्ते उसे याद दिलाती रही थी जब एक दोपहर उसे ले जाना ही पड़ा। वह रघुबीर के साथ आगे की सीट पर बैठी थी, जब उसने एक घुंघराले बालों वाले लड़के को बैंगनी टॉप वाली लड़की को चूमते देखा। होठों पर। अलमस्त। घूरती आंखों से बेखबर। बिलकुल शाहरूख की तरह। जैसे वह चाहती थी। बड़की उनसे नज़र नहीं हटा पाई। उसने ऑटो चलाते रघुबीर का चेहरा भी उस तरफ़ घुमा दिया। एक क्षण के लिए रघुबीर ने देखा, फिर नज़रें फेरनी चाहीं, पर हाथ लड़खड़ा गए। एक बाइक वाले से टक्कर होते-होते बची। बड़की ठहाका मारकर हंसी, रघुबीर उस हंसी में धंस जाना चाहता था।

उस शाम उसका शरीर गर्म तवा था जिस पर इच्छाएं लाल मिर्च की तरह तिड़क रही थीं। विवेक उसे कितनी बार छू चुका, कितना प्रेम कर चुका। बार-बार सोचती पराए आदमी को तो आवारा औरतें छूती हैं। तब क्या रघुबीर के साथ घूमते-घूमते वह आवारा हो गई है? क्या वह विवेक को जगाकर कहे कि उसका मन है…नहीं…विवेक आंखें बड़ी कर उसे घूरेगा…दांत किटकिटाएगा…फिर उसकी तरफ़ पीठ करके सो जाएगा। विवेक का मन तभी होता है जब अगले दिन स्कूल की छुट्टी हो। उसे तो इसी बात पर खुश हो जाना चाहिए कि वह समय का इतना पाबंद है कि बच्चों को स्कूल छोड़ने में ज़रा भी देर बर्दाश्त नहीं करता।

पर वह खुश हुई नहीं। देर तक लेटी रही। सपने में वह और रघु और काली गाड़ी में बैठे थे…दोनों तरफ़ शाहरुख की फिल्म की तरह सरसों के लहलहाते पीले फूल… खुली छत की गाड़ी…सरसराती हवाएं…भीनी-भीनी गंध…पीछे से गाना बजने लगा… बाजीगर…ओ बाजीगर…तभी रघुबीर ने उसे देर तक कसकर चूमा…उसकी आंखें अचानक खुलीं। दिल मिक्सी की तरह धड़क रहा था। अगले ही क्षण वह जीना चढ़ रही थी।

मंजे पर रघुबीर सो रहा था। उसने मटमैली कमीज़ और काले रंग का निकर पहना हुआ था। वह उसे छूना चाहती थी। उससे सटना चाहती थी। उसे चूमना चाहती थी। पर सोते हुए नहीं। पूरे होश-हवास में। उसे जगाने के लिए उसने अपना हाथ बढ़ाया पर मन की किसी चीत्कार से घबराकर तुरंत हटा लिया। क्या वह आवारा हो चुकी है…अगर रघुबीर ने उसे स्वीकार नहीं किया…वह अपना हाथ उसकी नाक के करीब ले गई। गर्म सांस को अपनी मुट्ठी में बंद कर लिया। मुट्ठी को अपनी छाती के बीच कसकर दबाने लगी।

रघुबीर की आंख खुली। उसने आंखें मिंचमिचाकर बड़की को अपने चेहरे पर झुके हुए देखा। उसे कुछ समझ नहीं आया। तब तक बड़की उसे चूम चुकी थी।

रघुबीर ने उसे चूमा। मंजे से चीं-चीं-चीं आवाज़ें होने लगीं। जीवन में पहली बार उसकी आंखें पूरी-की-पूरी खुली थीं। रघुबीर की पुतलियों में वह अपने आपको उस स्थिति में देख रही थी। बिना किसी शर्म के। पहली बार।

अंत में दोनों हांफ रहे थे। सब फिर से शांत हो गया। पर बड़की हांफती रही। उसने वही सपना दोबारा देखा। इस बार उस में विवेक भी था। काला कोट और चश्मा पहने। विलन की शक्ल में। वो अपनी लाल गाड़ी में उनका पीछा कर रहा था। उसके हाथ में बंदूक थी।  रघुबीर की काली गाड़ी से टकराता। लेकिन रघुबीर फिर भी जीत जाता। उसे कितनी आज़ादी महसूस होती…पर फिर सुबह हो जाती। और वो पूरा दिन रात का इंतजार करती रहती।

बड़की ने विवेक को कांच के दरवाजे से अंदर आते देखा। वह अचानक कांप गई। विवेक उसके पास तुरंत दौड़ता हुआ आया।

“क्या हुआ? क्या हुआ?” वह बड़की के हाथ अपने दोनों हाथों में लेकर मसलने लगा।

“बहुत कुछ…” बड़की फिर उबकाई लेने लगी।

बड़की को स्कैन के लिए बुलाया गया। अंदर अंधेरा था। विवेक उसकी आंखों से ओझल हो गया। स्क्रीन की रोशनी में डॉक्टर की आकृति बमुश्किल दिख पा रही थी। अंधेरे में उसे पनाह मिली। जिस तरह उसकी गृहस्थी अंधेरे में समा गई, वह खुद क्यों उस अंधेरे में बिला नहीं सकती?

उस ऑटो के चक्कर में…उस रघु के चक्कर में…उसने सब कुछ खो दिया। अब भला क्यों विवेक उसकी बात सुनेगा…उसकी ज़िद पूरी करेगा…उसे साड़ी, झुमके, पायल लाकर देगा…वह तो यह भी नहीं जानती कि अब उसे घर में रहने देगा भी नहीं…

क्या वह डॉक्टर को नहीं कह सकती कि जांच में सबकुछ ठीक बता दें। तब सब कुछ बच जाएगा। क्या सच में? कभी भी विवेक के शक की चिंगारी बलबला उठेगी और फिर उसका खेत ख़ाक। कब तक वो शक की परछाईं तले जीएगी?

“जल्दी लेटो…इतना टाइम नहीं है…कपड़े ऊपर करो…” गंजा डॉक्टर तुरंत गरजा।

हड़बड़ी के कारण बड़की के पैर लड़खड़ा गए। तभी गार्ड वह नीला टोकन लेकर हाज़िर हुआ।

“इस मरीज़ का है?”

जैसे ही गार्ड ने हां में गर्दन हिलाई, रुपयों से सिंकी डॉक्टर की जेब ने उनकी आवाज़ के ठंडेपन को तुरंत सोख लिया। “आराम से बेटा…गिर मत जाना…पेट पर थोड़ी सी जैली लगाएंगे…थोड़ा ठंडा लगेगा…”

बड़की अपना कुर्ता ऊपर कर चुपचाप लेटी रही। उसे  चमचमाती बिछिया दिखती रही। उसे समझ ही नहीं आता उसके साथ क्या हो जाता है। जैसे ही रघुबीर को देखती उसका अपने पर वश नहीं रहता। उसने सपने में देखा कि सी. पी. में बैठा रघुबीर उसे बिछिया पहना रहा है। उनके चारों ओर लोग घेरा बनाकर तालियां बजा रहे हैं। इतने दिनों से ना-नुकुर करता रघुबीर उसे अपनी गोद में उठाकर सतरंगी परों के पास लेकर जाता है और मन भरकर हर एंगल से उसकी तस्वीर खींचता है। सपना टूट गया। पर हमेशा की तरह कुछ उसे कुछ याद रहा, कुछ उसने खुद जोड़कर पूरा कर लिया। दिनभर बत्तीसी दिखाता रघु का चेहरा सामने आता रहा। उसने अपनी जींस को चार बार इस्तरी किया। फिर उसके दिमाग में आया जब रघुबीर उसे बिछिया देगा तब उसे भी तो बदले में कुछ देना होगा। उसने सारिका भाभी से बिल्कुल शाहरूख जैसा वॉलेट मंगवाया। अपनी एक महीने की तनख्वाह से। चमड़े के काले पर्स को गाल से मसलते हुए, जिस पर ‘वी’ बना हुआ था, उसे ऑटो की पीली रेक्सीन की मुलायमियत याद आई। उसने रघुबीर को पर्स दिया तब वह कितना खुश था। फिर उसने आंखें बंद कर हाथ आगे कर दिया थे। उसके कानों में ‘ऐ काश के हम’ बजने लगा। गाल गुलाबी हो गए। लाओ मेरी बिछिया उसने कहा था, पहले लाड़ से, फिर हक से, फिर नाराजगी से। तब जाकर फूटा था वह, ‘बिछिया का क्या करोगी…एक है तो…सो जाओ’। रघुबीर यकायक विवेक हो गया था। वो कितने दिनों तक इंतजार करती रही। सारिका भाभी भी हर रोज़ पूछना नहीं भूलती। उनकी आवाज़ में उसके लिए उपहास होता। एक दिन काम पर देर से क्या पहुंची, तुनक कर कहने लगीं—जिनके घरों में रोटियों के लाले हों, उन्हें प्यार जैसे महंगे फितूर नहीं पालने चाहिए। वह खून का घूंट पीकर रह गई। उसी दिन घर लौटकर उसने बक्से से शादी की बिछिया ढूंढ़ निकाली और नींबू और मीठा सोडा मिलाकर रगड़-रगड़ कर चमका ली।

तुरंत उसने अपने पेट पर कुछ ठंडा महसूस किया। फिर वह ठंडा, चिपचिपा पदार्थ उसके पेट के निचले भाग में फैल गया। वह स्क्रीन की तरफ़ देखने लगी। कैसे फिल्मों में दिखाते है बनते हुआ बच्चे का चित्र। उसके दिल की धकधक। वह कितना चाहती थी कि स्क्रीन पर वैसा ही कुछ दिखे। रघुबीर का बच्चा जो वह अपनी कोख में पलता हुआ देखना चाहती थी। वह बच्चा जिसे अपनी कोख में रखकर उसे लगता जैसे वह धरती पर अहसान कर रही है। जैसे वह भी कुछ है—अपने शरीर और शादी से ज्यादा।

डॉक्टर ने उसके पेट पर एक टिशू रख दिया। वह चिपचिपी जैली पोंछने लगी। डॉक्टर ने जैसे ही अगले मरीज़ की आवाज़ दी, विवेक उनकी तरफ़ ऐसे लपका जैसे चार्ज करने के बाद पहली बार चलाया रिक्शा।

“डॉक्टर साहब क्या दिक्कत है?”

“कुछ चिपके टुकड़े हैं…”

“कैसे टुकड़े?”

“वो डॉक्टर से पूछिए…वो बैटर तरह से समझा पाएंगे।”

“कहीं कोई घबराने की बात तो नहीं है न, डॉक्टर साहब…”

बड़की विवेक की आवाज़ में बढ़ता संशय भांप गई। उसने जांचने के लिए अपना हाथ बढ़ाया। नजरंदाज़ कर विवेक आगे बढ़ने लगा जब दरवाज़े वाले गार्ड ने उसे ऐसा घूरा जैसे उसके शरीर में छेद कर देगा। उसने अनमने होकर बड़की का हाथ पकड़ लिया जैसे लोहे की गर्म कड़छी।

हस्पताल की मेन बिल्डिंग की तरफ जाते हुए विवेक लंबे-लंबे डग भर रहा था। बड़की ने पहले तेज़ चलने की कोशिश की थी, पर ठिगनी कद की वह, उसके कदम कहां विवेक जितने लंबे हो सकते थे।

सामने लाल बत्ती हो चुकी थी। उनके सामने खूब सारे रिक्शे रुके हुए थे। लाल-हरे-नीले। सवारियों से लदे। दोनों ने देखा किस तरह ऑटो से रूपए मांगने के बाद लाल सूट में वह किन्नर रिक्शे पर रुका तक नहीं। उल्टा रिक्शेवाले को देखकर मुंह बिचका लिया। विवेक एकदम भड़का, “अगर यह बच्चा हुआ…मेरा तुझसे कुछ लेना-देना नहीं साली?

बड़की सहम गई। मन हुआ क्यों नहीं उसे बता देती इतना शक, समय और पैसा खराब करने की कोई जरूरत नहीं। सच कहती कि उसके पेट में रघु का बच्चा था जो अब मर चुका है। अब उसका शरीर पहले जैसे ही हो चुका है। कुछ दिनों में वह मन को मार ही देगी और पूरी तरह पहले जैसी हो जाएगी—उसके हुक्म की चाबी पर चलने वाली गुड़िया। क्या वो दोनों बीच के इन छह महीनों की याददाश्त को भूलने के हंसिए से काट सकते हैं?

पर उससे होगा क्या। उसे जो हल्की-सी उम्मीद है कि विवेक रघु से इंच-भर बेहतर आदमी है, वह भी कपूर की तरह उड़ जाएगी। आदमी एक मिनट के लिए अपने बाप का नाम भूल जाए, पर अपनी पत्नी की आंख में दूसरे आदमी के लिए प्यार का छींटा तक भी बर्दाश्त नहीं कर पाता। जिस राम का नाम जपता फिरता है, उसने तक तो अपनी उस बीवी शक किया था जिसे दूसरा आदमी अगवा करके ले गया था। फिर वह तो अपनी मर्जी से…

उसी के हाथ से क्या चल पायेगा भूलने का वह हंसिया? वह क्यों भूले वह छह महीने?। रघु ने उससे प्यार नहीं किया। उसे शरीर समझा। समझा तो समझा। पर उससे उसके प्यार पर तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता। रघु से प्यार ने उसे हिम्मत दी कि उसने विवेक से बिना पूछे एक महीने की तनख्वाह खर्च कर दी। रघु से प्यार ने उसे हिम्मत दी की उसने कॉपर-टी का फंसा हुआ धागा निकाल फेंका। रघु से प्यार ने उसे हिम्मत दी कि वह सपने देख पाई…वो भी शाहरुख के।

रघु उसके भीतर आता था तो जैसे आत्मा की तरह समा जाता था, उसे अब आत्मा का मूर्त रूप चाहिए था। उसे उसका बच्चा चाहिए था। इसी आत्मा से वह दिन-रात बतियाती थी। रोटी पकाती तो लगता वह देख रहा है, इसरार कर रहा है कि यह तो मेरी है, किसी और को क्यों दे रही हो? बर्तन घिसते हुए लगता वह साबुन-पानी से खुरदुरे हुए उसके हाथों को सहला रहा है। ऐसे ही तो सारिका भाभी ने भांप लिया था, ‘अबे किससे इश्क करने लगी है?’ उन्होंने एक दिन पूछ ही लिया था और वह शर्मा कर अवाक! नहीं तो उनको कभी नहीं बताती। जब सारिका भाभी तक समझ गईं तब विवेक को क्यों समझ नहीं आया? क्यों उसे इस पागलपन से नहीं बचाया जबकि उन्होंने तो किसी भी हालत में एक-दूसरे का हाथ न छोड़ने की कसमें खाई थीं। कभी पूछा तक भी नहीं कि हर वक्त ऑटो के लिए  तंग करने वाली इतना खुश क्यों रहने लगी है? जब वह डूब रही थी, तब विवेक कहां था, उसका वह हाथ कहां था?

उसे लगा था बच्चे की बात सुनकर रघु को दुख होगा। कितना दुख कि वह विवेक को छोड़ नहीं रही। वह कहेगा कोई नहीं, मैं दुख का घूंट पी लूंगा, आसपास रहूंगा, तुझे देखूंगा, अपने बच्चे को देखूंगा तो किसी तरह जी लूंगा। लेकिन हुआ क्या था? जब उसने रघु की बड़ी हथेली को अपने पेट पर रखकर बताया था कि मेरे हो गए हो, उसकी आंखों में खून तैर गया था। उसने अपना हाथ खींचा था और गर्दन पकड़ कर चिंघाड़ा था, “क्या कहा…बच्चा…तेरे तो कॉपर-टी लगी थी…ये बच्चा मेरा नहीं है।”

“ये बच्चा तुम्हारा ही है।”

“जिन रंडुओं के साथ सोती फिरती है उसमें किसी का होगा छिनाल, ढंग से सोच ले…”

हकीकत ने झटका दिया था उसे। बिलकुल वैसे ही जैसे रघु ने बिस्तर से उसे धक्का दिया था और वह धम्म से ज़मीन पर जा गिरी थी। अबकी बार गरम तवे पर हाथ पड़ गया था। कितना सोचा था उसने रघु का यह हिस्सा पाने के लिये, कितनी तरकीबें लगाई थीं उसका कंडोम इस्तेमाल करने की आदत छुड़वाने के लिए। उसका पूरा तन छू लिया, कैसे अपने अंदर उस हिस्से का स्पर्श महसूस न करे।

तभी उसे तरकीब सूझी थी। उसने रघुबीर को कॉपर-टी वाला किस्सा सुनाया था। यह भी बताया कि किस तरह विवेक ने उससे पूछना तक जरूरी नहीं समझा। हमेशा मीठा-मीठा दर्द बना रहता। कभी भी खून बहने लगता। कितना जकड़ा जकड़ा महसूस करती थी वह…कितनी बार विवेक से कॉपर-टी निकलवाने की मनुहार की पर उसने कभी एक नहीं सुनी।

अंदर से खुश रघुबीर बाहर से हैरानी का मुलम्मा ओढ़कर बोला, “मेरे जैसा पति तो कभी ऐसा सोच भी नहीं सकता।” यह हैरानी का नाटक उसके जी को हरिया गया।

“सच में?”

“और क्या…वो क्या खुद कंडोम नहीं लगा सकता?”

“वही तो!” बड़की वह मकड़ी थी जो अपने जाल में खुद फंस गई।

कितने सालों तक रिरियाती रही थी पर कभी भी खुद धागा खींचने की हिम्मत नहीं जुटा पाई थी। हमेशा डरती रही थी कि कहीं कोई अंदर कोई ज़ख्म हो गया…धागा बाहर आने की बजाए और अंदर चला गया और बच्चेदानी फट गई तो लेने के देने नहीं पड़ जाएंगे? पर उस दिन उसके अंदर हिम्मत का एक सोता फूटा था।

उसने अपनी टांगों के नीचे तकिया रख उस धागे को खोज निकाला था जो रघु और उसके बीच लक्ष्मणरेखा था। वह धागा हाथ से बार-बार फिसलता रहा था जैसे राम उसे रोक रहे हों। पर राम को कब समझ आने वाली थी सच्चे प्रेम की ताकत? तीसरी बार में कुछ उचक कर निकला। महसूस हुआ जैसे अंदर कुछ छिल गया हो और खून में लिथड़ा एक नुकीला-सा ‘टी’ उसके हाथ में आ गया था। दर्द की लहर के बीच मन किया था कि सारी दुनिया को चीख चीख कर बता दे कि वह रघु से प्यार करती है…सच्चा प्यार…जिसके लिए वह कुछ भी कर-गुज़र सकती है। वह पूरा दिन पड़ी बेहोश सोती रही। जब उठी तब तक शाम हो चुकी थी। एक ठंडी हवा के झोंके ने उसके गालों को छुआ। और दर्द…छूमन्तर।

उसने रघुबीर को कॉपर-टी निकालने की बात नहीं बताई। बिल्कुल वैसे जैसे रघुबीर ने भी उसे कंडोम न पहनने की बात नहीं बताई। बड़की समझ गई थी। तुरंत पूछने लगी, “आज…क्यों?”

“तुम ही तो चाहती थीं…”

“तुम्हें याद है?” रघुबीर की पुतली में उसने अपनी छवि देखी। पहली बार वह इतनी खुश थी कि उसे खुद ही विश्वास नहीं हुआ।

विवेक ने लिफ्ट का बटन दबा दिया। बड़की थोड़ी दूर थी। दरवाजा खुला और विवेक अंदर चला गया। बड़की लिफ़्ट की तरफ़ तेजी से बढ़ी। दरवाज़ा बंद हो रहा था। विवेक ने हाथ से नहीं रोका। वह किसी तरह अंदर दाखिल तो हुई पर दोनों दरवाजों के बीच फंस गई।

विवेक ने फटी जींस वाले डॉक्टर के सामने रिपोर्ट हिलाते हुए कहा, “सर अल्ट्रासोंड करवा लाए।”

“हां…हां…नर्स जी ज़रा इनके पेशेंट को अंदर ले लो। नीचे से चेक करेंगे।”

“आप चेक करोगे?”

“कोई दिक्कत हो तो बाहर बहुत सारे प्राइवेट हस्पताल हैं।”

“मैं तो बस…” तब तक डॉक्टर अंदर जा चुका था।

अंदर लेबर रूम में बड़ी-बड़ी लाइटें लगी थीं। पीली रोशनी वाली गोल लाइटें। सामने तीन टेबल थीं। वह सबसे बाईं तरफ़ वाली टेबल पर जाकर लेट गई। सीधी तरफ़ की टेबल पर एक बाइस-तेईस साल की लड़की थी। उसने तोते रंग का गाउन पहना हुआ था। दोनों जांघों पर त्वचा खिंचने के सफेद निशान थे। अचानक दर्द की लहर आई और वह ज़ोर से चिल्लाई। मटमैले रंग की कमीज़ पहने सामने खड़ा गंजा आदमी दहाड़ा, “तेरे दिमाग में नहीं घुसता…ज़ोर नीचे लगा…मुंह से नहीं…”

बड़की को समझ नहीं आया कि वह गंजा आदमी कौन था और वहां क्या कर रहा था। बीच वाली पर वही डॉक्टर खड़ा था। बालों में नीली टोपी लगाए। साथ ही गाढ़ी लाल लिपस्टिक लगाए बोतल पकड़े नर्स खड़ी थी। उस पर जो औरत थी इतनी पतली थी कि उसके कूल्हे की पूरी हड्डी दिखाई दे रही थी। रास्ता खुल रहा था। बंद हो रहा था। बच्चे का सिर दिखने लगा था। जैसे ही दर्द आता और वह औरत ज़ोर लगाती, सभी चिल्लाने लगते—लगा लगा लगा। पर ज़ोर पूरा न पड़ता और रास्ता बंद हो जाता।

नर्स ने उसके पेट पर दो-तीन थप्पड़ रसीद किए। “तीन तीन बच्चे कर लिए…अब भी ज़ोर नहीं लगाना आता?” बड़की के मुंह से सिसकारी निकली।

तभी सामने खड़ी नर्स जिसके हाथ में टैटू था तपाक से बोली, “चौथा बच्चा…हैं…तेरा दिमाग खराब है।”

डॉक्टर ने जोड़ा, “तीन लड़कियां हैं सिस्टर जी।”

“अगर ये भी लड़की हो गई तो क्या करेगी?”

तभी उसे अचानक दर्द की लहर आई। बच्चे का सिर डॉक्टर के हाथ में आने लगा। डॉक्टर ने कैंची से काटकर रास्ता बड़ा कर दिया। लगा…लगा… ज़ोर लगा…सब चिल्लाने लगे। बच्चे के रोने की आवाज़ से बड़की को लगा कि लड़का ही हुआ है। बड़की ने सुकून महसूस किया। डॉक्टर ने एक हाथ से अवरनाल को कैंची में लपेट दिया। वह दूसरे हाथ से पेट दबा रहा था। लाल लिपस्टिक ने आंखों के इशारे से सबको करीब बुलाया। सब ने रोते हुए बच्चे को गंभीरता से देखा। सब दहाड़ मारकर हंसने लगे।

लाल लिपस्टिक ने बच्चे की टांगों को पकड़ उल्टा कर औरत को जननांग दिखाया। “देख…ध्यान से देख…बोल क्या हुआ है?”

“लड़की…”

सब फिर ज़ोर से हंसे। खीं-खीं-खीं। हा-हा-हा। औरत की पनीली आंखें तेज़ रोशनी में भी किसी को नहीं दिखी। बड़की के अलावा। पर केवल तब जब वह इस बात पर खुश हो चुकी थी कि वह उस औरत की जगह नहीं है…विवेक उसे औरत मानता है, अपनी पत्नी मानता है, बच्चे पैदा करने की फैक्ट्री भर नहीं। विवेक उसके साथ खड़ा है, टापू की तरह, बिना डगमगाए।

तब क्यों वह उसे वैसे प्रेम नहीं कर पा रही, उसके प्रेम के प्रति कृतज्ञ नहीं हो पा रही? क्यों सच की कील गोदकर उसे विश्वासघात की बिल्कुल उसी चुभन से भर देना चाहती है जिससे वह खुद जूझ रही है? क्या विवेक के प्यार में कोई कमी है? पर ऐसा प्यार ही तो हर पति-पत्नी के बीच होता है। बल्कि विवेक तो दूसरे कितने पतियों से कितना अच्छा है। इससे ज्यादा वह क्या चाहती है? क्या वह खुद जानती है? या प्रेम केवल वह गंध है जिसे सूंघा जा सकता है पर जिसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।

तभी गाढ़ी लिपस्टिक वाली नर्स की पतली सींक जैसी भेदती आवाज़ उसके कानों में पड़ी, “जल्दी नीचे कर…डॉक्टर साहब क्या तेरे लिए खाली बैठे हैं?”

हड़बड़ी में बड़की के हाथ कांपने लगे। इससे पहले की वह कुछ कर पाती नर्स उसके कपड़े खुद खोल चुकी थी और डॉक्टर की सख्त हथेली उसके शरीर में थी। जैसे ही पूरा हाथ अंदर गया, उसके शरीर में दर्द का सोता फूटा। उसकी चिंघाड़ में वहशीपन था।

डॉक्टर तुरंत गरजा, “अबे चुप…अभी तो कुछ किया भी नहीं।”

बीच में बैठी औरत का रास्ता जूड़े वाली डॉक्टर सिल रही थी।

“बेटा, कमर नीचे लगा और टांगें चौड़ी कर ले।” डॉक्टर कह रही थी।

लिपस्टिक वाली नर्स तपाक से मुंह उधर करके बोली, “जैसे पति के सामने करती है…”

“आह…आह…मैडम छोड़ दो…मैडम माफ़ कर दो।”

“मुझे मज़ा नहीं आ रहा…शांति से करवा ले, नहीं तो ऐसे ही खुला छोड़ दूंगी…फिर तुम्हारा पति पास तक नहीं आएगा…”

“अब पति से मिलकर क्या करना है?”

गूढ़ी लिपस्टिक वाली नर्स ने तुरंत जोड़ा, “सारा काम फ्री में हो रहा है न तभी इतना मुंह खुल रहा है।”

डॉक्टर ने खून से सना ग्लव उसके शरीर से बाहर निकाला। निश्चेष्ट पड़ी उसे रह-रहकर रघु का ख़्याल आता रहा। कैसे वह उसके प्यार में इतनी डूब गई कि अपने शरीर के साथ हिंसा के लिए तैयार हो गई। पर क्या जब तक वह बच्चा पेट में था, उसके लिए हिंसा के वही मायने थे? वो जरूरी हिंसा थी, हिंसा जिसके अंत में कुछ उजला और स्वप्निल पाने को था, हिंसा जैसे सत्य खोजते ऋषि शरीर को गल जाने देते होंगे।

पर हिंसा वैसी नहीं जैसी सीता ने धरती में समाकर की—पिता शिव-धनुष के कारण, अयोध्या सम्राट अकुलशीलता के कारण, पति धोबी के कारण उसे पींग मारते रहे। पर सीता हमेशा दूध की तरह घुलती रहीं जैसे रघु से मिलने से पहले वह हर स्थिति को अपना भाग्य मानकर स्वीकार कर लेती थी। यह नकार…अपने मन के करतब सुनने की इच्छा…कुछ भी कर गुज़रने की हिम्मत…क्या यह सब रघु से प्यार के कारण हुआ है?

 10.

विवेक ओ.पी.डी. के बाहर बैठा था। फ्री इलाज का पोस्टर सामने की दीवार पर चिपका था। वह रामदरबार को घूर रहा था। औरतें दर्द से कराह रही थीं। आदमी उन्हें पुचकार रहे थे। विवेक के मन में संशय का तिरपाल खड़-खड़ बज रहा था। वो कैसा टुकड़ा था? जिस तरह डॉक्टर ने उन्हें टालने की कोशिश की थी, क्या ये टुकड़ा कोई और गांठ तो नहीं…कहीं कैंसर? नहीं…नहीं…नहीं…ऐसा नहीं हो सकता। तब क्या फटी जींस वाला डॉक्टर सही कह रहा था…क्या बड़की के पेट में सचमुच बच्चा था…पर किसका? रिंकू के जन्म के बाद से वह कितना चौकस हो गया था…पांच सालों में दस अंगुलियों से ज्यादा संबध नहीं बनाया (वो भी सिर्फ़ बड़की की खातिर)…बिना कंडोम तो बिलकुल नहीं…और कॉपर-टी…क्या उसने निकलवा दी है?

रघुबीर नाम की ड्रिल उसके सभी ख़्यालों को भुरभुरा जाती। जिस तरह बड़की रघुबीर को देखकर हंसती थी जैसे ऑटो के शीशे पर पड़ती धूप, क्या वह दोस्ती से कुछ बढ़कर था? पर उसने तो अच्छे पति के सारे फर्ज़ निभाए थे। हर ज़रूरत को पर्याप्त मात्रा में पूरा किया था। रघुबीर के पास उससे बढ़कर है ही क्या—दो इंच ज्यादा लंबाई, मासपेशियों में फुलावट, और एक ऑटो। लेकिन उसके पास—शर्मा, जनेऊ और रामदरबार।

क्या बड़की उस लक्ष्मणरेखा को पार कर सकती है? नहीं…नहीं…नहीं कर सकती। उसके अंदर इतनी हिम्मत ही नहीं। अंधेरे से डरती है। छिपकली से डरती है। कोई ज़रा भी तेज़ आवाज़ में बोल दे तो कैसे सहम जाती है। वो तो रघुबीर जैसे हरामी लड़के बाज़ नहीं आते। सरकार सारा कुछ फ्री दे रही है। रोटियों के लाले है नहीं। अब हमारी औरतों पर ही तो नज़र डालेंगे। कितना बेवकूफ था कि सोचता था सब इंसान हैं इसलिए किसी तरह का भेदभाव नहीं करना चाहिए। तभी तो उसे घर के ऊपर रहने दिए। मकान मालिक से कोई शिकायत नहीं की। पर इन्हें देखो…उंगली क्या पकड़ी इसने तो पोंचा ही पकड़ लिया…

“विवेक कुमार कौन है?” टैटू वाली नर्स उससे मुखातिब हुई।

“जी…जी…” अचानक से नाम सुनने पर वह हकलाया।

“यहां अंगूठा लगाओ!” नर्स ने स्टैंपपैड और कुछ काग़ज़ आगे बढ़ाते हुए कहा।

“मैं साइन करूंगा।” उसने गर्व से कहा, “वैसे ये है क्या?”

“जब साइन करेगा तो पढ़ भी खुद ले।” नर्स ने झुंझलाकर कहा।

फिर जब थोड़ी देर वह वैसे ही खड़ा रहा, “इतना टाइम नहीं है… खून ज्यादा बह गया है…सफ़ाई करनी पड़ेगी…”

“कैसी सफ़ाई…मुझे डॉक्टर साहब से मिलना है…”

सुबह वाला सफ़ाई कर्मचारी भी वहां पहुंच गया। “क्या हुआ सिस्टर जी?”

“पहले तो ध्यान रखते नहीं…फिर उल्टी-सीधी गोली खाकर हमारे सिर पर नाचते हैं…” नर्स भुनभुनाई।

“और क्या?” सफाई कर्मचारी ने हां में हां मिलाई।

“तुम चुप रहो।” विवेक ने सफाई कर्मचारी को अंगुली दिखाई।

“अबे चुप तू रह…तेरी मरीज़ हाथ नहीं लगवा रही है। बेहोश करके करना पड़ेगा।”

“ठीक है।”

“अरे ठीक का मैं अचार डालूं…तीन हज़ार लगेगें…”

“हर चीज़ फ्री में नहीं मिलती।” सफाई कर्मचारी बोला।

“दर्द होए तो होए…मेरे पास इतने पैसे नहीं है।” नर्स जाने लगी तो विवेक के मन में सवाल उठा की क्या उसने सही किया है। उसने रामदरबार को देखा और उसे विश्वास हुआ कि उसने सही किया है।

 
      

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